Thursday, 18 May 2017

कविताः धैर्य तुम डटे रहो

धैर्य तुम डटे रहो।
झुको नहीं,रुको नहीं,
फटो नहीं,हटो नहीं,
कटो नहीं,बंटो नहीं।
ये हार एक भार है,
फ़टे हुए जगह जगह
भाग्य-बोरियों में जो
रखी हुई है,रिस रही।
ये घात है बड़ी शिला
जो धार से रगड़-रगड़
के घिस रही है पिस रही।
तुम्हारी ज़िन्दगी गुज़र
न जाए जब तलक,यही
कहो, यही रटे रहो।
कि धैर्य तुम डटे रहो।

झुके न शीश,गिर पड़े
किसी के काँध पर कभी,
रुके न पाँव तब तलक
बेकार हो,बेजार हो
जो गिर पड़े बिखर पड़े
सफर में टूट कर कभी।
थके न आँख, स्वप्न से
न सूख जाए जब तलक
नसों में खून बूँद बूँद
आंख अश्रु बूँद बूँद
रोम स्वेद बूँद बूँद।
रौशनी जले सदा नयन में,
तब तलक,ज़रा,दिए की
आस के, कि जब
तलक न जल उठे चिता।
लीक से सदैव ही,
जो है बनी घिसे पिटे
थके-वके से पाँव से,
जो है निकल रही किसी
अमरलता के गाँव से,
छँटे रहो, कटे रहो।
कि धैर्य तुम डटे रहो।

भूख मार क्या सकोगे,
बुझते दीप हो स्वयं तो,
चाँद को,नक्षत्र को,
कि सूर्य को कि जुगनुओं को,
फूंक मार क्या सकोगे।
सांस ही जो रोक लो,
जो धड़कनों को रोक लो,
जो जा रही हैं थामने को
अपनी यात्रा अभी।
जानता है कौन,पार
हो तुम्हारे,कोई जीत,
जानता है कौन,पार
हो तुम्हारे,वीपरीत।
कोई तो है,कहीं तो है
अमूल्य रत्न,गर्भ में
समय के,जिसके आखिरी
हो जीर्ण-शीर्ण मानचित्र।
इसलिए ही तुम रहो,
भले सड़े हुए रहो,
या फिर कि तुम फ़टे रहो।
कि धैर्य...
तुम डटे रहो।।
कि धैर्य तुम डटे रहो।।
-राघवेंद्र

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