Tuesday, 31 December 2019

कविताः नया साल

नया साल है तो नए हाल के स्वप्न-
के पास स्तुति की भाषाएँ तो हैं।
मुझे है पता तुम नए तो नहीं हो
मगर जो भी हो तुमसे आशाएँ तो हैं।

वही सूर्य जो आज डूबा, उगेगा,
वही वायु चलती रहेगी निशा भर,
वही एक मेरा उदासी भरा गीत
कल भी विकल ही रहेगा तृषा भर।

वही चीख़ होगी, वही शोर होगा
वही रात ओढ़े हुए भोर होगा
सवालात होंगे, हवालात होंगे
बिना बात के फिर वबालात होंगे।

ज़रा और गर्मी बढ़ेगी धरा की
ज़रा और कॉलर चढ़ेगा गुमाँ का।
ज़रा और धरती धँसेगी नए साल
ज़रा शीश तन जाएगा आसमाँ का।

वही प्रार्थनाएँ भटकतीं गगन में
वही बहरे ईश्वर की सत्ताएँ होंगी।
वही सब पुकारों की प्रतिध्वनि मिलेगी
वही काम भर की महत्ताएँ होंगी।

वही दौर बदले हुए पैरहन फिर
उसी रास्ते से चला जाएगा ही,
नियति की उदासी का दीया नया फिर
निकलते-निकलते जला जाएगा ही।

तो क्या है नया कि नया साल आए?
तुम आओ, कि आना तो यूँ भी है तुमको,
लिखे हैं गए पृष्ठ पर जो तुम्हारे
वो सब कुछ सुनाना तो यूँ भी है तुमको।

भला हाथ में है क्या मेरे कि रोकूँ!
अगर रोक सकता तो स्वागत भी करता।
पुराना सभी ध्वस्त हो लेता पहले
नया फिर जो आता तो यूँ न अखरता।

विवश है बनाता तेरा आगमन कि
मैं द्वार खोलूँ ही, स्वागत करूँ ही।
अभी क्या नए की ज़रूरत, बताओ?
पुराने को कैसे मैं निर्गत करूँ ही।

तुम आओ कि सब (शेष मैं) हैं ख़ुशी में
सराबोर, तुमको नया जान कर ही।
तुम आओ कि अब तो निकल ही चुके हो
पुनः आगमन की पुनः ठान कर ही।

तुम आओ चलो, मान्यता है मेरी भी
नया ही कहूँगा तुम्हारा ये आना।
नए साल हो तुम तो कुछ तो है तुममें
तुम्हारी नवलता को भी मैंने माना।

तुम आओ कि तुम आ भी सकते हो, जा भी
ठहर तो नहीं जाओगे आह बनकर,
तुम आओ कि हम भी चलें साथ, साथी!
कहीं तो दबे पाँव हमराह बनकर।

Thursday, 26 December 2019

पहले तुम बताओ

साभार इंटरनेट
कौन हो तुम!
रहनुमाई के मेरे उम्मीदवारों?
कौन हो तुम
देश का अपने
मुझे कह, मुझपे कृत्रिम भावनाएं लादने वालों?
तुम बताओ
कौन हो तुम?
'मेरे तुम!'
'हमारे तुम!'
मुझसे कब पूछा कि
हो सकता तुम्हारा हूँ?

तुमने मुझको कब कराया
है कोई अनुभव
कि तुम हो मानते अस्तित्व मेरा है जरा भी?
मौन मेरा, विश्व!
तुमने वाक्य माना ही नहीं,
यह तुम्हारी राज्यवादी लालसा है
या मेरी स्वच्छन्दता का अपहरण!
तुम बताओ
मैं तुम्हारे देश के भूगोल में
उग गया तो क्या मेरा यह था चयन?

तुम बताओ
क्या तुम्हारी मांग का उत्पाद हूँ मैं?
तुम बताओ
ये जो सीमाएं बनाई हैं सभी ने घेरकर
धरती के काग़ज़ पर
तो इसकी अनुमति ली थी
कि मेरे भाग की धरती को भी
अपने में शामिल कर लिया तुमने?
मेरे हिस्से के पानी-फूल-सूरज-वायु-नदियां-पेड़-पौधे
कब बताओ मैंने तुमको
राज्य में अपने मिलाने को कहा था?

मेरी रातें-दिन-दोपहरी-शाम की चर्या
तुम्हारी नीतियों से तय न होगी,
यह भी तुमने था सुना क्या?
तुमने क्यों बांधा मेरी आँखों को
कुछ रंगों के परचम से?

तुम बताओ
तुम जिसे अपनी जमीं-अपना वतन कह
गर्व से फूले नहीं समाते
उसमें कितनों के निजी राष्ट्रीय
स्वाभिमान के धड़ से अलग हैं शीश?
तुम बताओ विश्व में,
यह जो तुम्हारा विश्व है, उसमें
मेरे देश का अस्तित्व क्या है?
इसमें मेरे देश का भूगोल क्या है?
तुम बताओ
इसमें मेरा देश
मेरा 'मैं' कहाँ है?

तुम बताओ
मैंने तुम्हारे 'देश' को अपना बनाने के लिए
कब कहा था?
या कहा भी था तो वह काग़ज़ कहाँ है?
पहले
तुम
यह
बताओ?

Tuesday, 10 December 2019

सिर्फ वही जीता

"सिर्फ वही जीता जो हारा"

एक स्पीड ब्रेकर जैसी यह पंक्ति कुछ देर रोक तो देती ही है कि एक बार और पढ़ो। सिर्फ वही जीता। जो हारा। कवि के कहन के मूल में शायद प्रेम की महत्ता पर ज्यादा जोर है। जीत मतलब विराम। विराम मतलब पूर्णता। पूर्णता मतलब संतुष्टि। संतुष्टि मतलब मोक्ष। मोक्ष मतलब मुक्ति। इस तरह जीत का अर्थ मुक्ति तक पहुंच रहा है। प्रेम तक नहीं। कवि का जोर प्रेम पर है। लक्ष्य से प्रेम। जो जीता वह तो पूर्णकाम हो गया। संतुष्ट हो गया और संतुष्टि में प्रेम का जीवन नहीं है। जैसे, विकास के शिखर पर फूल के मुरझाने की शुरुआत हो जाती है। वैसे ही, प्रेम की पूर्णता में उसके पतन की आधारशिला हो सकती है।

जो हारा, वह इस पूर्णता से वंचित रह गया। वह अपने अभाव के साथ अभी जीवित है। वह अभी सरस प्रेम की संभावनाशीलता में जीवित है। वह प्रेमोन्मुख है। अपने लक्ष्य के प्रेम में। शायद इसलिए वही जीत गया है। क्योंकि, उसकी हार में एक अभाव की जीत है। यह अभाव भावना की सबसे सुंदर मूर्ति प्रेम में प्राण भरता है। वह हारकर भी इसीलिए जीत गया।

थोड़ा दूसरी दृष्टि से भी देखते हैं। आप प्रेमियों का इतिहास उठाकर देखिए। विजेताओं का इतिहास नहीं, इतिहास के विजेताओं को देखिए। आप देखेंगे तो पाएंगे कि सभी विजेता दरअसल जीते हुए लोग नहीं हैं। वे सब हारे हुए हैं। अशोक की जीत-हार के अर्थ पर आज भी विवाद है। यह विवाद न हो अगर मान लिया जाए कि प्रेम की आधारभूमि पर उसकी समस्त जीत दुनिया की सबसे बड़ी हार है।

बड़े विजेता हुए कृष्ण। विजेताओं के इतिहास में भी वह दर्ज हैं लेकिन उल्लेखनीय वह इसलिए भी हैं क्योंकि वह इतिहास के विजेताओं में भी शामिल हैं। उनके जीवन की अपूर्णता और उनकी हार युगों बाद भी भावना की पराकाष्ठा के दृष्टान्त के रूप में याद की जाती है। क्या वह हारे? यीशु संसार के सबसे बड़े पराजितों में गिने जाते हैं। उन्हें उनके दौर के कथित विजेताओं ने सूली पर चढ़ा दिया। सुकरात को उनके दौर के शाहों ने ज़हर पिला दिया। मीरा को भी लोगों ने ज़हर दे दिया। इन लोगों ने अपने जीवन के लक्ष्यों से मुलाकात नहीं की थी। वह अपूर्ण मरे थे। हारे हुए-से लेकिन क्या वह हारे?

हम सोचें कि क्या इनकी असफलताओं को हार कहेंगे? क्या एक फूल के पौधे को उखाड़कर दावा किया जा सकता है कि उस पुष्प की नस्ल ख़त्म कर दी गई? नहीं। थोड़ी देर के लिए लोगों को अंदेशा हो सकता है कि ऐसा हुआ लेकिन उखड़े हुए पौधों के फूल सूखते हैं, झरते हैं और बीज बनकर फिर उग जाते हैं। उनमें सृजनशीलता होती है। भगत सिंह को कौन विजेता कहेगा? सांसारिक हार-जीत के मानकों पर तो वह पराजित योद्धा ही हैं लेकिन क्या ऐसा है? भगत सिंह से बड़ा विजेता क्या स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कोई है? गांधी भी नहीं हैं। इतिहास कहेगा कि गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन जीत लिया। वह विजेता हैं लेकिन यह बात केवल गांधी ही जानते थे कि वह कितने बड़े पराजेता थे।

इस तरह सभी हारे हुए लोग मूलतः प्रेमी रहे और प्रेम में हारे हुए लोगों की हार बंजर नहीं रही। वह उपजाऊ रही। सृजनशील रही। उसने विजय की कोई ज़मीन नहीं जीती, उसने अपनी जमीन पर जीत को उगाया। दुनिया ने समझा कि वे हारे लेकिन असल में सिर्फ वही जीते। यही इस दुनिया का मर्म है। यही शायद इस पंक्ति का मर्म है।
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(सन्दर्भ) कविता

बटोही, तेरी प्यास अमोल,
तेरी प्यास अमोल !
नदियों के तट पर तू अपने
प्यासे अधर न खोल,
बटोही, तेरी प्यास अमोल !

जो कुछ तुझे मिला वह सारा
नाखूनों पर ठहरा पारा,
मर्म समझ ले इस दुनिया का
सिर्फ़ वही जीता जो हारा ।

सागर के घर से दो आँसू-
का मिलना क्या मोल ।

जल की गोद रहा जीवन भर
जैसे पात हरे पुरइन के
प्यास निगोड़ी जादूगरनी
जल से बुझे न जाए अगिन से ।

जल में आग आग में पानी
और न ज़्यादा घोल !
बटोही, तेरी प्यास अमोल,
तेरी प्यास अमोल!

(शतदल)

Sunday, 8 December 2019

भागिए क्योंकि आप 'भाग प्रधान' देश में रहते हैं


भागना सीखो। भागना नहीं जानते तो कुछ नहीं जानते। यह देश बनाया है हमने कि यहाँ भागना नहीं आया तो भोगते फिरोगे। चाहे जो करो। अच्छा-बुरा, ग़लत-सलत लेकिन मुद्रा ऐसी रहे कि भागने को तैयार हो। जैसे ही कोई असंगत संकेत हो भाग निकलो। यह ध्यान रखते हुए कि समय रहते भाग नहीं लिए तो भोगना पड़ेगा। भागने और भोगने का यह अंतर बस इतना ही है। सैकंड-दो सैकंड भर में लिए गए फैसले भर का।

भागने के लिए ज़रूरी नहीं है कि पैर हो या पैर गतिमान हो। एक जगह बैठे-बैठे भी भागा जा सकता है। एक झटके में अपने सहनागरिक, सहग्रामीण, सहपाठी और सहकर्मी के पाले से। एक फैसले भर में झट से काफी दूर भाग सकते हैं। नहीं भागोगे तो भोगोगे। वह सब कुछ जो तुम्हे अभी नहीं भोगना है। दो-चार दिन की तो राहत मिलेगी भाग लेने में तो क्यों न भाग लो।

भागने में दिव्यांगता की भी अपनी भूमिका है। पैरों में हो तो नहीं भाग सकते। ज़ेहन में हो तो उसेन बोल्ट से भी तेज भाग सकते हैं। ऐसे लोग भागते भी वैसे ही हैं। उन्हें बस एक कदम बढ़ाना होता है। फिर तो उन्हें लहर भगा ले जाती है। बिना शक्ति खर्च किये वह ऐसे लोगों से दूर भाग लेते हैं जो भोगने के विकल्प पर सर फोड़ रहे होते हैं। फिर वह उनकी खोपड़ी पर नाच रहे होते हैं। ऐसे भागे हुए लोग एक वक्त के बाद भूल जाते हैं कि भागना कैसे है? या ऐसा हो जाता है कि इनके पांव खींच लिए जाते हैं या फिर इनके नीचे की ज़मीन तोड़ दी जाती है। फिर उन्हें भागने का स्वप्न आता है। हर रोज एक स्वप्न। ऐसे लोग जब खुद भाग नहीं पाते तब भगाने वाले गिरोह में शामिल हो जाते हैं।

भागना कई प्रकार का होता है। छप्पन इंच का सीना लेकर भागने का अपना गौरव होता है। यह राष्ट्रहित में होता है और इसे राष्ट्रीय भाग भी कहा जा सकता है। यह बारम्बार भाग क्रिया होती है। इसमें भागने वाला मधुमक्खी के छत्ते पर बाण मारता है। फिर कुछ देर देखता है। जैसे ही मधुमक्खियों का दल परेड शुरू करता है, धनुर्धर भाग लेता है। फिर वह सीधे जापान या अमेरिका जाकर ही रुकता है। इधर सबके गाल तब तक फूल जाते हैं और जब वह लौटता है तब कोई कुछ बोलने की स्थिति में नहीं रहता।

परिस्थिति चाहे जो कुछ भी हो, मजे राजकुमारों के ही होते हैं। उन्हें क्या पड़ी है कि राजा कौन बने। थोड़ा-बहुत शस्त्र हिलाते-डुलाते हैं फिर थाईलैंड भाग जाते हैं। यह भागने की एकदम नई और अलग विधा है। इसमें आपके पांवों को भी पता नहीं चलता कि आप भागकर कहाँ गए हैं। फिर आप लौटते हैं और भागने की अगली तारीख तक किसी न किसी अभिनय में लग जाते हैं। इससे भी अद्भुत भाग तो स्टूडियो में होती है। वहां एक ही मालिक के बिस्कुट के लिए कई लोग भागते हैं। हड्डी नहीं कहूंगा क्योंकि शाकाहारी हूँ।

एक भाग तो वह भी भागा था। हालांकि, उसे भागना आता नहीं था। वह अपने जीवन की तरह, गेहूं के बीज की तरह धीरे-धीरे का अभ्यासी था। चलता-चलता कहीं न कहीं पहुँच जाने वाले पथिक की तरह। फिर एक दिन भाग गया। जीवन से ही भाग गया। भागना नहीं आता था लेकिन जब पीछे हंटर लगा हो तो बैल हो कि घोड़ा हो कि आदमी। अपने आप भागने लगता है। उसे तो भागने के लिए 32 हज़ार वर्गकिमी क्षेत्रफल की जमीन भी कम पड़ी। सो आकाश की ओर भाग गया। बोला, भय की सीमा से बाहर आने के बाद आकाश ही बचता है। सो उधर ही भागा।

फिर एक राष्ट्रीय स्तर का अंतरष्ट्रीय भाग भी होता है। यह पहली बार तब देखा गया था जब वह शाही मछुआरा कई लोगों का भाग लेकर भागा था। उसे भी तो लगा कि अब भाग जाना उचित है। उसे पूर्वाभास हो गया था कि लोग उसकी भागशक्ति छीन लेंगे। वह भी इसी देश का नागरिक था। भागना ही उसने भी सीखा था। बोला, इस देश की शिक्षा का इस्तेमाल करो। भाग लिया। उसके लिए धरती ने जगह दी। यहां धरतियों के पास झंडे होते हैं। ये झंडे बहुत से भगोड़ों को बचा लेते हैं। छिपा लेते हैं। उसने भी भागकर झंडा बदल लिया। हालांकि, उसे आकाश में नहीं भागना पड़ा। यह भी विचित्र रहा कि वह ज़मीन पर ही भागा और आकाश ने रास्ता दिया। पहले वाला जो आकाश में भागा उसे ज़मीन ने रास्ता दिखाया। यह भागने का अभियान था। सब अपनी-अपनी क्षमता, देशकाल के हिसाब से भागे।

वह पहली बार किसी राजनितिक विरोध प्रदर्शन के रिपोर्टिंग के लिए गई थी। वह धरना स्थल पर पहुंची। नेता से कहानी वाले प्रोफ़ेसर के लहजे में पूछा- नेताजी, आपको भाषण देना आता है। नेताजी बोले, ठीक-ठीक तो नहीं। वह बोली, अच्छा, आपको इस मुद्दे पर संविधान के प्रावधान के बारे में पता है? नेताजी बोले, बयान से खूब पलटे लेकिन कभी संविधान का पन्ना नहीं पलटा। वह बोली, अच्छा, यह जुटान किसलिए है, यह तो पता ही होगा! नेताजी लज्जित होने की मुद्रा में आते कि खाकी वाले आते दिखे। नेताजी झट्ट से उठे और रिपोर्टर से इतना ही पूछा, भागना आता है? इसके बाद जब उसने पलक उठाई तो किसी सरकारी अस्पताल में थी। बगल वाले मरीज ने कहा, आपको भागना आता तो यहाँ नहीं होतीं और हम भाग सकते तो यहां नहीं रहते।

यह भागने की महिमा है। भागने की यही महत्ता है इसलिए भागना सीखो। अपनी जिम्मेदारियों से भागो। कर्तव्यों से भागो। अपनी सच्चाई से भागो। अपने ईमानदारी से तीव्र प्रस्थान करो। भागने का युग भी तो है। दुनिया की दौड़ है। भागोगे नहीं तो रौंद दिए जाओगे। पहले भारत कृषि प्रधान देश था। अब भारत भाग प्रधान देश है। आने वाले दिनों में यह भाग्य प्रधान देश हो जाएगा। इसलिए जूते कस लीजिए। दिशा देख लीजिए। अब तय कर ही लीजिए। नहीं भागना चाहने का कोई विकल्प नहीं है। आप चाहें तो सवाल न कीजिए। विरोध न कीजिए। उंगली न उठाइये। चुप मारकर बैठ जाइए। लेकिन भाग आप तब भी रहे होंगे। कहीं न कहीं से। किसी न किसी से। भागिए और सम्पूर्ण भागिए क्योंकि आपका देश अब भाग प्रधान देश बन चुका है। भागेंगे नहीं तो भकोस लिए जाएंगे और भागते हुए रुकेंगे तो रौंद दिए जाएंगे।

नवभारत टाइम्स ऑनलाइन में

Sunday, 24 November 2019

माईः जीवन से स्मृति की ओर


'छोड़ देना' एक स्वतंत्र क्रिया नहीं है। छोड़ देने में कुछ पा लेने की क्रिया भी शामिल है। हम जब कुछ पा लेते हैं तो कुछ छोड़ देते हैं। या फिर ऐसे कह लें कि कुछ छोड़ देते हैं तो कुछ और मिल जाता है। यह 'और' कुछ भी हो सकता है। एक खालीपन भी। एक एकांत भी। एक नई दुनिया भी। एक नई मंजिल भी। कुछ भी न पाने की स्थिति नहीं होती है। मैं सोचता हूं कि माई (दादी) को ऐसा क्या मिला होगा जब उन्होंने एक मानवी की देह छोड़ी थी। क्या उनकी कल्पना के मुताबिक, उन्हें उनके अराध्य का सान्निध्य मिला होगा। या फिर उनकी ऊर्जा-चेतना को नए जड़-शरीर का निवास मिला होगा।

दोनों ही स्थितियां हो सकती हैं। यह भी हो सकता है कि उन्हें कुछ बेहतर मिला हो और ऐसा बेहतर मिला हो कि अपने पार्थिव शरीर को उन्होंने मुड़कर ही न देखा हो। हो सकता है कि वह यह कहते हुए तेजी से काल-पथ पर आगे बढ़ गई हों कि 'चलो, इस नरक से छुटकारा तो मिला।' यह भी हो सकता है कि उनकी चेतना कहीं और ठौर ढूंढने निकल गई हो। नए ठौर-ठिकाने को निकलने से पहले उन्होंने अपने घर को भरपूर नजर से देखा हो। अपना पूरा परिवार देखा हो, जिसे वह छोड़कर जा रही थीं।

एक-एक नातियों का नाम अपने होठों से उचारा हो। उनके चेहरे याद किए हों। भरी आंखों के धुंधले प्रकाश से अपने देवस्थान को नजर भर निहारा हो। अपने पुत्रों के माथे की शिकन देखी हो और फिर आंसू पोंछ लिए हों। दृष्टींद्रिय को छोड़कर आगे की ओर गतिमान उस गैर-शरीरी अस्तित्व को अपनी समस्त शक्ति के साथ अनिच्छा से अग्रसर किया हो।

वह याद भी कर रही हो सकती हैं, मुझे, जिसकी कोई बात उनके अवचेतन से उस दिन निकलना चाह रही थी जब मैं उनके सामने गया और वह तकरीबन बेहोशी की हालत में थीं। उनके शरीर का सोडियम बाधक हो गया। डॉक्टर ने बताया कि कम सोडियम की वजह से उनकी सेंसिबिलिटी पर बुरा असर पड़ा है। वह बातें भूल जाती हैं। मैं अब भी जानना चाहता हूं कि मेरी वह कौन सी बात थी, जो उन्हें ऐसी अवस्था में भी याद थी। उसके बाद से वह कुछ नहीं बोलीं मुझसे। मैं परेशान था। उनके ही साथ अचेत हो गया-सा। मुझे अपनी वे सारी संभावनाएं सच होती दिख रही थीं, जिन्हें लेकर मैं हमेशा भयभीत रहा करता था। हताश भी क्योंकि इतना ज्ञान तो था कि उन्हें एक दिन सच होना है।

वह सच हो गया। मेरे जीवन के सबसे बुरे माह नवंबर की 6 तारीख को। दादी का दिल बंद पड़ गया। इतना बड़ा दिल। साढ़े 8 दशक तक नेमतें बांटता रहा। आशीर्वाद देता रहा और अचानक एक दिन बंद हो गया। उन्हें वेंटिलेटर पर ले जाने की तैयारी थी लेकिन वह तो ऐसा हृदय था, जिसमें कुछ भी कृत्रिम नहीं था। उसे कृत्रिम यंत्र समझते भी कैसे? कृत्रिमता ने उसे कभी स्पर्श न किया था। उस दिन कैसे कर लेता। दादी का हृदय निस्पंद हो गया। लोगों ने कहा कि वह अब नहीं रहीं।

माई चली गईं। सदैव के लिए। हमारे बीच से। हमारे घर से। हमारे गाँव से। हमारे जीवन से? नहीं जा सकतीं जीवन से। मैं उन्हें ही जी रहा हूँ। अब मैं उन्हें और ज्यादा जीने की कोशिश करूंगा क्योंकि अब वह अपने आपको नहीं जी रही हैं। अब उनके हिस्से के जीने का दायित्व भी हम पर है। हम उन्हें और ज्यादा जीने की कोशिश करेंगे।

दादी का यूं तो हमारे जीवन से जुड़े फैसलों में कोई ख़ास हस्तक्षेप नहीं था। घर के मसले भी बिना उनकी राय-मशविरे के हल हो जाते थे लेकिन इससे घर में उनकी उपयोगिता रत्ती भर भी कम नहीं थी। वह घर में एक घर के होने की जरूरत से ज्यादा जरूरी थीं। हम सभी के लिए। बेटों के लिए। बहुओं के लिए। नातियों के लिए। वह 23 लोगों के परिवार का कोई केंद्र-वेंद्र नहीं थीं और वह केवल परिधि भी नहीं थीं। वह जो थीं, उसकी ठीक-ठीक उपमा कैसे दी जाए नहीं जानता। बस ऐसे समझें कि घर के हर हिस्से में थोड़ी-थोड़ी शामिल। ऐसे गुंथी हुई कि जैसे शरीर में नसें।

यह निश्चित रूप से एक कठिन समय है क्योंकि अभी तक दादी को और घर को अलग-अलग सोचा भी नहीं गया था। अब तो इसे जीना है। जाने कब-तक। घर उपस्थित है। दादी अनुपस्थित। रिक्तता का यह झन्नाटेदार सन्नाटा सहनशीलता को भेद ही देता है। मैं दादी के देहावसान के दो दिन बाद लखनऊ भाग आया। क्योंकि यह ऐसा पूर्वज्ञात संभाव्य सत्य था, जिसकी पीड़ा से केवल भागा जा सकता था। उससे लड़ा नहीं जा सकता। यह इतना विशाल था कि हिम्मत ही नहीं हुई।

लौटना सबसे सुकूनजनक क्रिया
केदारनाथ सिंह ने लिखा- 'जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है।' इसी तर्ज़ पर कहें कि 'लौटना हिंदी की सबसे सुकूनजनक क्रिया है।' हमें लगता है कि यह है। यह उन्हें ही लग भी सकता है, जिनके पास लौटने की कोई जगह न बची हो। दादी जब तक थीं, हम कभी घर नहीं लौटे। हम दादी में लौटते थे। माई के पास। वह घर के अंदर एक घर की तरह थीं। जैसे दुनिया के अंदर लोगों का एक घर होता है, जहाँ वह लौटते हैं। मेरे लिए घर लौटना दादी के पास जाना था।

लौटना व्यापक शब्द है। इसके अर्थ में अपने आप में लौटना भी शामिल है। अपनी पूर्वचेतना को पाने का मंच। दादी घर के अंदर घर-सी थीं। उनके पास होकर हम अपने आप में लौटते थे। अवसाद, उदासी और दुःख में आगे बढ़ आए हम अपनी सामान्य चेतना में लौटते थे। इस क्रूर दुनिया में वही तो थीं, जो सबसे ज्यादा सुरक्षित और स्नेहिल जगह थीं, जहाँ लौटकर नवजीवन मिलता था। किसी सुबह की तरह निर्मल, नवा और सुंदर जीवन।

प्रेम-स्नेह-मोह
प्रेम-स्नेह मोह से अलग परिस्थिति है। एक आदर्श परिस्थिति की तरह उसे देखा जाता है। उससे बाहर भी आया जा सकता है लेकिन मोह से बाहर नहीं आ सकते। मोह को इसीलिए नकारात्मकता में लिया गया। दादी की सालों की साधना इसी बात की थी कि मोह पर विजय पा ली जाए। लेकिन वह किसी दलदल की तरह इसमें धंसती गईं। पहले अपने दादाजी का मोह था। फिर पिताजी का मोह और उसके बाद दो छोटे भाइयों का। फिर इस मोह की सतह पर पुराने लोग नीचे चले गए और नए किरदार आए। इनमें उनके बेटे रहे और सबसे अंत में नाती।

दादी को अक्सर लोगों से यह कहते सुना कि उन्हें अपने बेटों से ज्यादा अब अपने नातियों का मोह होता है। यह कहते हुए हर बार उनकी आंखे भर आती थीं। इससे लगता है कि वह हर दिन जाने को तैयार थीं। उन्हें इस बात का डर नहीं था कि जाना है बल्कि दुख था, कि कितने लोगों को छोड़कर जाना है। मैं अंतिम समय में उनके साथ था। मुझे तब भी उनके चेहरे पर कहीं डर नहीं दिखा। अद्भुत सहनशीलता से उन्होंने अपनी पीड़ाएं छिपा ली थीं। जिसे न हम समझ पा रहे थे, न परिवार और न ही डॉक्टर।

अचेतावस्था में भी उन्हें लगता है कि उनका भगवान अन्य प्राणियों की तरह उनसे छल कर सकता है। उनके स्मरण में, उनकी वाणी पर और उनके अंतर्मन में अपने आप को आने नहीं देगा। उन्होंने कहा, 'हमहीं के बुर्बक बूझत हवें? हम उनसे होशियार हईं।' दादी ने शायद इसी वजह से दशकों की साधना से अपने अराध्य छलिया को अपने अवचेतन में बसा रखा था। कि अंत समय में ज्यादा से ज्यादा क्या करोगे? चेतनाशून्य कर दोगे। अवचेतन तो फिर भी रहेगा न। उनकी साधना निष्फल नहीं थी। अपने अंतिम वक्त में उनके मुंह से जो भी उच्चरित हो रहा था, वह प्रेम-भक्ति-श्रद्धा और साधना की पराकाष्ठा से ही संभव था।

वह लगातार देव मंत्र पढ़े जा रही थीं। सुंदरकांड की चौपाइयां। गीता के गीत। भर्तृहरि की कथाएं सुनाए जा रही थीं। परीक्षित की, सुतीक्षीण की कहानियां बताए जा रही थीं। यह फर्क नहीं पड़ता कि कोई उनके पास है या नहीं? कोई उन्हें सुन रहा है या नहीं! उस वक़्त वह आदर्श कथाओं के किसी रेडियोऐक्टिव पदार्थ की तरह हो गई थीं। उनसे वह सब कुछ विकिरित हो रहा था जो उन्होंने जीवन भर अर्जित किया था। वह अपने ईश्वर को ही उसकी कथाएं सुनाने लगी थीं।

माई का स्वगत
माई का व्यक्तिगत जीवन बहुत उथल-पुथल भरा था। जीवन शुरू हुआ एक समृद्धि के साथ। अगाध वात्सल्य की छाया में। बाबा (दादाजी) से कहानियां सुनते। बाबूजी के स्नेह में भीगते। फिर आया संघर्षों का दौर। विवाह हो गया। एक बड़े परिवार की जिम्मेदारी के अलावा पितृसत्तात्मक समाज के दोषों के अधीन वातावरण में अपनी स्वतंत्र चेतना और अधरों के सदावसंत को बचाए रखने की जद्दोजहद ने दादी को और अधिक विनम्र और स्नेहिल बना दिया। खूब मांज दिया। वह कहतीं कि उनके दादाजी की शिक्षाएं न होतीं तो वह पता नहीं कैसे जी पातीं।

एक कहानी बताती थीं। घर में विपन्नता की स्थिति थी। परिवार आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा था। वह उस परिवार की गाड़ी चलाने वाले की साझीदार थीं। पारिवारिक परिस्थितियां भी बहुत अनुकूल नहीं थीं। जिस प्रेम के बसंत में उन्होंने जीवन जीया था, उसके मुकाबले यह जीवन किसी त्रासदी से कम नहीं था। ऐसी स्थिति में किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्थिति को लेकर एक सामाजिक कल्पना यही होती है कि उसके होठों से हंसी गायब हो जाए। वह दुखी रहे। मुरझाया हुआ। ऐसा नहीं था कि वह दुखी नहीं होती थीं लेकिन हंसी से पीछा नहीं छुड़ा पाती थीं। वह उनके सौंदर्य का अटूट अंग था।



एक दिन दुआर पर किसी की तलाश में टहलते वह 'सामाजिक धारणा' के विपरीत चिंतित नहीं लग रही थीं, बल्कि मुस्कुरा रही थीं। गांव के ही किसी बुजुर्ग की नजर उन पर गई थी। बाद में उसने बाबा (दादाजी) से कहा कि इतनी परेशानियों की बाद भी उन्हें कभी परेशान नहीं देखा। उनके चेहरे पर हमेशा हंसी ही देखी है। दादी को लेकर उनकी छवि ऐसे ही आनायास नहीं बन गई होगी। यह कई बार के ऑब्जर्वेशन का परिणाम था। हमने भी तो दादी को दुखी होते नहीं देखा। हमेशा हंसती-मुस्कुराती।

उस दिन भी तो वह हंस रही थीं, जब भयानक पीड़ा के बीच उन्हें गोरखपुर के फिराक चौराहे के आस्था अस्पताल में ऐडमिट कराने ले गए थे। अब उनकी हंसी याद करके रोना आ जाता है। दादी की हंसी हमारे लिए पुरस्कार जैसी थी। गाय को लाठी से नहीं मारा। अहाते से 'हट्ट-हट्ट' बोलकर भगा दिया और बाद में दादी को आकर बताया। "भला कईलऽ"। यही उनकी प्रतिक्रिया होती।

"चिड़िया खातिर पानी रखनी हईं, छत्ते पर।"
"भला कईलऽ"

"भला कईलऽ" कोई नोबल पुरस्कार जैसा था। यह सुनना भर। इन दो शब्दों ने कितने-कितने अच्छे काम हमसे कराए हैं, इस बारे में अलग से लिखा जा सकता है।

जिज्ञासु मन
सद्भावनाओं से भरे ह्रदय के अलावा उनके पास ऐसा जिज्ञासु मन था कि अंत समय तक वह विद्यार्थिनी रहीं। उन्हें आप कभी भी कुछ नया सिखाएं, वह किसी शिष्या की भांति बड़े ध्यान से सुनने बैठ जातीं। विज्ञान के रहस्यों पर भी उन्हें भरोसा हो जाता और ईश्वर पर तो खैर, विश्वास ही नहीं था, वह उसे ऐसे ट्रीट करतीं जैसे वह उनका कोई पड़ोसी या रिश्तेदार हो, जिससे उनका रोज का हाल-चाल वाला व्यवहार हो। उनके पिता ने उन्हें स्कूल कभी नहीं भेजा। दादाजी ने सिफारिश की। बहुत तेज दिमाग है स्कूल भेजो लेकिन शांति (दादी) कभी स्कूल नहीं गईं। अपने तेज दिमाग से शांति ने सद्भावना सीखी। दया करना सीखा। प्रेम लुटाना सीखा। करुणा सीखी। दूसरों की तकलीफ स्वयं में धारण करना सीखा।

स्वगत से विश्वगत
स्वार्थ मानवीय गुणों का ऐसा तत्व है, जिससे आप इससे हथियार भी बना सकते हैं और घर भी बना सकते हैं। दादी का स्वार्थ बड़े परिसर में था। वह संकुचित नहीं था। वह फैलता था, जिसमें सारा संसार समाहित हो सकता था। एक कहानी बताती थीं। किसी तीर्थयात्रा से लौट रही थीं। ट्रेन में बैठी थीं। किसी स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो एक विद्यार्थी लड़का हांफते हुए डिब्बे में चढ़ गया और जगह ढूंढने लगा। जहाँ भी शरण मांगता, लोग भगा देते। माई यह दृश्य देख रही थीं। बोलीं, "आवऽ, बच्चा। हमरे लग्गे आवऽ। हम देब तुहके जगहि। अइसहीं हमरो नातिया कुल आवत होइहें नऽ, हाँफ़त-परेशान होत। तुहूँ हमारे नतिये खान बाटऽ।" (मेरे पास आओ। हम जगह देंगे। ऐसे ही हमारे पोते भी आते होंगे। तुम भी मेरे नाती जैसे ही हो।) मैं जब भी इस कहानी का दृश्य बनाता हूँ, रो पड़ता हूँ और माई के प्रति कृतज्ञता के एक सागर में गिर पड़ता हूँ।




अजीवन समझदार बच्ची
दादी जीवन भर एक समझदार बच्ची रहीं। उत्सुकता से सबकी बात सुनतीं। जो भी पढ़तीं, उसे सुनाने के लिए बेचैन हो जातीं। जैसे जब हम छोटे थे तब स्कूल में क्या हुआ, रास्ते में क्या देखा, सब मम्मी को बताने के लिए बेचैन हो जाते थे। दादी के भाई का कुछ ही साल पहले कैंसर से निधन हो गया था। वह उन्हें अक्सर बुला लेते थे। अध्ययनशील व्यक्ति थे। बहुत पढ़ते थे। पढ़ा हुआ किसी को समझाना होता था तो वह अपनी दीदी को बुला लेते। दादी उन्हें बड़ी गंभीरता से सुनतीं। याद भी रखती थीं और जब घर लौटतीं तब हमें सुनाती थीं। कुछ तथ्य भूलते तब अपनी याददाश्त को कोसतीं। दूसरे ही पल उन्हें याद हो आता। राजनीतिक बहसें भी दिलचस्पी से सुनतीं। उन्हें किसी भी चीज के बारे में सूचना दी जा सकती थी। इतनी अबोध और अहंकारशून्य की किसी से भी ज्ञान लेने में संकोच नहीं था।

घर के सबसे छोटे बच्चे से लेकर गुरु परिवार के विद्वान लोगों तक के बताई चीजों को ध्यान से सुनतीं। राजनीति पर बात चलती तो पल भर में नरेंद्र मोदी का समर्थन होता और थोड़ी देर में ही उनके खिलाफ हो जातीं। यह निर्भर करता कि कौन उन्हें नरेंद्र मोदी के कामों के बारे में जानकारी दे रहा है। नातियों पर ऐसा भरोसा कि किसी पर भी अविश्वास नहीं करती थीं। मुझे लगता है कि वह ऐसा इसलिए करती थीं कि उन्हें हमें किसी भी तरह से निराश नहीं करना होता था। इसलिए, सबकी बात सही। सब पर प्रतिक्रिया। सबके हिसाब से खुश हो लेना। सबकी हंसी में हंस देना।

अंतिम दिन
वह अंतिम दिन था घर पर उनका। अपने घर पर, जिसके लिए वह कहतीं कि अब यहीं से जाना है। हम उस 'जाना' का अर्थ समझते थे। हम जानते थे कि यह 'जाना' जिस दिन होगा, हम रोक नहीं पाएंगे। वैसे ही जैसे उन्हें रुद्रपुर में नहीं रोक पाते थे। एक दिन भी अतिरिक्त। वह दुग्धेश्वरनाथ मंदिर में पूजा करने गांव से आ जाती थीं। हम लोगों में जैसे उत्साह का नवसंचार हो जाता। एक मुरझाया हुआ जीवन खिल जाता। वह दो-तीन दिन रहतीं, फिर जाने को कहतीं।

बिल्कुल भी जी नहीं चाहता कि उन्हें जाने दें लेकिन वह बेहद करुणा के साथ कहतीं कि उन्हें अब घर जाना है। फिर लगता कि दादी को उनके घर से अलग करना कितनी बड़ी क्रूरता है। वह यहां अपने आपको अडजस्ट नहीं कर पाती थीं। अतिथि की तरह रहती थीं। हम अपनी माई को अपने घर में अतिथि के रूप में कभी नहीं देख सकते थे। इसलिए, अपना आग्रह छोड़ देते और वादा करते कि जल्दी ही छुट्टियों में घर आएंगे।

वह अंतिम दिन था। जब हम घर पहुंचे तो चाची, मां और बुआ उन्हें घेरकर बैठी थीं। दादी लगातार बोले जा रही थीं। कुछ न कुछ सुना रही थीं। जितने संस्कृत श्लोक उन्हें याद थे, सब बारी-बारी से बांचे जा रही थीं। दादी जिंदगी भर अस्पताल नहीं गईं। वह तब भी नहीं जाना चाहती थीं लेकिन हमलोग अचेतन अवस्था में उन्हें वहां से गोरखपुर ले गए। जीवनभर इस पर मन में द्वंद्व रहेगा कि कहीं अस्पताल ले जाकर गलती तो नहीं की गई कि उनकी उस अभिलाषा को भी पूरा नहीं होने दिया, जिसमें वह यहीं से 'जाना' चाहती थीं। लेकिन दादी को उस असहाय अवस्था में देख भी तो नहीं सकते थे। अत्यंत स्वावलंबी, अत्यंत सशक्त और अत्यंत आत्मनिर्भरता की अवस्था में ही हमेशा उन्हें देखा गया था। ऐसी हालत में अपार कष्ट झेलते भी तो नहीं देख सकते।



आराम करना तो उनकी फितरत में था नहीं और वह पूरे दिन बिस्तर पर रहीं। बार-बार उठना भी तो चाह रही थीं। बार-बार हाथ आगे बढ़ाकर सहारा मांगती। हम रोक देते। "माई अब्बे नाईं। बोतल चढ़त बा।" दादी बोलतीं- "अच्छा, अब्बे नाईं?" फिर स्वीकार्यता का संकेत देकर लेट जातीं। यह क्रिया कई बार दोहरातीं। जिद नहीं थी। चिड़चिड़ापन नहीं था। इतना नियंत्रण कैसे था, मुझे नहीं पता। फिर कोई किसी पुराण कथा के बारे में पूछ देता तो तफसील से बताने लग जातीं। ऐसा जीवंत था उस कर्मठी और चिर युवती महिला का अपने घर पर अंतिम दिन।

हालांकि, घर पर अंतिम दिन और संसार में सदेह अंतिम दिन, दोनों घटनाएं एक ही दिन नहीं घटीं। अपने उपन्यास 'अपने-अपने अजनबी' में अज्ञेय लिखते हैं न कि "कुछ भी किसी के बस में नहीं है। एक ही बात हमारे बस की है, और वह है इस बात को पहचान लेना।" इस बात को पहचान लेना चाहिए। दादी का अंतिम क्षण आया कार्तिक की नवमी को। उसे अक्षय नवमी का दिन कहा जाता है। दादी स्वस्थ होतीं तो दिया जलाने के लिए दुग्धेश्वर नाथ मंदिर जातीं लेकिन इस बार उन्हें एक दीया बुझाना था। 'अक्षय' शब्द की संगत वाले दिन को इस शब्द के विरुद्ध जाना था और यह 'जाना' अपने घर नहीं हुआ, जैसाकि वह चाहती थीं।

स्मृतियों तक की यात्रा
"कौन स्वतंत्र है? कौन चुन सकता है कि वह कैसे रहेगा या नहीं रहेगा?" कोई नहीं न! दादी भी इसका अपवाद नहीं बन सकीं। जीवन से स्मृति में स्थापित हो गईं। हमें अंत तक उम्मीद थी कि दादी लौटेंगी। आज तक हम उनमें लौटते थे। आज वह हममें लौटेंगी। लेकिन इस बार लौटना नहीं हुआ। इस बार 'जाना' तय हुआ। स्मृतियों में। हमारी स्मृतियों में। घर की स्मृतियों में। घर की फुलवारी की स्मृतियों में। घर के अहाते की स्मृतियों में। घर के आंगन, छत के देवस्थान की स्मृतियों में। हम याद करेंगे उन्हें हमेशा क्योंकि गीत चतुर्वेदी कहते हैं कि "हम जब तक किसी को याद करते हैं उसकी मृत्यु नहीं होती।"

Sunday, 27 October 2019

अंधेरे के खिलाफ युद्ध नहीं दीपावली

तमसो मा ज्योतिर्गमय!

उन्नति की प्रक्रिया में तम से ज्योति की ओर बढ़ना होता है। इसमें हर एक पड़ाव अपने आगे वाले के लिए तिमिर है और हर पड़ाव अपने पीछे वाले के लिए ज्योति। तम या अंधकार कोई एक निश्चित बिंदु या अवस्था नहीं है। हम हर दिन, हर पल तम से ज्योति की ओर आगे बढ़ने के अभियान में हों, यही दीवाली का संदेश है।

जीवन को एक युद्ध की तरह लेने वाले लोगों ने अंधकार को शत्रुपक्ष के एक सैनिक की भांति प्रोजेक्ट किया है। हालांकि, अंधेरा इतना बुरा नहीं है। सबसे पहले तो तम या तिमिर या तीरगी या अंधकार हमारा दुश्मन नहीं है। इसलिए उसके खिलाफ युद्ध छेड़ने या उस पर विजय प्राप्त करने की घोषणाएं दुनिया की सबसे भ्रमित योजना का हिस्सा हैं।
अमावस का अंधकार एक शान्ति लेकर आता है। ऐसी अद्भुत शान्ति आपको कहीं देखने-महसूसने को नहीं मिलेगी। आप ज़रा बारीकी से महसूस करेंगे तो पाएंगे कि प्रकाश में एक तरह का शोर है। अमावस में इस शोर की शांति है। कार्तिक की अमावस्या विशेष है। इस शांति में हमने हल्के प्रकाश का साहचर्य चुना है। यह साल में अकेला ऐसा अवसर होता है जब अंधेरे को प्रकाश का सही मायने में साथ मिलता है। यह दोनों के प्रेम और संगम की बेला होती है। अंधेरे और प्रकाश के प्रणय का अवसर। बाकी तो, प्रकाश के हमारे सारे जतन अँधेरे के खिलाफ युद्ध छेड़ते ही दीखते हैं। इतना भी बुरा नहीं होता अंधेरा भाई।

दीपावली को हमने प्रकाश पर्व बना लिया। यह पड़ता तो अमावस को है। श्वेत प्रकाश का पूजन और कृष्ण अन्धकार का तिरस्कार हमारी नस्लीय सोच के सिलसिले में भी आता हुआ माना जा सकता है। जहां श्वेत सुन्दर है। कृष्ण कुरूप। भयानक। दीपावली में प्रकाश ही प्रधान है लेकिन प्रकाश का अस्तित्व ही अंधेरे से है। अंधेरा इतना विनम्र और सुलभ है कि वह वहां भी होता है जहाँ वातावरण नहीं पाया जाता। आप उदाहरण के तौर पर अंतरिक्ष के निर्वात पर सोच सकते हैं।

खैर, दीपावली पर अंधेरे का पक्ष रखना खतरे से खाली नहीं है लेकिन यह उसका अधिकार है कि उस पर बात हो। मौजूदा बौद्धिक चेतनाओं में यह उत्सुकता काफी देखी जाती है कि यह प्रयास हो कि अंधेरे को ख़त्म कर दिया जाए। इस क्रम में अँधेरे पर प्रकाश के विस्फोट का चलन बढ़ा है। हम बीसियों बल्ब जला लेंगे। उच्च विभवान्तर के। अंधेरे का निशान न रह जाए। सर्वत्र उजाला हो। सर्वदा उजाला हो। दिन-रात, 24 घंटे प्रकाश हो। अंधेरे को शत्रुपक्ष का बेड़ा समझकर हर कोई सर्जिकल स्ट्राइक करने पर तुला है।

यह प्राकृतिक तो नहीं है। लेकिन यह आधुनिकता का दौर है। विकास का मौसम है। सभ्यता के उत्कर्ष का आयोजन है। अप्राकृतिक होते जाना अब मानव सभ्यता का नया शौक बन गया है। प्राकृतिक तो यह है कि हम अंधेरे को बरतें। उसे बहिष्कृत न करें। पास्तान की एक कविता के अनुवाद में रीनू तलवाड़ की लिखी यह पंक्ति है कि

"जब ईश्वर ने कहा
उजाला हो
तब अंधेरे को बहिष्कृत तो नहीं किया।"

उपर्युक्त वेद श्लोक में भी ऐसा नहीं लिखा कि अंधेरे को समाप्त कर दिया जाए। वहां भी कहा गया कि तम से ज्योति की ओर चलें। वैसे ही, मृत्यु से अमरता की ओर चलें। मृत्यु तो प्राकृतिक है। वह होना ही है। वह अपरिहार्य है। अमरता उपलब्धि है। प्रकाश प्राप्य है। सत्य उद्देश्यणीय है। इसलिए, दीपावली प्रकाश को प्राप्त करने की चेष्टा है। अंधकार को मारने का उपक्रम नहीं।

Saturday, 19 October 2019

दुःख का 'दुख'

किसी ने कहा दुखी मत रहो। दुखी रहने से कुछ नहीं मिलने वाला है। जब मन दुखी हो तब मुस्कुराने की कोशिश करो। हंसने की कोशिश करो। सब ठीक हो जाएगा। सब सही हो जाएगा। मुझे इसी बात पर अटक जाना पड़ा। ठीक हो जाना क्या होता होगा! सही हो जाना क्या होता होगा! सुखी होने से क्या मिल जाना है जो दुखी होने पर नहीं मिलता! या दुखी होकर क्या घट जाना है जो सुखी होने पर बढ़ जाता! जीवन में समय की मात्रा तो उतनी ही होती है। सुख में भी। दुःख में भी।

यह भी यकीन मानिए, सुख-दुःख में आपके अस्तित्व से जुड़ा पर्यावरण भी रत्ती भर कम-ज्यादा नहीं होता। सब उतना ही होता है, जितना दुःख में। फिर अंतर क्या है दोनों में? दोनों के प्रति यह विभेद किसलिए है? दोनों के प्रति विपरीत बर्ताव क्यों किया जाता है? दोनों का स्वाद विपरीत प्रकृति का क्यों बताया जाता है? यह सवाल तो उठता है। हमारे न चाहने पर भी यह सवाल बना तो रहता है। एक के साथ सद्व्यवहार। दुसरे के साथ दुर्व्यवहार। क्यों?

मैं व्यक्तिगत रूप से मद्धमत्व का अनुगामी हूँ। बीच का रास्ता। न तो बहुत तेज और न बहुत धीरे। संतुलित स्थिति। सुख-दुःख का देखें तो गति की अनुभूति को प्रभावित करने में इनकी भूमिका लगती है। हालांकि, यह सिर्फ अनुभूति है। वास्तविक नहीं। यथार्थ में सब कुछ अपनी मात्रा में निश्चित है लेकिन सुख में अक्सर यह आभास होता है कि वक़्त जल्दी बीत गया। दुःख में लगता है कि समय बीतता क्यों नहीं? जबकि, समय न तो रुकता है और न ही तेज होता है। वह अपनी गति में हैं। हमारे देखने-महसूस करने की सापेक्ष स्थिति में उसकी चाल बदलती रहती है।

ऐसे देखें तो दुःख की जीवन में बेहतरी सिद्ध हो जाएगी। हम सभी चाहते हैं कि वक़्त थोड़ा धीरे चले। बीत न जाए एक झटके में। आराम-आराम से चले ताकि जीवन भी लंबा हो। लंबे जीवन की कामना। अच्छा! जीवन भी क्या लंबा होता होगा! अनुभूति ही है जो कुछ है। दुःख में अगर वक़्त बीतता ही नहीं है तो जाहिर है कि अनुभूति के धरातल पर उसकी गति धीमी हो गई है। गति धीमी होने का मतलब है कि जीवन-अनुभूति भी थोड़ी लंबी हो गई। ऐसे में दुःख तो बेहतर हुआ न! लोक मान्यता में फिर तो दुःख का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन हम करते हैं दुःख से घृणा। न जाने क्यों!

किसी ने कहा कि दुःख पर हंसी का आरोप कर दीजिए। दुखी होने पर मुस्कुराइए। दुःख दूर होता जाएगा। मैं सोचता हूँ क्यों? दुःख के साथ यह सौतेला व्यवहार क्यों! दुःख से यह दुर्व्यवहार क्यों? दुःख से क्या दुश्मनी है। उदासी से क्या शत्रुता है कि इसे किसी भी तरह से दूर रखना है! क्या सिर्फ इतना कि इससे चेहरा विकृत हो जाता है। आप सुन्दर नहीं दिखते। यह तो कोई समस्या नहीं हुई। अगर यह आपको समस्या लगती है तो यह नस्लभेद का मामला है। सुंदर-असुंदर होना चेहरे पर कतई निर्भर नहीं करता। त्वचा पर निर्भर नहीं करता। वह व्यवहार, आचरण, समझदारी और ऐसे तमाम सद्गुणों का सम्मेल है, जिससे सुंदरता बनती है।

दूसरा तर्क है कि दुःख में आपका बर्ताव तीखा हो जाता है। आप लोगों से दुर्व्यवहार करने लगते हैं। मेरा मानना है कि यह दुर्व्यवहार आप तब करने लगते हैं जब दुःख के साथ आप दुर्व्यवहार करते हैं। दुर्व्यवहार से दुर्व्यवहार ही जन्म लेता है। वहां से सद्व्यवहार कैसे उगाएंगे? दुःख को बरतना आना चाहिए। वह जीवन-तत्त्वों की अनुभूतिक शाखाओं में से एक है। उस पर किसी का भी आरोप क्यों करना! उसे क्यों नहीं जीना। जबकि दुःख में आप अपने अन्तस् में उतरते हैं। गहरे होते हैं। सुख में उथले रहते हैं। दुःख में वैचारिक रूप से गहरे होते जाते हैं।

दुःख की अपनी स्वतंत्र सत्ता है। हम सुख में ऐसा नहीं कहते कि थोड़ा-सा रो लो तो सुख दूर हो जाएगा, तो दुःख में क्यों कहें कि हंसो तो दुःख दूर हो जाएगा। दो सहज मानवीय गुणों में यह विपरीत और अनुचित व्यवहार क्यों? यह आत्मिक असमानता और भेदभाव का मामला है। जब आत्मा में साम्यवाद आएगा तब दुःख भी अपने अधिकार मांगेंगे और कहेंगे कि हमें समूल मिटाने का यह षड्यंत्र क्यों है? यह होगा अगर हम साम्यवाद चाहते हों लेकिन हमारे अंतर तक में भेदभाव के बीज घुसे हुए हैं। हम समानता के सबसे बड़े विरोधी हैं और जब तक हम यह विरोध रखेंगे तब तक हम दुःख से सही बर्ताव नहीं करेंगे और इससे परेशानी महसूस करते रहेंगे।

किसी हिंदी फिल्म में गीत है- 'हंसते-हंसते रोना सीखो, रोते-रोते हंसना।' कितना वैज्ञानिक है यह गीत और मानवीय भी। इसमें संकेत है कि यह दोनों ही गुण मानवीय हैं। किसी से भी बैर क्यों। अगर हंसना जानते हो तो रोना भी सीख लो। रोते हो तो हंसना भी आना चाहिए। यह संतुलन के लिए जरुरी है। हम यह क्यों भूलें कि भाषाओं और शब्दों की दुनिया में हमारा पहला वाक्य ही रुदन था। तो जो पहला है वह तो हमारे लिए विशेष है न! जीवन में हर प्रथम हमारे लिए विशेष होता है। फिर रुदन के प्रति हम दूसरे किस्म का बर्ताव क्यों करें?

दुःख भी सुख की तरह अनिवार्य और जरूरी हैं। उनकी उपेक्षा करेंगे तो वह आपके प्रतिकूल होते जाएंगे। दुःख का, उदासी का भी उत्सव हो सकता है। उन्हें सहज रूप से अपने जीवन में शामिल किया जा सकता है। वह हमारे सबसे सख्त और शिक्षित गुरु होते हैं। दुःख में हमें जो ज्ञान मिलता है, जो सीख मिलती है, वह सुख में नहीं मिल सकता। दुःख में जो हमारी दृष्टि हो सकती है वह सुख में नहीं हो सकती। दुःख में जो हम होते हैं वह सुख में नहीं होते। एक बात और, मैं सुख की महत्ता को कम करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। मैं दुःख की पीड़ा के पक्ष में खड़ा हूँ जिसे हमेशा दुत्कार मिलती है। मैं उसके महत्व को रेखांकित करना चाहता हूँ कि वह सुख का ही सहोदर है। उनके साथ भेदभाव न हो। उसे भी सहज अपनाया जाए। वह आपको बुरा प्रभावित नहीं करेगा।

हां, अतिरेक किसी भी चीज का सही परिणाम नहीं देता। अत्यधिक दुखी होने पर हंसना ही चाहिए। साथ ही, अत्यधिक सुखी होने पर थोड़ा रो लेना चाहिए। प्रकृति समानता से प्यार करती है। अति तो सहन कर ही नहीं सकती। चाहे वह सुख की हो, चाहे दुःख की। नहीं क्या!!

Sunday, 13 October 2019

शरद का एकाकी शशांक

लखनऊ में नक्षत्रपति अकेले हैं। गांव में होते तो अपने सभासदों और मंत्रियों के साथ दिखते। सप्तर्षि गुरुओं की उपस्थिति से राज्यसभा गंभीर दिखाई पड़ती। नीरव निशीथ के वातावरण की कालिमा और अपनी शुभ्र ज्योत्सना के विरोधाभासी सम्मेल में पूर्णेन्दु अद्भुत चमक रहे होते। अद्भुत आभा होती लेकिन यहाँ आकाश में अकेले हैं। धरती पर रहने वाले लोगों की अँधेरे से लड़ाई ऐसी क्रूरतम और अहंकारी स्थिति में है कि उन्होंने कृत्रिम उजालों से अपने उजले सेनापति की आभा का भी हरण कर लिया है।

गर्दन ऊपर उठाइये तो दिख जाते हैं। पहले उनकी ज्योति का गुरुत्व अपने आकर्षण से हमारी दृष्टि को खींच लेता था। अब वह अकेले पड़ गए हैं। उनकी नक्षत्र रानियां भी आज उनके साथ नहीं। नितांत अकेले। शरद की पुण्य पूर्णिमा पर एकाकी शशांक। क्या दुखी होंगे? निराश? उदास? लगता तो नहीं। या हो भी सकते हैं। याद कर रहे हों अपने संगियों को। थोड़े से मलिन हो गए हैं अपनी कांति में।

शरद के शशि अश्विनीकुमारों के क्वार माह को विदा करते हैं। क्वार के कुमार देव वैद्य हैं। बताया जाता है शरद पूर्णिमा को चंद्रमा से अमृत बरसता है। देव वैद्य सौंपकर जाते होंगे यह जिम्मेदारी। चाँद को ही क्यों? चांद को इसलिए कि उन्हें भरोसा है। विश्वास है कि चन्द्रमा के यहाँ निष्पक्षता है। उनके यहाँ पक्षपात नहीं है इसलिए सुधापात होगा तो सबके यहाँ बराबर होगा।

नक्षत्राधीश की नजर में कोई भेद नहीं। सब बराबर। पूर्ण साम्यवाद है। वह चांदनी के रथ पर सवार धरती पर उतरते हैं तो सबकी चौखट पर जाते हैं। बिना वर्गभेद के। बिना जातिभेद के। बिना धर्मभेद के। अश्विनीकुमारों को इसलिए ही चंद्रमा पर भरोसा हुआ। सुधा वितरण की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई। शरत् चंद्र को।

श्वेतिमा का अकेलेपन से गहरा नाता है। सभी रंगों से अलग रहने की प्रवृत्ति। हम भी तो बचाते हैं श्वेत वस्त्रों को। श्वेत आचरण को। श्वेत पृष्ठों को कि कहीं किसी ग़लत रंग की संगत न मिल जाए। भद्दा हो जाएगा। बहुत चुनकर-सोच समझकर कोई ऐसा रंग चुनते हैं कि श्वेत खिल उठे। इस चयन की प्रक्रिया में सफलता आसान नहीं होती। दीर्घ अवधि अकेलेपन की होती है। एकांत की होती है। श्वेत का समुच्चय भी बहुत विरल है। शरद इसी श्वेत का तो उत्सव है। वर्षा के बाद कृष्ण मेघ के धवल होने का मौसम। नारंगी डंठल वाली शेफाली के खिलने की ऋतु। श्रीकृष्ण के महारास का पर्व।

शरद पूर्णिमा जीवन की पूर्णिमा का प्रतीक प्रतिनिधि है। भारत में छः ऋतुएं होती हैं। वसंत को ऋतुराज कहा गया और वर्षा को रानी। शरद के हिस्से माँ की भूमिका आई। दुलार की, स्नेह की, मखमली ममता की जिम्मेदारी। माँ के स्नेह में, आशीष में अमृत है। अमरता की आशा है। अमरता का वरदान है, जो माँ के हृदय में अपने संतानों के लिए स्वतः प्रस्फुटित होती है। इसलिए शरद माँ है। ऋतु माँ।

वैसे, सिर्फ पूर्णिमा नहीं, समूचा शरद ही एक शुभाकांक्षा है। हमारी प्राचीन संस्कृति का लोकप्रिय, महत्वपूर्ण और विशिष्ट शुभाशीष भी तो है-

!! जीवेम शरदः शतम् !!

【13/10/2019, विराम खंड, लखनऊ】

Tuesday, 8 October 2019

मानवता की अंतिम उपलब्धि


विजयादशमी: विजय मानवता की अंतिम उपलब्धि नहीं!

विजय ही जीवन का ध्येय है। विजय ही श्रेष्ठ प्राप्य है। विजय ही सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है। विजय चाहिए, केवल विजय। पराजय कमजोरी और अयोग्यता का प्रतीक है। इसीलिए इतिहास गाथाएं केवल विजेताओं के गौरवगान से भरी पड़ी हैं। पराजित का जीवन कितना भी आदर्शमय क्यों न हो, वह दर्ज नहीं होगा। होगा भी तो विजेता न होने की वजह से आदर्श नहीं होगा। आदर्श केवल राम होंगे। युधिष्ठिर होंगे। अशोक होंगे।

तो क्या विजय को मानवीय सफलता का अंतिम प्रमाणपत्र मान लिया जाए? अगर हां, तो अपने समकालीन तमाम विजय घटनाओं को देखिए और महसूस करिए कि क्या सच में यह जीत मानवीय है? या जीत को ही मानवीयता की प्रशस्ति दी जा सकती है?

समकालीन इतिहास से जांचें
अपने समकालीन इसलिए देखिए क्योंकि प्रमाणिकता और आत्मविवेक के प्रकाश में आप समकालीनता को ही देख सकते हैं। इतिहास की तथ्यात्मक सत्ता को मान लेना आपकी मजबूरी है। वहां आपके पास चयन और परीक्षण का अधिकार नहीं है।

विजय अंतिम प्राप्य नहीं
विजेता होना बुरा नहीं है। विजेता होने के मार्गों पर आपकी आदर्शिता टिकी है। विजेताओं के गौरवगाथाओं में उनका गुणगान ही अपेक्षित है। राम जीते तो उनका हुआ। रावण जीतता तो उसका होता। विजय अंतिम प्राप्य नहीं है। वैसे ही जैसे समुद्र पा लेना नदी की अंतिम उपलब्धि नहीं है।

नदी की उपलब्धि नहीं होती। उसकी उपलब्धियां होती हैं। वह सागर से मिलने नहीं जाती। वह धरती के छोटे-बड़े गड्ढों को, तालों को, तालाबों को तृप्त करने जाती है। फिर अगर सागर से मिल भी जाए तो कोई हर्ज नहीं। लेकिन उसकी विजय समुद्र में मिल जाना नहीं है। किसी का भी अस्तित्व विजय में विलीन होना उसकी अद्वितीयता के लिए ठीक बात तो नहीं।

विजय एक प्रक्रिया
विजय एक पूरी प्रक्रिया का नाम है, परिणाम का नहीं। एक प्रक्रिया जिसमें किसी का अहित करने का आरोप न हो। सामूहिकता को नुकसान पहुंचाने की वारदात न हो। एक स्वच्छ - मानवीय अभियान हो, जिसमें समावेश का विकल्प हो, विखंडन का नहीं। राम के यहां समावेश का विकल्प था। रावण के यहाँ विखण्डन का। रावण ने अपने भ्रातृत्व का महल विखंडित कर दिया। राम ने अपने मैत्री-कुटिया में शरणागत शत्रुपक्षी को भी दीवार बनाकर खड़ा कर लिया। यह समावेश हो विजय की प्रक्रिया में।

तृष्णाशून्य विजय
विजय हथियाने के भाव से मुक्त हो। तृष्णाशून्य। वही, जिसे कृष्ण 'मा कर्मफलहेतुर्भू' कहते हैं। राम को देखिए। रावण के शूर पुत्र का वध लक्ष्मण ने किया, वह श्रेय सुग्रीव के खाते में डालते रहे। राम की विजय में एक प्रक्रिया शामिल है। केवल रावण को मार डालना विजयादशमी का मूल नहीं है। मूल है वह प्रक्रिया जिससे वह विजयादशमी तक पहुंचते हैं। दिनकर कहते हैं,

"नर का भूषण विजय नहीं, केवल चरित्र उज्ज्वल है।
कहती हैं नीतियां, जिसे भी विजय समझ रहे हो,
नापो उसे प्रथम उन सारे प्रकट, गुप्त यत्नों से,
विजय-प्राप्ति-क्रम में उसने जिनका उपयोग किया है"

विजयादशमी केवल एक दिवस नहीं
इसलिए, विजयादशमी को एक दिवस नहीं मानना चाहिए। रावण फूंकने से पहले राम का संघर्ष जीना चाहिए। प्रतीकों के रथ से उतरना चाहिए। विरथ होकर ही लड़ें लेकिन चित्त और कर्म शुद्ध होना चाहिए। रावण भी साधारण नहीं था। फिर रावण को फूंकने का अधिकार साधारण को कैसे हो सकता है?

खैर, असत्य पर सत्य की विजय इस दौर का सबसे लुभावना जुमला है। 'सत्यमेव जयते' एक अचर वाक्यांश। मौजूदा माहौल में जो विजयी है, वही सत्यनिष्ठ होने का दावा कर देता है। इसलिए, सत्य का मानक विजय नहीं हो सकता। सत्य की ही जय नहीं होती। जिसकी जय होती है वही सत्य नहीं होता।

➧ नवभारत टाइम्स ऑनलाइन में

Wednesday, 2 October 2019

गांधीत्व को नहीं मरने देना है.


गांधी परिवर्तनशील थे। स्थिर नहीं थे। प्रयोगधर्मी थे। अपने सिद्धांतों का, अपनी मान्यताओं की प्रथम प्रयोगशाला भी वही थे। परिवर्तन के सारे प्रयोग पहले उन्होंने अपने पर आजमाए। फिर लोगों का आह्वान किया। फिर लोगों से कहा कि मैंने तो इसे सफल पाया है, आप भी इसे आजमाकर देखें। वक़्त रहते स्थितियों को भांप लेना, अपने सिद्धांतों से समझौता न करना और किसी भी कीमत पर अपने निर्णयों में स्थगन सहन न करना। आसान नहीं था, गांधी होना। नेहरू काफी करीबी थे। पटेल अनुयायी थे। सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह वैचारिक मतान्तर के बावजूद गांधी के पीछे चलने वाले थे लेकिन इन सभी को झटका लगा जब 1922 में गांधी ने तब के सबसे सफल असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया।

गांधी को प्रिय मानने वाले इन सभी ने उनकी आलोचना की लेकिन गांधी को असर नहीं। उनके लिए यह बात बेहद प्राथमिक और तय थी कि हिंसा नहीं चाहिए। चौरी-चौरा नहीं चाहिए। अहिंसा का रास्ता चुना है तो शुद्ध होकर इस रास्ते से बढ़ेंगे। इसमें मिलावट नहीं चाहिए। ऐसी अडिगता हो तो गांधी बन पाएं। उनके लिए लक्ष्य से ज्यादा जरूरी रहा कि हम किन रास्तों से होकर लक्ष्य तक पहुंचते हैं। वह स्वतंत्रता के अपूर्व सारथी रहे। उनसे बेहतर सारथी नहीं हो सकता था। उस देश का जहाँ अहिंसा की सीख देने वाले दो महामानवों का जन्म हुआ। महावीर और बुद्ध।

गांधी केवल राजनितिक शख्सियत नहीं रहे। संस्कृति-परंपरा और कला के भी गहरे नातेदार थे। अद्भुत रचनात्मक। उनकी जीवनचर्या हमें एक आदर्श देती है कि जीवन इस खांचे में जिया जा सकता है। जीवन ऐसे हो सकता है। सत्यवादी बहुत कटु होता है लेकिन वह इनकी परवाह नहीं करता। वह जानता है कि यह कटुता हलाहल की कटुता नहीं है। यह औषधि की कटुता है। यह वैकल्पिक नहीं हो सकती। यह अनिवार्य है। सत्य तो किसी भी हाल में ज़रूरी है। उन्होंने अपने जीवन को भी सत्य का आईना बना दिया।

स्वतंत्रता संग्राम को जनांदोलन बनाने के लिए चरखा कातने की क्या ज़रूरत। न्यूनतम वस्त्र धारने की क्या आवश्यकता। खादी क्यों जरूरी। अहिंसा क्यों जरूरी। सत्य की क्या आवश्यकता। गांधी इन सभी सवालों के जवाब हैं। उनके इस तौर का इतिहास में कोई सानी नहीं। वह घोर आस्तिक होते हुए भी पुराणों से नक़ल नहीं करते। धर्मग्रंथों में समाधान नहीं ढूंढते। वह वर्तमान परिदृश्य देखते हैं। वह छुआछूत मिटाने के लिए सियासी छुट्टी ले लेते हैं और 'हरिजन' सेवा में लग जाते हैं। उन्हें यह आज़ादी से ज्यादा जरूरी लगता है। छुआछूत भी एक ग़ुलामी थी। इस ग़ुलामी से देश को आज़ाद कराए बिना एक दूसरी आज़ादी की लड़ाई के सिपाही कैसे तैयार किये जा सकते थे।

धार्मिक एकत्व के लिए वह ख़िलाफ़त आंदोलन को समर्थन देते हैं और हिन्दू मुस्लिम के बराबर कन्धों पर जनांदोलन का भार संतुलित करने का प्रयास करते हैं। यह अद्भुत सामाजिक अभिक्रिया थी। इसके परिणाम में आज़ादी लाना किसी एक वर्ग की जिम्मेदारी से आज़ाद हो गई। वह अब सभी धर्मों-जातियों की ज़िम्मेदारी बन गई। वह अब दिल्ली-बम्बई के कुछ ख़ास अभिजन वकील लोगों का कोई अभियान नहीं रह गया। वह जनांदोलन बन गया। जिसमें मशहूर वकील मोतीलाल का बेटा भी उसी ओहदे का सिपाही रहा और मुगलसराय के किसान का बेटा लाल बहादुर भी सेनानीत्व के उसी पायदान पर था। यह गांधी ही कर सकते थे।

अंतिम व्यक्ति का प्रतिबिम्ब उन्होंने अपने जीवन में उतार लिया। कम वस्त्र पहनने शुरू कर दिए। खुद के वस्त्र खुद तैयार करने लगे। वह बताने लगे कि देखो, आज़ादी किनके लिए चाहिए। हम चाहें कि समानता आए तो उसकी पहल खुद करनी होगी। हम चाहते हैं कि देश स्वाभिमानी हो तो अपने स्वाभिमान का हिस्सा भी उसमें जोड़ना होगा। गांधी ने यह सब किया। उनके जीवन में बहुत कुछ ऐसा है जिस पर बात की जा सकती है। जिस पर खुश हुआ जा सकता है। जिस पर गर्व किया जा सकता है। उनकी मृत्यु पर बात करना व्यर्थ है। उसमें कुछ भी विशेष नहीं है। उससे हमें कुछ अच्छी शिक्षा नहीं मिलती। सिर्फ एक धिक्कार मिलता है। एक लानत मिलती है। इसका कोई फायदा नहीं।

गांधी होते तो वह भी यही कहते। वह कहते कि इसे अहिंसा की हार मत मान लेना कि उसका विराम हिंसा से हुआ क्योंकि यह विराम है ही नहीं। अहिंसा का कोई विराम नहीं है। गांधी को 30 जनवरी 1948 नहीं तो कभी तो जाना होता। सच यही है, गांधी का केवल शरीर गया। गांधी नहीं गए। हमें गांधी को ही बचाना है। पीढ़ी दर पीढ़ी। गांधी को ही आगे ले जाना है। गांधी मरे होंगे, गांधीत्व को नहीं मरने देना है।

Thursday, 12 September 2019

प्रेम में नाराजगी की ज़रूरत

तस्वीरः पीयूष कुंवर कौशिक

नाराजगी हमेशा नकारात्मक नहीं है। नाराजगी एक तरह की अभिव्यक्ति भी है। एक संदेश है या एक तरीका है जिससे आप अपनी वे बातें कह सकते हैं जो सामाजिक संबधों के अनुच्छेदों में सैद्धांतिक तौर पर शामिल हैं भी और नहीं भी। ऐसी बातें जिनकी सामाजिक मान्यता पर कई सवाल भौहें चढ़ाए खड़े होते हैं। आप नाराजगी के जरिए अपने उन संदेशों को संप्रेषित करते हैं, जो सिद्धांतों में सही लगते हैं लेकिन व्यवहारिकता में जिन्हें कहने में संकोच है।

प्रेम में नाराजगी
प्रेम में नाराजगी एक अदा है। एक अदाकारी है। नाराज होना और फिर नाराजगी खत्म करने के जतन से प्रेम पुष्ट होने का दावा प्रेम मर्मज्ञों की ओर से किया जाता रहा है। केवल स्त्री-पुरुष प्रेम में नहीं बल्कि किसी भी तरह के प्रेम-स्नेह में नाराजगी की अपनी जरूरत है। नाराजगी की सबसे पहली घोषणा ही यही है कि आपसे प्रेम है। आपसे प्रेम है इसलिए नाराज हैं। दोस्ती की या रिश्तों की नाक में भी कभी-कभी खर-पतवार जाने लगते हैं। नाराजगी एक जोरदार छींक है जो झटक कर ऐसे पतवारों को बाहर कर देती है। यह रिश्तों की कड़वाहटें दूर करने में भी मदद करता है। रिश्तों को डिटॉक्सिफाइ करने वाला ग्रीन टी। कड़वा तो है, तकलीफदेह तो है लेकिन अगर पी ले गए, संभाल लिया सही से तो संबंधों की सेहत भी दुरुस्त होगी।

नाराजगी का जवाब
लेकिन इन सबकी कुछ शर्तें हैं। किसी की नाराजगी को ठीक तरीके से बरतने का हुनर आना चाहिए। यहां अगर लापरवाही हुई या अहं बीच में आया तो वह सब कुछ खत्म हो सकता है जिसे बड़ी आसानी से बचाया जा सकता था। पहली शर्त ये कि नाराजगी का जवाब कभी नाराजगी नहीं हो सकता। खासकर उसके लिए जिसे आप चाहते हों। जिससे प्रेम करते हैं। प्रेम में प्रतिकार तो होता ही नहीं है। दूसरी शर्त यह कि किसी की नाराजगी को ज्यादा देर तक के लिए छोड़ नहीं सकते। इससे उस पर दुनिया भर की गलतफहमियों, आशंकाओं और कड़वाहट के कीटों का डेरा जमने लगता है। यह आपके रिश्ते को बीमार बना सकता है, जिससे उसकी मौत भी हो सकती है। और इन सबसे ज़रूरी शर्त यह कि नाराजगी को स्वीकार करें। उसकी उपेक्षा कम से कम कभी न करें। नाराजगी को बहलाकर टाल देना रिश्तों के लिए सबसे घातक हो सकता है।

इक्विलिब्रियम के लिए नाराजगी
दो मन कभी एक जैसे नहीं हो सकते। मनांतर को समतल करने की प्रक्रिया ही नाराजगी है। हम एक दूसरे के साथ इक्विलिब्रियम में आना चाहते हैं इसलिए नाराजगी होती है। इसका उद्देश्य निःसंदेह पवित्र है इसलिए इसका सम्मान भी होना चाहिए। नाराजगी के सम्मान की जरूरत मैं सबसे ज्यादा समझता हूं। मेरे साथ इसका बुरा अनुभव रहा है। मुझे हमेशा से लगता है कि मेरी नाराजगी का किसी ने सम्मान नहीं किया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि मैं कई बार अकारण (लोगों की नजर में) नाराज हो जाता हूं। कई बार मैं अपने प्रिय लोगों में अपनी कीमत महसूस करने के लिए भी नाराज हो गया हूं। ऐसे वक़्त में जब नाराजगी का सम्मान नहीं होता तो मन में घृणा भी भरने लगती है।

नाराजगी का सम्मान
अपनी गलती मान लेना कोई बड़ा अपराध नहीं है। मैंने अपने जीवन में हमेशा कोशिश की है कि अगर कोई मुझसे नाराज है तो उसकी नाराजगी का सम्मान करूं। मैंने किया भी है। हालांकि, नाराजगी जाहिर करने वाले भी कम ही रहे हैं लेकिन जितने भी रहे हैं मैंने कोशिश की है कि उनकी नाराजगी को सही तरीके से दूर किया जाए। मतभेद भुला दें उस वक्त पर। बीच में अभिमान न लाएं। हो सकता है मैं हमेशा से ऐसे न रहा होऊं लेकिन मेरे साथ कई बार ऐसी घटनाएं घटीं कि मुझे यह चीज सबसे जरूरी लगने लगी।

आपबीती
मां से नाराज होता तो जिद कर लेता कि जब तक उन्हें यह नहीं लगेगा कि उनकी गलती थी, मेरी नहीं, तब तक मैं उनसे बात नहीं करूंगा। कई बार मां को पता ही नहीं होता कि मैं उनसे किस बात पर नाराज हूं। मेरी भी जिद कि बताऊंगा नहीं। ज्यादातर बार तीन-चार दिन में मामला सामान्य हो जाता और बातचीत की प्रक्रिया बहाल हो जाती। इस बीच मां अगर मनाने की कोशिश नहीं करतीं तो गुस्सा बढ़ता जाता था। कई बार खाना-पीना छोड़ दिया। मां छटपटाहट के स्तर पर परेशान हो जातीं लेकिन मैं नहीं बताता कि बात क्या है? किसलिए नाराज हैं?

स्थायी रिक्ति
ऐसे ही किसी मामले पर नाराजगी ऐसी बढ़ी कि मैंने अपने जीवन का सबसे बड़ा नुकसान कर लिया। मां से नाराज होना अपने आप में एक बड़ी विपदा है। मैंने तो इस नाराजगी को स्थायी बना दिया। सिर्फ अपनी जिद और अपने गुस्से की वजह से। विश्लेषण हो तो शायद मेरी ही गलती सामने आए लेकिन यह प्रवृत्ति रही और अब भी है। यह मेरा निजी नुकसान है। भावनात्मक स्तर पर आज भी एक रिक्ति है, जिसे अब मैं चाहते हुए भी भरना नहीं चाहता। शायद यह नाराजगी अब स्थायी हो गई है।

अप्रभावना का अभिनय खतरनाक
खैर, ऐसे अनेक मामले हैं परिवार में ही। बाहर भी। कई मित्रों से जो बातचीत छूटी वह आज तक बहाल नहीं हो पाई। इनमें से कई घनिष्ठ दोस्त रहे। भावनात्मक आशावाद का यह चरित्र मुझे लगातार तबाह करता रहा है। खैर, इन सब अनुभवों में मैं जो सबसे जरूरी चीज महसूस करता हूं वह यही है कि जो आपसे प्यार करता है उसकी नाराजगी का सम्मान कीजिए। बहुत सी समस्याएं बस इसी से सुलझ जाती हैं कि आपने उसकी नाराजगी को संज्ञान में लिया। अपने करीबी की नाराजगी पर अगर आप अप्रभावित होने का प्रदर्शन कर रहे हैं तो यह युद्ध के ऐलान जैसा है। यह उस नाराजगी के अपमान जैसा है जिसकी जड़ में आपसे अथाह प्रेम है और आपसे अनेक आशाएं हैं।

Thursday, 5 September 2019

असहिष्णु 'गुरुविहीन' लोग बनेंगे 'विश्वगुरु'?

दो साल पहले 5 सितंबर को गौरी लंकेश की हत्या कर दी गई थी। अच्छा है कि जीवन भर हमें गुरु नहीं मिलता। हम इतने असहिष्णु हैं कि गुरु मिल जाए तो दस दिन के भीतर हम उसकी हत्या कर देंगे। हम लंकेश को सार्वभौमिक और आदर्श गुरु की तरह स्थापित करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं बल्कि भारतीय समाज की मानस-काया पर गुरु के शरीर से विकिरित होने वाले प्रकाश के ताप को सहन कर पाने की क्षमता का आकलन कर रहे हैं। लंकेश ने किसी को विचारधारात्मक मुक्ति के लिए नहीं उकसाया लेकिन गुरु तो आपको विचारधारात्मक 'मृत्यु' के लिए प्रेरित करता है।

गुरु मृत्यु है
शास्त्रों में कहा है कि 'आचार्यो मृत्यु'। गुरु मृत्यु है। गुरु सबसे पहले आपको 'मृत्यु' देता है। सद्गुरु के पास जाना मृत्यु है और सद्गुरु के पास से जाना निर्वाण। गुरु पहले हमारी विचारधाराएं तोड़ता है, हमारा सारा संसार विनष्ट कर देता है और फिर निर्माण के फूल खिलाता है। नवनिर्माण के फूल। जो यह सहन कर ले, गुरु उसके ही नसीब में है। आत्मिक पर तौर पर हमारी गहरी नींद को देखकर नहीं लगता कि हम ऐसे किसी गुरु के सामीप्य को लेकर जरा भी तैयार हैं। हम उसे भी गौरी लंकेश की तरह मार देंगे। उसकी गैलिलियो की तरह, सुकरात की तरह हत्या कर देंगे। 

यह सच है कि ऐसे में हम गुरू की हत्या नहीं करेंगे तो गुरु हमारी हत्या कर देगा। इस खेल में एक का तो मरना तय है लेकिन शिष्य के मरने में सृजन है। गतिशीलता है। गुरु के मरने में अंधकार के द्वार का खुलना है। अज्ञात के रहस्य बने रहने की शाश्वतता पर मुहर है। नींद की अमरता की घोषणा है, इसलिए दीप बुझाने से मिट्टी का संगठन तोड़कर और उसे पुनर्गठित कर दीया बनाने की प्रक्रिया ज्यादा पावन और संसार के अनुकूल है। इसलिए गुरू की हत्या नहीं, शिष्य की मृत्यु सही है, अनिवार्य है।

हत्या की आवश्यकता क्यों?
लेकिन, अगर सवाल उठे कि गुरु को आखिर इस 'हत्या' की आवश्यकता क्यों है? उसे ज्ञान देने के लिए अपने शिष्य को 'मृत्यु' क्यों देनी है? तो इसका उत्तर भी जागृति की हमारी लालसा है। जागरण के लिए नींद का मरना जरूरी है। नींद के सपनों का मरना जरूरी है। नींद में हमारा एक संसार है, उसका विध्वंस जरूरी है। हमारे संसार में मर जाना यही तो है।

हम गुरु के पास जागृति के लिए जाते हैं। जगत की निद्रा से जागरण की ओर, प्रकाश की ओर जाने के लिए। इसका अर्थ यह है कि इससे पूर्व हम नींद में थे। स्वप्न में थे। ख्वाब में कोई भी चीज यथार्थ नहीं है। सब कल्पना है। सब अयथार्थ है। नींद में आपकी जो भी विचारधारा थी, आपका जो भी स्वप्न था, आपका जो भी संसार था, सब काल्पनिक था। अयथार्थ था। झूठा था। गुरु आपके इस स्वरुप की मानस 'हत्या' करता है। हत्या अगर नकारात्मक लगता हो तो मान लें कि गुरु आपको ज्ञान से पहले एक प्रकार की मृत्यु देता है। एक काल्पनिक और अयथार्थ संसार से मुक्ति। इसके बाद ज्ञान की, जागरण की और प्रकाश की आधारशिला रखी जाती है।

गुरु विध्वंसक है
गुरु विध्वंसक है। हमारी रूढ़िगत परम्पराएं और उधार की जीवनशैली तोड़कर ही गुरु हमारे अंदर मौलिकता पैदा करने की कोशिश करता है। हमने जो जीवनशैली, परंपराएं अपने पूर्वजों से उधार ली होती हैं, गुरू उस पर भी प्रहार करता है। उन्हें विनष्ट करता है। हमें अपने भीतर इतने विध्वंस अगर स्वीकार्य हों, तभी हम गुरु के पास रुकने की हिम्मत कर सकते हैं। हमें इस 'मृत्यु' के लिए तैयार होकर ही गुरु के समीप जाना चाहिए।

गुरु के यहां जो सबसे पहले तोड़ा जाएगा वह मंदिर होगा। मठ होगा। मस्जिद और गिरजाघर होगा। आपके धार्मिक पाखण्ड सबसे पहले तोड़े जाएंगे। मंदिर-मस्जिद बनवाने के लिए मुक़दमे लड़ रहे हम लोग ऐसे गुरु को बर्दाश्त कर पाएंगे क्या? हम उसकी हत्या ही कर देंगे और समय-समय पर हम इस चीज को सिद्ध ही कर रहे हैं।

ईश्वर सुलभ पर गुरु नहीं
गुरु जागरण है। हम आराम तलब लोगों के लिए जागरण ठीक बात नहीं। हम सोए हुए ही सुख महसूस करने वाले हैं। गुरु हमें जगा देगा और जगा देने वाले हमें प्रिय कैसे हो सकेंगे। वह तो दुश्मन ही हैं। शास्त्रों में इसीलिए गुरु का मिलना कठिन बताया गया होगा। कबीर इसीलिए गुरु की महत्ता पर अपने सबसे अधिक दोहे रचे होंगे। गुरु तक पहुंचने का मार्ग कठिन तो है। इसलिए गुरू का सबको मिल पाना सहज नहीं है। इसलिए, गुरु का स्थान शायद ईश्वर से भी ऊपर होगा क्योंकि ईश्वर का मिल जाना भी सुलभ हो सकता है लेकिन गुरु का मिल पाना नहीं।

गुरु मांग का परिणाम नहीं
गुरु मांग का परिणाम नहीं है। हो सकता है कि आप गुरु के लिए जिस समस्या का समाधान कराने जाएं उसका हल न मिले। क्योंकि, गुरु मांग का परिणाम है। गुरु वाणिज्यिक प्रत्युत्पन्न नहीं है। जैसे- हमें लंबी यात्राओं के लिए यंत्र की आवश्यकता हुई तो प्लेन, ट्रेन और कार जैसी चीजें बनीं। संपर्क के संसाधनों की जरूरत लगी तो फोन, इंटरनेट जैसी चीजों का आविष्कार हुआ। वैसे ही, भावनात्मक सांत्वना की मांग से गुरु तो मिल जाएंगे लेकिन सद्गुरु पैदा नहीं होंगे। मांग-आपूर्ति के सूत्र से पैदा होने वाले गुरु असंख्य हैं। वह आपके हिसाब से चलेंगे। जैसे बाजार उपभोक्ताओं के हिसाब से चलता है। अब तो वह उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को भी पैदा करने लगा है। ऐसे ही व्यापारिक गुरु भी पहले आपके लिए कष्ट तैयार करेंगे फिर उसके इलाज के लिए दुकानें सजा लेंगे। यह झूठे गुरु हैं।

गुरुविहीन लोग बनेंगे विश्वगुरु?
ऐसे गुरु आपकी अनुभूति का शोषण करेंगे। वे आपको मूल रूप में जिंदा रखेंगे। वे बीज को जमीन के अंदर ही सो जाने को प्रेरित करेंगे और उसके ही उपाय में लगे रहेंगे जबकि सद्गुरु तो आपको सबसे पहले भीतर ही तोड़ देगा। आपके मूल स्वरूप को मार देगा जिसमें आप निद्रित अवस्था में थे। उसके बाद आप स्वतः ही उगने लगेंगे। पौध बनेंगे। फिर वृक्ष बनेंगे। सद्गुरु आपसे 'सर्वधर्मान् परित्यज्य' के लिए कहेंगे। अगर आप तैयार होंगे, तो आप कबीर हो जाएंगे। फिर आपके मन में भी सदैव एक 'हौंस' रहेगी कि 'क्या ले गुरु संतोषिए।' तब आप 'सात समंद की मसि' और 'सब धरती को कागज' करने के बाद भी 'गुरु गुण' नहीं कह पाएंगे। नहीं तो, आप गुरु की हत्या कर देंगे। प्रतिकूलता को बर्दाश्त कर पाने की हमारी यही आदत हमें गुरुविहीन कर रही है और हम विश्वगुरु बनने के सपने देख रहे हैं। 

नवभारत टाइम्स ऑनलाइन में

Monday, 2 September 2019

मोक्ष पर निरर्थक विचार-द्वंद्व

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हुसड़िया चौराहे से ग्वारी चौराहे के बीच रास्ते में एक अपरिचित चाचाजी ने सुकरात के बारे में पूछते हुए रोक लिया। वह साइकल-पथ के किनारे पर लोहे की एक बेंच पर बैठे थे। बोले, सुकरात को अंग्रेजी में क्या कहते हैं। मैंने बताया तो बोले, प्लेटो को अरबी में अफलातून कहते हैं। दार्शनिक बातों की शुरुआत समझकर न चाहते हुए भी उनके बगल में बेंच पर बैठ गया। जैसे ही मैं बैठा, सुकरात-प्लेटो और अरस्तू में सम्बन्ध समझाकर वह चुप हो गए। यह चुप्पी जैसे विषयान्तर को स्पष्ट करने के लिए ज़रूरी ही थी क्योंकि इस विराम के बाद हमारी बातचीत का (लगभग प्रवचन का) ट्रैक बदल गया।

अपरिचित चाचाजी ने अचानक पूछा कि मोक्ष जानते हो? मुझे लगा कि बात सुकरात से शुरू हुई है तो मोक्ष की ज़रूर दूसरी कुछ व्याख्या मिलेगी इसलिए मैंने इस बारे में अल्पज्ञान का संकेत करते हुए ससंदेह कहा कि मेरी जानकारी में तो इसका मतलब है मुक्ति। आध्यात्मिक व्याख्या में जाएं तो 84 लाख योनियों में आवागमन से मुक्ति। सम्पूर्ण स्वतंत्रता। चाचाजी चुप हो गए। मैं प्रतीक्षा करने लगा कि मेरी बात में अब संशोधन किया जाएगा। सन्दर्भ पुराणों से हटाए जाएंगे और कुछ दार्शनिकता या वैज्ञानिकता की बात की जाएगी। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। चाचाजी तो मेरी बात पर सहमत हो गए। बोले, सही है। यही मतलब है। इतना ही नहीं, प्रवचन आगे बढ़ाते हुए बोले कि मनुष्य के जीवन का एक ही उद्देश्य हो। मोक्ष। बाकी सब कुछ विनाशी है। मोक्ष ही असल पुरुषार्थ है जो सही मायने में अविनाशी है। बाकी सभी पुरुषार्थों (धर्म-अर्थ-काम) के फल नाशवान हैं।

वह मुझे समझाने लगे कि उम्र के एक छोर पर मैं खड़ा हूँ और एक छोर पर तुम हो। मैं अनुभव से कहता हूँ कि खाली वक़्त पर गीताप्रेस की गीता पढ़ा करो। जीवन के बहुत सारे सवालों का जवाब मिल जाएगा। फिर उन्होंने आत्मा की अनश्वरता का वही सिद्धांत समझाया जिसे बचपन से हज़ारों बार सुन चुके हैं। बोले कि मानव होना सौभाग्य की बात है इसलिए इसका महत्त्व समझना और जिस भी ईश्वर को मानते हो उसका भजन करना।

असहमतियां हज़ार थीं उनसे। तकरीबन हर कदम पर। इससे पहले भी एक बार उनसे मुलाक़ात हुई थी। तब भी उनकी बातें प्रगतिशील आधुनिकता के आवरण में रूढ़िवादी पुरातनता का विस्तृत विवरण ही लगी थीं। खैर, यह उनके निजी विचार और विमर्श थे जो निश्चित ही उपदेशात्मक उद्देश्यों के अधीन ही विकसित हुए थे। बुज़ुर्ग हिंदुओं में यह प्रवृत्ति है। अपने अनुभव से यथार्थ बताने की बजाय वह आदर्शवादी हो जाते हैं। धर्म-अध्यात्म की शरण में न सिर्फ जाते हैं बल्कि हर किसी को वहीँ जाने की सलाह देने लगते हैं।

उनसे बातचीत के दौरान मैं उनकी अवस्था विशेष के लोगों का मनोविज्ञान सोच रहा था। नौकरी कर चुकने के बाद, रिटायर हो जाने के बाद जब वह अपना अब तक का हासिल देखते होंगे, जब देखते होंगे कि सामाजिक भागदौड़ का हिस्सा बनकर अंत में क्या मिला? तो ज़रूर एक नैराश्य की छाया उनके दिलोदिमाग पर तारी हो जाती होगी। उन्हें लगता होगा कि अब तक तो कुछ मिला नहीं, अब क्या किया जाए कि जीवन तर जाए। आध्यामिकता ऐसे में उन्हें अंतिम विकल्प नज़र आता होगा। समय चूक जाने के बाद भी सम्भलने का उपाय यहीं मिलता है। हां, उसकी सार्थकता सदैव से संदिग्ध है।

एक सवाल और उठाकर आता होगा। आखिर, यह नैराश्य क्यों है। ऐसा क्या तय करके चले थे कि अभाव महसूस हो। खालीपन महसूस हो। ऐसा क्या करना था कि कर लेते तो संपूर्णता का बोध होता। मोक्ष की दावेदारी होती। क्या बहुत नाम कमा लेना। पैसे कमा लेना। या फिर भगवन्नाम की सांख्यिकी का पहाड़ खड़ा कर देना। किससे मोचन हो? कैसे मोक्ष हो? मनोविज्ञान में भी शायद इसका स्पष्ट जवाब नहीं है। वहां भी कहा गया कि अपने मन से जीना। अपने दिल से जीना। जो ऐसे जिया, उनमे से भी किसी ने दावा नहीं किया कि वह अंतिम में अपने आपको सम्पूर्ण अनुभव करते थे।

आध्यात्म केवल एक उपाय सुझाता है। धर्मगुरुओं के हवाले से वह यह है कि भगवान के नाम का जाप करते जाओ। केवल वह नाम ही मोक्ष दिला सकता है। तुलसीदास लिख गए। कलियुग केवल नाम आधारा। हालांकि, यह बड़ा कुतार्किक लगता है। किसी का ऋणी होना, किसी के प्रति भक्ति रखना एक बात है। केवल उसका नाम जपना दूसरी बात। नाम जपने के लिए जन्म होना मतलब आप आत्मश्लाघा के एक अजीब खेल के टूल भर हैं, जहाँ एक ईश्वर है और उसने आपको बना दिया कि आप उसका नाम जपें। मुझे हाथ-पांव-भाव-संकल्प-जिज्ञासा वाला मानव ऐसा टूल नहीं लगता। इसलिए मैं इसे मोक्ष का उपाय नहीं मानता।

अब सवाल है कि संतुष्टि फिर कैसे हो? समाधान क्या हो? जीवन की साँझ में संतोष का प्रकाश कैसे जीवित रखें? क्या करें कि चाचाजी की अवस्था में पहुंचे तो यह निराशा न हो कि तन-मन-धन में से किसी की भी सेहत पर बुरा असर पड़े। यह सोचते हैं तो लगता है कि संतुष्टि चाहिए ही क्यों? क्या संतोष ही आखिरी लक्ष्य है? संतोष के बाद क्या है? क्योंकि ब्रह्माण्ड का प्रसार तो अनंत है। इसका तो कोई चरम नहीं है। अगर चरम नहीं है इसका सिर्फ माइलस्टोन हो सकता है, पड़ाव हो सकता है, अंतिम बिंदु नहीं हो सकता। हिन्दू ग्रंथों में निरन्तर चलने को ही जीवन कहा गया है। सम्यक प्रकारेण सरति इति संसारः। निर्लक्ष्य। हर दिन नए लक्ष्य बनाते।

संतुष्टि की कोशिश में अभाव चोटिल करने लगते हैं और सैद्धांतिक तौर पर संतोष का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जीवन और इच्छाएं एक-दूसरे के समानांतर चलती हुई रेखाएं हैं। यह अनंत पर मिलती हैं और अनंत होता ही नहीं। तो क्या करें? क्या सही है करना। संसार का उद्देश्य क्या हो। बस चलना। लगातार यात्रा। कुछ भी लक्ष्य नहीं। कोई घर नहीं।

चाचाजी बोले कि स्वर्ग पा लेना भी नाशवान उपलब्धि है। वह भी ख़त्म हो जाना है। वह बड़े व्यापक परिप्रेक्ष्य में देख रहे थे। समग्रता में। जन्म-मृत्यु के पार तक। इसलिए वह सुझा रहे थे कि मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य हो। उसकी कोई सीमा नहीं है। अनन्त की तरह। अनंत ही अंतिम है। अनंत के आगे कुछ नहीं है। यह सोच भी सही है कि मोक्ष ही लक्ष्य हो। मोक्ष मतलब ही संतुष्टि है। संतुष्टि मतलब जीवन और इच्छाओं का एक बिंदु पर मिलना। वह बिंदु जो अनंत है। अनंत मतलब जो अस्तित्वहीन है। अंतिम मतलब कि संतोष वास्तव में कुछ नहीं है। अभाव ही जीवन को आगे बढ़ाते हैं। वेकैंसी रहना ही अभिक्रियात्मक है। अभिक्रिया नहीं है तो सब शून्य है।

निर्णय ये कि चाचाजी का कहना सर्वथा ग़लत नहीं था। उनके साधन अवैज्ञानिक, अतार्किक और अति प्रतीकात्मक थे लेकिन जीवन के उद्देश्य में मुक्ति के अंतिम लक्ष्य होने को इंकार नहीं किया जा सकता। यह संसार ही शून्य और अनंत के बीच है और ये दोनों ही लक्ष्यात्मक बिंदु वास्तव में केवल कल्पना और सिद्धांतों में हैं। यथार्थ में नहीं। सो, मोक्ष भी यथार्थ में नहीं है। केवल कल्पना में है।

Thursday, 30 May 2019

गरीब सांसद शब्द का पुनर्जीवन

सारंगी सराहना के योग्य हैं, जिन्होंने गरीब सांसद शब्द को पुनर्जीवित किया है

यह देश काल के इस पड़ाव पर भी और कितने प्रताप चंद्र सारंगी दे सकता है? सवाल है कि कमल-निशान न होने पर भी क्या साइकिल से प्रचार करने वाले और झोपड़े में रहने वाले सारंगी संसद पहुँच सकते थे? भारतीय सियासत में गरीब सांसद शब्द कब का लुप्त हो चुका था। कब सुना था यह याद नहीं। शायद न ही सुना हो लेकिन यह सुकून देता है।

हम खुश हो रहे हैं, मोहित हैं, न्यौछावर हैं, सारंगी की गरीबी पर। उनकी जनप्रियता पर फिर भी नहीं। हम द्रवित हैं कि वह सरकारी हैण्डपम्प पर भी स्नान कर लेते हैं, उनकी योग्यता पर अब भी नहीं। उन्हें किस लिहाज से 'उड़ीसा का मोदी' कहा जाता है यह जानना हमारे लिए अभी बाकी है लेकिन यह सच है कि तमाम मोदी और सारंगी हमें तब ही पसन्द आते हैं जब वह गरीब नहीं रह जाते, गरीबी के प्रतीक बन जाते हैं। जैसे अनेक वस्त्रहीन नागरिकों का यह देश अपने तिरंगीन प्रतीक को देखकर मोहित होता है।

वास्तविकता है कि सारंगी हमारे लिए विकल्प भी नहीं होते। सारंगी जैसे लोग संसद पहुँचते हैं तो इसमें उनकी निजी प्रतिभा है। हमारा कोई योगदान नहीं। अगर होता तो जनसेवा का सबसे उर्वर अवसर करोड़पतियों का गंदा खेल न बन जाता। 17 लाख की संपत्ति वाले सांसद को 5 साल में 10 करोड़ की संपत्ति का सर्वेसर्वा होते हुए देखते भी हम उसे फिर से अपना रहनुमा नहीं चुनते। तमाम सारंगी चुनाव में खड़े होते हैं और हरा दिए जाते हैं।

यह भी विडम्बना है कि हम 'गरीब सांसद' शब्द से परेशान नहीं होते। हमें यह बेचैन नहीं करता क्योंकि हमने समझौता कर लिया है कि इस देश में कोई सांसद गरीब नहीं हो सकता है। वह हमेशा अमीर ही होता है। करोड़पति। इसलिए सारंगी आश्चर्यजनक हैं। हैरान करने वाले हैं। डेमोक्रेसी पर इतराने के तौर पर इस्तेमाल किए जाने के लायक हैं लेकिन सच है कि 90 प्रतिशत करोड़पति सांसद देने वाली मतदाताओं की जमात के गाल पर सारंगी तमाचा हैं। कि होश में आ जाओ और देखो। विकल्प का रोना न रोओ। बनो और चुनो।

Saturday, 4 May 2019

केजरीवाल पर हमला: लोकतान्त्रिक प्रश्नोत्तर की भाषा

प्रतिक्रियाएं भी किसी मसले पर आपका पक्ष रखती हैं। केजरीवाल को थप्पड़ पड़ने पर अगर आप हंस रहे हैं तो राजनैतिक फीडबैक की इस अपसंस्कृति को आपकी हरी झंडी है। किसी नेता से नाराजगी हो सकती है। प्रधानमंत्री इजाजत भी दे सकते हैं कि 'जूतों से मारें' या 'दलित भाइयों के बदले हमें मारें' लेकिन तय हमें करना है कि लोकतांत्रिक प्रश्नोत्तर की भाषा क्या होगी? हम किस तरह के राजनीतिक पर्यावरण का निर्माण चाहते हैं?

क्या हम चाहते हैं कि नेता काम न करें या बेईमानी करें तो उन्हें पीटा जाए? या फिर प्रक्रियात्मक तरीके से चुनाव में अपने मताधिकार से उन्हें जवाब दिया जाए? अगर ज़ाहिर तौर पर पहली बात ग़लत लगती है, जो कि है भी, तो समझना चाहिए कि हमारी हंसी, हमारा मजाक ऐसी घटनाओं में लगातार वृद्धि में मदद कर सकता है। किसी पर जूता फेंकना, थप्पड़ मारना, जूतों से मारने जैसी अराजक प्रतिक्रियाएं लोगों के गुस्से का प्रतिनिधि न बनें बल्कि, लोगों में जवाब देने का लोकतान्त्रिक तरीका विकसित हो। इसके लिए, ऐसी घटनाओं की सामूहिक और सर्वदलीय आलोचना होनी चाहिए।

Friday, 12 April 2019

अलविदा 'लाफिंग गैस सिलेंडर' प्रदीप चौबे

माइक्रो कविताएं लिखने वाली 'महाकाया' का महाप्रस्थान, अलविदा प्रदीप चौबे

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प्रदीप चौबे को यमराज मिल गया। उन्हें ही मिल सकता था। जिंदा आदमी को यमराज मिलते कभी नहीं देखा-सुना है लेकिन उन्हें मिल गया था। यमराज ने पूछा- चौबे जी नरक जाना चाहेंगे या स्वर्ग। चौबे तपाक से बोले- नरक। क्यों? उत्तर मिला- पब्लिक तो वहीं मिलेगी। हास्य कवि को और क्या चाहिए?

पता नहीं प्रदीप चौबे अभी परलोक के किस मोहल्ले में होंगे, किस देश में होंगे। किस गांव में होंगे। वैसे वह मंचों से यह भी तो कहते रहे हैं कि मैं कॉन्फिडेंस का कवि हूं। तालियों की आदत लगाई ही नहीं। सामने एक भी श्रोता हो तो वह कविता पढ़ जाते हैं। उन्ही के मुताबिक एक किस्सा है जो वह मंचों से सुनाते थे कि किसी बड़े कवि सम्मेलन के आखिर में पंडाल में सिर्फ दो लोग बचे थे। एक श्रोता और एक कवि। प्रदीप चौबे कविता पढ़ रहे थे। उन्होंने उस एक श्रोता से कहा, जरूर आप मेरे लिए बैठे हैं, तो श्रोता ने कहा, अरे नहीं, आप पढ़के उतरिए। आपके बाद हमारा नंबर है।

अभी तक चौबे को कॉन्फिडेंस था कि वह एक श्रोता के लिए भी कविता पढ़ते थे। चाहे वह आखिरी श्रोता उनका उत्तरवर्ती कवि ही क्यों न हो। उस दिन उन्हें एक और शब्द मिला - 'ओवर-कॉन्फिडेंस', जो उनके श्रोता-कवि के पास था। जाहिर है, वह दूसरा कवि भी प्रदीप चौबे ही था। ऐसे में इतने जन-विरल परिसर में रहने वाले कवि की इच्छा के विरुद्ध और उनकी किस्मत की मंशा के समर्थन में इसकी पुरजोर संभावना है कि वह स्वर्ग की किसी शानदार कॉलोनी का बाशिंदा हुआ होगा।

एक तीसरी बात भी जो चौबे अपने बारे में मंचों से कहते थे, वो यह कि कविताएं वह लंबी नहीं लिखते हैं। वह इशारों के कवि हैं। इशारों में कहते-

'आप मुझे सुन रहे हैं यह मेरी खुशनसीबी है, आपकी जो हो'
.......

"पूछताछ काउंटर पर किसी को भी न पाकर 
हमने प्रबंधक से कहा जाकर- 
‘पूछताछ बाबू सीट पर नहीं है उसे कहां ढूंढें? 

जवाब मिला – ‘पूछताछ काउंटर पर पूछें!’"

.........

"पलक झपकते ही हमारी अटैची साफ हो गई 
झपकी खुली तो सामने लिखा था- 

इस स्टेशन पर सफाई का मुफ्त प्रबंध है।"

और, एक कविता में-

"हमारे पिता जी बहुत अच्छे पिताजी थे
उनकी बड़ी तमन्ना थी कि उनके घर में कोई फौज में जाए
उनको मैं ही पसंद आया
एक दिन मुझसे बोले- मैं देश की सेवा करना चाहता हूं
तू कल फौज में भर्ती हो जा"

यह दुनिया 'निंदक नियरे राखिए' की उल्टी दिशा में काफी आगे निकलती जा रही है। मजाक छोड़िए, लोग अपनी आलोचना तक सहन नहीं कर पाते। ऐसे में प्रदीप चौबे अपनी कायिक अवस्था को किसी कमी की तरह नहीं देखते, उस पर अफसोस नहीं करते, रोते नहीं बल्कि उसे हास्य की सामग्री बनाकर अपना ही मजाक उड़ाते हैं। अपने मोटापे पर उन्होंने न जाने कितने चुटकुले बनाए हैं। कितनी कविताएं भी लिखीं। लगभग उनकी हर कविता में यह चीज देखी जा सकती है। चाहे वह रेलयात्रा के कुली का जिक्र हो जिसके लिए

'बाबूजी आप किस सामान से कम हैं'

या फिर वह रिक्शावाला, जो उन्हें दो रुपये किलो के हिसाब से ले जाने की शर्त रखता है। अपना ही मजाक बनाते हुए कवि कहते हैं कि लोग किलोमीटर में यात्रा करते हैं और मैं किलो में करता हूं। ऐसा करते हुए वह अपने आपको डायनासोर तक कहने से गुरेज नहीं करते।

"मैं एक पिच्चर देखने गया जुरासिक पार्क। उसका हीरो डायनासोर था। जैसे ही मैं हॉल में पहुंचा लोगबाग मुझे देखकर ऐसे घूरने लगे जैसे मैं ही डायनासोर हूं। कुछ लोग तो टिकट फाड़कर घर जाने लगे। बोले- अब पिच्चर क्या देखना। हीरो तो यहीं है।"

अपना मजाक बनाना इतना आसान नहीं था। किसी ने लिखा है-

"इतना आसान नहीं खुद का तमाशा करना
कलेजा चाहिए औरों को हंसाने के लिए।"

औरों को हंसाते-हंसाते सामाजिक-राजनीतिक अव्यवस्थाओं की तस्वीर दिखा जाना प्रदीप चौबे अच्छी तरह से जानते थे। इसका अक्स उनकी खुद की शवयात्रा पर लिखी कविता और रेलयात्रा कविता में देखी जा सकती है। शवयात्रा कविता में बेहद औपचारिक और स्वार्थी हो चुके सामाजिक संबंधों का प्रतिबिंब पेश करते हुए चौबे उनके अंतिम यात्रा में आए लोगों के आपसी संवाद के माध्यम से कितनी बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं। 

“हम अपनी शवयात्रा का आनंद ले रहे थे
लोग हमें ऊपर से कंधा और अंदर से गालियां दे रहे थे

एक हमारे बैंक का मित्र बोला -
कि इसे मरना ही था तो संडे को मरता
कहां मंडे को मर गया बेदर्दी
एक ही तो छुट्टी बची थी
कमबख़्त ने उस की भी हत्या कर दी

ये थोड़े दिन और इंतज़ार करता
तो जनवरी में आराम से नहीं मरता
अपन भी जल्दी से घर भाग लेते
जितनी देर बैठते सर्दी में
आग तो ताप लेते।”

उनकी रेलयात्रा कविता तो जैसे आम आदमी की खीझ है। 

भारतीय रेल की जनरल बोगी 
पता नहीं आपने भोगी कि नहीं भोगी।

सब जानते हैं कि जनरल बोगी में यात्रा नहीं होती। उसे भोगा जाता है। नरक की तरह। एक जनरल डिब्बे की क्या दुनिया है, क्या व्यथा है, क्या चिड़चिड़ापन है और इन सबसे कैसे हास्य तैयार होता है, वह सब इस कविता में आसानी से देखा जा सकता है। बहुत सी चीजों से हम समझौता कर ले जाते हैं। उस समझौते की हंसी उड़ाकर विद्रोह के बीज बोने का काम भी उन्हें आता है, यह प्रदीप चौबे ने इसी कविता में सिद्ध किया है। 

"किसी ने पूछा- पंखे कहां हैं
उत्तर मिला- पंखों पर आपको क्या आपत्ति है
जानते नहीं, रेल हमारी राष्ट्रीय संपत्ति है
कोई राष्ट्रीय चोर हमें घिस्सा दे गया है
संपत्ति में से अपना हिस्सा ले गया है"

यह व्यंग्य किसी प्रशासन पर नहीं बल्कि जनता पर था। हास्य-व्यंग्य में ज्यादातर निशाना प्रशासनिक संस्थाएं होती हैं। प्रदीप चौबे जरूरत पड़ने पर आम आदमी पर भी व्यंग्य करते हैं।

"टीचर के पास बटुआ
इससे अच्छा मजाक इतिहास में आज तक नहीं हुआ।"

मैं हास्य कवि प्रदीप चौबे से कभी मिला नहीं। यह जानने की बड़ी अभिलाषा थी कि जिस ‘महाकाया’ के कवि सम्मेलन के मंचों पर उपस्थित रहने भर से ही माहौल हंसने-परिहास करने लगता था, उसका व्यक्तिगत जीवन भी क्या ऐसी ही चुहलबाजी, हास-परिहास से भरा था। लेकिन, चौबे से कभी मिलना नहीं हुआ। ग्वालियर उनका घर था। कभी ग्वालियर जाना भी नहीं हो पाया। कवि सम्मेलन में भी कभी उन्हें सामने से नहीं सुना। यू ट्यूब पर उन्हें खूब सुना है। पिछले साल का एक विडियो हाल ही में देखा था। चौबेजी के गुदगुदाने वाले चेहरे पर एक अजीब सी उदासी और असमर्थता थी। देखकर बड़ी तकलीफ हुई। यह तकलीफ आज के शोक के साथ घुल गई है। यह और पीड़ादायक है।

प्रदीप चौबे हमारे बीच नहीं हैं। माइक्रो कविताएं लिखने वाली महाकाया का महाप्रस्थान हो चुका है। हास्य का आकाशदीप सशरीर बुझ चुका है लेकिन अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाते हुए संसार को मुस्कुराने-हंसने के तमाम बहाने देकर हमारा पूर्वज विदा हुआ है। उसके लगाए हास्य के पौधे हंसी की हवाएं न जाने कितनी नस्लों तक फैलाते रहेंगे। हम हंसते रहेंगे और प्रदीप चौबे को जीवनभर याद करते रहेंगे।

विदा हास्यकवि

मौत आई तो ज़िंदगी ने कहा-
'आपका ट्रंक काल है साहब'