Sunday, 21 May 2017

कविताः ये साज़िश है किसकी











बाहर आकाश ने अपने झरने खोल दिए थे,
मिट्टी से ठठोल करते हुए,
बाहर गायों के झुण्ड ने पेड़ के नीचे जगह ढूंढ ली थी,
ताकि उनके सफ़ेद और चितकबरे बाल भीगकर
उन्हें ठंड की ठिठुरन न प्रदान करें।
बाहर चिड़ियों ने कुछ पत्तों की ओट में
खुद को छिपा लिया था,
बाहर फुटपाथ वाली चाची के बरसाती के छत से
चू रहा था बरसात का पानी।
बाहर ईंट-पत्थरों के पेड़ों की काया
नहा रही थी खुले आसमान के नीचे।
बाहर गिट्टी की नीली सड़कों पर बारिश की बूँदें
बजा रही थीं अद्भुत संगीत।
बाहर ठंडे पानी से नहाई हवाओं ने हुड़दंग मचाया हुआ था।
बाहर अशोक के हरे पत्ते और हरे,
शीशम की भूरी डाल काली
हो गयी थी,
और दुआर की मिट्टी
ने अपने इत्र का भंडार खोल दिया था।
बाहर खेत भीग रहे थे,
खलिहान भीग रहे थे,
और मुझे बारिश से बचाया हुआ था सात मंजिल की एक बिल्डिंग ने।
उसकी बौछारों से सुरक्षित रखा था कांच के पर्दों नें,
और उसकी एक बूँद तक देखने से वंचित रखा था
उन पर्दों के अपारदर्शी कपड़ों ने।
बाहर बारिश ने बड़ी देर तक पुकारा मुझे,
बाहर बारिश ने बड़ी देर तक मेरा इंतज़ार किया,
और भीतर
मुझे इसकी भनक भी नहीं।
मैं पूछता हूँ
ये साज़िश है किसकी,
आख़िर
ये किसका षड्यंत्र है।
ये मेरी और उसकी मोहब्बत है
या हिंदुस्तान का लोकतंत्र है!
-राघवेंद्र

Photo Courtesy: Internet

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