Thursday, 21 December 2017

कविताः ढहे-पड़े आवास

पृष्ठ भरे, बहुचित्र सजाए,
उनको अब तक रंग न पाए
थे, जीवन के विविध रंग ने थाम लिया संन्यास।

विह्वल, अन्यमनस्क, व्यथित मन,
ज्यों क्षतिग्रस्त महल, यूं जीवन।
खंडहरों में ढूंढ रहे हैं, ढहे-पड़े आवास।

यूं हैं बलवती आशाएं,
मरुथल में नीरज पुष्पाएं,
घना तिमिर, दामिनी देख, हो प्रातः का आभास।

पाप बना शर-शब्दभेद,
सब ज्ञान नियति पर करे खेद,
दशरथ की आत्मग्लानि पर पकता रघुवर का वनवास।

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