Tuesday 22 November 2016

मैं तो अकेला चला था जानिबे मंज़िल पर...

दिल्ली जैसे शहर में,जहां एक तरफ आधुनिकता की चकाचौंध है,तो वहीं इसका एक पहलू ऐसा भी है जहां आज भी मूलभूत आवश्यकताएं पनाह मांगती दिखायी देती हैं।दिल्ली शहर में ही जमुना किनारे रहने वाले अवस्थीलाल एक किसान हैं।जमुना तट पर खेती उनका व्यवसाय है।अवस्थीलाल के दो बेटे हैं।दोनों खेती में उसकी मदद के लिए दिन भर उसके साथ ही रहते हैं।पढ़ाई...??नहीं पढ़ाई नहीं करते दोनों।आस-पास कोई स्कूल तो है नहीं।सरकारी स्कूल में शिक्षक ही नहीं हैं,सवेरे का गया लड़का शाम को बिना किसी कक्षा के लौट आए तो इस टाइमपास से तो बेहतर है कि वो खेतों में ही काम करे।

एक दिन की बात है।अवस्थीलाल के दोनो लड़के अभय और विष्णु बस्ती के अपने दोस्तों के साथ खेल रहे थे।यमुना तट पर टहल रहे राजेश कुमार शर्मा की नजर धूल-धूसरित वस्त्र वाले इन खेलते हुए बच्चों पर पड़ी।उन्होने उन सभी को पास बुलाया और पूछा कि कहां पढ़ते हो।बच्चों ने कहा,हम पढ़ने नहीं जाते।हम खेतों में काम करते हैं।राजेश कुमार को यह बात नागवार गुजरी।देश का भविष्य इस तरह अशिक्षित और उपेक्षित हो,यह बात उन्हे मंजूर नहीं था।उन्होने बच्चों के मां-बाप से संपर्क किया।उन्हे आश्वस्त किया कि शिक्षा से ही उनके बच्चों के भविष्य को बेहतर बनाया जा सकता है।फिर क्या था,एक अस्थायी स्कूल के तौर पर एक झोपड़ी में राजेश कुमार बच्चों को पढ़ाने लगे।बाद में शिक्षादान का यह पुनीत कार्य डीडीए के नियमों के आड़े आने लगा।झोपड़ी तोड़ दी गयी।स्कूल टूट गया।और साथ ही टूट गये सपने,एक बेहतर और कामयाब जिंदगी के निर्माण के।बच्चों के अभिभावकों ने राजेश शर्मा से गुहार लगायी।आखिर उनके बच्चों के भविष्य का जो सवाल था।राजेश कुमार को तो देश के नौनिहालों को शिक्षित करने का धुन सवार था।

images.jpgबात 2010 की है।एक तरकीब निकाली गयी।यमुना बैंक मेट्रो ओवरब्रिज के नीचे राजेश कुमार ने कक्षाएं लेनी शुरू की।अजय और भरत नाम के दो बच्चों के साथ राजेश कुमार ने 15 दिसंबर 2010 को फ्री स्कूल अण्डर द ब्रिज का उद्घाटन किया।और शुरु हो गया एक अनोखा सिलसिला,शिक्षादान का।जहां ज्ञान बांटने का जुनून और ज्ञान प्राप्त करने की ललक किसी सुविधाओं की मोहताज नहीं थी।राजेश कुमार का समर्पण देख बिहार के मगध विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक लक्ष्मी चन्द्र ने भी फ्लाइओवर स्कूल को उसके उद्देश्यों तक ले जाने के कार्य में अपना योगदान देने का निश्चय किया।

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मैं तो अकेला चला था जानिबे मंज़िल पर,लोग साथ आते गये,कारवां बनता गया।कुछ इसी पंक्तियों का अनुसरण करता है राजेश कुमार का प्रयास।दो छात्रों के साथ शुरु किया गया उनका स्कूल दो-चार महीनों देखते ही देखते 200 छात्रों का विद्यालय बन गया।अवस्थीलाल के दोनों बच्चे अब स्कूल जाते हैं।हां..उसी फ्लाईओवर वाले स्कूल में।उसी स्कूल में जहां किताबें और कापियां मुफ्त मिलतीं हैं।जहां निशुल्क शिक्षादान के माध्यम से आने वाले समय में देश के हाथ मजबूत करने की कवायद चल रही है।वही स्कूल जहां ऊपर रेल की पटरियों पर गतिमान मेट्रो दौड़ रही है,और नीचे भविष्य का हिंदुस्तान दुनिया से कदमताल करने की तरकीबें सीख रहा है।
फ्लाईओवर की दीवारों पर तीन जगह पेंट पोतकर बनाए गए ब्लैकबोर्ड वाले इस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों का उत्साह देखते बनता है।किसी को यहां डाक्टर बनना है,तो किसीकी ख्वाहिश पुलिस बनने की है।जमीन पर बैठकर पढ़ने वाले इन छात्रों का हौसला आसमान छू रहा है।हर चार मिनट पर ऊपर से गुजरने वाली मेट्रो का शोर भी मासूम आँखों में स्वप्नों के पंख उगाने के काम को बाधित नहीं कर पाती।


साल 2011 की जनगणना के अनुसार,भारत में ऐसे बच्चों की संख्या 78 लाख के आस पास है जो स्कूल तो जाते हैं मगर उनका परिवार उन्हे इसके अतिरिक्त जीविका के लिए काम करने को भी विवश करता है।और तो और देश में 8.4 करोड़ बच्चे ऐसे भी हैं जो किन्ही कारणों से स्कूल ही नहीं जाते।यह संख्या शिक्षा का अधिकार कानून के तहत आने वाले कुल बच्चों की संख्या का 20 फीसदी है।आँकड़े कितने गंभीर और हैरान करने वाले हैं।शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद प्राथमिक विद्यालयों में 7लाख क्लासरूम,साढ़े पांच लाख टायलेट और 34000 प्याऊ जैसी सुविधाएं तो बढ़ीं हैं,लेकिन अब भी सिर्फ 8 फीसदी प्राइमरी स्कूल आरटीई के मानदण्डों पर खरे उतरे हैं।कुछ इसी तरह के हालात देश में अवस्थीलाल जैसे लोगों की ख्वाहिशों को पंख देने के लिए राजेश शर्मा और लक्ष्मीचंद जैसे लोगों और फ्लाईओवर स्कूल जैसे संस्थानों का महत्व और इनकी आवश्यकता अनिवार्य कर देते हैं।निस्वार्थ समर्पण और समाज के प्रति अपने दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन करने के लिए हमे राजेश शर्मा और लक्ष्मीचंद जैसे द्रोणाचार्यों को नमन तो करना ही चाहिए,साथ ही साथ देश के मस्तिष्क की नींव को खोखला करने वाली इन अव्यवस्थाओं के खिलाफ हर स्तर पर आवाज भी बुलंद करनी चाहिए।तभी अवस्थीलाल जैसे लोग भी अपने बेटों के लिए सपने देख सकेंगे।।

Monday 21 November 2016

कविताः तब जागता है...


आकाश के अवकाश में
जब रात अंधेरों की लहरें
ढांक लेती हैं शहर।
जब नील बादल
श्याम वर्णी,चाँद तारों से टँके चादर पहनकर,
नींद में होने को उद्यत हो रहा होता है,तब,
जब मार्ग-गलियाँ और चौराहे हमारे गाँव के,
सब ओढ़ लेते मौन,
उनके गात पर बिखरे से दिखते 
चिन्ह अनगिन पाँव के।
जब विश्व की आँखों पे लग
जाती है पलकों की किवाड़ी।
गाँव के पश्चिम से आती है हवा जब,
कलकलाती राप्ती के शीत जल में
केश को अपने भिगोकर,
और इठलाते हुए चलती है
खेतों की असमतल मेड़ पर,
सब वृक्ष-पौधे-फूल जब उस यौवना के
अप्रतिम सौंदर्य पर यूं मुग्ध होकर।
झूमते गाते,प्रणय के गीत सुंदर।
जब धवल-निर्दोष-पावन चांदनी की हर पुकारों पर 
सुगंधों की किरण को बांटती है रातरानी।
जब दिवसभर की अथक-अविराम चंचल हरकतों के
अस्त-व्यस्तित,एक वृद्धा के चतुर्दिक,
सो रहे जत्थों के बीचो बीच
सो जाती है नानी की कहानी।
जब बटेसर के दरकते झोपड़े के,
सामने के ताख पर जलता है मिट्टी का दिया,
जब गाँव से दो कोस पर
इक झोपड़ी में ओम बाबा,
जपते हुए श्रीराम के हर नाम पर
हैं जोड़ते जाते प्रभु के नाम का ही काफ़िया।
तब जागती है एक चिंता,
जीर्ण सी उस खाट पर लेटे
हुए सरजू के मन में।
साथ जिसके जागता है 
सेठ के खाते में पंजीकृत उधारी का भयंकर सूद।
और खेतों में पड़े कुछ अन्न के ऊपर उगी
सुखी हुयी झाड़ी सदृश,जिसको
फसल कहता है,वो बदकिस्मती।
तब जागता कर्तव्य है,उस रेत के जंगल में भी,
उन पर्वतों के गोद में भी,मृत्यु है सस्ती जहाँ,
और अग्नि को भी जो गला दे,
बर्फ के आगोश में भी,
जागता है लांस नायक,जागृति सोती जहां।
तब जागते हैं ख्वाब कुछ,
नींदों की किरणों से हुए उस भोर में।
तब जागती है एक आशा,
ओस के ठंडे थपेड़ों से डरे उद्यान में।
तब जागता है सत्य शाश्वत,
कल सुबह फिर से उगेगा,सूर्य 
अपनी दीप्ति ले,
इस तिमिर युक्त वितान में।
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राघवेंद्र शुक्ल

Monday 7 November 2016

कविताः चलो एक ऐसा...

चलो एक ऐसा दिया हम जलाएं,
कि हर झोपड़ी में बिछी रोशनी हो।
       जलें कीट सारे घृणा के निरंतर।
       प्रणय का उजाला गगन से मिला हो।
       हर एक हाथ में हो मशालें हमेशा,
       सिंचा जिससे उपवन सरस हो,खिला हो।
दिखे राह जाती सुबह की गली में,
जो हर चौखटों से चली रोशनी हो।
       नयन में भी जलता दिया एक झिलमिल,
       बुझे न आशाओं का दीपक कभी भी।
       हर एक हाथ में हो मशालें हमेशा,
       दिखे न निशा की छाया कभी भी।
हर एक ओर फैले मधुर राग जय का,
हर एक ओर फैली अमन रागिनी हो।
       खिलें पुष्प रसधर विविध रंगधारी,
       क्षितिज से भले ही न दिनकर दिखा हो।
       जलें दीप की इतनी श्रेणियां निरंतर,
       निशा में भी तम का असर न दिखा हो।
मिले राष्ट्र को नव शिखर-नव बुलंदी,
ये प्रण मन में हर क्षण सनी हो-बनी हो।
       ये कर्तव्य निश्चित है पूरब दिशा का,
       प्रकाशित धरा हो यही जिम्मेदारी,
       रोशन हो दुनिया,किरण बांटते हम,
       बनें देश भारत सुबह की सवारी।
निखिल विश्व को साथ आना पड़ेगा,
तिमिर की हर एक राह गर रोकनी हो।
   --राघवेन्द्र शुक्ल

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...