Thursday, 28 December 2017

कविताः सवालों के इंतजार में

तेज हवाओं से
अमरुद के सूखे हुए पत्ते
ज़मीन पर फ़ैल गये थे,
बारिश ने उन्हें जमीन से और चिपका दिया है,
मिट्टी की सुगंध
मेरे पांवों तले दबी
उन पीले-गीले पत्तों से छनकर
मुझ तक पहुँच रही है।
डाल से लगे
पत्तों पर अटके बूँद को चीरकर आती
अस्ताचलगामी सूरज की किरणें
सामने के नींबू की
हरी पौध पर पड़ रही हैं,
और उसकी छाँव का अँधेरा
उस पतली किरण से टकरा टकराकर
चूर हो रहा है।
गीली हवाओं ने
डूबते सूर्य की आग से उठने वाले
सांझ के धुएं को यहां-वहां
फैला दिया है।
और मैं
यूकेलिप्टस के शिखर पर बैठे
उस कोयल की कूक में
तुम्हारे उन 'सवालों' को महसूस कर रहा हूँ
जो तुमने कभी पूछा ही नहीं,
और जिसके इंतज़ार में
मेरे 'जवाबों' ने भी जवाब दे दिया है।

©राघवेंद्र

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