Tuesday, 9 May 2017

सच में अब गाण्डीव पकड़ना ही पड़ेगा!

ऑफिस तो अच्छा था।इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग के तीसरे फ्लोर पर है जनसत्ता एडिटोरियल का ऑफिस।बड़ा सा हॉल है,जिसमे अलग-अलग चैम्बर हैं,अलग-अलग डेस्क हैं।कोई कार्नर इंडियन एक्सप्रेस का है,कोई फाइनेंसियल एक्सप्रेस का,कोई जनसत्ता का तो कोई इंडियन एक्सप्रेस वुमन पोर्टल का।सब लोग अपने-अपने सिस्टम पर न्यूज़ इकट्ठा करने में लगे हुए हैं।मेरी ईमेल आई डी पर 3-4 लिंक्स आये थे।अंग्रेजी में थे,उनका हिन्दीकरण करके स्टोरी बनानी थी।
पहले दिन करीब 5 न्यूज़ स्टोरी ही बन पाई हमसे।काम कुछ यूं है कि बस पहले ही दिन मन ऊब गया है।लगता है हमसे न हो पायेगा अब कुछ।पहले कुछ घण्टे तो ऐसा लग रहा था जैसे क्लास में हों और क्लास वर्क मिला हुआ है,उसे ही करने की कोशिश कर रहे हैं।लेकिन यह क्लास तो थी नहीं।यह तो ऑफिस था।यहां सबकुछ हमारी मर्ज़ी से तो होना नहीं था।एक अदृश्य बन्धन था,जिससे बंधे हुए थे।ऊपर से एक सीनियर भाई साहब ने और मस्ती-वस्ती प्रतिबंधित कर रखा था।उनका कहना था जब तक इंटर्नशिप है,मेहनत करो,खाली मत बैठो।एक बार परमानेंट होने के बाद चाहे जो करो।
बड़ी मुश्किल थी।आदत छूट गयी है लगातार मेहनत करते रहने की,खाली न बैठने की।कैसे होगा ये सब!
क्लास रूम बहुत याद आ रहा था।एक दिन पुरानी ज़िन्दगी बिछड़ी हुयी महसूस हो रही थी।लग रहा था कितनी जल्दी बड़े हो गए।आज तक बड़े होने का एहसास नहीं था।बड़ा लड़का हूँ परिवार का,लेकिन कोई ज़िम्मेदारियों का भार नहीं था।स्वच्छन्द था,मनमौजी।अब लग रहा है जैसे इस पर बड़ा प्रहार होने वाला है।कल तक उत्साहित थे,आशान्वित थे।आज डरे हुए हैं,आशंकित हैं।क्या सच में जीवन में कर्मों का संग्राम छिड़ गया है,क्या सच में अब गाण्डीव पकड़ना ही पड़ेगा!क्या सच में...लड़ना ही पड़ेगा।😞😒

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