अर्जुनः हे केशव! आप अपनी भगवदगीता तनिक झाड़िए-पोछिए तो। लगता है कहीं एकाध श्लोक रह गया था। आज पितामह का वध करने का बहुत अफसोस हो रहा है हमको।
श्रीकृष्णः अरे नहीं! अर्जुन, रह-वह नहीं गया था, हमने जानबूझकर नहीं बताया था। अब सही समय है सुन लो-
अभियोजनशीलस्य नित्यम् वृद्धोपसेविनः
चत्वारि तस्य वर्द्धंते ट्यूबलाइट दर्शकमंडले।।
भावार्थः हे पार्थ! 'अभियोजनशील' लोग जब बुड्ढों की सेवा करते हैं तब उनके मार्गदर्शक मंडल को चार ट्यूबलाइट की प्राप्ति होती है।
अर्जुनः तब काहे नहीं बताया था?
श्रीकृष्णः ताकि तुम पितामह को मार्गदर्शक मंडल में डालकर उनका वध करने से मुकर न जाओ, पार्थ!
श्रीकृष्ण:- अर्जुन! तुम मुझे वहाँ ढूंढ रहे हो और मैं तुम्हारा यहाँ इंतज़ार कर रहा हूँ, हईं😝
अर्जुन:- हे योगेश्वर! आप भी कभी कभी राहुल गांधी जैसा बर्ताव करने लगते हैं, दिखते ही नहीं! फिर तो आपको ढूंढने से ज्यादा मुश्किल काम और क्या है इस दुनिया में?
श्रीकृष्ण: हाहाहा, नहीं अर्जुन! मुझे ढूंढना अब मुश्किल नहीं रहा। 'अच्छे दिनों' में मुझे पाने का रास्ता बेहद आसान हो गया है!
अर्जुन - वो कैसे सुरेश??
श्रीकृष्ण: सुनों-
बीआरडी वा दंगया, रेलस्यार्जुन यात्रा:।
सम्प्रत्येतत् मार्गया, प्राणिनाम्प्राप्नोम्यहम्।।
भावार्थ: हे अर्जुन! बीआरडी मेडिकल कॉलेज में भर्ती होकर, दंगों के रास्ते या फिर रेल यात्रा करके। आजकल मैं इन्हीं मार्गों से लोगों को आसानी से प्राप्त हो जाता हूँ।
बूझे?
अर्जुन-: लो, चिपका दिया एक और फोटो। काम-धाम है नहीं, अब बताइये, क्या मतलब है ई फोटो का?
श्रीकृष्ण:- ..मतलब है पार्थ! और मतलब ये है कि
टंकणेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न ज्ञानया।
सर्वैच्छन्ति जयन्तैव न यशवंत समार्जुन:।।
भावार्थ:- अर्थात्, ज्ञान से कुछ नहीं होता, टंकण आना चाहिए या फिर टंकणकार वाले गुण होने चाहिए। जैसे जयंत सिन्हा ने तुरंत बाप के ख़िलाफ़ आर्टिकल चेंप दिया एडिटर साहब के पलक झपकते। ज्ञान बांटने वाले यशवंत सिन्हा थोड़े पसंद हैं किसी को। का समझे?
श्रीकृष्ण: हा हा हा हा! तुम तो 'श्री श्री रविशंकर' की तरह ज्ञान देने लगे, गांडीवधर! तुमको पता नहीं है का, कि अब सांप-वांप का खतरा कुछौ नहीं है। उससे भी खतरनाक और क्रूर प्रजाति है हिन्दोस्तान में!!
अर्जुन: हे जगसत्ता के अधिपति! दुनिया में ऐसी कौन सी प्रजाति है, जो हम नहीं जानते!
श्रीकृष्ण: हे पार्थ! तुम सब कुछ जान जाते, तो 'कपिल मिश्रा' न बन जाते!! सुनों-
"सर्पः क्रूरः, सत्ता क्रूरः, सर्पात्क्रूरतरः सत्ता।।
मंत्रौषधवशः सर्पः, सत्ता केन निवार्यते।।"
भावार्थ: 'सांप' और 'सत्ता' दोनों क्रूर होते हैं, बल्कि 'सांप' से भी क्रूर 'सत्ता' होती है। इसलिए कि मन्त्र या फिर औषधियों से 'सांप' के विष को फिर भी नियंत्रित किया जा सकता है लेकिन सत्ता के ज़हर का निवारण कैसे करोगे? बताओ!😐
अर्जुन: हे योगेश्वर! क्या मामला है! कुछ समझी में नहीं आ रहा। आखिर कौन सा अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीख लिए हैं जो अचार्यश्रेष्ठ द्रोण हमको नहीं सिखाए, और ई सब सीख-सीख मारे हैं सबकी बोलती बंद कर दिए हैं। इधर हम ज़िन्दगी भर शकुनि की बोलती बंद नहीं करवा पाये, वहीं ई लोग तीनै साल में सारे 'oddवाणी' का मुंहवे बन्द कर दिए हैं!! क्या रहस्य है, महाराज!
श्रीकृष्ण: सरल सा कांसेप्ट है पार्थ! भारतवर्ष में पिछले कई दशकों से इसी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग दूसरे पक्ष के लोगों को 'मनमोहन सिंह' करने के लिए प्रयुक्त होता है। सुनो! आज के इस युग में जीत उन्हीं के पाले में जाती है जिनके पास यह अस्त्र होता है-
"तेनैवजया: प्राप्यन्ति, येषां पक्षे सत्तार्जुनः।।
यतस्सत्तास्ततो 'सिबिआई', यतो 'सिबिआई' ततो जय:।।"
भावार्थ: हे अर्जुन! (आजकल) 'जीत' उन्हें ही मिलती है जिसके पक्ष में 'सत्ता' खड़ी होती है। (क्योंकि) जहां 'सत्ता' है वहां 'सीबीआई' है और जहां 'सीबीआई' है वहीं 'जीत' है।
का समझे!😜
अर्जुनः- नारायण! कांग्रेस पार्टी का यह 'जनेऊ-दांव' क्या है? कुछ 'टिप्पणियाएंगे' आप भी?
श्रीकृष्ण:- नहीं, अर्जुन! बहुत खुलकर क्या बोलें अब! संकेत ही समझो बस, कि
"शौचादि समये यस्योपयोग: यज्ञोपवीतं परमम् पवित्रम्।"
भावार्थ:- ब्राह्मण लोग जनेऊ पहनते हैं और उसका इस्तेमाल तब भी होता है जब 'पाकिस्तान' जाते हैं।
अर्जुन:- एक बात पूछूं, गोपाल!
श्रीकृष्ण: पूछो, हे धनुर्धरयूथप्रधान अर्जुन! क्या पूछना है?
अर्जुन:- धरती पर सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
श्रीकृष्ण:- हे धनञ्जय ! उस दिन यदि तुमने जल पीने की जल्दबाजी में अपना होश न गंवाया होता और यक्ष प्रश्नों पर बड़े भैया युधिष्ठिर का जवाब सुन लिया होता तो आज ये प्रश्न हमसे न कर रहे होते! फिर भी सुन लो, उन्हीं का उत्तर कोट कर रहा हूँ,
"अहन्यहनि विघ्नानि गच्छन्त्यात्रे सस्पेंड्त्वा।
शेषा: स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम्।।"
भावार्थ:- विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं के हर दिन यहां से अर्थात् संस्थान से सस्पेंड (ट्रांसफर्ड आदि) होकर जाते हुए देखने पर भी बचे हुए लोग (मौन हो) ऐसा सोचते हैं कि उन्हें यहाँ से नहीं जाना पड़ेगा अर्थात वो यहां पर स्थिर हैं, इससे बड़ा धरती पर आश्चर्य क्या हो सकता है? धनुर्धर!😝
अर्जुन: ये क्या अंधेर है, प्रभु! कभी बरसात मारे, कभी सूखा मारे, कभी अकाल तो कभी ओले मारें। अब ये सरकार भी...
मुझे तो इस देश में जनतंत्र की सांसें चलती दिखाई नहीं देती,केशव!
इन किसानों की यह गति क्यों है, दयानिधि! उनका क्या कसूर है?
श्रीकृष्ण: 'अति' पार्थ 'अति'! मौन की अति, अन्याय सहने की अति, और इस देश की जनता की नासमझी की अति। ये 'अति' की समस्या सामान्य नहीं है सुभद्रापति! इस 'अति' की परिणति बड़ी दुर्गति है, बड़ा भयंकर है!
अतिदानाद्धत: कर्ण:, अतिलोभात्सुयोधन:।।
अति द्वेषाद्धत: अस्या देशस्य च स्वतंत्रता।।
अति मौनाद्धनिष्यन्ति,जनतंत्रापि धनंजय!
अत: अतिसदानोचिता:,अति सर्वत्र वर्जयेत्।।
भावार्थ: अति से अधिक दान की वजह से कर्ण मारा गया, अति से अधिक लोभ से सुयोधन मारा गया। जब इस देश में (राजाओं का) परस्पर द्वेष अति से अधिक हुआ तब इसकी स्वतंत्रता मारी गई।
हे धनञ्जय! (अगर ऐसा ही रहा तो) 'मौन रहने की अति' एक दिन इस देश का 'जनतंत्र' भी मार देगी। इसलिए अति हमेशा उचित नहीं होती, 'अति' हर जगह वर्जित है।
अर्जुन:- बीच मैदान -ए-जंग में गीता के 18 अध्याय पढ़ाने वाले गुरु प्रणाम स्वीकार करें🙏,
हे केशव! आपने अपने गुरू को विश किया कि नहीं?
श्रीकृष्ण :- हाँ, पार्थ! कर दिया।
अर्जुनः- किसको किया, संदीपन को, गर्ग को या फिर वसिष्ठ को?
श्रीकृष्ण:- विश्वगुरु को, पार्थ! विश्वगुरु को.
अर्जुनः- विश्वगुरू !!😳😳
श्रीकृष्ण:- हा हा हा हा, चौंको मत, सुनो
नमस्तस्यै भूमि पार्थः, या शिक्षति विश्वैकमेव।
तोपया देशभक्तिज्ञानं, अत विश्वगुरूश्च मन्यते।
भावार्थ:- हे पार्थ! इस धरती पर एक भूमि ऐसी भी है जिसने शिक्षा के क्षेत्र में अद्भुत क्रांति की स्थापना की है। वह भूमि सारे संसार में अकेली ऐसी भूमि है जिसने तोप से देशभक्ति सिखाने के विज्ञान का सृजन किया है, और इसीलिए उसे विश्वगुरू माना जाता है। मैं ऐसी भूमि को नमस्कार करता हूँ। तुम भी करो,
अर्जुन:- हे वंशीधर! पिछली बार तो प्र'भाव' कम ही हो गया था। इस बार तो जेएनयूवे पे उसका प्रभाव कम हो गया है। इस बार साहब ई तो नहीं न कह देंगे कि जेएनयू पर आईआईएमसी का प्रभाव बढ़ा है??
श्रीकृष्ण:- भक्क! अइसा बोलकर ऊ दूसरे की मेहनत पर पानी नहीं फेर सकते, अर्जुन! तुमको नहीं पता का, कि ऐसे-ऐसे बछड़े अब हर संस्थान में तैनात हैं?
अर्जुन:- बछड़े?😳
श्रीकृष्ण:- आँख मत फाड़ो, सुनो!
"सर्वे संस्थाना: गावः दोग्धाः संघस्य चालकः।
डीजी वत्सः सुधीः भोक्ता दुग्धं राष्ट्रवाद च॥"
भावार्थ :- अर्जुन! देश के सभी सरकारी संस्थान एक गाय की तरह हैं और 'संगठन' के मालिक इस गाय को दुहने वाले दोग्धा यानि कि ग्वाला हैं। ऐसे ही संस्थान के मालिक बछड़े की तरह हैं, और इस तरह से गाय से 'राष्ट्रवाद' का दूध दुहा जाता है,( जिसकी पहले दही जमाई जाती है और बाद में रायता फैलाया जाता है।)
अर्जुन: आज मूर्खों का दिवस है,नारायण!वैसे तो संसार 'ज्ञानियों' से भरा पड़ा है,लेकिन आज के समय में मूर्ख किसको कहा जा सकता है?
श्रीकृष्ण: वॉव!यू आर अ गुड क्वेश्चन,अर्जुन!ऐसे समय में जब चारों ओर 'फूल ही फूल' नज़र आ रहे हों,तब तुम्हारा ये पूछना कि मूर्ख किसको कहेंगे,आज के दिन के हिसाब से अच्छा सवाल है।😝
सुनों,
"अयं निज: परोवेति, गणनाम् राष्ट्रवादिनः!
मूर्खाणाम् तु कौन्तेय!वसुधैव कुटुम्बकम्।"
भावार्थ: (आज के दौर में) हे कौन्तेय! यह मेरा है,यह तुम्हारा है की गणना 'राष्ट्रवादी' लोगों का पावन कर्तव्य है।उन्हें अपनी संस्कृति ,अपने देश,अपनी परंपरा और अपना अस्तित्व बचाने के लिए ऐसा करना ही पड़ता है।
और हे पार्थ!आज सबसे बड़े मूर्ख वही हैं,जिनके पास 'मेरा-तेरा' का कोई कांसेप्ट नहीं है।इसलिए मूर्खों के लिए 'वसुधा ही परिवार' है,या फिर vice versa!!
बूझे!!😜
श्रीकृष्णः अरे नहीं! अर्जुन, रह-वह नहीं गया था, हमने जानबूझकर नहीं बताया था। अब सही समय है सुन लो-
अभियोजनशीलस्य नित्यम् वृद्धोपसेविनः
चत्वारि तस्य वर्द्धंते ट्यूबलाइट दर्शकमंडले।।
भावार्थः हे पार्थ! 'अभियोजनशील' लोग जब बुड्ढों की सेवा करते हैं तब उनके मार्गदर्शक मंडल को चार ट्यूबलाइट की प्राप्ति होती है।
अर्जुनः तब काहे नहीं बताया था?
श्रीकृष्णः ताकि तुम पितामह को मार्गदर्शक मंडल में डालकर उनका वध करने से मुकर न जाओ, पार्थ!
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श्रीकृष्ण:- अर्जुन! तुम मुझे वहाँ ढूंढ रहे हो और मैं तुम्हारा यहाँ इंतज़ार कर रहा हूँ, हईं😝
अर्जुन:- हे योगेश्वर! आप भी कभी कभी राहुल गांधी जैसा बर्ताव करने लगते हैं, दिखते ही नहीं! फिर तो आपको ढूंढने से ज्यादा मुश्किल काम और क्या है इस दुनिया में?
श्रीकृष्ण: हाहाहा, नहीं अर्जुन! मुझे ढूंढना अब मुश्किल नहीं रहा। 'अच्छे दिनों' में मुझे पाने का रास्ता बेहद आसान हो गया है!
अर्जुन - वो कैसे सुरेश??
श्रीकृष्ण: सुनों-
बीआरडी वा दंगया, रेलस्यार्जुन यात्रा:।
सम्प्रत्येतत् मार्गया, प्राणिनाम्प्राप्नोम्यहम्।।
भावार्थ: हे अर्जुन! बीआरडी मेडिकल कॉलेज में भर्ती होकर, दंगों के रास्ते या फिर रेल यात्रा करके। आजकल मैं इन्हीं मार्गों से लोगों को आसानी से प्राप्त हो जाता हूँ।
बूझे?
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अर्जुन-: लो, चिपका दिया एक और फोटो। काम-धाम है नहीं, अब बताइये, क्या मतलब है ई फोटो का?
श्रीकृष्ण:- ..मतलब है पार्थ! और मतलब ये है कि
टंकणेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न ज्ञानया।
सर्वैच्छन्ति जयन्तैव न यशवंत समार्जुन:।।
भावार्थ:- अर्थात्, ज्ञान से कुछ नहीं होता, टंकण आना चाहिए या फिर टंकणकार वाले गुण होने चाहिए। जैसे जयंत सिन्हा ने तुरंत बाप के ख़िलाफ़ आर्टिकल चेंप दिया एडिटर साहब के पलक झपकते। ज्ञान बांटने वाले यशवंत सिन्हा थोड़े पसंद हैं किसी को। का समझे?
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अर्जुन: 'आस्तीन का सांप' बड़ा खतरनाक होता है न, भुजगशयन! व्यक्ति को इससे बचकर ही रहना चाहिए।।श्रीकृष्ण: हा हा हा हा! तुम तो 'श्री श्री रविशंकर' की तरह ज्ञान देने लगे, गांडीवधर! तुमको पता नहीं है का, कि अब सांप-वांप का खतरा कुछौ नहीं है। उससे भी खतरनाक और क्रूर प्रजाति है हिन्दोस्तान में!!
अर्जुन: हे जगसत्ता के अधिपति! दुनिया में ऐसी कौन सी प्रजाति है, जो हम नहीं जानते!
श्रीकृष्ण: हे पार्थ! तुम सब कुछ जान जाते, तो 'कपिल मिश्रा' न बन जाते!! सुनों-
"सर्पः क्रूरः, सत्ता क्रूरः, सर्पात्क्रूरतरः सत्ता।।
मंत्रौषधवशः सर्पः, सत्ता केन निवार्यते।।"
भावार्थ: 'सांप' और 'सत्ता' दोनों क्रूर होते हैं, बल्कि 'सांप' से भी क्रूर 'सत्ता' होती है। इसलिए कि मन्त्र या फिर औषधियों से 'सांप' के विष को फिर भी नियंत्रित किया जा सकता है लेकिन सत्ता के ज़हर का निवारण कैसे करोगे? बताओ!😐
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अर्जुन: हे योगेश्वर! क्या मामला है! कुछ समझी में नहीं आ रहा। आखिर कौन सा अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीख लिए हैं जो अचार्यश्रेष्ठ द्रोण हमको नहीं सिखाए, और ई सब सीख-सीख मारे हैं सबकी बोलती बंद कर दिए हैं। इधर हम ज़िन्दगी भर शकुनि की बोलती बंद नहीं करवा पाये, वहीं ई लोग तीनै साल में सारे 'oddवाणी' का मुंहवे बन्द कर दिए हैं!! क्या रहस्य है, महाराज!
श्रीकृष्ण: सरल सा कांसेप्ट है पार्थ! भारतवर्ष में पिछले कई दशकों से इसी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग दूसरे पक्ष के लोगों को 'मनमोहन सिंह' करने के लिए प्रयुक्त होता है। सुनो! आज के इस युग में जीत उन्हीं के पाले में जाती है जिनके पास यह अस्त्र होता है-
"तेनैवजया: प्राप्यन्ति, येषां पक्षे सत्तार्जुनः।।
यतस्सत्तास्ततो 'सिबिआई', यतो 'सिबिआई' ततो जय:।।"
भावार्थ: हे अर्जुन! (आजकल) 'जीत' उन्हें ही मिलती है जिसके पक्ष में 'सत्ता' खड़ी होती है। (क्योंकि) जहां 'सत्ता' है वहां 'सीबीआई' है और जहां 'सीबीआई' है वहीं 'जीत' है।
का समझे!😜
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अर्जुनः- नारायण! कांग्रेस पार्टी का यह 'जनेऊ-दांव' क्या है? कुछ 'टिप्पणियाएंगे' आप भी?
श्रीकृष्ण:- नहीं, अर्जुन! बहुत खुलकर क्या बोलें अब! संकेत ही समझो बस, कि
"शौचादि समये यस्योपयोग: यज्ञोपवीतं परमम् पवित्रम्।"
भावार्थ:- ब्राह्मण लोग जनेऊ पहनते हैं और उसका इस्तेमाल तब भी होता है जब 'पाकिस्तान' जाते हैं।
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अर्जुन:- एक बात पूछूं, गोपाल!
श्रीकृष्ण: पूछो, हे धनुर्धरयूथप्रधान अर्जुन! क्या पूछना है?
अर्जुन:- धरती पर सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
श्रीकृष्ण:- हे धनञ्जय ! उस दिन यदि तुमने जल पीने की जल्दबाजी में अपना होश न गंवाया होता और यक्ष प्रश्नों पर बड़े भैया युधिष्ठिर का जवाब सुन लिया होता तो आज ये प्रश्न हमसे न कर रहे होते! फिर भी सुन लो, उन्हीं का उत्तर कोट कर रहा हूँ,
"अहन्यहनि विघ्नानि गच्छन्त्यात्रे सस्पेंड्त्वा।
शेषा: स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम्।।"
भावार्थ:- विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं के हर दिन यहां से अर्थात् संस्थान से सस्पेंड (ट्रांसफर्ड आदि) होकर जाते हुए देखने पर भी बचे हुए लोग (मौन हो) ऐसा सोचते हैं कि उन्हें यहाँ से नहीं जाना पड़ेगा अर्थात वो यहां पर स्थिर हैं, इससे बड़ा धरती पर आश्चर्य क्या हो सकता है? धनुर्धर!😝
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अर्जुन: ये क्या अंधेर है, प्रभु! कभी बरसात मारे, कभी सूखा मारे, कभी अकाल तो कभी ओले मारें। अब ये सरकार भी...
मुझे तो इस देश में जनतंत्र की सांसें चलती दिखाई नहीं देती,केशव!
इन किसानों की यह गति क्यों है, दयानिधि! उनका क्या कसूर है?
श्रीकृष्ण: 'अति' पार्थ 'अति'! मौन की अति, अन्याय सहने की अति, और इस देश की जनता की नासमझी की अति। ये 'अति' की समस्या सामान्य नहीं है सुभद्रापति! इस 'अति' की परिणति बड़ी दुर्गति है, बड़ा भयंकर है!
अतिदानाद्धत: कर्ण:, अतिलोभात्सुयोधन:।।
अति द्वेषाद्धत: अस्या देशस्य च स्वतंत्रता।।
अति मौनाद्धनिष्यन्ति,जनतंत्रापि धनंजय!
अत: अतिसदानोचिता:,अति सर्वत्र वर्जयेत्।।
भावार्थ: अति से अधिक दान की वजह से कर्ण मारा गया, अति से अधिक लोभ से सुयोधन मारा गया। जब इस देश में (राजाओं का) परस्पर द्वेष अति से अधिक हुआ तब इसकी स्वतंत्रता मारी गई।
हे धनञ्जय! (अगर ऐसा ही रहा तो) 'मौन रहने की अति' एक दिन इस देश का 'जनतंत्र' भी मार देगी। इसलिए अति हमेशा उचित नहीं होती, 'अति' हर जगह वर्जित है।
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अर्जुन:- बीच मैदान -ए-जंग में गीता के 18 अध्याय पढ़ाने वाले गुरु प्रणाम स्वीकार करें🙏,
हे केशव! आपने अपने गुरू को विश किया कि नहीं?
श्रीकृष्ण :- हाँ, पार्थ! कर दिया।
अर्जुनः- किसको किया, संदीपन को, गर्ग को या फिर वसिष्ठ को?
श्रीकृष्ण:- विश्वगुरु को, पार्थ! विश्वगुरु को.
अर्जुनः- विश्वगुरू !!😳😳
श्रीकृष्ण:- हा हा हा हा, चौंको मत, सुनो
नमस्तस्यै भूमि पार्थः, या शिक्षति विश्वैकमेव।
तोपया देशभक्तिज्ञानं, अत विश्वगुरूश्च मन्यते।
भावार्थ:- हे पार्थ! इस धरती पर एक भूमि ऐसी भी है जिसने शिक्षा के क्षेत्र में अद्भुत क्रांति की स्थापना की है। वह भूमि सारे संसार में अकेली ऐसी भूमि है जिसने तोप से देशभक्ति सिखाने के विज्ञान का सृजन किया है, और इसीलिए उसे विश्वगुरू माना जाता है। मैं ऐसी भूमि को नमस्कार करता हूँ। तुम भी करो,
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अर्जुन:- हे वंशीधर! पिछली बार तो प्र'भाव' कम ही हो गया था। इस बार तो जेएनयूवे पे उसका प्रभाव कम हो गया है। इस बार साहब ई तो नहीं न कह देंगे कि जेएनयू पर आईआईएमसी का प्रभाव बढ़ा है??
श्रीकृष्ण:- भक्क! अइसा बोलकर ऊ दूसरे की मेहनत पर पानी नहीं फेर सकते, अर्जुन! तुमको नहीं पता का, कि ऐसे-ऐसे बछड़े अब हर संस्थान में तैनात हैं?
अर्जुन:- बछड़े?😳
श्रीकृष्ण:- आँख मत फाड़ो, सुनो!
"सर्वे संस्थाना: गावः दोग्धाः संघस्य चालकः।
डीजी वत्सः सुधीः भोक्ता दुग्धं राष्ट्रवाद च॥"
भावार्थ :- अर्जुन! देश के सभी सरकारी संस्थान एक गाय की तरह हैं और 'संगठन' के मालिक इस गाय को दुहने वाले दोग्धा यानि कि ग्वाला हैं। ऐसे ही संस्थान के मालिक बछड़े की तरह हैं, और इस तरह से गाय से 'राष्ट्रवाद' का दूध दुहा जाता है,( जिसकी पहले दही जमाई जाती है और बाद में रायता फैलाया जाता है।)
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अर्जुन: आज मूर्खों का दिवस है,नारायण!वैसे तो संसार 'ज्ञानियों' से भरा पड़ा है,लेकिन आज के समय में मूर्ख किसको कहा जा सकता है?
श्रीकृष्ण: वॉव!यू आर अ गुड क्वेश्चन,अर्जुन!ऐसे समय में जब चारों ओर 'फूल ही फूल' नज़र आ रहे हों,तब तुम्हारा ये पूछना कि मूर्ख किसको कहेंगे,आज के दिन के हिसाब से अच्छा सवाल है।😝
सुनों,
"अयं निज: परोवेति, गणनाम् राष्ट्रवादिनः!
मूर्खाणाम् तु कौन्तेय!वसुधैव कुटुम्बकम्।"
भावार्थ: (आज के दौर में) हे कौन्तेय! यह मेरा है,यह तुम्हारा है की गणना 'राष्ट्रवादी' लोगों का पावन कर्तव्य है।उन्हें अपनी संस्कृति ,अपने देश,अपनी परंपरा और अपना अस्तित्व बचाने के लिए ऐसा करना ही पड़ता है।
और हे पार्थ!आज सबसे बड़े मूर्ख वही हैं,जिनके पास 'मेरा-तेरा' का कोई कांसेप्ट नहीं है।इसलिए मूर्खों के लिए 'वसुधा ही परिवार' है,या फिर vice versa!!
बूझे!!😜
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