Monday, 4 December 2017

श्रीलंकाई क्रिकेटरों के मुंह पर लगे मास्क ने हमारी बोलती बंद कर दी है


 श्रीलंकाई क्रिकेटरों के मुंह पर लगे मास्क ने हमारी बोलती बंद कर दी है

देश में आज का माहौल कुछ ऐसा बना हुआ है कि स्मॉग से ज्यादा राष्ट्रीय चिंतन का विषय विराट कोहली का तिहरा शतक न बना पाना हो गया है। ‘श्रीलंकन टीम को ऐसा नहीं करना चाहिए था’, ‘ये साजिश थी उनकी’। ‘इस ड्रामे पर तो उसे ऑस्कर मिलना ही चाहिए’, (और अखण्ड पाखंड का ‘नोबल’ हमको।) इन सारे बयानों में विमर्श की दिशा देखिये आप! बात स्मॉग पर नहीं होगी, बाकी सब पर होगी। दिल्ली-सरकार और ‘दिल्ली की सरकार’ दिल्ली में ही है, लेकिन दिल्ली का दिल खतरे के निशान पर धड़क रहा है। एक रिपोर्ट में पढ़ रहा था कि हर साल हमारे देश में तकरीबन 6 लाख लोग प्रदूषण की कड़वी हवा की वजह से दम तोड़ देते हैं; लेकिन ये आंकड़े अब चौंकाते नहीं हैं। इन आंकड़ों को गिनना हमारी आदत बनती जा रही है। हम सब भी इन सांख्यिकीय आंकड़ों का घटक बनने से पहले गम्भीर नहीं हो सकते। हमें सब कुछ मजाक ही लगेगा। पटाखों पर बैन को ‘संस्कृति पर हमला’ बोलकर हम न्यायालय पर व्यंग्य हंसी हंसेंगे। ऑड-इवन पर तंज कसेंगे और केजरीवाल पर चुटकुले बनाकर ठहाके लगाएंगे। कितने हंसमुख हैं हम सब!

हंसमुख होना बुरा नहीं है। हंसी और ख़ुशी के गोमुख वाली आदतों से विमुख होना भयानक है। पर्यावरण के खतरे की जानकारी से और उसके बचाव के तरीकों से कोई अनभिज्ञ नहीं है। छोटे प्रयास ही बड़े परिणामों की नींव होते हैं। हमें लगता होगा कि इस माहौल में भी केवल हमारे पेट्रोल-डीजल वाले वाहनों के अप्रयोग से क्या फर्क पड़ेगा! ऊर्जा के संसाधनों का बेतरतीब प्रयोग अगर हम छोड़ भी दें तो इससे कहाँ कोई प्रदूषण प्रभावित होने वाला है! पेड़ काटें, न लगाएं और सोचें कि हमारे ही पेड़ लगा डालने से कहाँ पर्यावरण स्वच्छ हुआ जा रहा है! पटाखे भी तो साल में एक बार ही छोड़े जाते हैं, इससे भी क्या इस तरह का भयानक स्मॉग होता है कहीं! हम एक किलोमीटर की दूरी भी साइकिल से या पैदल जाने में कतराते हैं। तर्क होता है कि इतनी दूर में कितना प्रदूषण बढ़ जाएगा! हमारी ज़िम्मेदारियों का यही ‘समझौतीकरण’ श्रीलंकाई क्रिकेटरों के मुंह पर बंधा हुआ वह मास्क है जिसने आज दुनिया के सामने हमारी बोलती बंद कर दी है।

श्रीलंका की टीम भारतीय क्रिकेटप्रेमियों के लिए विलेन बन गयी है।हम विकासशील अर्थव्यवस्था वाले लोग हैं। इस राह पर न जाने कितने स्मॉग्स के हमले हमें झेलने हैं। इन हमलों के विरुद्ध हम सभी एक सैनिक की तरह हैं। हम सभी के पास हमारे हिस्से की जिम्मेदारियों के हथियार हैं। अगर हम अपने दायित्व को समझें, प्रकृति के बचाव के प्रति अपने कर्तव्य का बोध रखें और अपनी क्षमता के मुताबिक इस नर्क के मूल कारणों को अपनी जीवनचर्या से कम करते जाएं तो इस विपदा से निपटना बहुत आसान हो सकता है।

ऊपर हमने कुछ भी नया नहीं लिखा है। यह सब कुछ हम काफी पहले से सुनते-इग्नोर करते आ रहे हैं, इसीलिए इसे बार-बार दोहराने की ज़रूरत पड़ती है। आजकल निराशाजनक विषयों का परिसर बढ़ता चला जा रहा है। कल मीडिया का रवैय्या देखकर बहुत दुःख हुआ। श्रीलंका की टीम भारतीय क्रिकेटप्रेमियों के लिए विलेन बन गयी है। दिल्ली में कल का मौसम सामान्य से तीन गुना खराब था। हम शाम को जैसे ही बाहर निकले, हमारे एक साथी ने बताया कि सरकार ने सुझाव दिया है कि 10 बजे से पहले घर से बाहर न निकलें। हवा खतरनाक स्तर तक खराब है; लेकिन हम लोगों के लिए यह आदत की तरह होती जा रही है। इसलिए हम पर बाहर-बाहर से इसका बहुत ज्यादा असर भी महसूस नहीं होता। श्रीलंकन टीम के लिए ज़रूर दिक्कत हो रही होगी। इसके लिए उन्हें ‘ड्रामा’ ‘नाटक’ जैसे शब्दों से नवाजना ग़लत लगता है।

स्मॉग के चलते शायद पहली बार क्रिकेट में ऐसी रुकावट देखने को मिली है। ऐसे में मैच को रद्द करने संबंधी किसी तरह ‘क्रिकेटीय नियम’ भी निश्चित नहीं है। खराब मौसम, कम दृश्यता और बारिश की वजह से तो मैच रोका जा सकता है लेकिन प्रदूषण की वजह से आज तक किसी मैच के बीच में रद्द होने की कम से कम मुझे तो कोई जानकारी नहीं है। हां, पिछले साल रणजी ट्रॉफी के दो मैच स्मॉग के चलते खेले ही नहीं गए थे। कल की घटना को लेकर श्रीलंका क्रिकेट बोर्ड ने बीसीसीआई से नाराज़गी भी ज़ाहिर की है। वैश्विक मीडिया में भी यह खबर भारत की प्रतिष्ठा को बट्टा लगा रहा है। ऐसे में सारी खीज़ विदेशी खिलाडियों पर उतरना सही नहीं है। इस संकट की ज़िम्मेदारी हमें खुद ही लेनी होगी और कल की घटना को लेकर अपनी भाषा भी बदलनी होगी।

इतिहास, संस्कृति और परंपराओं के गुणगान में हमारा कोई सानी नहीं है। इनके लिए हम ‘नाक’ से लेकर ‘गर्दन’ तक काटने को तैयार रहते हैं। हमने अपने चारों ओर की प्रकृति के हैरतअंगेज विशेषताओं को देखकर उनके एक अदृश्य सर्जक की कल्पना कर ली है। उस काल्पनिक अस्तित्व को लेकर हम उन्माद के स्तर तक प्रतिक्रियावादी हैं लेकिन सदृश्य प्रकृति को लेकर हममें कोई गंभीरता नहीं है। यह हमारे पाखंड का पहला अध्याय है। भारतीय इतिहास, परम्परा और संस्कृति की बात करें तो इसके प्रति भी हम केवल पाखंडी ही हैं। हमें अपनी संस्कृति का गुणगान करने में तो खूब मज़ा आता है लेकिन उसे अपने आचरण में उतारने को लेकर हम मुंह छिपाने लगते हैं, एक दूसरे का मुंह ताकने लगते हैं। होली मनाएंगे लेकिन होली के पीछे का विज्ञान नहीं पता होगा और जब कोई खतरनाक रसायनों वाले रंगों के प्रयोग या फिर होलिका दहन प्रक्रिया के निषेध की बात करेगा तो अपने कुतर्क लेकर उस पर चढ़ जाएंगे। हम दीवाली मनाएंगे लेकिन उसकी मूल धारणा से एकदम किनारा कर लेंगे, फिर जब पटाखों पर प्रतिबंध लगेगा तब श्मशान भी छिन जाने का भय दिखाकर लोगों को भड़काने की कोशिश करेंगे। इसी तरीके से हम अपनी परम्पराओं के अच्छे पहलुओं से दूरी बनाकर केवल पाखंड अपनाते रहेंगे।

हमारी संस्कृति, परंपराएं और समस्त त्यौहार पर्यावरण संरक्षण का एक अभियान ही हैं। या फिर यूं कहें कि प्रकृति और पर्यावरण को संरक्षित रखना ही हमारी संस्कृति का मूल लक्ष्य है तो कुछ गलत नहीं। इसलिए अगर ‘संस्कृति-दूत’ बनना ही है, ‘देशभक्त’ बनना ही है तो सबसे पहले अपनी उस प्रकृति की भक्ति कीजिए जिससे विभक्त होकर आपके जीवन की कल्पना भी कल्पित नहीं हो सकती। श्रीलंकन खिलाडियों को कोसकर कुछ नहीं मिलने वाला है, उल्टा यह हमारे एक अन्य संस्कृति-वाक्य के प्रतिकूल आचरण है जिसमें हमारे ऋषि-मुनि अतिथि के देव होने की घोषणा करते हैं।

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