Sunday, 31 December 2017

स्वगत क्रांति में बीज निहित हैं विश्वक्रान्ति के


एक नम्बर को लेकर भावुकता अच्छी है क्या! पता नहीं, लेकिन हो ही जाती है। आखिरी महीने के आखिरी हफ्ते से गिनती गिनना शुरू। साल का 'आखिरी' ये, साल का 'आखिरी' वो। साल की शुरुआत में गिनना कि 'पहला' ये, 'पहला' वो ..!! सब एक अजीब सा संतोष देता है।

नया तो कुछ होता ही नहीं है। एक तारीख बदलती है और कैलेंडर से नएपन की घोषणा हो जाती है, लेकिन क्या ऐसा होता है कि 31 दिसम्बर की रात 11 बजकर 55 मिनट से चल रहा किसी का कोई विवाद 1 जनवरी को 12 बजकर 1 मिनट पर अचानक बन्द हो जाए। लोगों की भावनाएं नयी हो जाएं, विचार बदल जाएं। बहुत मुश्किल है, लेकिन फिर भी... हम कोशिश तो करते हैं कि हमारे इमोशन्स नये साल की नदी में नहाकर तरोताजा हो लें।

बदलता कुछ भी नहीं। सिवाय साल के। साल चूंकि वक़्त का एक मात्रक है इसलिए उसे तो रुकना है ही नहीं। हमने एक अनवरत धारा के कई हिस्से कर दिए हैं। ताकि जीना आसान हो जाए। एक छोटा सा विराम फिर नयी यात्रा के लिए नए नियम, नयी ऊर्जा और नए संकल्प। पुरानी बुरी आदतों से छुटकारा पाने का एक बहाना। नयी आदतों को आदत में शामिल करने की अयोजन-तिथि। नया साल इसी मन्तव्य का प्रतिनिधि-दिवस है।

रिजॉल्यूशन्स दरअसल रिवॉल्युशन की सबसे छोटी ईकाई है। ये आत्मसत्ता के खिलाफ एक छोटी सी क्रांति होती है, इसलिए जैसे 'स्वगत शोक में बीज निहित हैं विश्वव्यथा के'... ठीक उसी तरह 'स्वगत क्रांति में बीज निहित है विश्वक्रान्ति के।' मुझे याद है पिछले साल हमने एक रिजॉल्यूशन लिया था और कहा था कि 'अमरबेल बनना जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है।' अपने इस रिजॉल्यूशन में बेहद कम मात्रा में ही सही मुझे सफलता दिखती है। मैं आज एक साल बाद इस दिशा में थोड़ा अन्तर देखता हूँ, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। इसी से काम शायद नहीं चलने वाला है। इसका विस्तार चाहिए, इसलिए जब तक संतोषजनक सफलता न मिले मैं नया संकल्प लेने के बारे में नहीं सोच रहा।

मैं किसी रेस का हिस्सा नहीं बनना चाहता। मुझे कोई जल्दी नहीं है। मैं धीरे-धीरे ही आत्मसुधार की सीढ़ियां चढ़ना चाहता हूँ। अपनी ही रफ्तार से। क्योंकि रफ्तार विस्तार की गारन्टी नहीं है। दुर्घटनाओं की संभावना का बीज है। प्रक्रियागत सुधार दीर्घकालिक परिणाम देते हैं, ऐसा मुझे लगता है।

पिछले अधूरे काम के साथ मुझे इस साल एक नया काम भी अपने लिए निश्चित रखना है। इस दिशा में भी काम करना बेहद जरूरी है। कोशिश होगी कि मजबूत बन सकें। बड़ा मुश्किल होगा लेकिन हवाओं के झोंकों से तहस नहस होने से बचना है तो थोड़ी सख्ती शाखों में आनी ही चाहिए कि हवा रगड़कर पार हो जाए लेकिन अस्तित्व को रौंद न पाए, क्योंकि मेरे लिए रौंदा जाना सबसे ज्यादा खतरनाक चीज होती है।


Saturday, 30 December 2017

कविताः अबकी आना तुम पाँव दबाकर नवल वर्ष

अबकी आना
तुम पांव दबाकर नवल वर्ष!

हमने कितनी आशा बांधी
थी, आए तुम बनकर आंधी,
खबर हो गई लोग-बाग को,
दिया कान भर, तुम प्रतिकूल।

हम बैठे थे दीप जलाए,
शंकित, चिंतित, मन घबराए,
माथे का भूगोल हुआ ज्यों
मुरझाता है कोई फूल।

तुम आए! या फिर आ धमके!
आते ही बिजली सा चमके,
मन के चंद्राशाओं को ज्यों
निगल गया बादल स्थूल।

सहमा-सहमा दीप बेचारा,
तड़क-भड़क से हारा-हारा
सोच रहा था कहीं प्रलय तो
नहीं आ गया है, मग भूल।

फिर तुमने क्या रंग दिखाया,
तहस-नहस का दृश्य बनाया,
ज्यों बरगद पर इधर फिर उधर
अपना जीवन रहा झूल।

पर जीवन तो हरी दूब है,
रगड़ी-मसली गयी खूब है,
झेल-ठेल तूफान, जी उठे
शीश तान हर बार तूल।

हे नवल भाग्य लेखनीकार!
हूँ थका हुआ, इसलिए यार!
जीवन के नवल सदन में तुम
तज अपने सारे धूल-शूल,

मत रिसियाना
करना प्रवेश सकुशल-सहर्ष।
अबकी आना
तुम पाँव दबाकर नवल वर्ष।

©राघवेन्द्र

Friday, 29 December 2017

कथरी के कबीरः 'बड़ी बड़ी कोठिया सजाया पूँजीपतिया, दुखिया कै रोटिया चोराई-चोराई'


रश्मिरथी में दिनकर ने कहा है - "खिलते नहीं कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में/ अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।" कविता और साहित्य को अभिजनों की परिधि से खींचकर लाने की कोशिश करने वाले तमाम पुरोधा जनश्रुतियों और गांवों की कहानियों में ही कहीं खो जाते हैं लेकिन अनुभूतियों और आवश्यकताओं की जमीन पर उगाए गए उनके सवाल पाश की उस कविता की घास की तरह हैं जो निरंकुशता, मनमानीपन और अनीति के हर किए धरे पर उग आते हैं। जुमई खां आजाद ऐसे ही एक साहित्यिक पुरोधा हैं, ऐसे ही कुसुम हैं जो पुर से दूर कुंज-कानन में खिलते हैं। प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गांव का यह जनकवि हिंदी खड़ी बोली साहित्य का हाथ थामकर आसानी से मुख्य धारा के साहित्य में स्थापित हो सकता था लेकिन जन-गण मन की चेतना को आवाज देने के मामले में उसे अपनी मिट्टी की भाषा ही सबसे उपयुक्त लगी। वही भाषा, जिसे भाषा नहीं बोली कहा जाता है। वही बोली, जिसके बोलों से जब तुलसीदास रामचरितमानस लिखते हैं तो वह  24 घंटे लगातार गाया जाने वाला दुनिया का पहला महाकाव्य बन जाता है। 

29 दिसंबर 2013 को जनकवि जुमई खान आजाद दुनिया से रुखसत कर जाते हैं। दिन में पांच बार नमाज पढ़ने वाले खान की कथरी कविता संकलन पढ़िए। उसकी शुरुआत ही सरस्वती वंदना से होती है। जुमई खान की इस सद्भावना को वो लोग नहीं समझ पाएंगे जिनके दिलो दिमाग पर राजनीति प्रायोजित सांप्रदायिकता की दहगती आग के कार्बन की परत जमी है। उनके लिए राजनैतिक शब्दावली के हिंदू-मुसलमान क्या हैं, इस कविता से समझिए-

राजनीति पर धरम करम कै कलई गयी चढ़ाई,
देख्या सोन खरा पहिचान्या ओका लेह्या तपाई।
मजहब कहाँ अहै खतरे मां, हमैं तोहैँ बहकवाएँ,
खास लड़ाई जौन चलत बा ओसे ध्यान हटावें।

जुमई 'कथरी के कबीर' कहे जाते हैं। बड़ी मुश्किल से उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की थी, लेकिन उनकी रचनात्मक क्षमता, उनका जीवन-ज्ञान और तत्कालीन समाज में व्याप्त गरीबी, भूखमरी, अशिक्षा, जाति-धर्म भेदभाव आदि विसंगतियों से खिन्न मन उन्हें जनकवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है। यह प्रतिष्ठा केवल शाब्दिक नहीं है। यह प्रतिष्ठा कुछ ऐसी थी कि बस पूरा का पूरा जनपद उनके घर जैसा हो गया था। जिले में कहीं भी किसी भी घर के वह एक अस्थायी सदस्य के बतौर जाने जाते थे। उनकी कविताएं समसामयिक हस्तक्षेप की तरह हैं। जैसे- पूंजीवाद के खिलाफ उनके इस लहजे को देखिए-

कतौ बने भिटवा कतौ बने गड़ही,
कतौ बने महला कतौ बने मड़ई।
मटिया कै दियना तुहिं तौ बुझवाया,
सोनवा के बेनवा डोलाय-डोलाय।
बड़ी-बड़ी कोठिया सजाया पूँजीपतिया,
दुखिया कै रोटिया चोराई-चोराई।

कथरी के कबीर केवल अवधी की स्याही से कलम नहीं चलाते थे। खड़ी बोली में भी उनका बराबर हस्तक्षेप था। हां, लिखा उन्होंने ज्यादा अवधी में ही है। उनकी ज्यादातर लोकप्रिय कविताएं अवधी में ही है। आज जुमई खान आजाद की तीसरी पुण्यतिथि है। 5 अगस्त 1930 को प्रतागढ़ जिले के गोबरी नाम के गांव में जन्में जुमई 'अवधी के रसखान','अवधी सम्राट' आदि नामों से भी जाने जाते  हैं। जुमई अवधी अकादमी, लोकबंधु राजनारायण स्मृति सम्मान, सारस्वत सम्मान, मलिक मुहम्मद जायसी पुरस्कार, अवध-अवधी सम्मान, राजीव गांधी स्मृति सम्मान, अवधी रत्न सम्मान आदि पुरस्कारों से भी सम्मानित किए जा चुके हैं। साहित्यिक हलके के पास उन्हें न याद करने के अपने तमाम कारण होंगे, लेकिन हम तो अपने जनकवि को आज के दिन प्रणाम कर ही सकते हैं न। जाते-जाते जुमई खान की एक गजल का अंश पढ़िए और इस बात से आश्वस्त हो जाइए कि जुमई खान और हलधर नाग बनने के लिए प्रकाशित किताबों का सांख्यिकीय इतिहास मायने नहीं रखता, अगर कुछ मायने रखता है तो वह है आपकी रचनात्मकता का जन-मुद्दों से सरोकार. आपकी भावनाओं में संवेदनशीलता की मजबूत जमीन, विनम्रता, सामाजिक घुलनशीलता, सद्भावना, करूणा, आदर्श, ईमानदारी और सबसे ज्यादा जरूरी धर्म-जाति से परे मानवीयता।


नीम के रस में घोला जब ज़हर, मीठा हो गया
झूठ उसने इस कदर बोला कि सच्चा हो गया।

वो इस बात पर मुतमईन है कि दस्तार बच गयी
मुझको मलाल है कि मेरा सर नहीं गया।

कथरी के कबीर को प्रणाम।

कविताः मैं टटोल रहा हूं अक्षयपात्र

रिक्तता

जीवन के अक्षयपात्र की रिक्तता
दुर्वासा और उनके सौ शिष्यों की
उपस्थिति से भयभीत है।
प्राण की वेदना
द्रौपदी की प्रार्थना में शरणागत है,
और मैं टटोल रहा हूं अक्षयपात्र
कि तुम मिल जाओ कहीं
चावल के तिनके की तरह..

Thursday, 28 December 2017

कविताः सवालों के इंतजार में

तेज हवाओं से
अमरुद के सूखे हुए पत्ते
ज़मीन पर फ़ैल गये थे,
बारिश ने उन्हें जमीन से और चिपका दिया है,
मिट्टी की सुगंध
मेरे पांवों तले दबी
उन पीले-गीले पत्तों से छनकर
मुझ तक पहुँच रही है।
डाल से लगे
पत्तों पर अटके बूँद को चीरकर आती
अस्ताचलगामी सूरज की किरणें
सामने के नींबू की
हरी पौध पर पड़ रही हैं,
और उसकी छाँव का अँधेरा
उस पतली किरण से टकरा टकराकर
चूर हो रहा है।
गीली हवाओं ने
डूबते सूर्य की आग से उठने वाले
सांझ के धुएं को यहां-वहां
फैला दिया है।
और मैं
यूकेलिप्टस के शिखर पर बैठे
उस कोयल की कूक में
तुम्हारे उन 'सवालों' को महसूस कर रहा हूँ
जो तुमने कभी पूछा ही नहीं,
और जिसके इंतज़ार में
मेरे 'जवाबों' ने भी जवाब दे दिया है।

©राघवेंद्र

Thursday, 21 December 2017

कविताः ढहे-पड़े आवास

पृष्ठ भरे, बहुचित्र सजाए,
उनको अब तक रंग न पाए
थे, जीवन के विविध रंग ने थाम लिया संन्यास।

विह्वल, अन्यमनस्क, व्यथित मन,
ज्यों क्षतिग्रस्त महल, यूं जीवन।
खंडहरों में ढूंढ रहे हैं, ढहे-पड़े आवास।

यूं हैं बलवती आशाएं,
मरुथल में नीरज पुष्पाएं,
घना तिमिर, दामिनी देख, हो प्रातः का आभास।

पाप बना शर-शब्दभेद,
सब ज्ञान नियति पर करे खेद,
दशरथ की आत्मग्लानि पर पकता रघुवर का वनवास।

कविताः सूरज को कल फिर आना है

सूरज को कल फिर आना है।

तप्त-खिन्न से पत्थर बोले,
तनिक सांस ले, बाँहें खोले।
शीत चांदनी से नहला दो
ऐ चंदा-सर! हौले-हौले।
शीतलता का दीप जला दो, ज्वाल-अंध कल फिर छाना है।

पकड़ कहीं कोना-अँतरा, वह,
रोज सुबकता, पीर-ज्वाल दह।
सामाजिकता के थल से बिछुड़ा
जाता, निजी-पीर में बह-बह।
लक्ष्य-कोष से इतर लक्ष्य को खोकर कहता, क्या पाना है?

दीप अगिन थे कभी जलाए,
उनका अब प्रकाश ना भाए,
चंद्र-खिलौने पर अड़कर, अब
हठवश हो सब दीप बुझाए।
उसे पता क्या नहीं! पूर्णिमा को कुछ दिन में ढल जाना है।

Tuesday, 19 December 2017

पुण्यतिथिः पर्यावरण का अनुपम मित्र - अनुपम मिश्र


भगीरथ ने पितरों के उद्धार के लिए गंगा का धरती पर अवतरण कराया था। ऐसे में अगर अपने परिवार से इतर सोचते हुए एक व्यापक उद्देश्य की परिणति में कोई एक गंगा की जगह पानी की अनेक गंगाएं धरती पर उतार दे तो कहा जाए कि ऐसी शख्सियत भगीरथ से एक कदम आगे है। तब उसे आधुनिक भगीरथ नहीं कहा जाएगा बल्कि भगीरथ को सतयुग का अनुपम मिश्र कहा जाएगा। अनुपम मिश्र की सदेह सांसारिक अनुपस्थिति को आज एक साल हो गए। पिछले साल आज ही के दिन सादगी, शांति और प्रकृति प्रेम की अद्भुत मूर्ति ने दबे पांव संसार को अलविदा कह दिया था। अनुपम मिश्र से मेरा पहला परिचय हुआ था जुलाई 2016 में, जब हम तालाब बचाओ आंदोलन से संबंधित एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे। इस दौरान उनकी पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' पढ़ने को मिली। तालाबों का पूरा विज्ञान तब पहली बार मेरे सामने आया था। तालाब से जुड़े तमाम शब्द, उनकी परिभाषाएं, तालाब की संरचना, बनाने की तकनीकी आदि सब कुछ उस एक किताब में बड़े ही सरल भाषा में संकलित है। हिंदी के अनन्य कवि भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता है - 'जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख/ और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख'। अनुपम को शायद कभी भवानी प्रसाद मिश्र से बड़ा नहीं होना था लेकिन अगर भवानी प्रसाद मिश्र के कहे पर जाएं तो अपनी इस किताब से अनुपम सच में भवानी प्रसाद मिश्र से बड़े हो गए थे। भवानी प्रसाद मिश्र, जो अनुपम के पिता थे और जिन्हें अनुपम मन्ना कहकर बुलाते थे।

हिंदी के विख्यात कवि का पुत्र होना अनुपम के लिए गर्व का विषय तो था लेकिन यह उनका परिचायक बनें यह उन्हें पसंद नहीं था। अनुपम के एक मित्र और सहपाठी रहे बनवारी बताते हैं कि जब उन्होंने अनुपम से इसका कारण पूछा था तो सरल सहज अनुपम ने जवाब दिया था कि भवानी जी के पुत्र होने के नाते मुझसे अनायास ही बहुत सी अपेक्षाएं कर ली जाती हैं और मेरी साहित्य में रूचि नहीं है। फिर मैं अनुपम के रूप में ही क्यों न पहचाना जाऊं। लेकिन अपने पिता के प्रति निष्ठा को लेकर अनुपम की भावना को एक और उदाहरण से समझा जा सकता है। अनुपम दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में संस्कृत विभाग के विद्यार्थी थे। अपने संस्कृत विभाग में प्रवेश लेने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा था कि एक बार उन्होंने अपने पिता को किसी परिचित से बात करते हुए सुना था जिसमें वे कह रहे थे कि मेरी बड़ी इच्छा थी कि मेरा कोई पुत्र संस्कृत सीखता। अनुपम ने उसी दिन स्वयं संस्कृत सीखने का निश्चय कर लिया।

संस्कृत का विद्यार्थी, घर का साहित्यिक और पत्रकारीय माहौल और फोटोग्राफी के शौकीन अनुपम तालाब की खोज में क्यों निकल पड़े? पानी से उनका यह लगाव कब और क्यों पुष्पित-पल्लवित हुआ? इस सवाल का जवाब देते हैं दिलीप चिंचालकर अपने एक लेख में। दिलीप बताते हैं कि एक दिन अनुपम राधाकृष्ण जी का पत्रवाहक बनकर वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी जी के यहां जाते हैं। थानवी जी के जवाब लिखने के दौरान अनुपम का ध्यान जमीन पर बनी जालियों की एक आकृति पर जाता है। जिज्ञासा उठती है कि यह क्या है? जवाब मिलता है कि प्रदेश में कम वर्षा की वजह से पानी को सहेजने का यह पुराना तरीका है। छत पर वर्षा के पानी को एकत्रित कर जमीन में सहेजने की यह व्यवस्था साल भर यहां के लोगों के लिए पानी का इंतजाम करती है। जीवन के आधार को इतनी अहमियत देने की यह व्यवस्था अनुपम के संकल्पों में नए युग के एक जल-पुरुष का बीज वपन करती है और आज के समाज को देशज तकनीकी से जल के परंपरागत स्रोतों को पुनर्जीवित करने वाला एक अनुपम संजीवन मिल जाता है। फिर क्या था, यात्राएं, सामाजिक अनुसंधान और परंपरागत तकनीकियों का पुनर्लेखन सबकी परिणति के रूप में एक रत्न निकलकर आता है, जिसका नाम होता है - 'आज भी खरे हैं तालाब'

आज भी खरे हैं तालाब अनुपम मिश्र की पहली कृति है। यह किसी भी तरह के कॉपीराइट के अधीन नहीं है। कोई भी इस पुस्तक को छाप सकता है। तालाबों के लिए लगभग विश्वकोष जैसी यह पुस्तक आधुनिक तकनीकी से मदांध मानवजाति के लिए आंखें खोलने वाली कृति है। अनुपम के लिए तालाब केवल जल-स्रोत नहीं थे बल्कि वह सामाजिक आस्था, परंपरागत कला-कौशल और संस्कारशीलता के उदाहरण सरीखे थे। किताब की शुरुआत होती है कूड़न, बुढ़ान, सरमन और कौंराई नाम के चार भाइयों से। कूड़न की बेटी को पत्थर से चोट लग जाती है और वह अपनी दरांती से पत्थर को उखाड़ने की कोशिश करती है। पर यह क्या! उसकी दरांती तो सोने में बदल गई। दरअसल वह पत्थर नहीं पारस था। कूड़न बेटी के साथ पत्थर को लेकर राजदरबार पहुंचता है लेकिन राजा पारस लेने से इंकार कर देता है और कहता है-  '' जाओ इससे अच्छे-अच्छे काम करते जाना, तालाब बनाते जाना।'' अनुपम किताबी शिक्षा को केवल औपचारिक शिक्षा मानते थे। आधुनिक शिक्षा के पर्यावरणीय अनपढ़पन पर तंज कसते हुए अपनी किताब में अनुपम लिखते हैं - 'सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। ये इकाई, दहाई मिलकर सैंकड़ा, हज़ार बनाती थीं। पिछले दो-सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया।'

आज भी खरे हैं तालाब अनुपम मिश्र के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि नहीं है। यह तो उनकी उपलब्धियों के महान कोष का एक छोटा सा हिस्सा है। दरअसल अनुपम की उपलब्धियों को गिना भी तो नहीं जा सकता है। खुद अनुपम को यह चीज पसंद नहीं थी। अपनी उपलब्धियों के प्रति किसी भी तरह की प्रशंसा की शून्य आकांक्षा और अपने पास आए सुविधा के तमाम अवसरों को अपने अलावा किसी सुयोग्य को सौंप देने की उनकी आदत उनके व्यक्तित्व को वास्तविक अनुपम्यता सौंपती है। हम अनुपम मिश्र को कभी देख नहीं पाए। ऐसे में दिल में इस टीस को रोकना बिल्कुल भी संभव नहीं कि कम से कम एक बार उनसे मिल लेते। इसलिए भी कि उन्हें धन्यवाद दे सकें कि हमारी सांस के साथ हमारे खून में घुलने वाली हवाओं में उन तालाबों के पालों से उठने वाली खुश्बू है जो धरती पर जीवन का फूल खिलाने की तब सबसे बड़ी जरूरत होंगी जब सारे विकल्प खत्म हो चुके होंगे। अनुपम मिश्र के लिए दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी ने 1993 के अपने एक लेख में जो लिखा था वह आज उनके जाने के बाद और भी प्रासंगिक हो उठा है कि - 'पर्यावरण का अनुपम, अनुपम मिश्र है। उस के जैसे व्यक्ति की पुण्याई पर हमारे जैसे लोग जी रहे हैं। यह उसका और हमारा, दोनों का सौभाग्य है। अपने एक लेख में अनुपम बिनोबा भावे की एक उक्ति दोहराते हैं जिसमें बिनोबा कहते हैं - ' पानी जब बहता है तो वह अपने सामने कोई बड़ा लक्ष्य, बड़ा नारा नहीं रखता, कि मुझे तो बस महासागर से ही मिलना है। वह बहता चलता है। सामने छोटा–सा गड्ढा आ जाए तो पहले उसे भरता है। बच गया तो उसे भर कर आगे बढ़ चलता है। छोटे–छोटे ऐसे अनेक गड्ढों को भरते–भरते वह महासागर तक पहुंच जाए तो ठीक। नहीं तो कुछ छोटे गड्ढों को भर कर ही संतोष पा लेता है। ऐसी विनम्रता हम में आ जाए तो शायद हमें महासागर तक पहुंचने की शिक्षा भी मिल जाएगी।' अनुपम का जीवन बिनोबा भावे की इसी उक्ति का प्रायोगिक संस्करण है।

'न्यूज लॉन्ड्री' में प्रकाशित

Monday, 4 December 2017

श्रीलंकाई क्रिकेटरों के मुंह पर लगे मास्क ने हमारी बोलती बंद कर दी है


 श्रीलंकाई क्रिकेटरों के मुंह पर लगे मास्क ने हमारी बोलती बंद कर दी है

देश में आज का माहौल कुछ ऐसा बना हुआ है कि स्मॉग से ज्यादा राष्ट्रीय चिंतन का विषय विराट कोहली का तिहरा शतक न बना पाना हो गया है। ‘श्रीलंकन टीम को ऐसा नहीं करना चाहिए था’, ‘ये साजिश थी उनकी’। ‘इस ड्रामे पर तो उसे ऑस्कर मिलना ही चाहिए’, (और अखण्ड पाखंड का ‘नोबल’ हमको।) इन सारे बयानों में विमर्श की दिशा देखिये आप! बात स्मॉग पर नहीं होगी, बाकी सब पर होगी। दिल्ली-सरकार और ‘दिल्ली की सरकार’ दिल्ली में ही है, लेकिन दिल्ली का दिल खतरे के निशान पर धड़क रहा है। एक रिपोर्ट में पढ़ रहा था कि हर साल हमारे देश में तकरीबन 6 लाख लोग प्रदूषण की कड़वी हवा की वजह से दम तोड़ देते हैं; लेकिन ये आंकड़े अब चौंकाते नहीं हैं। इन आंकड़ों को गिनना हमारी आदत बनती जा रही है। हम सब भी इन सांख्यिकीय आंकड़ों का घटक बनने से पहले गम्भीर नहीं हो सकते। हमें सब कुछ मजाक ही लगेगा। पटाखों पर बैन को ‘संस्कृति पर हमला’ बोलकर हम न्यायालय पर व्यंग्य हंसी हंसेंगे। ऑड-इवन पर तंज कसेंगे और केजरीवाल पर चुटकुले बनाकर ठहाके लगाएंगे। कितने हंसमुख हैं हम सब!

हंसमुख होना बुरा नहीं है। हंसी और ख़ुशी के गोमुख वाली आदतों से विमुख होना भयानक है। पर्यावरण के खतरे की जानकारी से और उसके बचाव के तरीकों से कोई अनभिज्ञ नहीं है। छोटे प्रयास ही बड़े परिणामों की नींव होते हैं। हमें लगता होगा कि इस माहौल में भी केवल हमारे पेट्रोल-डीजल वाले वाहनों के अप्रयोग से क्या फर्क पड़ेगा! ऊर्जा के संसाधनों का बेतरतीब प्रयोग अगर हम छोड़ भी दें तो इससे कहाँ कोई प्रदूषण प्रभावित होने वाला है! पेड़ काटें, न लगाएं और सोचें कि हमारे ही पेड़ लगा डालने से कहाँ पर्यावरण स्वच्छ हुआ जा रहा है! पटाखे भी तो साल में एक बार ही छोड़े जाते हैं, इससे भी क्या इस तरह का भयानक स्मॉग होता है कहीं! हम एक किलोमीटर की दूरी भी साइकिल से या पैदल जाने में कतराते हैं। तर्क होता है कि इतनी दूर में कितना प्रदूषण बढ़ जाएगा! हमारी ज़िम्मेदारियों का यही ‘समझौतीकरण’ श्रीलंकाई क्रिकेटरों के मुंह पर बंधा हुआ वह मास्क है जिसने आज दुनिया के सामने हमारी बोलती बंद कर दी है।

श्रीलंका की टीम भारतीय क्रिकेटप्रेमियों के लिए विलेन बन गयी है।हम विकासशील अर्थव्यवस्था वाले लोग हैं। इस राह पर न जाने कितने स्मॉग्स के हमले हमें झेलने हैं। इन हमलों के विरुद्ध हम सभी एक सैनिक की तरह हैं। हम सभी के पास हमारे हिस्से की जिम्मेदारियों के हथियार हैं। अगर हम अपने दायित्व को समझें, प्रकृति के बचाव के प्रति अपने कर्तव्य का बोध रखें और अपनी क्षमता के मुताबिक इस नर्क के मूल कारणों को अपनी जीवनचर्या से कम करते जाएं तो इस विपदा से निपटना बहुत आसान हो सकता है।

ऊपर हमने कुछ भी नया नहीं लिखा है। यह सब कुछ हम काफी पहले से सुनते-इग्नोर करते आ रहे हैं, इसीलिए इसे बार-बार दोहराने की ज़रूरत पड़ती है। आजकल निराशाजनक विषयों का परिसर बढ़ता चला जा रहा है। कल मीडिया का रवैय्या देखकर बहुत दुःख हुआ। श्रीलंका की टीम भारतीय क्रिकेटप्रेमियों के लिए विलेन बन गयी है। दिल्ली में कल का मौसम सामान्य से तीन गुना खराब था। हम शाम को जैसे ही बाहर निकले, हमारे एक साथी ने बताया कि सरकार ने सुझाव दिया है कि 10 बजे से पहले घर से बाहर न निकलें। हवा खतरनाक स्तर तक खराब है; लेकिन हम लोगों के लिए यह आदत की तरह होती जा रही है। इसलिए हम पर बाहर-बाहर से इसका बहुत ज्यादा असर भी महसूस नहीं होता। श्रीलंकन टीम के लिए ज़रूर दिक्कत हो रही होगी। इसके लिए उन्हें ‘ड्रामा’ ‘नाटक’ जैसे शब्दों से नवाजना ग़लत लगता है।

स्मॉग के चलते शायद पहली बार क्रिकेट में ऐसी रुकावट देखने को मिली है। ऐसे में मैच को रद्द करने संबंधी किसी तरह ‘क्रिकेटीय नियम’ भी निश्चित नहीं है। खराब मौसम, कम दृश्यता और बारिश की वजह से तो मैच रोका जा सकता है लेकिन प्रदूषण की वजह से आज तक किसी मैच के बीच में रद्द होने की कम से कम मुझे तो कोई जानकारी नहीं है। हां, पिछले साल रणजी ट्रॉफी के दो मैच स्मॉग के चलते खेले ही नहीं गए थे। कल की घटना को लेकर श्रीलंका क्रिकेट बोर्ड ने बीसीसीआई से नाराज़गी भी ज़ाहिर की है। वैश्विक मीडिया में भी यह खबर भारत की प्रतिष्ठा को बट्टा लगा रहा है। ऐसे में सारी खीज़ विदेशी खिलाडियों पर उतरना सही नहीं है। इस संकट की ज़िम्मेदारी हमें खुद ही लेनी होगी और कल की घटना को लेकर अपनी भाषा भी बदलनी होगी।

इतिहास, संस्कृति और परंपराओं के गुणगान में हमारा कोई सानी नहीं है। इनके लिए हम ‘नाक’ से लेकर ‘गर्दन’ तक काटने को तैयार रहते हैं। हमने अपने चारों ओर की प्रकृति के हैरतअंगेज विशेषताओं को देखकर उनके एक अदृश्य सर्जक की कल्पना कर ली है। उस काल्पनिक अस्तित्व को लेकर हम उन्माद के स्तर तक प्रतिक्रियावादी हैं लेकिन सदृश्य प्रकृति को लेकर हममें कोई गंभीरता नहीं है। यह हमारे पाखंड का पहला अध्याय है। भारतीय इतिहास, परम्परा और संस्कृति की बात करें तो इसके प्रति भी हम केवल पाखंडी ही हैं। हमें अपनी संस्कृति का गुणगान करने में तो खूब मज़ा आता है लेकिन उसे अपने आचरण में उतारने को लेकर हम मुंह छिपाने लगते हैं, एक दूसरे का मुंह ताकने लगते हैं। होली मनाएंगे लेकिन होली के पीछे का विज्ञान नहीं पता होगा और जब कोई खतरनाक रसायनों वाले रंगों के प्रयोग या फिर होलिका दहन प्रक्रिया के निषेध की बात करेगा तो अपने कुतर्क लेकर उस पर चढ़ जाएंगे। हम दीवाली मनाएंगे लेकिन उसकी मूल धारणा से एकदम किनारा कर लेंगे, फिर जब पटाखों पर प्रतिबंध लगेगा तब श्मशान भी छिन जाने का भय दिखाकर लोगों को भड़काने की कोशिश करेंगे। इसी तरीके से हम अपनी परम्पराओं के अच्छे पहलुओं से दूरी बनाकर केवल पाखंड अपनाते रहेंगे।

हमारी संस्कृति, परंपराएं और समस्त त्यौहार पर्यावरण संरक्षण का एक अभियान ही हैं। या फिर यूं कहें कि प्रकृति और पर्यावरण को संरक्षित रखना ही हमारी संस्कृति का मूल लक्ष्य है तो कुछ गलत नहीं। इसलिए अगर ‘संस्कृति-दूत’ बनना ही है, ‘देशभक्त’ बनना ही है तो सबसे पहले अपनी उस प्रकृति की भक्ति कीजिए जिससे विभक्त होकर आपके जीवन की कल्पना भी कल्पित नहीं हो सकती। श्रीलंकन खिलाडियों को कोसकर कुछ नहीं मिलने वाला है, उल्टा यह हमारे एक अन्य संस्कृति-वाक्य के प्रतिकूल आचरण है जिसमें हमारे ऋषि-मुनि अतिथि के देव होने की घोषणा करते हैं।

Saturday, 2 December 2017

याद-ए-इलाहाबाद: विपिन की कलम से

29जुलाई2017: क्यूंकि आज हमारे #ShuklaJi का बड्डे है...
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हम जितने उलझे हुए हैं शुक्ला जी उससे कई गुना सुलझे हुए व्यक्तित्व हैं। शुक्ला जी, प्रदीप सर, सत्येंद्र सर, विजय सर (बड़के भईया) और हम क्लास की सबसे पीछे वाली सीट पे बैठते-बैठते दोस्त बन गये थे, कमाल की बात ये कि कितनी भी मार-मशक्कत हो जाए सीट के लिए पर हमारी सीट पे कोई पेन तक नहीं रखता था। मैथ की क्लास अलग चलती थी, और पीछे शुक्ला जी और प्रदीप का संसद भवन अलग ही आकार ले रहा होता था, कभी तो बहस में जब हम लोग भी शामिल हो जाते थे तो बाकी स्टूडेंट क्लास में धारा-144 की माँग करने लगते थे।

हम और शुक्ला जी Saturday-Sunday को 3-4 घंटे सिर्फ चाय पिया करते थे, जब तक बुधई जी दुकान से भगा नहीं देते थे तब तक। हमारी प्रेम कहानी में शनिवार-रविवार की चाय का योगदान अतुलनीय है। बहुत झेलते थे शुक्ला जी हमें. मेरी कहानी के लेखक शुक्ला जी थे, निर्माता और निर्देशक राज और शौर्य थे... क्या करना है, कैसे करना है, क्या भूल के भी नहीं करना है, अबकी मिलके क्या कहना, अबकी बुलाये तो रुकना है या चलते जाना है, सबकुछ यही तीनों लोग डिसाइड करते थे। हम तो बस एक्टर थे। कहानी तो इन्होंनें लिखी है। ये बताना इसलिए जरूरी है क्योंकि पिछले 4 साल में वही एक यादगार दौर था, और कुछ तो भुलाए नहीं भूलता (खासकर रिजल्ट). हम लोग दारागंज स्टेशन पर रिजल्ट आने के एक दिन पहले सुसाइड की प्रैक्टिस करने जाते थे, ट्रेन 100 मीटर दूर रह जाती तो कूद के किनारे आ जाते फिर कहते यार लोग कैसे मर जाते हैं??
सब एकदम सही तो नहीं लेकिन सस्टेन करने लायक चल रहा था और फिर एक दिन Shukla Ji भी दिल्ली चले गये।

एक साल से ज्यादा हुए सर आपको गये, और उससे ज्यादा दिन मिले हुए। सर, अब सैटर्डे-संडे की शाम सोते-सोते निकाल देता हूँ, मेरी कहानी सुनने वाला कोई नहीं बचा आपके बाद, राजनीति में क्या 'क्यूं' हो रहा है ये समझाने वाला कोई नहीं है, हर सिचुएशन में आप कोई कविता सुना के जता देते थे कि दुनिया यहीं खत्म नहीं होती।

सर, यकींन मानिये, बहुत याद करते हैं आपको। जैसे आप सबको जोड़ रखे थे, आपके शहर छोड़ के जाते ही सब जाते रहे और हम अकेले होते रहे। आप स्टेशन की ढलान से उतरते हुए अक्सर कहते थे कि मैं एक अच्छा जर्नलिस्ट बन जाऊँ और आप आईएएस.. फिर दिखायेंगे हम वो परिंदे हैं जो उड़ने लगे तो आसमान चीर के पार निकल जाएंगे। सर, बस यही एक सपना अभी टूटा नहीं है।

आपसे 'बड़ी' उम्मीदें हैं, मैं यहाँ आज आपके बारे में कुछ नहीं कहूँगा, कहने लायक हूं भी नहीं, आपके बारे में लिखा नहीं जा सकता, कुछ शब्दों में सीमित कैसे कर दूँ आपको? बस इतना पता है दुनिया सलाम करेगी आपको, ये मेरा विश्वास है।

#HappyBdaySir
#GodBlessYou

(विपिन कुमार त्रिपाठी की फेसबुक वॉल से साभार)

Tuesday, 28 November 2017

कविताः मैं एकांत का पंछी..

फोटो साभार: पीयूष कुंवर कौशिक
मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे! लौट

भीड़ न आयी रास मुझे, यह बंधन हुआ अकाश।
जहाँ नहीं पर फ़ैलाने को, छोटा सा अवकाश।
कितनों के हित के पत्थर से खाकर चोट प' चोट।
मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे लौट!

स्वार्थ यहां सम्मानित होते और समर्पण दुत्कारित।
सद्भावों का मान नहीं है और प्रदर्शन उपहारित।
घाव बड़े सस्ते मिलते हैं, हंसी अधर की महंगी है,
प्रेम छलावा, भाव मिथ्य हैं, दुनिया केवल जंगी है।

रिश्ते यहां स्वार्थ्य-साधन की खातिर केवल ओट।
मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे लौट!

छिले हुए अरमान लिए दिल चीख रहा है विह्वल,
सोच के क्या आए, क्या पाया, रिक्त पड़े हैं करतल।
ख़ुशी बुलबुला है उठती है, फूट कहीं खो जाती है।
ठग है ज़िन्दगी जीवनभर आशाओं से भरमाती है।

स्वप्न नहीं कुछ भी, हैं अभिलाषाओं के धूम-कोट।
अत मैं एकांत का पंछी अब निज ठौर चला रे लौट!

©राघवेंद्र

Monday, 27 November 2017

कविताः मैं डाली से टूट गया हूँ

उद्यानों की राजनीति से बाहर छूट गया हूँ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।
गर्दिश में हैं भाग्य-सितारे,
मुरझाते हैं स्वप्न हमारे।
रूप-गन्ध-रस-हास-रास-जस
सब मूर्छित हैं ताल किनारे।
ज्यों जीवन के यक्ष प्रश्न का उत्तर, छूट गया हूँ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।।
मन ही जब सब रंग बिसारे।
वन-सरिता किस काम हमारे।
पर्वत-झरना-ताल-तलैय्या
सब सूने बेरंग नज़ारे।
भ्रम का ज्यों गुब्बारा, उड़ता उड़ता फूट गया हूँ ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।
दुनिया के बेकार थपेड़े।
नीरव मन को कर्कश छेड़े।
यायावर को नहीं सुभीते
रस्ते, पक्के, आड़े-टेढ़े।
किस्मत क्या रूठेगी अब, खुद उससे रूठ गया हूँ।
मैं डाली से टूट गया हूँ।
©राघवेन्द्र

Sunday, 19 November 2017

मेरा 'पूरा आईआईएमसी' तो नहीं होगा न!

रात से एक बजे के आसपास का समय है। इस वक़्त मुझे हर रात नींद नहीं आती लेकिन फिर भी नींद मेरे आस-पास ही होती है कहीं और जब भी उसका मन किया धीरे से आकर आँखों में समा जाती है चुप-चाप। फिर उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मोबाइल में यू ट्यूब पर अशोक चक्रधर भाषण दे रहे हैं या फिर मेरे हाथ में नरेंद्र कोहली की किताब शरणम है जिसे दो-एक दिन में खत्म करने का मैंने लक्ष्य रखा हुआ है। वह आती है और मैं गिर पड़ता हूँ ख्वाबों के शीशमहल में। जहां दिन भर के जो किस्से-वाकए चेहरे पर लकीर बनकर जड़ जाते हैं उन्ही की व्याख्या होती है। बिना किसी सार्थक अर्थ के प्रतिबन्ध के।

आज नींद की आहट भी नहीं मिल रही। जाने कहाँ चली गयी है। जाने किससे भयभीत है! शायद वो उस भीड़ से डर गयी है जो अभी दिल से लेकर दिमाग तक उत्पात मचाए हुए है। मैं उसका चेहरा महसूस कर पा रहा हूँ जो सहमा हुआ कहीं दुबका पड़ा होगा। अब जब मैं अगला अक्षर लिखूंगा उस समय घड़ी में रात के 1 बजकर 19 मिनट और 57 सेकंड हो जाएंगे। दिलो-मन में जो स्मृतियों की धमा-चौकड़ी है वह कल के कॉन्वोकेशन प्रोग्राम की वजह से है। कल फिर उसी परिसर में वो सारे साथी दिखेंगे जिन्होंने ईंट पत्थरों की उस लाल इमारत को स्वर्ग से भी ज्यादा वांछित स्थल बना दिया था। सबसे एक बार फिर मिलने को लेकर जो उत्सुकता है, वो बस अब दिल के संभाले नहीं संभल रही है इसीलिए वहां भूकम्प जैसा कुछ महसूस हो रहा है।

अभी अचानक मुझे वो शाम याद आ गई जब हम, विवेक और शताक्षी ब्रह्मपुत्रा हॉस्टल के लॉन में बैठे चाय पी रहे थे। तभी मातुल यानि कि प्रशांत महतो का फोन आया शताक्षी के पास और उसने उन्हें अकेले आने का निर्देश दिया और ये नहीं बताया कि हमलोग वहीं मौजूद हैं। वो विवेक को ढूंढ रहे थे और उन्हें फोन भी लगा रहे थे। विवेक हम लोगों के सामने ही फोन इग्नोर कर रहे थे। ऐसा करने के लिए हम लोगों ने ही उनसे कहा था। फिर क्या था, वो आते हैं और हम लोगों को वहां पाकर नीचे से कुछ मारने के लिए उठाते हैं और विवेक की ओर निशाना लगाकर फेंकते हैं। लक्ष्य का संधान चूक जाने के लिए ही था सो चूक गया। हम खूब हँसते हैं। वह पत्थर आने वाले दिनों में हर बार इस स्मृति की खुमारी से निकालने वाला धमाका होगा, यह तो तय है। अकस्मात इस स्मृति के आगमन का कोई कारण नहीं लेकिन बिन बुलाए मेहमान की तरह यह दिमाग में आई और फिर से गुज़रे वक़्त के लौटने की असंभाव्यता की विवशता का तमाचा जड़कर चली गयी।

कल के कॉन्वोकेशन में सब होंगे, मतलब कि 'पूरा आईआईएमसी'। लेकिन मेरा 'पूरा आईआईएमसी' तो नहीं होगा न! विवेक भी नहीं होंगे और शताक्षी भी नहीं होगी। इस अभाव ने सारे उत्साह पर पानी फेर दिया है। अब जो भी है सब औपचारिकता भर है जो कल पूरी करनी है। ऐसा भी नहीं है कि कल का पूरा दिन नीरस रहने वाला है। कुछ अच्छा भी होगा, शायद बहुत कुछ अच्छा हो। एक तरह से ठीक ही है, सुखद स्मृतियों का भार थोड़ा और बढ़ने से बच गया। नहीं तो यह भार अघोषित रूप से पृथ्वी के भार से भी ज्यादा भारी होता है।

Friday, 17 November 2017

"अबकी अगर लौटा तो मनुष्यतर लौटूंगा": कुंवर नारायण


'स्वांत:सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा।' रामचरितमानस के बालकांड के शुरुआती चरण में रामचरित के सबसे बड़े महाकव्य के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास यह घोषणा करते हैं कि इस महाकाव्य की रचना स्वांतःसुखाय यानी कि अंत-करण के आनंद के लिए की जा रही है। आज इस तथ्य का वर्णन इसलिए आवश्यक है कि लगभग इसी वैचारिक गोत्र का एक आधुनिक तुलसीदास बुधवार को दुनिया को अलविदा कह गया और साहित्य से लेकर बौद्धिक विमर्श के हर मंच पर उसे उसके इसी गुणधर्म के आधार पर याद किया जा रहा है। 19 सितंबर 1927 को फैजाबाद में पैदा हुए कुंवर नारायण के लिए कविता कर्म शायद स्वांतः सुखाय की धारणा की परिधि से बाहर नहीं था। एक संपन्न व्यावसायिक घराने से संबंध रखने वाले कुंवर नारायण अपने कवित्व को बाजार के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त रखने के लिए पारिवारिक धंधे में भी उतरते हैं और इससे साहित्य के प्रति अपने समर्पण को हर तरह से अप्रभावित रखने की कोशिश में सफल भी होते हैं। खुद कुंवर नारायण के लहजे में इस बात को आसानी से समझा जा सकता है जिसमें वे कहते हैं कि साहित्य का धंधा न करना पड़े इसलिए मोटर का धंधा करता हूं।

कुंवर नारायण को हिंदी साहित्य में शांति और संतुष्टि के साथ बिना विवादों के जाल में उलझे अपना काम करने वाले साहित्यकार के रूप में जाना जाता है। राजनीति या फिर समाजनीति की विसंगतियों पर बिना विवादित हुए चुपचाप करारा प्रहार कर सकने की जो क्षमता कुंवर नारायण में थी वो शायद किसी भी कलात्मक विधा के शिखर पुरुषों में दुर्लभ है। 90 साल का जीवनकाल जिसमें तकरीबन आधी सदी का वक्त उनकी साहित्यिक-साधना का साक्ष्य है और जिसमें उनके नाम तमाम श्रेष्ठता के भौतिक प्रतिमानों वाले पुरस्कारों की एक बड़ी संख्या शामिल है, इन सबके बीच उनकी यथार्थपरक जीवनशैली, सादगीपूर्ण आचार और सामाजिक दायित्वबोध ने उन्हें किसी भी तरह के व्यर्थ विवादों से काफी दूर रखा हुआ था। कोमल भावनाओं को सरलतम शब्दों में अभिव्यक्त करने की उनकी क्षमता ही उनके रचनात्मक उत्पादों के उपभोक्ता-परिसर के दायरे को बहुत व्यापक बनाती है। कुंवर फैज़ाबाद के हैं। वही फैज़ाबाद जहाँ वह अयोध्या है जिसका शाब्दिक अर्थ उसके सनातन अजेयता के घोषणा की तरह है। शायद इसीलिए अयोध्या के दर्द को उनसे बेहतर उस दौर में कोई नहीं समझ सकता था। इसीलिए कवि कुंवर नारायण स्वयं अयोध्या बनकर शायद नारायण से कहते जान पड़ते हैं कि

हे राम!..
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है !
हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान - किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक....
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !

कुंवर नारायण की काव्यगत विशेषताओं में शीर्ष पर है उनकी इतिहास और मिथकों की आँख से समकालीन परिदृश्य को देखने की दृष्टि। उपर्युक्त काव्यांश उनकी इस काव्यगत शैली का एक छोटा सा नमूना भर है। कुंवर जी की अन्य रचनाएं उनके विषय में इस धारणा को और पुष्ट करती दिखाई पड़ती हैं। 'आत्मजयी' प्रबंध काव्य में जहाँ उन्होंने कठोपनिषद के 'नचिकेता प्रसंग' की आधार-भूमि पर आधुनिक मनुष्य के जटिल मनः स्थितियों की शानदार अभिव्यक्ति की है वहीं 'वाजश्रवा के बहाने' पिता-पुत्र की दो पीढ़ियों के बीच के अंतर के द्वन्द को प्रकट करने की कोशिश है।

"अच्छा हुआ तुम लौट आए,
मेरे जीवन में
लेकिन जानता हूँ
नहीं आ सकोगे
-चाहकर भी नहीं-
वापस मेरे युग में।।"
इसी संदर्भ में उनकी इस कविता को कौन केवल कृष्ण-सुदामा की मिथक कथा मानेगा जबकि इसमें आधुनिक परिप्रेक्ष्य का दर्शन साफ़-साफ़ दिखाई दे जाता है-

"कैसी बांसुरी? कैसा नाच? कौन गिरिधारी?
जिस महल को तुम
भौंचक खड़े देख रहे हो
वह तो उसका है
जिसकी कमर की लचकों में
हीरों की खान है।
बहुत भोले हो सुदामा
नहीं समझोगे इस कौतुक को.."

कुंवर उस दौर में कलम उठाते हैं जब वैश्विक इतिहास द्वितीय विश्वयुद्ध, भारतीय स्वाधीनता संग्राम और गांधी युग जैसे उल्लेखनीय घटनाक्रमों से साक्षात्कार कर रहा था। 11वीं तक विज्ञान के विद्यार्थी रहने के बाद उन्होंने लखनऊ विश्विद्यालय से 1951 में अंग्रेजी लिटरेचर में एमए की डिग्री हासिल की। 1956 में उनका पहला काव्य संग्रह चक्रव्यूह प्रकाशित हुआ, जिसके बाद कुंवर नारायण तत्कालीन शिखर साहित्यकारों की नज़र में आ गए। उनकी इसी कृति से प्रभावित होकर 1959 में अज्ञेय ने जब तीसरा सप्तक प्रकाशित किया तब केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विजयदेव नारायण साही के साथ इनकी रचनाओं को भी उसमें शामिल किया। यहीं से कुंवर नारायण की लोकप्रियता के प्रकाश ने अपनी तीव्रता बढ़ायी। 1965 में उनका दूसरा प्रबंध काव्य संग्रह 'आत्मजयी' प्रकाशित हुआ। कुंवर जी की प्रतिभा का प्रसार साहित्य की हर विधाओं की ओर था। निबन्ध, उपन्यास, कहानी आदि में भी उनकी कलम खूब चलती लेकिन कविताओं से उन्हें ज्यादा लगाव था और इसीलिए जीवन पर्यंत उनकी रचनाधर्मिता का केंद्र बिंदु कविताएं ही बनी रहीं। कुंवर नारायण अपनी कविताओं में जीवन की बात करते हैं, मृत्यु की बात करते हैं, प्रेम की बात करते हैं, मनुष्यता की पैरोकारी करते हैं लेकिन राजनैतिक सन्दर्भों से जुड़ी कविताएं उनके हुजरे में काम ही दिखाई पड़ती हैं। इससे यह कतई सिद्ध नहीं हो जाता कि कुंवर अपने समकालीन राजनैतिक विसंगतियों का प्रत्युत्तर देने के कर्तव्यबोध से पीछे हटने वाले कवि हैं बल्कि जब-जब उन्हें ऐसी प्रतिक्रियाओं की आवश्यकता महसूस हुई है उन्होंने मुखर होकर अपनी प्रतिक्रिया दी है। साम्प्रदायिक-जातिगत-भाषायी और क्षेत्रीय आधारों पर नफरत की राजनीति को जवाब देते हुए कुंवर नारायण ने अपने अंदाज़ में लिखा है कि

"एक अजीब-सी मुश्किल में हूं इन दिनों
मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताकत
दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही है।
अग्रेंजो से नफरत करना चाहता
( जिन्होने दो सदी हम पर राज किया)
तो शैक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं।
हर समय
पागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफरत कर के
अपना जी हलका कर लूं!
पर होता है इसका ठीक उल्टा
कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता!
दिनोंदिन मेरा यह प्रेम-रोग
बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि यह प्रेम किसी दिन मुझे
स्वर्ग दिखाकर ही रहेगा"

नफरत और दुर्भावना से भरी दुनिया में कवि की एक और हसरत की बानगी देखिये जिसमें वह कहता है कि

"इन गलियों से बेदाग गुजर जाता तो अच्छा था
और अगर दाग ही लगना था तो फिर
कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं
आत्मा पर किसी बहुत बड़े प्यार का जख्म होता
जो कभी न मरता।"

साहित्य से जुड़े तमाम प्रतिष्ठित पुरस्कार मसलन साहित्य अकादमी पुरस्कार, कबीर सम्मान, व्यास सम्मान, हिंदी अकादमी का शलाका सम्मान के साथ कुंवर नारायण को सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया लेकिन पुरस्कार उनके लिए केवल प्रोत्साहन का स्रोत बने रहे। कविताओं में प्रयोगधर्मिता के पक्षधर और हमेशा लीक से हटकर चलने वाली प्रवृत्ति के बावजूद भी उनका किसी भी वाद-विवाद से आजीवन पाला नहीं पड़ा और इसीलिए साहित्यकारिता के शीर्ष पर होते हुए भी जीवन भर अविवादित बने रहने वाले कुंवर नारायण के जाने से पूरा साहित्यिक गलियारा शोक-संतप्त है। उनके प्रयाण से उपजे शून्य की भरपाई उन्हीं के भरोसे इसलिए भी छोड़ी जा सकती है क्योंकि कुंवर नारायण लौट आने वाले कवि हैं, वो भी जैसे गए थे वैसे नहीं बल्कि उससे भी बेहतर, उससे भी बृहत्तर, उससे भी मनुष्यतर।

अबकी अगर लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से।
अबकी अगर लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा।

अंतिम प्रणाम!

Monday, 13 November 2017

'पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता': मुक्तिबोध

मुक्तिबोध की साहित्यिक यात्रा के बारे में कुछ लिखना चाह रहा था, इसीलिए पिछले कई दिनों से उन पर लिखे लेखों का एकत्रीकरण करने के साथ-साथ अपने झोले में उनकी किताब 'चांद का मुंह टेढ़ा है' लेकर घूम रहा था। कुछ पढ़ा, कुछ नहीं पढ़ पाया, अलग-अलग कारणों से। उनकी प्रसिद्ध कविताएं 'अंधेरे में' 'ब्रह्मराक्षस' आदि पढ़ने-समझने की कोशिश अब भी जारी है। लेकिन एक ऐसे लेखक को इतने कम समय में समझने की जल्दबाजी एक भयंकर मूर्खता से बढ़कर कुछ नहीं हो सकती जिसका सही तरीके से बोध होने को लेकर आज भी हिंदी साहित्य-समाज 'लेकिन-किंतु-परंतु' के प्रश्नजाल से पूरी तरह मुक्ति नहीं पा सका है। कविता की लय और प्रवाह कविता-पाठ का सबसे मजबूत आकर्षण हैं। कविता की भाषा और भावार्थ की जटिलता पसीने छुड़ा देने के लिए पर्याप्त है।
गजानन माधव मुक्तिबोध लेखकों की उस विरल जमात में से हैं जिसनें अपनी लोकप्रियता का एक बड़ा हिस्सा अपनी अनुपस्थिति से देखा है। मरणेतर लोकप्रियता के गिने-चुने उदाहरणों में मुक्तिबोध का सम्मिलन उनकी रचनाओं की दिव्यता के प्रमाण-पत्र की तरह है। जीते जी उन्होंने अपनी दो ही रचनाएं प्रकाशित अवस्था में देखीं जिनमें पहली है- 'कामायनी एक पुनर्विचार' और दूसरी 'भारतीय इतिहास और संस्कृति' पर एक पाठ्य पुस्तक। जिस रचना ने आगे चलकर उनकी पहचान का प्रतिनिधित्व धारण किया उसका प्रकाशन उनके जीते जी संभव नहीं हो पाया था। कालजयी रचना अंधेरे में और उनका पहला काव्य संग्रह 'चांद का मुंह टेढ़ा है' उनके निधन के दो साल बाद प्रकाशित हुआ। कविता को कालजयी बनाने के लिए प्रकाशित पृष्ठों पर अपना नाम देखने की लालसा को छोड़ना ही पड़ता है और जनरूचि की जगह कलम में यथार्थ की स्याही भरने की हिम्मत करनी ही पड़ती है। साठ के दशक में अभिव्यक्ति पर आखिर कौन सा बड़ा खतरा रहा होगा! लेकिन आजादी के बाद से ही लगातार गिरते हुए स्वतंत्रता संग्राम के आधार-मूल्यों को मुक्तिबोध बड़े उद्विग्न मन से देख रहे थे। उसी क्रम में उन्होंने आज की तारीख का भी अनुमान लगाया होगा और लिखा होगा -
"अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक
ले जाने उसको धँसना ही होगा
झील के हिम-शीत सुनील जल में।"
ये वो अनुमान था जो नरेंद्र दाभोलकर, कुलबुर्गी और और गौरी लंकेश की हिम्मत का स्रोत भी बना और स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति को बंधक बनाने वाली शक्तियों से लड़ने की घोषणा करने वाला सेनापति-वाक्य भी। उनकी 'अंधेरे में' कविता वास्तव में प्रकाश है। प्रकाश वह जो तमाम ऐसे हकीकत को प्रकाशित करता है जिस पर भ्रम और षडयंत्र की दुरभिसंधियों के अंधकार का आवरण हो। विचारधारा से वामपंथी होना ही सिर्फ उन्हें इन पंक्तियों का लेखक नहीं बनाता कि
"कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।
स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।"
बल्कि मुक्तिबोध के अनुभव की दृष्टि ने इस कविता के आशय को यथार्थ में झेला और महसूस किया था, इसलिए वो ऐसा लिख पाए। मुक्तिबोध के बारे में कहा जाता है कि वह आत्माभियोग के कवि थे, अपना अंतर्द्वंद, आत्मसंघर्ष और अंतःकरण का प्रतिबिंब उन्होंने अपनी कविताओं में उतारा है। मुक्तिबोध के विषय में इतना कुछ टिप्पणी करने का सामर्थ्य मेरा अपना अध्ययन अब तक नहीं प्राप्त कर सका है लेकिन कहीं-कहीं उनकी कलम लोगों की इस आशंका पर शत प्रतिशत खरी उतरती है। जैसे यहीं देख लें कि गजानन माधव कितने चौराहों का दर्शन कर मुक्तिबोध बने थे-
मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए !
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने...
सब सच्चे लगते हैं;
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है
मैं कुछ गहरे मे उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए !
अगर मुक्तिबोध होते तो जीवन की एक सदी के आखिरी बिंदु पर खड़े आने वाले न जाने कितनी सदियों के रहस्य अपनी दूरदर्शिता से खोल गए होते। जैसे उन्होंने तब खोल दिया था और कहा था कि "अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।" लेकिन ऐसा नहीं है। मुक्तिबोध हमारे बीच सशरीर नहीं हैं लेकिन केवल सशरीर नहीं हैं बाकी शायद उनके अस्तित्व को खत्म करने के लिए किसी भी तरह के काल का मात्रक असहाय ही हो सकता है।

Wednesday, 8 November 2017

8 नवंबरः "ये इन लोगों ने क्या कर दिया"

आठ नवंबर की तारीख को कौन भूल सकता है। आठ नवंबर छोड़िए, 9 नवंबर याद करिए। एक बुरे वक्त की तरह था वह दौर, जिसको याद करते ही आपके चेहरे पर एक सुकून भाव तैर जाएगा कि चलो बीत गया किसी तरह वह वक्त। मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के तहत लिए गए एक फैसले ने समूचे देश के लोगों की समस्त अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दिया था। रिजर्व बैंक के गवर्नर की जगह 'सुधार' और 'प्रहार' के स्वयंभू पुरोधा और देश के प्रधानमंत्री के 'मितरोंमय' संबोधन ने तीन कारणों को गिनाते हुए देश पर नोटबंदी का 'थोपनीकरण' कर दिया। पहला कारण था कि इससे काले धन की समाप्ति सुनिश्चित होगी, दूसरा जाली नोटों पर लगाम लगेगी और तीसरा कारण था आतंकवाद की अर्थव्यवस्था के स्रोत बंद हो जाएंगे। जब देश में इस फैसले को लागू किया गया था उसके कुछ दिन बाद राज्यसभा में बोलते हुए पूर्व प्रधानमंत्री और निस्संदेह एक मंजे हुए अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह ने कहा था कि नोटबंदी जीडीपी के गिरावट का कारण बनेगी और यह सरकार द्वारा कानूनन चलाई जा रही व्यवस्थित लूट है। आज मनमोहन सिंह की बातें थोड़ी बहुत स्पष्ट जरूर हो रही होंगी। राहुल गांधी ने एक भाषण में बोलते हुए कहा था कि नोटबंदी की घोषणा के तुरंत बाद जब उन्होंने मनमोहन सिंह से बात करते हुए उन्हें इसकी जानकारी दी थी तब वह एकदम शॉक्ड हो गए थे। कुछ मिनट बाद जब मनमोहन सिंह बोले तो उनके शब्द थे - "ये इन लोगों ने क्या कर दिया।"

नोटबंदी होते ही सारा देश एटीएम की लाइनों में देश के प्रति एक अमूर्त भक्ति के मार्फत कुछ दिनों के लिए फिट हो गया। फिट इसलिए हो गया कि तब एटीएम से पैसा निकालने की सीमा 2500 रुपए थी जो शायद बहुतों की जरूरत के हिसाब से काफी कम थी, इसलिए हर रोज लाइन में लगना उनकी मजबूरी थी। बेर सराय में छोटी दुकानें लगाने वालों की विवशता हम लोगों से बात करते वक़्त साफ़ झलकती थी। लेकिन नोटबन्दी के साथ 'देशभक्ति' का भी मसला था, इसलिए उनके हिसाब से भी 'मोदीजी' का ये बहुत सही फैसला था। 100 से ज्यादा लोगों की जानें गयीं और 'देशभक्तियुक्त उद्देश्यों' की पूर्ति में जान देने वाले 'अघोषित शहीदों' के कफ़न पर देश के नेताओं के विश्लेषण छपते-मिटते रहे। लाखों लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। साथ ही इसके बाद भी नयी बेरोजगारी खेंप को नौकरियां दुश्वार हो गईं थीं।
प्रधानमंत्री भावुक आदमी हैं। उनसे देश का यह दर्द देखा नहीं जा सकता था। सो वह तो निकल लिए थे जापान। उनके सहयोगियों के पास प्रधानमंत्री के उन्हीं तीन कारणों की परिधि में जनता को सर्वश्रेष्ठ जवाब देने की होड़ लगी थी। बाद में जब एक एक कर उनके कारणों के ये तीनों महल ताश के पत्तों की तरह ढहते गए, तब जापान से लौटे प्रधानमंत्री ने रहस्य से पर्दा उठाया कि नोटबंदी का असली कारण तो देश को कैशलेस बनाना था। ये बयानों के यूटर्न का दौर था और जनता को उसकी मूर्खता का भान कराने का भी।
खैर, पुराने 500 और 1000 के नोटों की आज पहली पुण्यतिथि है। 9 नवंबर 2016 की शुरूआत से ही 500 और हजार के नोट लीगल टेंडर से बााहर हो गए थे। प्रधानमंत्री ने इसके प्रभावों के प्रदर्शन के लिए पचास दिन का वक्त मांगा था। साल भर हो गए और नोटबंदी के चारों लक्ष्य आपके सामने हैं। वक्त ने अपना जवाब हम सबके सामने रख दिया है। पहचानना हमें है कि जवाब क्या-क्या हैं। उसके लिए सबसे पहले राजभक्ति और स्वयं-परिभाषित राष्ट्रभक्ति के चश्मे को उतारना होगा। और देखना होगा कि जिन मच्छरों को मारने के लिए सरकार ने तोप निकाला था, उनकी स्थिति क्या है?
हाल ही में जब बैंक में जमा किए गए सारे पुराने नोटों की गिनती की गई थी तो पता चला था कि तकरीबन 99 प्रतिशत पुराने नोट बैंक में वापस आ गए हैं। सरकार तब दावा करती थी कि नोटबंदी की वजह से अधिकांश काला धन अर्थव्यवस्था से बाहर हो जाएगा। क्या ऐसा हुआ? कहाँ गया काला धन? हालाँकि इसकी आहट तो फैसले के कुछ ही दिनों बाद से आनी शुरू हो गयी थी। तमाम अर्थशास्त्रियों का कहना भी था कि बहुत कम मात्रा में काल धन कैश में होता है।
नोटबंदी के बाद जम्मू कश्मीर में आतंकी घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है। फर्स्टपोस्ट में छपे एक लेख में इशफाक़ नसीम ने कुछ आंकड़े पेश किए हैं जो हकीकत से हम सबका थोड़ा बहुत परिचय करवाते हैं। नसीम लिखते हैं कि गृह मंत्रालय और जम्मू और कश्मीर पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक, 2013 में 53 सुरक्षा बलों के जवान शहीद हुए थे और 67 आतंकी मारे गए थे। 2014 में यह संख्या क्रमशः 47 और 110 थी। 2015 में यह आंकड़ा 39 और 108 का था। 2016 में यह एक बार फिर बढ़कर 82 और 150 पर पहुंच गया।
प्रधानमंत्री द्वारा जो तीसरा कारण गिनाया गया था वह था इस फैसले के बाद से जाली नोटों के इस्तेमाल पर लगाम लगेगी। नोटबंदी के वक्त बाजार में 500 और 1000 के तकरीबन 85 फीसदी नोट चलन में थे। एक केंद्रीय बैंक के अनुमान के मुताबिक देश में तकरीबन 0.2 प्रतिशत ही जाली नोट प्रचलन में थे। ऐसे में इतनी कम मात्रा में जाली नोटों पर प्रहार करने के लिए 85 फीसदी नोटों को बंद कर देने का फैसला करने की मूर्खता करना बड़ी हिम्मत का काम था।
मेरे गांव से तकरीबन 12 किलोमीटर दूर एक कस्बा है रूद्रपुर, जहां हम रहते थे। रूद्रपुर में इंटरनेट सर्फिंग में कोई खास समस्या नहीं थी। बैंक-वैंक भी पर्याप्त मात्रा में हैं। अधिकांशतः कैशलेस रहने वाले 6-7 एटीएम भी हैं। लेकिन इसी रूद्रपुर से 12 किलोमीटर पर स्थित हमारे गांव में न तो इंटरनेट की सुविधा है, न बैंक हैं और न एटीएम। सिर्फ हमारे गांव में ही नहीं, आस-पास नजदीकी बैंक या फिर इंटरनेट नेटवर्क ढूंढने में आपको तकरीबन 6-7 किलोमीटर तक की यात्रा करनी पड़ सकती है। उत्तर प्रदेश के एक महानगर गोरखपुर से डेढ़ घंटे की दूरी पर स्थित एक गांव कैशलेस इकॉनॉमी के मंसूबों के आधार की सच्चाई बयान करता है। बिना तैयारी किए कैशलेस इकानॉमी के लिए ही अगर नोटबंदी का फैसला लिया गया था तो आप यह सवाल नरेंद्र मोदी से पूछिए कि डिजिटल कैशलेस ट्रांजेक्शन ग्रामीणों की सुविधा के लिए हैं या उन्हें और आर्थिक मुसीबत में डालने के लिए है।
नोटबंदी के उद्देश्यों के कड़वे हकीकत का यह एक उथला विश्लेषण है। तमाम आर्थिक दांवपेंच की तो मुझे कोई जानकारी नहीं है। विमुद्रीकरण का सार्थक, वास्तविक और तार्किक उद्देश्य क्या था यह अभी तक शायद सरकार भी तय नहीं कर पाई है इसीलिए, समय-समय पर जिम्मेदारों के बयान अपने-अपने मानी बदलते रहते हैं। अब तो इस सरकार के किसी भी दावे पर भरोसा नहीं होता। बाकी नोटबंदी के प्रभावों की अगर एकवर्षीय समीक्षा आप भी करना चाहते हैं तो पिछले साल दिसंबर में नोटबंदी के एक महीने बाद की स्थिति की तस्वीर खींचता यह लेख पढ़िए, साथ में संलग्न कर रहा हूं। इससे आप अपने अनुभवों और विवेक के हिसाब से शायद स्थिति का बेहतर विश्लेषण कर पाएं।

http://aksharsindhu.blogspot.in/2016/12/blog-post.html?m=1

Tuesday, 7 November 2017

कविताः जीवन एक विद्रोह तलाशता है..

हम जीवन भर मुक्त नहीं हो पाते
जीवन एक विद्रोह तलाशता है।
सालों से जमा कर लिया है लावा
अधूरी ख्वाहिशों का,
तिनका-तिनका भरता है
असंतोष का घड़ा, जिसमें
एक-एक बूंद हर पल का वो क्रोध -
या खीझ ही कहें तो न्याय होगा,
शामिल होता जाता है
जो रात के ख्वाब के हकीकत बनने
की संभावना को 
सामने से दूर गुज़रते देखते पनपता है।
ये आसमान दिख तो आसानी से जाता है
लेकिन उसे छूने में 
सिर्फ पसीना नहीं ज़िन्दगी छूट जाती है।

एक खीझ वह भी होती है
जो इस खीझ के भभक न पाने से उठती 
और उसी असंतोष के घड़े में जमा हो जाती है।
मर जाना क्या होता है?
ये अर्थी-शमशान-संगम का पानी
या पोस्टमॉर्टम का बॉक्स 
उतना बेहतर नहीं बताएगा, जितना कि
यह खीझ बताएगी जो
दावा करने, जीतने, पा लेने
मगर अपना न पाने की मजबूरी के बीच 
पिस रही है।
खीझ ही जीवन का हासिल है
और संभावनाओं की नदी में 
घटनाओं की नाव के लिए साहिल भी।

सपने कद से ऊँचे हैं,
देखते देखते गले में ऐंठन आ गयी है।
आशाएं वृक्षों की तरह हैं
जिनके हवाओं की प्रभुता कहीं बंधक है,
स्वतंत्र नहीं है।
इसलिए भीषण धूप की तपन में छाया एक भ्रम 
की तरह लगती है।
शरीर पसीने को बाहर कर देता है
और खाली हुयी जगह पर भर जाती है फिर से
एक बूंद खीझ।

जीवन भर हम जुटाते हैं
छोटी-छोटी असफलताएं और अभाव।
और एक दिन 
बिना जेब वाले आखरी कपड़े की थैली में
हमारे सारे जीवन की पूँजी के नाम पर
कुछ अधूरे सपने, कुछ अपूर्ण इच्छाएं
और मुट्ठी भर खीझ ही बच पाती हैं।।

हम जीवन भर मुक्त नहीं हो पाते,
ऐसा इसलिए नहीं कि हम
आज़ादी नहीं चाहते,
ऐसा इसलिए कि हमें 
आज़ादी की ग़लत पहचान है।
हमारी अधीनता 
हमारे आज़ाद होने की ख्वाहिश से ही
सिद्ध हो जाती है।
कि हमने एक व्यवस्था के अधीन 
आज़ादी का विकल्प चुन लिया है।
हमारी आजादी की बातें
हकीकत की जमीन के ठीक पीछे बुलंद होती है,
हकीकत पर आकर वो आजादी की नई परिभाषा गढ़ती हैं
अनुभव के व्याकरण का सहारा लेकर,
फिर आजादी की सीमा थोड़ी और आगे खिसक जाती है।
हम फड़फड़ाते हैं
कि हमारी आजादी 
बंधक है आजादी की परिभाषा में
हमारी आजादी बंधक है
दर-बदर होने के डर की आशंका में
जब हमारी आजादी बंधक है
तो हमें आजाद होकर भी क्या मिलेगा।
मेरी खीझ के घड़े का आधा हिस्सा
इस सवाल का उद्घोषक है
कि आजाद कैसे हो सकते हैं??

Monday, 6 November 2017

हम भी अगर धारा के लक्ष्य पर हैं तो..

क्या तुम भी लौटकर आ पाओगे?
(Photo credit: Abhishek Shukla)
धाराएं मोड़ने की कोशिश को दुनिया किस तरह देखती होगी? क्या धाराएं मुड़ती होंगी? क्या तुम भी लौटकर आ पाओगे? अपने उन सभी अवयवों के साथ जिसकी वजह से तुम तुम हो! जिसकी वजह से हम तुम्हें फिर से चाहते हैं, अभी! एक-एक इंच भी उसी तरह वापस, जिस तरह तुम हममें और हमारी तारीख में सम्मिलित हुए जा रहे थे!

क्या सब कुछ वैसे ही गुजरेगा जैसे अभी गुजर चुका है?
(Photo credit: Shatakshi Asthana)
नहीं न! अच्छा, अगर मिल भी गए तो क्या होगा? फिर से हम उसी तरह जिएंगे जिस तरह तुम्हें पहले एक बार जी चुके हैं? क्या फिर वही गलतियां, वही झगड़े, वही प्यार, वही जीत, वही हार एक बार और लिखते जाएंगे अपनी उम्र के कागज़ पर? क्या उसमें हम कुछ भी नहीं बदलेंगे? अच्छा मान लो, तुमने हमारे हिस्से का वक़्त खींचकर फिर एक साल पीछे कर दिया तो क्या सब कुछ वैसे ही गुजरेगा जैसे अभी गुजर चुका है? उन्हीं रास्तों को कुचलते हमारे पदचिह्न बिलकुल भी अपनी जगह नहीं बदलेंगे? ठठा कर हँसते हुए हम जिनके हाथों पर अपने हाथ पीटते थे क्या वे भी वही रहेंगे? तनाव और आंसुओं से भरे दिमाग का बोझ ढोने वाले कंधे भी नहीं बदलेंगे? चाय की एक एक प्याली वही होगी और उसमें चाय भी उतनी ही? ओस से भीगे हुए मौसम के निर्लक्ष्य भ्रमण में हमारे कदम की गिनती भी उतनी ही होगी, जितनी ब्रह्मपुत्रा हॉस्टल से होते हुए इम्यूनोलॉजी वाले गेट से निकलकर आईआईएमसी पहुँचने तक हमने गिनी थी? पीएसआर की पहाड़ियों पर गाए हुए हमारे हर गाने की धुन और उसके भूले-बिसरे शब्द उसी अपूर्णता के साथ हमें वापस मिलेंगे क्या? या फिर उस सड़क पर थिरकते पाँव की हर थाप, आवाज़ की उसी तीव्रता से वापस मिलेगी?



मगर कब तक यह पुनरावृत्ति जारी रहेगी?
क्या ऐसा हो पाएगा! अगर ऐसा हो भी पाएगा तो क्या हमारी चेतना को यह स्मरण रहेगा कि यह वक़्त हम दोबारा जी रहे हैं? अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर जब यह वक़्त ख़त्म हो जाएगा तब हम क्या करेंगे? क्या फिर से मांगेंगे यही गुज़रा हुआ वक़्त? मगर कब तक यह पुनरावृत्ति जारी रहेगी? अच्छा, अगर ऐसा नहीं होगा, यानि कि हमें याद होगा कि हमारे वक़्त की रेखा को पीछे खिसकाया गया है और हम सारे पल दोबारा जी रहे हैं तो क्या हम बोर नहीं हो जाएंगे? जब हमें पहले से ही पता होगा कि पीएसआर से हम सनसेट नहीं देखने वाले हैं और इस वजह से अपनी एक दोस्त बहुत ज्यादा नाराज़ हो जाने वाली है, जब हमें पहले से ही मालूम होगा कि हम एक ऐसी स्पर्धा के एथलीट हैं जिसमें आगे जाकर हारने ही वाले हैं, तो क्या सब कुछ मिलकर एक नीरस सी कहानी नहीं बन जाएंगे? अगर ऐसा होगा तो क्या उन वक़्तों की अपनी ये सुखद स्मृतियाँ बकवास नहीं हो जाएंगी? अभी तो कम से कम हमारे पास उस वक़्त की बेहतरीन यादे हैं, वक़्त-बेवक्त जिनके पन्ने खोलकर हम थोड़ा मुस्कुरा लेते हैं और थोड़ा आंसू भी बहा लेते हैं! अगर ये स्मृतियाँ, वो गुजरा वक़्त लौट आए और हम उसे दुबारा जी भी लें तो क्या उससे नफरत नहीं हो जाएगी?

एक निश्चित दूरी के बाद उसे प्राचीनता का अंतिम चिह्न भी छोड़ना होगा
हर नयी धारा में पुरानी धारा के अवशेष बहुत ही कम मात्रा में ही सही होते तो हैं न! नदी के किसी एक खंड पर हर धारा नयी भी है पुरानी भी। नई वह आगे के लिए है और पुरानी पीछे के लिए। धारा को वहां रुककर अमरता प्राप्त नहीं करनी। जिस दिन वह नवलता के प्रतिरुद्ध ठहरने यानि अमरत्व पाने की कोशिश करेगी उस दिन वह नदी के रूप में मर जाएगी। उसका नद्यत्व इसी में है कि वह आगे बढ़े और नवीन धाराओं में परिणत होती रहे। कि यही उसकी अमरता है। एक निश्चित दूरी के बाद उसे प्राचीनता का अंतिम चिह्न भी छोड़ना होगा ताकि वह नए कलेवर में ढल सके। चाहे-अनचाहे उसे ऐसा करना ही पड़ेगा। हम भी अगर धारा के लक्ष्य पर हैं तो हमें भी ऐसा करना ही पड़ेगा। चाहे या फिर अनचाहे।

Wednesday, 25 October 2017

पुण्यतिथि विशेषः ज़िन्दगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है: साहिर लुधियानवी


फोटो साभारः इंटरनेट
विभाजन के बाद साहिर ने हिंदुस्तान छोड़ दिया और पाकिस्तान चले गए। उस दौर के मशहूर फिल्म निर्देशक थे ख्वाजा अहमद अब्बास। अब्बास साहिर के दोस्त थे। साहिर के जाने से दुखी भी थे इसलिए उन्होंने इंडिया वीकली नाम के मैगजीन में साहिर के नाम खुला पत्र लिखा और उन्हें यह एहसास दिलाया कि जब तक तुम साहिर लुधियानवी हो तब तक तुम हिंदुस्तानी हो। देश बदलने के लिए तुम्हें अपना नाम यानी कि अपनी पहचान बदलनी होगी। दिल भी एक अजीब डाकिया है कि बात अगर वहां से निकले तो सही पते पर पहुंच ही जाती है। अब्बास साहब के दिल से निकली ये पुकार सरहद पार कर लाहौर पहुंच गई। साहिर ने उनका खत पढ़ा और अपनी बूढ़ी मां को साथ लेकर साहिर लुधियानवी भारत लौट आए। उसके बाद जो कुछ भी हुआ वह पूरे एक दौर के इतिहास में सर्वाधिक क्षेत्रफल पर अपनी मौजूदगी रखता है।


कहते हैं कि ग़ज़लों की बहर तभी बनती है जब जिंदगी बे-बहर हो जाए। साहिर का जीवन भी बड़ा बेतरतीब रहा है। 8 मार्च 1921 को लुधियाना में पैदा हुए अब्दुल हय़ी साहिर जब आठ साल के थे तभी माता पिता के अलगाव की दुर्घटना से उनका पाला पड़ा। अदालत में अपने संपन्न पिता के विकल्प को ठुकराते हुए साहिर ने अपनी मां का साथ मंजूर किया और जीवन भर मां के साथ ही रहे। कॉलेज के दिनों में ही उनके शेर उनकी लोकप्रियता को पंख दे रहे थे। उनकी ग़ज़लें उन दिनों काफी लोकप्रिय हो रही थीं। प्रशंसकों का समुदाय तैयार हो रहा था। इन्हीं प्रशंसकों में से एक अमृता प्रीतम भी थीं, जिनसे साहिर को मोहब्बत थी। जीवन भर अविवाहित रहने वाले साहिर की यह पहली मोहब्बत थी जिसके मुकम्मल होने की राह में साहिर का वही नाम आड़े आ गया जिसने उन्हें हिंदुस्तान वापस बुलाया था। साहिर का नाम तो मुसलमान था लेकिन दिल का कहां कोई धरम होता है।

मोहब्बत के लेखकों के लिए ताजमहल का इतिहास एक बेहतरीन विषय है। न जाने कितनी नज़्में और कितनी कविताएं ताजमहल के चमकते संगमरमर पर आशिकों की प्रेमिकाओं का नाम लिखतीं और शाहजहां और मुमताज की मोहब्बत की मिसालें देतीं लेकिन साहिर तो उस पंक्ति से अलग ही थे। तभी तो उन्होंने शहंशाह की मोहब्बत को कुछ इस तरह से कटघरे में खड़ा किया है -

ये चमनज़ार, ये जमुना का किनारा, ये महल
ये मुनक्कश दरो-दीवार, ये मेहराब, ये ताक़
एक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़।

मोहब्बत के मामले में साहिर दूसरी पारी भी खेलना चाहते थे। तब की मशहूर पार्श्व गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ उनका नाम काफी जोर-शोर से जोड़ा जा रहा था। कहा जाता है कि साहिर की तरफ से यह एकतरफा मोहब्बत की कोशिश थी। दूसरी बार दिल की बाजी हारने के बाद ही शायर साहिर के कलम ने लिखा होगा

ज़िन्दगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है।
ज़ुल्फ़-ओ-रुखसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है।
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में,
इश्क ही इक हकीकत नहीं कुछ और भी है।

यह इश्क में बार बार असफल होने की वजह से झल्लाए हुए किसी आशिक का ही बयान हो सकता है। कहा जाता है कि इश्क जिंदगी में केवल एक बार ही होता है। अपने प्रेम की श्रेष्ठता को प्रमाणित करने के लिए अक्सर कवियों की कविताएं इसी सिद्धांत का अनुसरण करती हैं लेकिन साहिर ने इस मामले में भी विधान बदल दिया। अमृता से अपने रिश्तों की कहानी के पटाक्षेप को साहिर जिंदगी के एक मोड़ की तरह के देखते हैं, जिसे शायद उन्होंने ही एक खूबसूरत शिल्प दिया है या देने की कोशिश की है।

वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना हो नामुमकिन,
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों।

साहिर का मतलब जादू होता है और सच में साहिर जादू ही लिखते थे। "जिंदगी तेरी जुल्फों की घनी छांव में गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थीं", ये पंक्तियां जिंदगी की एक कसक की तरह हैं जो साहिर को साहिर बनाती हैं। तल्खियां इनकी पहली किताब का नाम है जो 24 साल की उम्र में उन्होंने छपवाई थीं और जो उस नौजवान के तल्खियों से भरे जीवन की भविष्यवाणी की तरह लगती थीं। साहिर ने हिंदी फिल्मों को बहुत सारे हिट गाने दिए। गीतकारों का मूल्य संगीतकारों और गायकों से बिल्कुल भी कम नहीं हैं, इसका आभास सबसे पहले साहिर ने ही बॉलीवुड को करवाया था। संगातकारों और गायकों से एक रुपया ज्यादा मेहनताना लेना साहिर बॉलीवुड में धाक का पैमाना हो सकती हैं।

गुरुदत्त की प्यासा फिल्म के गीतों ने उस दौर में जो तहलका मचाया था उसमें साहिर का बड़ा योगदान था। गुरुदत्त के अवसाद से भरे मुखड़े पर बजने वाले गीत "जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला, हमनें तो जब कलियां मांगी, कांटों का हार मिला" में शायद उनके अपने जीवन की टीस भी शामिल थी। इसी फिल्म में दुनिया को नकारने वाला वह गीत "ये महलों, ये तख़्तों, ये ताजों की दुनिया, ये इनसां के दुश्मन समाजों की दुनिया, ये दौलत के भूखे रिवाज़ों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है", हिंदी फिल्म-गीतों की लीक बदलने वाली कविता थी। आज साहिर की पुण्यतिथि है। 25 अक्टूबर 1980 को साहिर का शरीर मिट्टी में दफ्न हो गया लेकिन उनके गीतों का साहिर और उनके अद्वितीय व्यक्तित्व का जादू न जाने कितनी सदियों की सैर करेगा उनकी उस बात को झुठलाते हुए, जिसमें वो कहते हैं -

कल और आएंगे नगमों की, खिलती कलियां चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले।
कल कोई मुझको याद करे, क्यूं कोई मुझको याद करे,
मसरूफ जमाना मेरे लिये, क्यूं वक्त अपना बरबाद करे।
मैं पल दो पल का शायर हूं..

Wednesday, 18 October 2017

अगर बच्चों ने पर्यावरण के लिए घातक हथियार थाम लिए हों तो उन्हें उनसे छीन ही लेना चाहिए

धर्म और मजहब बचाने के अनगिनत आह्वान न तो आपके कानों से अछूते हैं और न हमारे। अलग-अलग धर्म अलग-अलग कारणों से संकट में हैं। संरक्षण की गुहार लगाती कभी-कभी हिंसक और अराजक हो जाने वाली इन आवाजों के बीच हर साल एक और आह्वान दबे पांव हमारे बीच आता है और फिर मायूस होकर चला जाता है। दरअसल, सिर्फ एक बार नहीं, बार-बार आता है और हर बार निराश होकर कुछ ऊंची घुड़कती आवाज को सुनकर चुपचाप जमींदोज हो जाता है। जानते हैं वो आह्वान क्या है? अपनी धड़कन सुनिए, अपनी सांसे महसूस कीजिए, अपनी आंखों की रोशनी को देखिए और अपने कानों के पर्दों का कंपन गिनिए। ये आवाज आपके दिल के धड़कनों की अनियमितता, आंखों की रोशनी की चुभन और आपके कानों के पर्दों की थरथराहट का दर्द है। यह आवाज आपके अपने वायुमंडल की आवाज है। यह आवाज उस प्रकृति का रूदन है जिसे इंसानों ने तबाह कर दिया है और अब जब उसे संवारने का दायित्व उठाने का वक्त आया है तब कई तरह के बहाने बनाकर वह उससे अपना पिंड छुड़ा लेना चाहता है।

दिल्ली के अर्जुन गोपाल, आरव भंडारी और जोया राव की ओर से उनके पिताओं द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर बैन लगा दिया है। ये तीनों याचिकाकर्ता 6-14 साल के बच्चे हैं जिनके फेफड़े दिल्ली के प्रदूषण ने खराब कर दिए थे। दिल्ली में ऐसे ही न जाने कितने अर्जुन, आरव और जोया होंगे जिन्होंने अपने फेफड़ों के खराब होने की विभीषिका झेल ली लेकिन वे अदालत नहीं जा सकते। शायद असमर्थ हों। लेकिन इतना तो तय है न कि यह प्रदूषण सामान्य नहीं है। अदालत इस बार यह टेस्ट करना चाहती है कि पटाखों के बैन होने से क्या प्रदूषण कम हो पाएगा। पिछले साल दिवाली के बाद दिल्ली की हालत वो लोग बेहतर बता पाएंगे जो दिल्ली में उस वक्त थे। धुंध और कोहरे से लिपटी दिल्ली प्रदूषण के सबसे उच्चतम स्तर का भी मुंह देख चुकी है। ऐसे में सरकार और अन्य जवाबदेह संस्थाओं द्वारा कुछ कठोर कदम उठाने की उम्मीद तो है ही।

इसी मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया कि शायद इससे कुछ तो प्रदूषण से राहत मिले। फैसला भले समूची मानवजाति के सुरक्षा को ध्यान में रखकर लिया गया हो लेकिन इससे मानवजाति की एक उपजाति की धार्मिक आस्थाएं आहत होने लगी हैं। उनकी सांस्कृतिक चेतना मानवीय अस्तित्व के सबसे बड़े संकट की आहट सुनने के प्रति भटकसुन्न हो चुकी है। यूं तो पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा मामला होने के नाते ऐसी उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का सब ओर से स्वागत होगा लेकिन कुछ एक बयानों ने कोर्ट के आदेश की तो छोड़िए पर्यावरण को लेकर वैश्विक चिंता का जो मजाक बनाया है और इस भारी-भरकम मुद्दे को कमतर समझने की समझदारी दिखाई है उसे देखकर लगता है कि अभी हम पर्यावरण के लगातार बदलते चेहरे को लेकर गंभीर नहीं हुए हैं।

सवाल अब ये भी है कि है अभी गंभीर नहीं है तो कब होंगे। विकासशीलता अभी और ज़हर उगलेगी ये तो जेनेवा और पेरिस जैसे सम्मेलनों से साफ़ पता चलता है। कार्बन उत्सर्जन को कम करने के कोटे को लेकर हो रही बहसों को विश्व का वातावरण बड़ी गंभीरता और आशा के साथ देख रहा है और इधर मसला ही नहीं सुलझता। विकसित देशों ने अपने हिसाब से कार्बन उत्सर्जन में कटौती का कोटा तय किया जिसके लिए विकासशील देश बिल्कुल तैयार नहीं हो रहे हैं। ये मसला तो इतनी आसानी से सुलझेगा नहीं। आन-बान-शान वाला मामला भी हो सकता है। लेकिन इन सबके बीच क्या किया जाए, दिन प्रतिदिन मौसम के बदलते रंगों से भयभीत होने के सिवा। पटाखों की बिक्री पर बैन पर विमर्श के धुएं भी उठने लगे हैं। यह भी एक तरह का प्रदूषण ही है। तो पर्यावरण के प्रदूषण से पहले लोगों के दिमाग का प्रदूषण दूर करना होगा क्या? शायद हाँ! लोगों को समझाना पड़ेगा। प्रदूषण को देखने वाली उनकी दृष्टि पर माइक्रो लेंस की परत चढ़ानी पड़ेगी। ताकि उनको दिखे कि जब वो कसरत करते हैं तब जोर-जोर से जो अपनी नाक से खींच रहे हैं वो ऑक्सीजन नहीं नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड जैसे खतरनाक रसायन हैं जिससे उनके फेफड़े की ऐसी-तैसी हो जाने वाली है। तब शायद बात कुछ समझ भी आए। नहीं तो जैसे ही आप उन्हें बिना समझाए कहेंगे कि भाई होली में होलिका दहन मत करो या फिर दिवाली में पटाखे मत फोड़ो, उन्हें कोई ज्ञानी साहब समझाने लग जाएंगे कि 'देखो, बच्चों के हाथों से पटाखे छीने जा रहे हैं।' या फिर 'देखो, अब ये लोग तुम्हारे शमशान को भी बंद करा देंगे।' वगैरह वगैरह

सनातन संस्कृति से जुड़े पर्व, व्रत, उपासना विधि आदि पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का श्रेष्ठ उदहारण कही जा सकती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इस संस्कृति की मान्यताएं पर्यावरण-संरक्षक विधानों के काफी करीब दिखती हैं। बात चाहे होली की हो या दीवाली की, हर त्योहारों के पीछे की वैज्ञानिक समझ आधुनिकता के तथाकथित समझ से युगों पहले भी बहुत आगे थी। इन त्योहारों की जब शुरुआत हुई रही होगी तब निश्चित रूप से पर्यावरण कोई बड़ी समस्या नहीं रही होगी। होली का त्यौहार हिन्दू कैलेंडर का आखिरी वर्ष होता था। ऐसे में नए साल के स्वागत हेतु घरों की वातावरणीय नूतनता के निर्माण के लिए उनकी साफ़-सफाई की जाती थी। फलस्वरूप सफाई से इकट्ठे कूड़े आदि को होलिका में जलाया जाता था। माना जाता है कि फसलों के कटने के बाद खलिहानों में उनके आगमन का उत्सव गुलाल से मनाया जाता था। आजकल गुलालों की जगह रसायनों से युक्त खतरनाक रंगों ने ले लिया है। दशहरे में मिट्टी की मूर्तियां बनायीं जाती थीं। जिन्हें नदियों में प्रवाहित करने पर मिट्टी तली में बैठ जाती। आजकल रसायनों से बनी मूर्तियां जल-पर्यावरण के लिए कितनी घातक हैं, बताने की जरूरत नहीं है। इसी तरह से दिवाली भी दो ऋतुओं के संधिकाल का पर्व है। ऋतुचक्र के वर्षा ऋतु से शीत ऋतु की ओर प्रयाण करने के संधिबिन्दु पर दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है। तमाम विद्वानों का इस मसले पर कहना है कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के कीट-पतंगों का प्रकोप काफी बढ़ जाता है। ऐसे में लोगों ने अपने घर की छतों पर और अपने दरवाजे पर घी या फिर सरसो के तेल के दिए जलाने शुरू किये। ऐसा माना जाता है कि इससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न कीट काफी मात्रा में नष्ट हो जाते हैं। इस तरह से देखा जाए तो हमारे त्यौहार स्वच्छता, उत्सवधर्मिता और निरोगता के एक धार्मिक अभियान की तरह होते हैं। इन पर्यावरण अनुकूल प्रावधानों के बीच ध्वनि और वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले पटाखों की परंपरा ने कब घुसपैठ किया, इसका पता किसी को नहीं है।

दिवाली की मूल प्रज्ञा है, अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, मृत्यु से अमरता की ओर। इसीलिए दिवाली को दीप बाले जाते हैं। कि अमावस की चंद्रानुपस्थिति में भी प्रकाश का एक प्रतिनिधि उजाले की अमरता का नेतृत्व कर रहा होता है। इस दृष्टि से पटाखों की परंपरा कहीं से भी दिवाली का प्रतिनिधि तत्व नहीं है। क्या अमावस और शरद की नीरवता में कर्कश शोर का समावेश किसी भी तरह से युक्तिसंगत है? क्या दिवाली शांति से अशांति की ओर जाने का पर्व है? दिवाली का आध्यात्मिक पक्ष भी इसकी इजाज़त नहीं देता। लेकिन पर्यावरणीय चिंतन इस बात का ज्यादा पुख़्ता विरोध करता है। सर्दी के दिनों के दो उत्सव आतिशबाजियों के लिए जाने जाते हैं। पहला दिवाली और दूसरा नववर्ष। बिना पटाखों के इन उत्सवों की कल्पना ने भी लोगों के दिमाग से प्रस्थान कर लिया है। ऐसे में यह एक बड़ी चुनौती है कि कैसे त्योहारों को प्रकृति का दुश्मन बनने से रोका जाए। निश्चित रूप से दिवाली आपकी भक्ति और आपके आस्था से जुड़ा मामला है। लेकिन यह कैसी भक्ति है जिसमें आप उसी प्रकृति से विभक्त हो जाते हैं जिनके संरक्षण की जिम्मेदारी आपके इन्हीं त्योहारों ने उठायी थी। धर्म और धार्मिक आस्थाओं का जब बाजारीकरण होना शुरू हो जाता है तब उनके उद्देश्य बदल जाते हैं। ऐसे में आस्थाएं अपना मूल अर्थ खोने लगती हैं और इनकी दिशाएं इनके लक्ष्यों की विपरीतता का अनुसरण करने लगती हैं।

दिवाली वैसे तो बाजार का ही त्यौहार है। हर त्योहारों की तरह इसके टूल्स का भी बड़ा बाजार सजता है। लाखों लोगों के रोज़गार का सीधा संबंध इस बाजार से होता है। यहीं पर प्रशासन की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। एक ऐसा तरीका निकालना जिससे न तो इतनी बड़ी संख्या में मानव संसाधन को नुकसान पहुंचे और न प्राकृतिक संसाधनों को। अभी जो पटाखे इत्यादि इस्तेमाल किये जा रहे हैं, आने वाले दिनों में उनके और खतरनाक होने की पूरी सम्भावना है। ऐसे में इन्हें त्योहारों पर दाग बनने देने से रोकना होगा। बच्चों के हाथों ने अगर आने वाली नस्लों की हवाओं में घोलने के लिए ज़हर थाम लिया हो तो उनके हाथ से वो ज़हर छीन ही लेने चाहिए। अब चाहे वो बच्चे बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के हों या फिर अल्पसंख्यक और तथाकथित पीड़ित मुसलमान समुदाय के हों।

Saturday, 9 September 2017

भारतेंदु हरिश्चंद्रः आधुनिक हिंदी के पितामह-पुरूष

परिवर्तन गुजरते समय के अगले पदचिन्ह के पर्याय भी होते हैं और एक लंबी यात्रा का एक पड़ाव भी। पड़ाव वह जहां से यात्रा नए कलेवर में, नई ऊर्जा के साथ एक नया स्वरूप लेकर आगे बढ़ती है। इस परिवर्तन को तब केवल परिवर्तन नहीं कहा जाता। तब इसे युगांतर, क्रांति या नए मार्ग का प्रवर्तन आदि संबोधनों से संबोधित किया जाता है। हर प्रवर्तन या क्रांति अपनी स्थापना के लिए एक स्थापक ढूंढती है। एक युगपुरूष, जो केवल उस महान परिवर्तन का माध्यम बनने के लिए हमारे बीच आता है और नए मार्ग का सृजन कर उससे विश्व को आगे बढ़ने की प्रेरणा देकर चला जाता है। 9 सितंबर एक ऐसे ही महान प्रवर्तक के प्राकट्य की ऐतिहासिक तारीख है। अपने जमाने के लोकप्रिय कवि गिरिधरदास यानी कि गोपालचंद्र एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे। कई पीढ़ियों से इस परिवार की संपन्नता अक्षुण्ण थी। अंग्रेजी राज से अच्छे संबंध भी इनकी संपन्नता के कारणों में गिने जा सकते हैं। इसी संपन्न वैश्य परिवार में 1850 ईसवी में भारतेंदु का जन्म हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र, हिंदी साहित्य से परिचित कोई भी ऐसा नहीं होगा जिससे इस नाम का परिचय अब तक न हुआ हो।

परिवार के धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में हिंदी साहित्य का एक ऐसा वटवृक्ष पल रहा था जिसकी छांव में आने वाले कई दशकों, सदियों तक हिंदी का एक विशाल कुनबा प्रश्रय पाने वाले था। जन्म के महज सात साल बाद या सीधे-सीधे कहें तो महज सात वर्ष की उम्र में कवि पिता गिरिधरदास को बालक हरिश्चंद्र ने एक दोहा सुनाया, जो उन्होंने खुद लिखा था। दोहा था-

"लै ब्यौढ़ा ठाणे भए, श्री अनिरुद्ध सुजान।
बाणासुर की सेन को, हनन लगे भगवान।।"

मात्रा, भाषा. छंद विधान और भाव का संतुलन दोहे में देख पिता गदगद हो गए। बेटे को महान कवि बनने का आशीर्वाद दिया, और यही आशीर्वाद हिंदी साहित्य के मार्ग में एक नया मोड़ बनने का आधार साबित हुआ। भारतेंदु ने अपनी पहली कविता ब्रज भाषा में लिखी। उस दौर में आधुनिक हिंदी वाली कविताएं नहीं लिखी जाती थीं। साहित्य में ब्रज और अवधी का पूरी तरह से कब्जा था। भारतेंदु ने हिंदी साहित्य में खड़ी बोली भाषा का सृजन किया। खड़ी बोली हिंदी वह हिंदी थी जो ऊर्दू से काफी अलग थी। यह हिंदी उस दौर की तमाम क्षेत्रीय भाषाओं से पोषण पाती थी। हरिश्चंद्र का संपूर्ण गद्य साहित्य खड़ी हिंदी बोली ही में लिखा गया है। हां, कविता के लिए उन्होंने ब्रजभाषा को ही माध्यम बनाया हुआ था। भारतेंदु को हिंदी साहित्य का वटवृक्ष इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि हिंदी साहित्य की दुनिया में उपन्यास, निबंध, नाटक आदि की शाखाएं उन्हीं से निकलीं। साहित्य की इन विधाओं का न केवल विकास बल्कि उनका प्रचार-प्रसार भी भारतेंदु की ही उपलब्धि थी।

पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही रचनाकर्म शुरू कर देने वाले हरिश्चंद्र अपने छोटे से जीवनकाल में साहित्य का वो उपयोगी भंडार दुनिया को सौंप गए जिसकी नींव पर आज हिंदी साहित्य अपना परचम पूरी दुनिया में लहरा पाने में कामयाब है। कविता, कहानी, नाटक, व्यंग्य, ग़ज़ल और निबंध, साहित्य की कौन सी ऐसी विधा है जिस पर भारतेंदु की कलम न चली। साहित्यकार एक तरह से समाजसुधारक की भी भूमिका में होता है। भारतेंदु की रचनाओं ने उस दैर में व्याप्त तमाम सामाजिक और धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार करने के लिए कलम को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की परंपरा का सूत्रपात किया। अंधेर नगरी नाटक के जरिए एक दिक्भ्रमित और भ्रष्ट शासक के राज्य में लोगों की दुर्दशा को जिस बेहतरीन अंदाज में प्रस्तुत किया गया है, उसके बारे में क्या ही कहा जाए। अंग्रेजी राज को आधार बनाकर लिखे गए इस चुटीले व्यंग्य को आज की परिस्थिति की कसौटी पर भी रखा जाए तो भी यह खरा ही दिखता है -

अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भड़ुए पंडित तैसे॥

वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना॥
सांचे मारे मारे डाल। छली दुष्ट सिर चढ़ि चढ़ि बोलैं॥

प्रगट सभ्य अन्तर छलहारी। सोइ राजसभा बलभारी ॥
सांच कहैं ते पनही खावैं। झूठे बहुविधि पदवी पावै ॥

धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा करै सो न्याव सदाई ॥
भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले अरु प्यादे ॥

अंधाधुंध मच्यौ सब देसा। मानहुँ राजा रहत बिदेसा ॥
गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई। मानहुँ नृपति बिधर्मी कोई ॥

ऊँच नीच सब एकहि सारा। मानहुँ ब्रह्म ज्ञान बिस्तारा ॥
अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा ॥

राष्ट्रभक्ति भारतेंदु में कूट-कूट कर भरी थी। वे आत्मसम्मान और स्वाभिमान के लिए न्यौछावर हो जाने वाले व्यक्तित्व थे। अपने देश, देश के लोगों और देश की भाषा से उन्हे अथाह प्रेम था। तभी तो अपने देश की दुर्दशा को लेकर जहां 'भारत दुर्दशा' जैसा कालजयी नाटक लिखते हैं वहीं 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' जैसे विषय पर निबंध लिखते हुए देश की ऐसी कड़वी हकीकत की नब्ज पर उंगली रखते हैं जो आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि तब थी। 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है' में भारतेंदु लिखते हैं कि -

"हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है। यद्यपि फर्स्ट क्लास, सैकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजिन सब नहीं चल सकती वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए 'का चुप साधि रहा बलवाना' फिर देखिए हनुमानजी को अपना बल कैसा याद आता है।"

भारतेंदु ने अपने देश से जुड़ी चीजों की उन्नति पर बड़ा जोर दिया है। वो इसे राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक मानते हैं। अपने एक बहुचर्चित दोहे में उन्होंने लिखा भी है-

"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निजभाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल।"

भारतेंदु रचनात्मकता के अक्षय स्रोत थे। अंग्रेजी राज से लोहा लेने के लिए उन्होंने जिस तरह से अपनी रचनात्मकता का सहारा लिया वह उनकी दूरदर्शी सोच का द्योतक है। उन्होंने ही पत्रकारिता में हास्य व्यंग्य विधा की शुरूआत की थी। ये उनका अपने तरह का स्वतंत्रता संग्राम था। भारतेंदु के साहित्यकोश में कई तरह की गजलें और हास्य गजलें भी सम्मिलित हैं। श्रीकृष्ण की भक्ति करतीं उनकी गजल की ये कुछ पंक्तियां देखिए -

"जहाँ देखो वहाँ मौजूद मेरा कृष्ण प्यारा है,
उसी का सब है जल्वा जो जहाँ में आश्कारा है। 

जो कुछ कहते हैं हम यही भी तिरा जल्वा है इक वर्ना, 
किसे ताक़त जो मुँह खोले यहाँ हर शख़्स हारा है ।।"

भारतेंदु का साहित्यकोश बहुत ही विस्तृत है। सभी का जिक्र करना बेहद मुश्किल है। महज 35 साल तक जीने वाले भारतेंदु की तकरीबन 150 रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। साहित्य में उनका योगदान केवल लिखने तक ही सीमित नहीं रहा है। उन्होंने महज 18 साल की उम्र में 'कविवचनसुधा' नाम की एक पत्रिका का संपादन भी किया। इसमें उस दौर के मशहूर रचनाकारों की रचनाएं छपती थीं। इसके अलावा उन्होंने 'हरिश्चंद्र मैगजीन' का भी संपादन किया। हिंदी साहित्य में भारतेंदु काल प्राचीनता और नवीनता का संधिकाल है। यहां से जहां प्राचीनता नए स्वरूप में ढलने की कोशिश कर रही थी वहीं कई तरह की नवीनताओं ने भी अपनी यात्रा की शुरूआत की थी। इन नवीनताओं के प्रवर्तक निस्संदेह भारतेंदु थे। अपने दौर में उनकी लोकप्रियता ने उन्हें 'भारतेंदु' का संबोधन दिया तो वहीं एक अपरिमित काल वाली परंपरा में उनके योगदान ने उन्हें युगपुरूष के तौर पर स्थापित कर दिया। हिंदी साहित्य का भारतेंदु काल एक युगांतकारी घटना के तौर पर देखा जाता है। जहां से आधुनिक हिंदी ने चलना सीखा, जिसे तब खड़ी हिंदी कहा जाता था और आज जो हिंदी का पर्याय है।

भारतेंदु के व्यक्तिगत जीवन की कटुता ने कभी उनके सामाजिक, साहित्यिक और राष्ट्रीय दायित्वों को प्रभावित नहीं किया। बेहद कम आयु में पिता को खो देने वाले भारतेंदु ने स्वाध्याय के बलबूते हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया था। इन सबके इतर भारतेंदु का सामाजिक व्यवहार भी काफी तरल था। करूणा और दानशीलता उनके नसों में लहू की तरह प्रवाहित होता था। अपनी इन्हीं प्रवृत्तियों की वजह से उनके जीवन का आखिरी दौर काफी तकलीफों से भरा हुआ था। क्षय रोग की पीड़ा उनसे बर्दाश्त नहीं हुई, और 1850 में पैदा हुआ हिंदी माता का यह अनन्य पुत्र सन् 1885 में महज 35 वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हो गया।

Monday, 4 September 2017

आज के दौर में गुरू-शिष्य परंपरा का चित्र किसी दरकते सांस्कृतिक खंडहर से कम नहीं


Image resultभारत एक प्राचीन देश है। इस प्राचीन देश की छाया में अनेक परंपराओं को प्रश्रय मिला है। बहुत सी परंपराएं आज तक निबाही जा रही हैं, तो बहुत सी ऐसी हैं, जो काल की हवाओं से घर्षण करतीं समाप्त हो गईं। गुरू-शिष्य परंपरा इस प्राचीन देश की ऐसी ही एक परंपरा है, जो एक जमाने में विश्व शिक्षा समुदाय के बीच अपनी आदर्श स्थिति की वजह से काफी आदरणीय रही है। पुराणों ही नहीं, विश्व के अर्वाचीन इतिहास के पृष्ठों में भी भारतीय गुरू - शिष्य परंपरा का जो अनुपम उदाहरण मिलता है वह सारे विश्व के लिए अनुकरणीय है। 


गुरू वशिष्ठ और उनके शिष्यों के बीच के संबंधों की बात करें या फिर द्वापर युग के कृष्ण संदीपन, द्रोण-अर्जुन के आपसी आदर-प्रेम-वात्सल्यपूर्ण दृष्टांतों की, भारत की इस परंपरा ने हमेशा से शिष्यों को गुरू के भगवान से भी ऊपर सम्माननीय होने की धारणा के पालन के प्रति प्रेरित किया है। गुरू शिष्यों की इस परंपरा में द्वापर के ही एकलव्य की भक्ति और समर्पण की कहानी अद्वितीय और अद्भुत है, जहां एक ऐसे गुरू को दक्षिणा स्वरूप एक महान धनुर्धर ने अपना अंगूठा सौंप दिया जिसने दीक्षा देने के नाम उसके जातिगत परिचय के आधार पर उसे धनुर्विद्या सिखाने से इंकार कर दिया था। यह शिष्य का गुरू के प्रति समर्पण का सर्वोच्चतम बिंदु है।

इसके बाद की बात करें तो हाल के इतिहास में भी चाणक्य और चंद्रगुप्त के बीच शिक्षक और शिष्य के बीच उल्लेखनीय संबंधों का उदाहरण मिलता है। यहां एक गुरू के सामर्थ्य और एक शिष्य की लगन का परिचय ऐतिहासिक है। शिवाजी और उनके गुरू समर्थ गुरू रामदास के बीच के संबंधों की कहानी तो सर्वविदित है, जहां शिवाजी ने अपना समस्त राज्य अपने गुरू को समर्पित कर दिया था। गुरू-शिष्य संबंधों के इस गौरवशाली इतिहास के आधार पर अगर आज के दौर के गुरू-शिष्य संबंधों का विश्लेषण करेंगे तो कहीं न कहीं इस परंपरा के आधार-स्तंभ उखड़ते से दिखाई पड़ेंगे।

आज गुरू-शिष्य संबंधों में वो समर्पण कम ही दिखाई पड़ता है। शिष्य जहां गुरू के सम्मान के प्रति अब प्रतिबद्ध दिखाई नहीं देते, वहीं आज के गुरूजनों में शिष्यों के प्रति वात्सल्य कम ही दिखाई पड़ता है। देश के शिक्षालयों की हाल की घटनाएं काफी व्यथित करती हैं। कुछ साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने मिलकर अपने ही एक शिक्षक को बुरी तरह से पीट दिया था। कुछ दिनों पहले की ही घटना है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में कुछ छात्रों की पिटाई से गुरूजी कोमा में चले गए थे। सिर्फ इतना ही नहीं, देश के कई शिक्षालयों में छात्रों की बुरी तरह पिटाई करते शिक्षकों की तस्वीर भी सामने आई थी। यह कहीं न कहीं, शिक्षा-शिक्षक और शिक्षार्थी की गौरवशाली परंपरा पर सिर्फ प्रश्नचिंह्न ही नहीं हैं, बल्कि आत्मविश्लेषण और आत्मविमर्श का विषय है। परंपराओं को सहेजकर रखने के जिम्मेदार समुदाय से उनके विध्वंस की आशा नहीं की जाती। इसलिए समस्त गुरूकुल समुदाय को इस पर फिर से सोचने और इसमें सुधारात्मक परिवर्तन करने की आवश्यकता है।

Friday, 1 September 2017

दुष्यंत कुमारः सत्ता के गिरेबान पर हाथ रखने वाला शायर जिसके शेर क्रांति के शंखनाद से कम नहीं

1933 के वक्त के भारत की बात करें तो आजादी का संग्राम और देशभक्ति से ओत-प्रोत साहित्य अपने पूरे उफान पर था। ऐसे माहौल में स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य की आवाज में हिंदुस्तान की पीड़ा को गाने के लिए एक गीतकार का सृजन जारी था। बर्तानवी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह और हिंदुस्तान के गौरवशाली इतिहास के गायन के उस दौर में इस देश के वर्तमान की हकीकत पर उंगली रखने का साहस रखने वाले दुष्यंत कुमार त्यागी इसी साल 1 सितंबर को  बिजनौर जिले राजरुपपुर नवादा में पैदा हुए थे। बिजनौर वही धरती है जहां महर्षि कण्व का आश्रम है, और जहां से भारत नाम के इस प्राचीनतम भूमि-भाग के नामकरण की पटकथा का शुभारंभ हुआ था। महाराज दुष्यंत और शकुंतला के दिव्य प्रेम का गवाह और महाराज भरत जैसे साहसी,वीर और निर्भय बालपन का साक्षी।

तपस्या, प्रेम और वीरता के इतिहास से सिंचित इस धरती पर अगर दुष्यंत कुमार जन्म लेते हैं तो उनकी रचनाओं में निर्भयता और साहस का प्रतिबिंब होना स्वाभाविक है। अब इन पंक्तियों पर ही गौर कीजिए -

मैं इन बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, 
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

दुष्यंत कुमार साहित्य के उन कुछ चुनिंदा रत्नों में से एक हैं जिनका जीवनकाल बेहद छो़टा रहा है। मात्र 42 साल तक जीने वाले हिंदी के इस अनुपम और आदि गजलकार ने अपने छोटे से जीवन के बड़े अनुभवों को कुछ इस कदर शब्दों में बांधा कि उससे बनी उनकी हर गजल या कविता सामाजिक और राष्ट्रीय भावनात्मक पीड़ा का प्रतिनिधित्व करने लगीं। लोग उनकी हर गजल को खुद से जुड़ा हुआ मानने लगे। उससे निकटता महसूस करने लगे। यही कारण है कि हिंदी गजल की दुनिया में जितना दुष्यंत सराहे गए और जितनी उन्हें लोकप्रियता मिली वो आज तक कोई हिंदी का कवि या गजलकार हासिल नहीं कर पाया है। दुष्यंत मनमौजी किस्म के व्यक्ति थे। प्रतिकूलता के माहौल में भी सच की नब्ज पर उंगली रखने की उनकी हिम्मत ही उन्हें साहित्यकार के साथ-साथ क्रांतिकारी साहित्यकार की संज्ञा देती है। समाज के सबसे निचले तबके के लोगों के कंधों पर हाथ रखती उनकी गजलों ने उन्हें हिंदुस्तान का सबसे लाडला गीतकार बना दिया।

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ।
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ।

दुष्यंत देश के उन करोड़ों वंचित लोगों की आवाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके हितों के दावों पर इस देश ने आजादी हासिल की और जिनकी भलाई के दावे आज भी सरकारों की कुर्सियों के तख्त बनते हैं-

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।

दुष्यंत की एकमात्र गजल कृति साए में धूप है। इसकी लोकप्रियता के बारे में मेरे लिए कुछ भी कहना सूरज के परिचय पर प्रकाश डालना होगा। तारीख की दीवारों पर दर्ज हर क्रांति की मशाल और हर क्रांतिकारी का सबसे ज्वलंत नारा उनकी एक ग़जल, जिसके बिना आज भी कोई भी बड़ा आंदोलन अपनी पूर्णता को सोच भी नहीं सकता-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

हिंदी साहित्य के पहले गजलकार माने जाने वाले दुष्यंत ने गीत, कविता, नवगीत आदि साहित्यिक विधाओं में भी हाथ आजमाया था। लेकिन उनके गजलों के प्रचंड तेज के आगे उनकी छवि धूमिल पड़ गई। दुष्यंतकाल में अज्ञेय और मुक्तिबोध अपनी लोकप्रियता के मामले में चरम पर थे। यह वो दौर था जब गीतों और नवगीतों पर नई कविता अपनी धौंस जमाने की कोशिश कर रही थी। ऐसे दौर में हिंदी साहित्य में गजलों को न सिर्फ शामिल कर बल्कि सरल और सुबोध्य शब्दों में सजाकर उन्हें जनमानस की जिह्वा पर स्थापित करने का कारनामा दुष्यंत ही कर सकते थे। दुष्यंत के लिए मशहूर उर्दू गजलकार निदा फाजली कहते हैं कि उनकी नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से बनी है। यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है। इस बात की पुष्टि को आप उनकी इन रचनाओं में देखिए -

कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।

जिस तरह चाहो बजाओ तुम हमें
हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं।

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो,
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ।

दुष्यंत अपनी रचनाओं में केवल क्रांति ही नहीं करते थे। शायर अपनी गजलों में भले मशाल, आग, क्रांति जैसे भारी-शब्दों का इस्तेमाल कर ले, लेकिन वह भी अपने आपको पूरा तभी मानता है जब उसकी कलम मोहब्बत की स्याही से दिल के अफसाने लिखने लगती है। दुष्यंत की मोहब्बत भी थोड़ी अजीब थी। आप भी देखिए -

एक जंगल है तेरी आंखों में,
मैं जिसमें राह भूल जाता हूं।

तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।

वो घर में मेज पे कोहनी टिकाये बैठी है,
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल, लोगों।

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले ,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

गजलों की बहर से निकलकर दुष्यंत ने जब छंदों का श्रृंगार किया तो कभी एक हारे हुए को संजीवनी मिली, एक मोहब्बत करने वाले को प्रेमाभिव्यक्ति का गीत मिला तो कभी सृष्टि की सनातन परंपरा में सत्य की जीत की संभाव्यता पर पुनः हस्ताक्षर हुए।

अब तक ग्रह कुछ बिगड़े बिगड़े से थे इस मंगल तारे पर,
नई सुबह की नई रोशनी हावी होगी अँधियारे पर।
उलझ गया था कहीं हवा का आँचल अब जो छूट गया है,
एक परत से ज्यादा राख़ नहीं है युग के अंगारे पर।


तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

दुष्यंत ने अपने साहित्य में जो कुछ भी लिख दिया है वो आने वाले कई युगों तक लोगों के कंठ से गाए जाते रहेंगे। उनकी प्रांसगिकता कभी खत्म नहीं होगी। इसलिए भी क्योंकि उनकी लिखी हर रचना एक सच्चे हृदय में तमाम दुनियावी विसंगतियों पर उठते प्रश्न की सबसे सशक्त आवाज थी। उनका हर कथन या तो सामाजिक वरीयताओं में छल-कपट से नीचे धकेल दिए गए लोगों की आवाज थी या फिर शिखरों पर बैठे लोगों को उनकी जिम्मेदारियों को याद दिलाने वाला बयान था।

गडरिए कितने सुखी हैं ।

न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।