Saturday, 1 October 2022
गांधी होने के अर्थ
Thursday, 12 May 2022
आजकल-1
आजकल ऐसे कई मुद्दे भारतीय मीडिया में चर्चा हैं, जिनसे सांप्रदायिकता की गंध आती ही है। कल यानी कि 12 मई 2022 को ज्ञानवापी मामले में कोर्ट ने मस्जिद के सर्वे मामले में अहम फैसला सुनाया। कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष की अपील खारिज कर दी और कोर्ट कमिश्नर अजय मिश्रा को बदलने से इनकार कर दिया। उन्होंने दो और कोर्ट कमिश्नर भी नियुक्त कर दिए। विशाल कुमार सिंह भी एडवोकेट हैं, जो कमिश्नर बनाए गए हैं। इसके अलावा अजय सिंह को असिस्टैंट कमिश्नर बनाया गया है। कोर्ट ने अपने आदेश में पूरी ज्ञानवापी मस्जिद परिसर का सर्वे कराने को कहा है। इसमें तहखाना भी शामिल है। इस दौरान वीडियोग्राफी भी कराई जाएगी। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार और प्रशासन को आदेश दिए हैं कि इस कार्रवाई को पूरा कराया जाए और जो भी लोग इसमें व्यवधान डालेंगे, उनपर कार्रवाई की जाए।
दूसरा मुद्दा ताजमहल को लेकर था। ताजमहल के 22 कमरों को खोलने की याचिका पर सुनवाई जस्टिस डीके उपाध्याय और जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की बेंच सुनवाई कर रही थी। हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता से कहा कि आप मानते हैं कि ताजमहल को शाहजहां ने नहीं बनाया है? क्या हम यहां कोई फैसला सुनाने आए हैं? जैसे कि इसे किसने बनवाया या ताजमहल की उम्र क्या है? हाई कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि आपको जिस टॉपिक के बारे में पता नहीं है, उस पर रिसर्च कीजिए, जाइए एमए कीजिए, पीएचडी कीजिए, अगर आपको कोई संस्थान रिसर्च नहीं करने देता है तो हमारे पास आइए।
दोनों को मुद्दों को ऊपरी तौर पर देखें, तो दोनों ही इस्लाम विरोधी नजर आते हैं। दोनों ही मामले कल पूरे दिन टीवी चैनलों पर चलते रहे। बिना इसकी परवाह किए कि इनको बार-बार दिखाना भारतीय जनता के मानस पर धार्मिक सद्भाव को लेकर कैसा प्रभाव डालेगा? ऐसे ही आज की मीडिया कवरेज में एक कश्मीरी पंडित की हत्या प्रमुख विषय है। टीवी चैनलों ने मृतक राहुल भट्ट के पिता के हवाले से दावा किया है कि हत्या करने से पहले आतंकवादियों ने राहुल भट्ट से उनका नाम पूछा। वह ऑफिस में थे और नाम कन्फर्म हो जाने पर उन्हें गोली मार दी गई। राहुल बडगाम में राजस्व अधिकारी के पद पर तैनात थे। टीवी चैनल पर कश्मीरी पंडित की हत्या शीर्षक से लगातार इसकी कवरेज की जा रही है।
कुछ दिन पहले कश्मीरी पंडितों को लेकर विवेक अग्निहोत्री की एक फिल्म भी आई थी। फिल्म को एक खास मजहब के लोगों के खिलाफ नफरत फैलाने वाला बताया गया था। फिल्म पर कश्मीर की अधूरी कहानी बताते हुए प्रोपोगेंडा फैलाने के भी आरोप लगे। पूरे देश में इस अधूरे सत्य वाली फिल्म देखने के बाद एक खास वर्ग के लोगों के प्रति नफरत की झलक देखने को मिली थी। इस फिल्म को देखने के बाद लोगों को रवांडा नरसंहार अनायास ही याद आने लगा था। कश्मीरी पंडित की हत्या या कश्मीर में किसी की भी हत्या एक प्रशासनिक विफलता की घटना है। सरकार दावे करती है कि कश्मीर से उसने आतंकवाद खत्म कर दिया है और वहां जनजीवन सामान्य हो गया है लेकिन फिर भी कश्मीरी पंडित की हत्या हो जाती है।
टीवी चैनलों पर इसकी कवरेज देखकर लगता है कि किसी बड़े जनसमूह को भड़काने की कोशिश की जा रही है। हालांकि, आप इसे प्रमाणित नहीं कर सकते लेकिन संवेदनशील मन के साथ देखेंगे तो महसूस करेंगे कि इस खबर की कवरेज में संवेदनशीलता जीरो है। खैर, इस घटना में एक डिवेलपमेंट ये भी है कि पीडीपी चीफ महबूबा मुफ्ती राहुल भट्ट के घर जाना चाहती थीं। परिवार से मिलना चाहती थीं लेकिन प्रशासन ने उन्हें नजरबंद कर दिया है।
Sunday, 10 April 2022
शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ
राम कलियुग में क्रोध के पृष्ठसंगीत के साथ आते हैं। एक वीररस का कृत्रिम और अनावश्यक शोर लेकर श्रीराम का जयघोष होता है। तस्वीरों में राम क्रोध में दिखाए जा रहे हैं। तीर तना हुआ है। जाने किस पर तना हुआ है। राम का धनुष व्यर्थ नहीं तनता। दो बार ऐसा हुआ, जब युद्ध जैसी परिस्थिति नहीं थी और राम की प्रत्यंचा तन गई थी। पहली बार परशुराम ने राम के भगवान होने का परीक्षण करने के लिए उन्हें एक धनुष दिया। बोला, इस पर प्रत्यंचा चढ़ाकर दिखाओ। राम ने चढ़ा दिया। तीर तान दिया और परशुराम से बोले, बताइए। किस पर चलाना है। तान दिया है तो क्षत्रिय होने के नाते धनुष से बाण नहीं उतार सकता। इसे किस पर छोड़ूं। आपके तप से प्राप्त मनगति गामी सिद्धि पर या फिर आपके जीवन के समस्त पुण्यों पर? परशुराम ने दूसरा विकल्प चुना। उनके आग्रह पर राम ने तीर दक्षिण दिशा में छोड़ दिया। दूसरा मौका, समुद्र से राह मांगते समय की है। तब भी राम ने तीर तान दिया था। बाद में समुद्र के आग्रह पर उन्होंने उसे मेरू पर्वत की ओर छोड़ा।
Tuesday, 8 March 2022
मैं मनुष्य को जानता हूँ
Wednesday, 23 February 2022
हंसो-हंसो जल्दी हंसो
Monday, 24 January 2022
डायरी: मेरी कविता
Sunday, 23 January 2022
अठभुजवा रह गया अबोध
Saturday, 15 January 2022
जिस मरणी गोरष मरि दीठा
संसार में गोरखनाथ पहले और आखिरी ऐसे महापुरुष होंगे, जिन्होंने अपने 'भटके' हुए गुरू को 'सही' मार्ग दिखाने का महान काम किया था। ज्ञान की धारा तो गुरु से शिष्य की ओर जाती है लेकिन यहां यह परंपरा टूट जाती है। यह कहानी सिखाती है कि गुरु कोई व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं होता है बल्कि ज्ञान और चेतना की एक परिस्थिति होती है, जिसमें सत्य सबसे ज्यादा प्रकाशित होता है। यहां कोई वंश परंपरा का मामला नहीं है।
कहानी है कि मछंदरनाथ (मत्स्येंद्रनाथ) भटकते हुए कदली देश पहुंच गए थे और वहां की रानी के प्रति आकर्षित हो गए थे। नाथ परंपरा में चली आ रही कहानियों में यह भी कहा जाता है कि वह देश केवल स्त्रियों का देश था, जहां पर पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। मछिंदर नाथ अपनी धुन में भजन गाते भिक्षा मांगने के लिए वहां पहुंच गए और वहीं के होकर रह गए। इसे कदली देश की रानी का षड्यंत्र भी कहा जाता है। काफी समय बाद भी जब वह वापस नहीं लौटे तो उनके प्रतिभाशाली, करीबी और प्रिय शिष्य गोरखनाथ को बड़े ताने सुनने को मिले।
जाग मछंदर गोरख आया
परेशान होकर गोरख ने अपने गुरू को अंधकार से प्रकाश में लाने की ठान ली। भजन गाते-गाते वह कदली देश पहुंचे और जोर-जोर से गाना शुरू किया- 'जाग मछंदर गोरख आया।' कहते हैं कि शिष्य की आवाज सुनते ही मछंदर नाथ की नींद खुली। उन्होंने अपने शिष्य की आवाज पहचानी और भागकर उसके पास पहुंचे। गोरख ने अपने गुरू को मुक्त करा लिया था या यूं कहे कि 'अंधकार' में फंसे अपने गुरू को प्रकाश की राह दिखाई थी। गोरख का यह प्रताप था।
इस तरह की कई और मान्यताएं प्रचलित हैं। मिलता-जुलता एक किस्सा यह भी है कि पति के शव पर विलाप करती एक रानी मैनाकिनी पर मछंदर नाथ द्रवित हो गए थे। उन्होंने मृत राजा की देह में प्रवेश कर लिया और रानी के साथ रहने लगे। कुछ समय बाद वह इस जीवन में इतने ज्यादा रम गए कि अपना कर्तव्य भूल गए। रानी के प्रति वह इतने आसक्त हो गए थे कि उन्होंने अपने राज्य में पुरुषों का प्रवेश तक प्रतिबंधित कर दिया। इस दौरान गोरख अपने गुरू को बचाने के लिए प्रस्तुत हुए। उन्होंने एक नर्तकी का वेश बनाया और राजा के दरबार में पहुंच गए।
वहां उन्होंने मृदंग बजाना शुरू किया। राजा को अचानक सुनाई दिया कि एक नर्तरी के मृदंग से 'जाग मछंदर गोरख आया, चेत मछंदर गोरख आया' का स्वर निकल रहा है। मछंदर की नींद खुली और वह गोरख से साथ वापस संन्यास की दुनिया में आ गए। कथा प्रतीकात्मक है। ऐसा लगता है कि नाथ पंथ के प्रवर्तक मछन्दर नाथ से ज्यादा प्रभावशाली गोरखनाथ थे। वह अपने गुरू से ज्यादा योगी रहे होंगे, इसलिए ही उनके अनुयायियों ने गोरख के बखान में उन्हें उनके गुरू से भी ऊपर रख दिया। गोरख को गुरू का तारणहार बना दिया।
समानता का पंथ
भारतीय दर्शन परंपरा में गोरख को मौलिक दार्शनिकों में गिना जाता है। वह 13वीं शताब्दी के आसपास के बताए जाते हैं। ब्राह्मण धर्म में वर्ण व्यवस्था, धार्मिक कर्मकांड और पाखंड के खिलाफ विद्रोह को ही नाथ परंपरा की नींव कहा जाता है। नाथों ने सभी मनुष्यों को बराबर का दर्जा दिया। कोई ऊंच-नीच, छुआछूत की अवधारणा नाथ परंपरा में नहीं है। यही कारण था कि भारतीय समाज में जो अछूत माने जाते थे, वे सभी लोग बाबा गोरख से जुड़े। मुसलमान भी काफी संख्या में गोरखपंथ की शरण में आए।
मुसलमान जोगियों की परंपरा
गोरखपुर, देवरिया, कुशीनगर और आसपास के जिलो में ऐसे मुसलमान जोगियों की काफी आबादी है, जो गेरुआ वस्त्र पहनकर घर-घर जाकर भिक्षा मांगते और गोरख की बानियां गाते थे। वे गोरख की कहानी, भरथरी (भर्तृहरि) की कहानी और गोपीचंद की कहानी को पदों में गाते और भिक्षा मांगते थे। आज के सांप्रदायिक विभाजनकारी माहौल में मुसलमान जोगियों की यह परंपरा खतम होने की कगार पर है। ऐसे मुस्लिम परिवारों में परंपरा के तौर पर लोग जोगी बनते थे। उनके हाथ में एक सारंगी होती थी। वे उसे बजाते और गीत गाते हुए दरवाजे-दरवाजे पर जाते थे।
ये मुसलमान जोगी गेरुआ वस्त्र भी पहनते थे लेकिन अब 'कपड़ों' से लोगों की जाति-धर्म और चरित्र पहचानने के इस दौर में मुसलमान जोगी इस परंपरा से विरत हो रहे हैं। चिंता की बात यह है कि भिक्षा मांगने की इस परंपरा से विमुख होने का उनका कारण प्रगतिशीलता, मुख्यधारा में आगमन या फिर शिक्षित-जागरूक होना नहीं है बल्कि एक डर है जो आज के समय की राजनीति ने समाज में रोप दिया है। मुसलमान जोगी गेरुआ वस्त्र पहनकर सारंगी बजाते हुए गोरख के पद गाते 'कुछ लोगों' को खटकने लगे हैं। ये वही लोग हैं, जिनका धंधा ही साम्प्रदायिक घृणा और आतंक की राजनीति पर कायम है।
'द वायर' में एक रिपोर्ट छपी है। उसमें बताया है कि देवरिया जिले में रुद्रपुर के जगत माझा गांव के एक ऐसे ही मुसलमान जोगी सलाउद्दीन से मिलने के लिए रिपोर्टर जाता है और उनसे गेरुए वस्त्र में सारंगी के साथ गोपीचंद और भर्तृहरि का गीत सुनाने के लिए कहता है। सलाउद्दीन इस पर नाराज हो जाते हैं। वह किसी तरह तैयार भी होते हैं तो उनके परिवार को यह बात अच्छी नहीं लगती। इसके कारणों में 'कुछ हो जाएगा तो' का जो डर है, वह हमारे प्राचीन देश के सामाजिक वातावरण में शायद नया है।
गोरखनाथ 13वीं सदी में समाज में जाति-पंथ में 'विभाजित' हर मनुष्य को एक करने के अभियान में लगे थे। यह 21वीं सदी का भारत है, जहां 'अलगाववादी धर्मरक्षकों' का ऐसा आतंक है कि लोग रंग-वस्त्र-गीत-दर्शन-शिक्षा-भाषा-संगीत आदि में भी ऐसे विभाजित होते जा रहे हैं कि यह पहचान करना मुश्किल है कि समय की धारा में हम आगे बढ़ रहे हैं या बहुत पीछे जा रहे हैं।
मुसलमान जोगियों की विरक्ति
मुसलमान परिवार के लोग अब जोगी नहीं बनना चाहते हैं। एक कारण यह है कि परिवार के लोग भिक्षा मांगने को अच्छी चीज नहीं मानते। दूसरा यह कि एक मुसलमान का गेरुआ वस्त्र पहनना और गोरख के गीत गाना कुछ हिंदूवादी संगठनों को गरिष्ठ लगता है और उनसे यह बात पचती नहीं है। इन भीतरी और बाहरी दबावों की वजह से न सिर्फ ऐसे जोगियों ने भजन आदि गाना बंद कर दिया है बल्कि अब वे गोरखनाथ मंदिर में दर्शन इत्यादि के लिए जाने में भी इतने सहज नहीं हैं जितना पहले हुआ करते थे।
बताया जाता है कि पहले ये मुस्लिम जोगी मंदिर में बेरोक-टोक आते-जाते थे लेकिन मठ के दिवंगत महंत दिग्विजयनाथ के राजनीति में प्रवेश के बाद परिस्थितियां बदल गईं। मठ हिंदुत्व की राजनीति का केंद्र बन गया और मुसलमान जोगी वहां जाने में सहज नहीं रहे। किसी क्रांतिकारी शिक्षा का, किसी परिवर्तनकारी युग प्रवर्तक का धर्म या पंथ हो जाना ऐसे ही दिन लेकर आता है। सिर्फ प्रतीक रह जाते हैं, उपासना विधियां रह जाती हैं। धर्म की मूल प्रज्ञा नष्ट हो जाती है।
निश्चित रूप से यह कल्पना करना अब मुश्किल है कि मुसलमान लोग गेरुआ वस्त्र पहनकर गोरखनाथ की प्रशंसा के गीत गा रहे हैं। वह गोरखनाथ मंदिर में बेरोक-टोक प्रवेश कर रहे हैं। दर्शन कर रहे हैं-पूजन कर रहे हैं। आज के वैज्ञानिक युग में यह अकल्पनीय हो तो जाना चाहिए लेकिन इसके कारणों में आधुनिकता की चेतना और प्रगतिशीलता का प्रकाशित मार्ग हो। नफरत, विभाजनकारी और द्वेष के अंधकार का आतंक न हो।
गोरख की याद
गोरख की बनाई समरसता की परंपरा के ह्रास के दौर में वह और ज्यादा याद आते हैं। उनकी शिक्षाएं याद आती हैं, जिन पर किसी धर्म-पंथ-संप्रदाय विशेष के लोगों का ही अधिकार नहीं था। उनके गुरुकुल के दरवाजे सभी के लिए खुले थे। गोरख के दौर में कोई अकादमिक शिक्षा की अवधारणा तो थी नहीं। वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता को विद्वान और पंडित माना जाता था। स्त्रियों और अछूतों के लिए वेदपाठ प्रतिबंध था। उनके लिए शिक्षा के द्वार बंद थे। ऐसे समय में गोरख प्रकट होते हैं और समाज के हाशिये पर पड़े इस तबके को लगता है कि उनके जीवन संसार में कोई सूर्य उग आया है। वहां शिक्षा के लिए कोई रोक-टोक नहीं है। पवित्रता-अपवित्रता का कोई विधान नहीं है। सब बराबर हैं।
गोरख का धर्म
धर्म की गोरख के यहां मौलिक व्याख्या थी। ओशो अपने एक प्रवचन में कहते हैं कि हिंदी के मशहूर कवि सुमित्रानंदन पंत ने उनसे सवाल किया था कि भारतीय मनीषा में अगर आपको 12 सर्वश्रेष्ठ सितारों को चुनने के लिए कहा जाए तो आप किन्हें चुनेंगे?
ओशो ने सबसे पहले कृष्ण का नाम लिया। इसके बाद पतंजलि, फिर बुद्ध, फिर महावीर, उसके आगे नागार्जुन (बौद्ध संत), शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण परमहंस और अंतर में जद्दू कृष्णमूर्ति। राम का नाम नहीं था। उन्होंने बताया कि राम की कौई मौलिक देन नहीं है। गोरख का नाम था। सिर्फ 12 में नहीं बल्कि टॉप-4 लोगों में भी ओशो ने गोरख को रखा। पंत ने उनसे कहा कि अच्छा 12 नहीं, बल्कि सात लोगों का समूह बनाने के लिए कहा जाए तो आप किसको-किसको रखेंगे?
ओशो ने कहा, 'सात लोगों में कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, शंकर, गोरख और कबीर।' पंत बोले- 'अगर सिर्फ चार ही रखने को बोलूं तो?' ओशो ने कहा, 'तब सिर्फ कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध और गोरख।' पंत ने एक चीज नोटिस किया कि गोरख का नाम सभी लिस्ट में है। उन्होंने पूछा कि आपने महावीर को छोड़ दिया। शंकर को छोड़ दिया। कबीर भी नहीं रहे आखिरी लिस्ट में लेकिन गोरख शीर्ष चार लोगों में भी शामिल हैं। गोरख में ऐसा क्या है?
ओशो ने कहा कि गोरख ने जो किया, कबीर उसका एक्सटेंशन हैं। नानक, मीरा उसका विस्तार हैं। गोरख ने राह तोड़ी। एक नए रास्ते का सूत्रपात किया। रुढ़ियां तोड़ीं। मनुष्य को महत्व दिया। मुक्ति का वह मार्ग बताया, जो अपेक्षित रूप से ज्यादा वैज्ञानिक है। वह जिस श्रृंखला में है, उसकी पहली कड़ी हैं। आरंभ हैं। गोमुख हैं। उन्होंने जो मार्ग बनाया, कबीर-मीरा-नानक जैसे संत उसी रास्ते पर हैं इसलिए गोरख को नहीं छोड़ सकता। गोरख ने जो दिया वह कृष्ण, बुद्ध और पतंजलि की तरह संसार को मौलिक देन है। गोरखनाथ के यहां भक्ति नहीं है। ईश्वर की भक्ति, वेदों पर आस्था, तंत्र-मंत्र पर भरोसा। वह इन माध्यमों पर भरोसा नहीं करते थे।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गोरख के लिए लिखा- उन्होंने (गोरख ने) किसी से भी समझौता नहीं किया। लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं ; परन्तु फिर भी उन्होंने समस्त प्रचलित साधना मार्ग से उचित भाव ग्रहण किया। केवल एक वस्तु वे कहीं से न ले सके। वह है भक्ति। वे ज्ञान के उपासक थे और लेश मात्र भी भावुकता को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।
गोमुख गोरख
बाद में जो बातें कबीर, मीरा, नानक और तमाम भक्तिकालीन संतों ने कहीं, वह गोरख से ही शुरू होती हैं।
मरौ वे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा।
तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरष मरि दीठा।
गोरख कहते हैं कि पूरी तरह से मर जाओ लेकिन कैसे मरो? जैसे गोरख मर चुका है। यह मरण मीठा है। यह कैसा मरण है? किसी मनुष्य की मृत्यु उसकी देह की मृत्यु है। देह की मृत्यु में मन नहीं मरता। मन के साथ उसके विकार भी नहीं मरते। विपश्यना की साधना के दौरान बताया जाता है कि मन में राग और द्वेष के संस्कार होते हैं। ये संस्कार नहीं मरते। देह मरती है और मन के ये संस्कार नए गर्भ में पहुंच जाते हैं। नया जीवन उन्हीं पुराने विकारों से शुरू होता है।
कोई व्यक्ति गोरख के पास पहुंचा और कहा कि वह जीवन से बहुत निराश है और आत्महत्या करना चाहता है। गोरख कहते हैं जरूर मर जाओ लेकिन मैं बताता हूं कि वह आत्महत्या कैसी हो? कहीं किसी नदी में कूद जाओ या जहर खा लो। उससे यह शरीर मर जाएगा लेकिन जो तुम्हारा आत्महत्या के लिए व्याकुल मन है, वह नया शरीर लेकर फिर से तुम्हारे सामने यही सवाल लेकर उपस्थित हो जाएगा। इसलिए मरना है तो नई विधि बताता हूं। तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरख मरि दीठा। गोरख यहां से ध्यान और समाधि की ओर ले जाना चाहते हैं।
हंसिबा खेलिबा धरिबा ध्यान। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियान।
हंसै खेलै न करै मन भंग, ते निहचल सदा नाथ के संग॥
ध्यान जरिया है आत्मसजगता के लिए। पूर्ण मृत्यु के लिए जीवन को जान लेना और समझ लेना जरूरी है। ध्यान के साधकों को बताया जाता है कि स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर जाने के लिए अंतर्मुखी होना जरूरी है। अपनी ओर देखना जरूरी है। जितना सूक्ष्म होते जाएंगे, उतना ही सत्य के करीब पहुंचते जाएंगे। अपने तत्व की तरफ पहुंचते जाएंगे। अपनी ईकाई की ओर। बुद्ध की विपश्यना भी यही है। अपने शरीर के प्रति सजग होना है। उसको जानते-जानते, महसूस करते सूक्ष्मता की उस स्थिति तक पहुंच जाना है, जहां के बाद से कोई द्वैत नहीं है। केवल इकाई है। जो है तो अदृश्य जैसी लेकिन साधना से अंतर्दृष्टि ऐसी सूक्ष्म हो गई है कि वह दिख रहा है। बेपरदा हो गया है।विपश्यना के आचार्य बताते हैं कि यह स्थिति बहुत कठोर साधना के बाद आती है। कई बार तो कई जन्मों के बाद।
यही गोरख भी कहते हैं-
अदेखि देखिबा देखि विचारिबा अदिसिटि राषिबा चीया।
पाताल की गंगा ब्रह्मंड चढ़ाइबा तहां बिमल-बिमल जल पीया।
जो अदृश्य है, उसे देखना है। सिर्फ देखना नहीं, उसे अपने अंतरतम में, विचार प्रकोष्ठ में स्थापित कर लेना है। उस अदृश्य को अपने चित्त में रख लेना है। फिर ऊर्जा की जो गंगा अधोगामिनी है, वह ऊर्ध्वगामिनी हो जाएगी। तब जाकर अमृत रस पान हो सकेगा। तब जाकर अमरता मिलेगी। तब जाकर सही मृत्यु घटित होगी। 'जिस मरणी गोरष मरि दीठा' वाली मृत्यु, जो दुखदायी नहीं है। जो 'मरन है मीठा'
Tuesday, 4 January 2022
डायरी: दुख विषय पर
दुख को आने देना चाहिए। अगर दुख का कोई एक कारण है तो उससे भागने से बचना चाहिए। दुख को खत्म करने की कोशिश उसे और प्रबल बना देती है, इसलिए जरूरी है सबसे पहले दुख से सामान्य व्यवहार। जैसे हम उसके आगमन के तैयारी कर के बैठे हों या फिर ऐसे जैसे उसके आगमन के इतने अभ्यस्त हो गए हों कि हमें ठीक-ठीक वह बिंदु पता ही नहीं है जब वह आया या फिर जब वह चला जाएगा।
इतना सामान्य हो जाने का अभ्यास हो दुख में। हम जैसे अपने सुख का क्षण भोग कर आनंदित होते हैं और उसे किसी से शब्द, वाक्य और ध्वनियों के जरिए अभिव्यक्त नहीं करते हैं, वैसे ही दुख के साथ भी करें क्योंकि यह सत्य है कि इन दोनों का स्वाद हमारे लाख वर्णन करने के बाद भी कोई दूसरा महसूस नहीं कर सकता है।
इसे महसूस करने के लिए उसे इस प्रकार का स्वाद पहले लिया जाना आवश्यक है। फिर वह अपने स्वाद की भाषा में तुम्हारे स्वाद का अनुवाद कर सकता है। यह अनुवाद भी कितना सटीक होगा? कहां नहीं जा सकता इसलिए दुख को आने दो। उसे तुम्हारे पूरे मनस में फैल जाने दो। उसे अपना काम करने दो। तुम्हें उसके लिए अपना काम रोकने की जरूरत नहीं है। तुम जैसा सुख के समय करते हो, करो वही दुख के समय भी।
किसी बात से दुख पहुंचा है और वह बात बार-बार मानसिक पटल पर प्रकाशित हो जाती है तो होने दो। उससे लड़ो नहीं। उस से भागने की चेष्टा न करो। तुम उसका जितना सामना करोगे वह उतना ही प्रबल होता जाएगा। बालि की तरह, जो सुग्रीव का सबसे बड़ा दुख था। तुम दुखी करने वाली बात को मस्तिष्क में गूंजने दो और फिर जो भी अनुभूति होती है उसे साक्षी भाव से देखो। उसे बरतने की कोशिश करो। सहेजने की कोशिश करो। तुम्हारी कोशिश इतनी ही हो कि उसके प्रभाव से तुम किसी अन्य का नुकसान न करना। ऐसा करोगे तो धीरे-धीरे दुख का शमन होता जाएगा। उसकी धार कुंद होती जाएगी।
दुख हमारे जीवन के प्रवाह का एक हिस्सा है। हम उसको दबाकर अपने मानसिक वातावरण में कैद नहीं कर सकते। हम उसे जाने दे सकते हैं और हमें यही करना चाहिए। दुख को, शोक को, त्रास को अपनी गति से जाने देने की छूट देनी होगी। तभी वह संपूर्ण रूप से जा पाएगा। अन्यथा अपना कुछ हिस्सा या फिर अपना शव हमारे भीतर ही छोड़ जाएगा।