तस्वीर साभारः पल्लवी सिंह |
बहुत होते हैं पर कोई मेरे जैसा नहीं होता।
मेरे जैसा अगर होता तो मैं तनहा नहीं होता।।
जुबैर अली 'ताबिश' की इन पंक्तियों को पढ़ें तो सामान्य सी प्रतिक्रिया यही होती है कि शेर लिखने वाले का गुरूर बोल रहा है। जरा सा शेर के अंदर झाकेंगे तो दिखेगा कि शेर लिखने वाला किस कदर अकेला है। इस शेर के मनोवैज्ञानिकता का मुरीद हुए बिना रह पाना मेरे लिए मुश्किल है। भीड़ के बीच का अकेलापन केवल शाब्दिक चमत्कार नहीं होता, यह असल में भी होता है, और जिसके साथ ऐसा होता है वही ऐसे शेर कह पाता है।
ताबिश साहब ने जाने क्या सोचकर यह शेर लिखा होगा, लेकिन मुझे इस शेर में अपनी कहानी का प्रतिबिंब दिखता है, जहाँ पर मेरे अकेलेपन का मकान शून्य के अनेक ईटों से बनकर खड़ा है। 'मेरे जैसा' का मतलब कतई श्रेष्ठता नहीं है। मैं आत्म-श्रेष्ठता की घोषणा से उतना ही डरता हूँ जितना कि एक आदमखोर जानवर से। मैं निहायत ही अधम दर्जे का व्यक्ति हूँ ऐसा कुछ देर के लिए मान लें और इस शेर को अप्लाई करें तो भी हमें हमारे किस्म का अधम साथी नहीं मिलता शायद।
मेरे एक नहीं अनेक मित्र हैं। अलग-अलग स्वभावों वाले। सब प्यारे हैं। सभी इतने स्नेहिल कि मैं उनकी वरीयता निश्चित नहीं कर सकता। मेरा सबसे अच्छा दोस्त कौन है, इसकी घोषणा पक्षपात का स्थायी मामला है, लेकिन समुच्चय तो कुछ शर्तों से ही बनता है न! उन शर्तों को फॉलो किया जाए तो सच में एकल समुच्चय के अलावा मैं किसी अन्य वर्ग में नहीं रखा जा सकता हूँ। ये मेरी अपनी समस्या है। अकेला रहना मेरी मजबूरी है। ये अकेलापन मुझे अपने छोटे से कमरे में अकेले रहते हुए भी महसूस होती है और जेएनयू के किसी ढाबे में 'पार्टी' कहे जाने वाले आयोजनों की भीड़ में भी महसूस होती है।
व्हाट्सअप स्टेटस में लिखी इस शेर की पहली पंक्ति को पढ़कर एक दोस्त ने लिखा - 'सच में तेरे जैसा कोई नहीं है।' उसका प्रेम देखकर अगली लाइन लिखने का मन नहीं हुआ। सोचा, चलो छोड़ो। उसे अगली लाइन पढ़ाकर दुखी करने से बेहतर है अपने हिस्से का शनीचर खुद झेलो। इन सब चीज़ों के बारे में सोचता हूँ तो एक अपराधबोध भी मन को सालता है। वो ये कि दुनिया में और भी दुःख और दुखी लोग हैं। ऐसे में इतनी छोटी सी परेशानी पर हाय तौबा मचाकर क्या हासिल करना चाहते हो! सच में इस सवाल का कोई जवाब नहीं है मेरे पास। दुःख और भी खतरनाक हो सकते हैं। मेरे सामने भी अनेक दुःख आते रहते हैं लेकिन ये दुःख भी तो अपनी जगह अस्तित्वमय है कि नहीं! दरअसल ये दुःख नहीं है, यह एक बीमारी की तरह लगता है। इसका प्रहार भीतरी है। जब आपकी अनेक ऐसी बातें मन के कब्रिस्तान में दफ़्न हो जाती हैं जिन्हें आप किसी ऐसे शख्स से कहना चाहते हों जो इसके मानी समझ सके तब आपको इस अकेलेपन का बुरा वाला एहसास होता है।
शेर में दूसरी पंक्ति का सवाल शायद दुनिया की हकीकत है। शायद हर कोई इसी तन्हाई से दो-चार हो। मैंने इस अकेलेपन को शिकायत बना लिया हो जबकि यह शिकायत नहीं संसार का नियम हो। हो सकता है कि यह जिसके सवाल का जवाब है वह भी यही सोचता हो कि 'मेरे जैसा कोई होता तो मैं तनहा नहीं होता।'
इस लेख या फिर इस शेर से मैं कतई यह साबित करने की मंशा नहीं रखता हूँ कि मैं किसी दुर्लभ प्रजाति का मनुष्य हूँ और भगवान ने मेरे जैसे कम ही पीस बनाए हैं। साथ ही मैं अपने अकेलेपन के हवाले से किसी सहानुभूति की आशा भी नहीं रखता। मेरा ब्लॉग कुछ-कुछ मेरे जैसा है। अकेला, उदास सा दिखने वाला लेकिन जो कुछ भी लिखो कभी विरोध नहीं। ये लेख मैं इसी ब्लॉग को अपनी मनःस्थिति बताने के लिए लिख रहा हूँ और कुछ हद तक अकेलेपन से दूर भागने के लिए भी, जो इसे लिखने के बाद एक बार फिर मेरे बगल में आकर बैठ जाने वाली है।
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