Tuesday 27 December 2016

कविताः भैया! हमने चलना सीखा...

भैया! हमने चलना सीखा।
फूंक-फूंककर कदम बढ़ाना,
देखके मौका पलटी खाना।
दरबारों में गीत सुनाना।
तुमने कहा,यही सत्य है,
तुमने किया,सही कृत्य है,
तुमने सोचा,अच्छा होगा,
तुमने देखा,सच्चा होगा,
शीशा-दर्पण कभी न देखूं,
पंकज बनकर कीचड़ फेंकूं,
आग लगाकर काया सेकूँ,
फेंके दानों को खा-खाकर,
पेट फुलाकर,बांह चढ़ाकर,
पांख दिखाकर,आंख दिखाकर,
नए वक़्त में नए ढंग से,
छांव के नीचे पलना सीखा,

भैया! हमने चलना सीखा।
--राघवेंद्र शुक्ल

Friday 9 December 2016

नोटबंदी:नफ़ा-नुकसान

राघवेंद्र शुक्ल 10/12/2016,शनिवा


राज्यसभा में बोलते डा. मनमोहन सिंह
मैं नोटबंदी के उद्देश्यों से असहमत नहीं हूँ,लेकिन इसे ठीक तरीके से लागू नहीं किया गया।इसका असर क्या होगा,नहीं कह सकता,लेकिन इससे जीडीपी में 2 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है।छोटे उद्योगों और कृषि को भारी नुकसान का सामना करना पड़ सकता है।प्रधानमंत्री यह बताएं कि दुनिया में ऐसा कौन सा देश है जहाँ लोग बैंक में पैसा जमा करा सकते हैं लेकिन अपना पैसा निकाल नहीं सकते
आमतौर पर मौन रहने वाले पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में बहस के दौरान जब मौन तोड़ा तो एक एक कर नोटबंदी से काले धन और कर-चोरी के खिलाफ जंग लड़ने के सरकार के सभी दावों की धज्जियां उड़ाते चले गए।राज्यसभा में नोटबंदी को कानूनन चलायी जा रही व्यवस्थित लूट बताने वाले पूर्व प्रधानमंत्री नें एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित अपने लेख में प्रधानमंत्री के कर चोरी रोकने तथा आतंकियों द्वारा नकली नोटों के इस्तेमाल को खत्म करने की मंशा की तारीफ तो की है,लेकिन साथ ही साथ उन्होने यह भी कहा है कि प्रधानमंत्री नें 1 अरब से अधिक भारतीयों का विश्वास तोड़ा है।इसके पूर्व आरबीआई के  पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी विमुद्रीकरण की बजाय कर चोरी के खिलाफ कानूनों में सुधार करने संबंधी आवश्यकता पर जोर दिया था।
राज्यसभा में या फिर अपने लेख में डा. सिंह ने नोटबंदी को लेकर जो कुछ भी कहा उनमें बहुत कुछ नया नहीं था।8 नवंबर को प्रधानमंत्री के उद्घोषणा करने के बाद से ही सभी दलों की प्रतिक्रियाओं में यही बात निकल कर सामने आ रही थी,कि फैसला तो सही है,लेकिन तैयारी पूरी नहीं।सरकारी पक्ष लगातार इस बात का खण्डन करता रहा।लेकिन उसके आश्वासन (या फिर सफाई कहें तो ज्यादा बेहतर होगा) का प्रतिबिंब तमाम खाली पड़े एटीएम और लंबी लाईनों में घण्टों लगे रहने के बावजूद खाली हाथ लौट रहे लोगों की हताश आँखों में साफ तौर पर देखा जा सकता है।

पीएनबी एटीएम के बाहर लगी लंबी लाइन
भारतीय जनसंचार संस्थान के छात्र रोहिन कुमार एक दिन के चार लेक्चर छोड़कर एटीएम की लाइन में लगते हैं,और परीक्षाओं के मौसम में क्लास छोड़ने और सुबह 7 बजे से ही वसंत कुंज के एक बैंक की लंबी लाइन में खड़े रहने जैसी बड़ी कीमत की अदायगी के बावजूद उनके कोष में वही कुछ गिने चुने सिक्के दिखाई देते हैं जिनकी तेजी से घटती संख्या उन्हे क्लास छोड़ लाईन में लगने पर मजबूर करती है।उसी संस्थान के समरजीत,आशुतोष और विवेक कुमार क्लास न छोड़ने के विकल्प के रूप में लाईन लगने के लिए रात का वक्त चुनते हैं,और रात 1 बजे से अपने ठिकाने(बेर सराय) से लगभग 3 किमी दूर आर.के.पुरम के किसी एटीएम में कतारबद्ध होते हैं।हालांकि इन्हे निराशा हाथ लगने की बजाय दो-दो हजार रूपये तो हाथ लगते हैं,मगर अभी भी वो उस समस्या से उतनी ही दूर हैं जितना कि पहले थे,जिसके लिए उन्हे अपनी आरामदायी रातों को कुर्बान करना पड़ा था।समर और विवेक को अपने कमरे का किराया देना(5500 रू. और 4000 रू. क्रमश) और आशुतोष के लिए सर्दियों से संबंधित खरीददारी(स्वेटर,कंबल आदि) अपरिहार्य आवश्यकताओं में है।यह तो राजधानी का सूरत-ए-हाल है।हमसे छोटे शहरों,कस्बों और गांवों की हालत का अंदाजा भी नहीं लगाया जा रहा।हमने जब अपने घर पैसे अकाउंट में डालने की बात की तो पता चला कि वहां तो लाठियां चल रही हैं बैंकों के सामने लगी कतारों पर।मतलब अपने ही खून-पसीने की कमाई निकालने-जमा करने में पसीने के साथ-साथ खून भी छूटने लग रहे हैं।
स्पष्ट है,समस्या सिर्फ लाईन में घण्टों खड़े रहना नहीं है,बल्कि पैसे निकालने की निर्धारित सीमा(2500 रू) भी लोगों की परेशानी का कारण बना हुआ है।बैंकों में साढ़े चार हजार तक के पुराने नोटों को बदलने का फैसला भी वापस लिया जा चुका है।अब पुराने नोट बैंकों में केवल जमा किए जा सकते हैं।और तो और पेट्रोल पंपों पर पुराने नोट देने की सुविधा भी 2 दिसंबर से बंद कर दी गयी है।कैशलेस अर्थव्यवस्था का लक्ष्य पाने के लिए लोग अब कैशलेस होकर घूम रहे हैं।
परेशानियां यहीं खत्म नहीं होतीं।व्यक्तिगत स्तर की इन समस्याओं से इतर लघु व्यापारिक तबका इससे भी गंभीर संकट से गुजर रहा है।छोटे दुकानदारों,किसानों,दिहाड़ी मजदूरों पर नोटबंदी कहर बनकर टूटा है।शादी के मौसम में जब बनारसी साड़ी का व्यापार बुलंदियां छूता है,ऐसे में नोटबंदी के फैसले ने बनारस के गरीब बुनकरों की कमर तोड़कर रख दी है।सरइया,बनारस के बुनकर मोबीन से जब इस बाबत पूछा जाता है तो हताश शब्दों में अपनी परेशानी बताते हुए वे कहते हैं कि नोटबंदी के बाद से व्यापार ठप्प पड़ा हुआ है।तानी-बानी और धागा देने वाले लोग चेक नहीं ले रहे हैं।ऐसे ही चलता रहा तो भुखमरी की भी नौबत आ सकती हैबनारस के लगभग 80 प्रतिशत(अनुमानित) करघे बंद हो गए हैं।औरंगाबाद में एटीएम की कतार में खड़े निर्माण कार्य के सुपरवाईजर अपने मजदूरों की बगावत से डरे हुए हैं।उनका कहना है कि मजदूर अपने काम की मजदूरी चाहते हैं,और उनके पास उन्हे देने के लिए पैसे नहीं हैंकिसानों के लिए अब तक सिर्फ मौसम ही सबसे बड़ी चुनौती थी,लेकिन इस बार उनके लिए नई चुनौतियों की सौगात सरकार की तरफ से मिली है।नोटबंदी के बाद बाजार से गायब 85 फीसदी नकदी से उपजे संकट की मार झेल रहे किसानों की आज की परेशानी कल देश के लिए विपत्ति भी बन सकती है,इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।दिल्ली के ही एक गांव के किसान बुद्धा सिंह एक पत्रकार को बताते हैं हमें जितने बीजों,खादों और कीटनाशकों की जरूरत है,हम वो नहीं खरीद पा रहे हैंऐसे में यदि उत्पादन पर असर पड़ता है तो भविष्य में जब स्थितियां सामान्य होंगी,और सबके पास पर्याप्त नोट होगा,तब कम उत्पादन से उपजी महंगाई उन्हें अपनी जेब ढीली करने पर विवश कर सकती है।
पश्चिम बंगाल के एक गांव वृंदावनपुर के किसान संदीप बनर्जी अपने मजदूरों को मजदूरी देने को लेकर बहुत परेशान थे।ऐसे में उन्होने मजदूरों को उनकी मजदूरी के रूप में पैसों के बदले अनाज देने की तरकीब निकाली।इस बाबत बनर्जी अपनी समस्या बताते हुए कहते हैं मैनें बड़ी मुश्किल से मजदूरों को अनाज लेने के लिए मनाया है।मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था,क्योंकि बैंकों के पास पैसा नहीं थागांव के लोग भी मुश्किलों से निपटने के लिए सामानों की अदला बदली से अपनी जरूरतें पूरी कर रहे हैं।मजदूर महिला बिपक तारिणी बागदी बताती हैं कि जीवन में नोटों का ऐसा संकट पहले नहीं देखा था।पैसे के बदले किसान हमें दो किलो चावल देते हैं।एक किलो हम घर के लिए रख लेते हैं.एक किलो से हम दुकान से सामान बदल लेते हैं
जमीनी स्तर की इन समस्याओं से इतर बड़े आर्थिक नफा-नुकसान पर भी राष्ट्रीय बहसें चल रहीं हैं।विमुद्रीकरण से काले धन के अर्थव्यवस्था से बाहर हो जाने को लेकर किये जा रहे सरकार के दावे भी वास्तविकता की जमीन छोड़ रहे हैं।देश की लगभग 86 फीसदी करेंसी 8 नवंबर की विमुद्रीकरण घोषणा की भेंट चढ़ चुकी है।एक आकलन के मुताबिक देश में लगभग 6 लाख करोड़ रूपए काला धन नकदी के रूप में मौजूद है,(हालांकि यह कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है।)31 मार्च 2016 तक के आंकड़ों के मुताबिक 500 और 1000 रुपए के नोटों की कुल कीमत लगभग 14.5 लाख करोड़ रुपए है।आर्थिक मामलों के जानकार यह मानते हैं कि यदि काला धन अर्थव्यवस्था से बाहर हो गया होगा तो साढ़े 14 लाख करोड़ रुपए में से काला धन(6 लाख करोड़ रुपए) निकाल देने के बाद बचे करीब 8 लाख करोड़ रुपए बैंकों में वापस आ जाने चाहिए।तब जाकर सरकार को अपनी पीठ थपथपाने का मौका मिल सकता था।लेकिन ताजा आंकड़ों ने सरकार की नींद उड़ा दी है,जिसके अनुसार लगभग 12 लाख करोड़ रुपए बैंकों में वापस जमा हो चुके हैं,और आखिरी आंकड़ा आने के लिए अभी 20 दिन और शेष हैं।ऐसे में विमुद्रीकरण की सफलता पर प्रश्न उठना तो लाज़िमी है।
विमुद्रीकरण मसले पर सरकार और विपक्ष में जंग छिड़ी हुयी है।संसद का शीतकालीन सत्र इसकी बलि चढ़ रहा है।विपक्ष प्रधानमंत्री से जवाब मांग रहा है,और प्रधानमंत्री सदन को छोड़कर हर जगह (मुंहतोड़) जवाब देते फिर रहे हैं।सरकार अपने फैसले की प्रतिष्ठा बचाने की जद्दोदहद में लगी हुयी है,विपक्ष जी जान से यह सिद्ध करने में लगा है कि सरकार ने विमुद्रीकरण के बाद के हालात से निपटने की तैयारी पूरी नहीं की थी।जनहित के सिद्धांतों की बुनियाद पर खड़े इन सभी राजनीतिक दलों की इस लड़ाई से परे सारा देश कतारों में खड़े होकर देश में कुछ अच्छा होने की उम्मीदें पाल रहा है।विमुद्रीकरण की घोषणा हुए आज एक महीने दो दिन हो गए,लेकिन न तो एटीएम की कतारों पर कोई फर्क पड़ा और न ही इस संकट से निकलने के लिए कोई ठोस,विश्वसनीय नीति,व्यवस्था या समाधान की झलक ही दिखाई पड़ी।लोग रोजमर्रा की जरुरतों से मजबूर होकर नियमित रुप से एक अघोषित कर्तव्यपालन के रुप में कतारों का हिस्सा बनते हैं,और मशीनों की भाषा चुनावी वादों की तरह नो कैश के जुमलों में बदल जाती है।कोई करे भी तो क्या करे।विपक्ष को पता है कि सरकार अब इस फैसले को वापस नहीं लेने वाली।ऐसे में उसे जनता की सहूलियत के लिए सरकार के सहयोग को अपने नाटकीय और बनावटी राजनीति से ज्यादा महत्वपूर्ण समझना चाहिए।प्रधानमंत्री से सवाल करना बहुत जरुरी है,कि इतना बड़ा फैसला करने से पहले उन्हे इससे मचने वाले हाहाकार के बारें में भनक भी थी कि नहीं?और अगर थी,तो इसके लिए उन्होने उस स्तर की तैयारियां क्यों नहीं की?गवर्नर का कहना है कि नोटों की कोई कमी नहीं है,तो आखिर खाली पड़े एटीएम के पीछे क्या रहस्य है?वित्त मंत्री ने दो हफ्तों में हालात के सामान्य होने का आश्वासन दिया था,फिर उसका दो-तीन महीने तक विस्तार कर दिया।लोगों को इस तरह का झूठा आश्वासन देकर कब तक मंत्रीजी अपनी जिम्मेदारियों से भागेंगे?ये सारे सवाल वाज़िब हैं।लेकिन अभी सवालात से ज्यादा हालात को सामान्य करने की कोशिश होनी चाहिए,फिलहाल सरकार और विपक्ष दोनों को मिलकर इस समस्या से निपटने के तरीकों की तलाश करनी चाहिए।
क्या विमुद्रीकरण काले-धन के खिलाफ आखिरी अस्त्र था?क्या विमुद्रीकरण के लिए यह वक्त सही था?क्या इसके बाद पैदा होने वाले संकट से निपटने की तैयारियां पर्याप्त थीं?विमुद्रीकरण के भावी परिणाम क्या होंगे?मुद्रा से संबंधित नीतिगत फैसले की घोषणा करने के पारंपरिक अधिकारी रिजर्व बैंक की बजाय प्रधानमंत्री के विमुद्रीकरण की घोषणा करने के पीछे क्या कारण है?यह कुछ ऐसे सवाल हैं जिसका जवाब आज नहीं तो कल मोदी सरकार को देना ही पड़ेगा।नहीं तो इतिहास में जम्हूरियत के विश्वासघात से मिले बेशुमार घावों की मरहम पट्टी करते हुए विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र का अधिनायक अब अपने अंदाज़ में उत्तर देना सीख ही गया है।
  राघवेन्द्र शुक्ल
भारतीय जनसंचार संस्थान
नई दिल्ली



Tuesday 22 November 2016

मैं तो अकेला चला था जानिबे मंज़िल पर...

दिल्ली जैसे शहर में,जहां एक तरफ आधुनिकता की चकाचौंध है,तो वहीं इसका एक पहलू ऐसा भी है जहां आज भी मूलभूत आवश्यकताएं पनाह मांगती दिखायी देती हैं।दिल्ली शहर में ही जमुना किनारे रहने वाले अवस्थीलाल एक किसान हैं।जमुना तट पर खेती उनका व्यवसाय है।अवस्थीलाल के दो बेटे हैं।दोनों खेती में उसकी मदद के लिए दिन भर उसके साथ ही रहते हैं।पढ़ाई...??नहीं पढ़ाई नहीं करते दोनों।आस-पास कोई स्कूल तो है नहीं।सरकारी स्कूल में शिक्षक ही नहीं हैं,सवेरे का गया लड़का शाम को बिना किसी कक्षा के लौट आए तो इस टाइमपास से तो बेहतर है कि वो खेतों में ही काम करे।

एक दिन की बात है।अवस्थीलाल के दोनो लड़के अभय और विष्णु बस्ती के अपने दोस्तों के साथ खेल रहे थे।यमुना तट पर टहल रहे राजेश कुमार शर्मा की नजर धूल-धूसरित वस्त्र वाले इन खेलते हुए बच्चों पर पड़ी।उन्होने उन सभी को पास बुलाया और पूछा कि कहां पढ़ते हो।बच्चों ने कहा,हम पढ़ने नहीं जाते।हम खेतों में काम करते हैं।राजेश कुमार को यह बात नागवार गुजरी।देश का भविष्य इस तरह अशिक्षित और उपेक्षित हो,यह बात उन्हे मंजूर नहीं था।उन्होने बच्चों के मां-बाप से संपर्क किया।उन्हे आश्वस्त किया कि शिक्षा से ही उनके बच्चों के भविष्य को बेहतर बनाया जा सकता है।फिर क्या था,एक अस्थायी स्कूल के तौर पर एक झोपड़ी में राजेश कुमार बच्चों को पढ़ाने लगे।बाद में शिक्षादान का यह पुनीत कार्य डीडीए के नियमों के आड़े आने लगा।झोपड़ी तोड़ दी गयी।स्कूल टूट गया।और साथ ही टूट गये सपने,एक बेहतर और कामयाब जिंदगी के निर्माण के।बच्चों के अभिभावकों ने राजेश शर्मा से गुहार लगायी।आखिर उनके बच्चों के भविष्य का जो सवाल था।राजेश कुमार को तो देश के नौनिहालों को शिक्षित करने का धुन सवार था।

images.jpgबात 2010 की है।एक तरकीब निकाली गयी।यमुना बैंक मेट्रो ओवरब्रिज के नीचे राजेश कुमार ने कक्षाएं लेनी शुरू की।अजय और भरत नाम के दो बच्चों के साथ राजेश कुमार ने 15 दिसंबर 2010 को फ्री स्कूल अण्डर द ब्रिज का उद्घाटन किया।और शुरु हो गया एक अनोखा सिलसिला,शिक्षादान का।जहां ज्ञान बांटने का जुनून और ज्ञान प्राप्त करने की ललक किसी सुविधाओं की मोहताज नहीं थी।राजेश कुमार का समर्पण देख बिहार के मगध विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक लक्ष्मी चन्द्र ने भी फ्लाइओवर स्कूल को उसके उद्देश्यों तक ले जाने के कार्य में अपना योगदान देने का निश्चय किया।

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मैं तो अकेला चला था जानिबे मंज़िल पर,लोग साथ आते गये,कारवां बनता गया।कुछ इसी पंक्तियों का अनुसरण करता है राजेश कुमार का प्रयास।दो छात्रों के साथ शुरु किया गया उनका स्कूल दो-चार महीनों देखते ही देखते 200 छात्रों का विद्यालय बन गया।अवस्थीलाल के दोनों बच्चे अब स्कूल जाते हैं।हां..उसी फ्लाईओवर वाले स्कूल में।उसी स्कूल में जहां किताबें और कापियां मुफ्त मिलतीं हैं।जहां निशुल्क शिक्षादान के माध्यम से आने वाले समय में देश के हाथ मजबूत करने की कवायद चल रही है।वही स्कूल जहां ऊपर रेल की पटरियों पर गतिमान मेट्रो दौड़ रही है,और नीचे भविष्य का हिंदुस्तान दुनिया से कदमताल करने की तरकीबें सीख रहा है।
फ्लाईओवर की दीवारों पर तीन जगह पेंट पोतकर बनाए गए ब्लैकबोर्ड वाले इस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों का उत्साह देखते बनता है।किसी को यहां डाक्टर बनना है,तो किसीकी ख्वाहिश पुलिस बनने की है।जमीन पर बैठकर पढ़ने वाले इन छात्रों का हौसला आसमान छू रहा है।हर चार मिनट पर ऊपर से गुजरने वाली मेट्रो का शोर भी मासूम आँखों में स्वप्नों के पंख उगाने के काम को बाधित नहीं कर पाती।


साल 2011 की जनगणना के अनुसार,भारत में ऐसे बच्चों की संख्या 78 लाख के आस पास है जो स्कूल तो जाते हैं मगर उनका परिवार उन्हे इसके अतिरिक्त जीविका के लिए काम करने को भी विवश करता है।और तो और देश में 8.4 करोड़ बच्चे ऐसे भी हैं जो किन्ही कारणों से स्कूल ही नहीं जाते।यह संख्या शिक्षा का अधिकार कानून के तहत आने वाले कुल बच्चों की संख्या का 20 फीसदी है।आँकड़े कितने गंभीर और हैरान करने वाले हैं।शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद प्राथमिक विद्यालयों में 7लाख क्लासरूम,साढ़े पांच लाख टायलेट और 34000 प्याऊ जैसी सुविधाएं तो बढ़ीं हैं,लेकिन अब भी सिर्फ 8 फीसदी प्राइमरी स्कूल आरटीई के मानदण्डों पर खरे उतरे हैं।कुछ इसी तरह के हालात देश में अवस्थीलाल जैसे लोगों की ख्वाहिशों को पंख देने के लिए राजेश शर्मा और लक्ष्मीचंद जैसे लोगों और फ्लाईओवर स्कूल जैसे संस्थानों का महत्व और इनकी आवश्यकता अनिवार्य कर देते हैं।निस्वार्थ समर्पण और समाज के प्रति अपने दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन करने के लिए हमे राजेश शर्मा और लक्ष्मीचंद जैसे द्रोणाचार्यों को नमन तो करना ही चाहिए,साथ ही साथ देश के मस्तिष्क की नींव को खोखला करने वाली इन अव्यवस्थाओं के खिलाफ हर स्तर पर आवाज भी बुलंद करनी चाहिए।तभी अवस्थीलाल जैसे लोग भी अपने बेटों के लिए सपने देख सकेंगे।।

Monday 21 November 2016

कविताः तब जागता है...


आकाश के अवकाश में
जब रात अंधेरों की लहरें
ढांक लेती हैं शहर।
जब नील बादल
श्याम वर्णी,चाँद तारों से टँके चादर पहनकर,
नींद में होने को उद्यत हो रहा होता है,तब,
जब मार्ग-गलियाँ और चौराहे हमारे गाँव के,
सब ओढ़ लेते मौन,
उनके गात पर बिखरे से दिखते 
चिन्ह अनगिन पाँव के।
जब विश्व की आँखों पे लग
जाती है पलकों की किवाड़ी।
गाँव के पश्चिम से आती है हवा जब,
कलकलाती राप्ती के शीत जल में
केश को अपने भिगोकर,
और इठलाते हुए चलती है
खेतों की असमतल मेड़ पर,
सब वृक्ष-पौधे-फूल जब उस यौवना के
अप्रतिम सौंदर्य पर यूं मुग्ध होकर।
झूमते गाते,प्रणय के गीत सुंदर।
जब धवल-निर्दोष-पावन चांदनी की हर पुकारों पर 
सुगंधों की किरण को बांटती है रातरानी।
जब दिवसभर की अथक-अविराम चंचल हरकतों के
अस्त-व्यस्तित,एक वृद्धा के चतुर्दिक,
सो रहे जत्थों के बीचो बीच
सो जाती है नानी की कहानी।
जब बटेसर के दरकते झोपड़े के,
सामने के ताख पर जलता है मिट्टी का दिया,
जब गाँव से दो कोस पर
इक झोपड़ी में ओम बाबा,
जपते हुए श्रीराम के हर नाम पर
हैं जोड़ते जाते प्रभु के नाम का ही काफ़िया।
तब जागती है एक चिंता,
जीर्ण सी उस खाट पर लेटे
हुए सरजू के मन में।
साथ जिसके जागता है 
सेठ के खाते में पंजीकृत उधारी का भयंकर सूद।
और खेतों में पड़े कुछ अन्न के ऊपर उगी
सुखी हुयी झाड़ी सदृश,जिसको
फसल कहता है,वो बदकिस्मती।
तब जागता कर्तव्य है,उस रेत के जंगल में भी,
उन पर्वतों के गोद में भी,मृत्यु है सस्ती जहाँ,
और अग्नि को भी जो गला दे,
बर्फ के आगोश में भी,
जागता है लांस नायक,जागृति सोती जहां।
तब जागते हैं ख्वाब कुछ,
नींदों की किरणों से हुए उस भोर में।
तब जागती है एक आशा,
ओस के ठंडे थपेड़ों से डरे उद्यान में।
तब जागता है सत्य शाश्वत,
कल सुबह फिर से उगेगा,सूर्य 
अपनी दीप्ति ले,
इस तिमिर युक्त वितान में।
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राघवेंद्र शुक्ल

Monday 7 November 2016

कविताः चलो एक ऐसा...

चलो एक ऐसा दिया हम जलाएं,
कि हर झोपड़ी में बिछी रोशनी हो।
       जलें कीट सारे घृणा के निरंतर।
       प्रणय का उजाला गगन से मिला हो।
       हर एक हाथ में हो मशालें हमेशा,
       सिंचा जिससे उपवन सरस हो,खिला हो।
दिखे राह जाती सुबह की गली में,
जो हर चौखटों से चली रोशनी हो।
       नयन में भी जलता दिया एक झिलमिल,
       बुझे न आशाओं का दीपक कभी भी।
       हर एक हाथ में हो मशालें हमेशा,
       दिखे न निशा की छाया कभी भी।
हर एक ओर फैले मधुर राग जय का,
हर एक ओर फैली अमन रागिनी हो।
       खिलें पुष्प रसधर विविध रंगधारी,
       क्षितिज से भले ही न दिनकर दिखा हो।
       जलें दीप की इतनी श्रेणियां निरंतर,
       निशा में भी तम का असर न दिखा हो।
मिले राष्ट्र को नव शिखर-नव बुलंदी,
ये प्रण मन में हर क्षण सनी हो-बनी हो।
       ये कर्तव्य निश्चित है पूरब दिशा का,
       प्रकाशित धरा हो यही जिम्मेदारी,
       रोशन हो दुनिया,किरण बांटते हम,
       बनें देश भारत सुबह की सवारी।
निखिल विश्व को साथ आना पड़ेगा,
तिमिर की हर एक राह गर रोकनी हो।
   --राघवेन्द्र शुक्ल

Thursday 27 October 2016

कविताः गीत गाना चाहता हूँ...










गीत गाना चाहता हूँ।

स्वच्छन्द सुर-लय-ताल से,
ध्वनि की अनिश्चित चाल से।
वह गीत जिसका अर्थ भी-
निश्चित न हो,पर गीत हो,
वह गीत जिसमें सुर न हो,
पर स्वर में सुरभित प्रीत हो।
वह गीत जो मैं गुनगुनाऊँ
मैं सुनूँ,मैं ही सराहूँ।
वह गीत जो एकान्त में
खलिहान,खेतों,रास्तों में।
वायु के तन पर लिखूँ,
गाऊँ,लिखूँ लिखकर मिटाऊँ।
वह गीत जो हो क्षणिक पर
हो चिर असर जिसका,मगर।
मैं झाल पत्तों की बजाऊँ,
तरूओं के सुर में सुर मिलाऊँ।
वह छंद,जो स्वच्छंद हो,
जिसमें भरा आनंद हो।
ऐसी कृति,ऐसी नवल
संकल्पना के शिल्प से,
अपने ढहे ख्वाबों के छप्पर
को सजाना चाहता हूँ।


गीत गाना चाहता हूँ।

Wednesday 5 October 2016

कविताः स्याह पृष्ठ पर

स्याह पृष्ठ पर श्वेत रश्मि के विकिरण को साकार करा लूँ।
ऐ रात!ठहर जा ज़रा आज,मैं सपनों का विस्तार करा लूँ।

जाने कब किससे अनबन में,कुछ टूटा है मेरे मन में?
गुमसुम दिल,है श्रांत उमंगें,जाने क्या छूटा जीवन में?
पल पल भारी जाने क्यों है?कुछ लाचारी,जाने क्यों है?
मन बैठा है झील किनारे,लहरों को पत्थर से मारे।
कैसा चित्र बनाती नज़रें,किसके गीत ज़बान उचारे?
जाने क्या इन सबका उत्तर,दिल को करना होगा पत्थर!
कितना भी हो दूर किनारा,चप्पू भले धार से हारा।
किन्तु हवा के हाथ थामकर,नौका अपनी पार करा लूँ।
ऐ रात!ठहर जा ज़रा आज,मैं सपनों का विस्तार करा लूँ।

विश्व नयन के द्वार बंद कर, काल-घड़ी की धार मंद कर।
सेजों पर विश्राम रहा है, पर मेरा मन थाम रहा है,
हाथ अनिर्मित लीक-पथों की, डोर विकल्पित अश्व-रथों की, 
जिसमें कम आराम लिखा है, जिसमें सुख-रस वाम लिखा है।
जो विरलों का कार्य कहा है, कम ही को स्वीकार्य रहा है।
निशा उपनिषद की साखी से, स्वप्न उड़ेंगे नभ पाखी-से।
रवि को रण में भूशायी कर, कैसे नभ में तू छायी? पर,
इससे पहले जान सकें हम, तीर कोई संधान सकें हम,
बन क्योंकर दुर्भाग रही है, जल्दी से क्यों भाग रही है।

सहगामी बन शूल पथों की, या फिर प्रस्तर हो जा जिस पर, 
घिस-घिस रगड़-रगड़ मैं अपने पैने सब हथियार करा लूँ।

ऐ रात! ठहर जा, ज़रा आज मैं, स्वप्नों का विस्तार करा लूँ।।

Sunday 2 October 2016

सर्वे सन्तु निरामया...

                                                     सर्वे सन्तु निरामया...


          साल 2006 में भारत के स्वच्छता पर खर्च किये जाने वाले बजट पर टिप्पणी करते हुए विश्व बैंक ने कहा था कि भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6.4 प्रतिशत हिस्सा सफाई पर खर्च करता है।इसके 8 साल बाद यानी मई 2014 में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने भारत में स्वच्छता के नाम पर चलायी जा रही निर्मल भारत अभियान जैसी योजनाओं की कलई खोलते हुए बताया था कि भारत की करीब 60 प्रतिशत आबादी आज भी खुले में शौच करती है।जिसकी वजह से कालरा,डायरिया जैसी बिमारियों का खतरा बना रहता है।वैश्विक महत्व की इन दो बड़े संस्थानों की इस तरह की टिप्पणी उस भारत के लिए थी जहाँ प्राचीनकाल से ही स्वच्छता और पवित्रता को भगवान का दूसरा रूप माना जाता था।यह टिप्पणी उस भारत पर थी जहां आज भी गाँवों तथा शहरों के अनेक घरों में खासकर रसोईघरों में स्वच्छता का धार्मिक दृष्टिकोंण भी है।लेकिन फिर भी सफाई की दृष्टि से सारा विश्व भारत को अत्यन्त पिछड़ा ही मानता है।इन सब बातों से चिन्तित होकर ही भारत सरकार ने 2 अक्टूबर 2014 से पांच वर्षीय स्वच्छ भारत अभियान शुरू करने का निश्चय किया ।महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती यानी 2 अक्टूबर 2019 तक भारत को पूर्ण स्वच्छ बनाना इस कार्यक्रम का लक्ष्य बिन्दु है।
          स्वच्छता की दिशा में हो रही पहल पर नजर डालें तो 2015-16 के दौरान देश में शौचालय निर्माण में 70 फीसदी का इजाफा हुआ है।निश्चित रूप से भारत सरकार की स्वच्छ भारत योजना की इसमें बड़ी भूमिका है।लेकिन इसका एक और पहलू भी है।सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश के 11 लाख स्कूलों में 10 फीसद के पास शौचालय नहीं है।जिससे न सिर्फ बच्चे खुले में शौच जाने को मजबूर होते हैं और बीमार पड़ते हैं बल्कि इसी कारण ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों को मजबूरन पढ़ाई भी छोड़नी पड़ती है।कुछ स्कूलों में शौचालय हैं भी तो छात्राओं के लिये अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है।जिन 11 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय हैं उनमें 18 फीसद ऐसे हैं जहां छात्राओं के लिये अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है।
          यह तो रही स्कूलों की बात।अब जरा ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में निजी शौचालयों की स्थिति पर नजर डालते हैं।सरकारी रिपोर्ट के अनुसार देश के करीब 11 करोड़ घरों में शौचालय नहीं है।करीब 53 फीसद लोग खुले में शौच जाने को मजबूर हैं।ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 70 फीसद घरों में शौचालय नहीं है जबकि 13 फीसदी शहरी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है।खुले में शौच करना सिर्फ शहर या गाँव के सौन्दर्य पर लगने वाला कलंक नहीं है,बल्कि यह अनेकानेक खतरनाक बीमारियों का घर भी है।
          खुले में शौच के कारण उत्पन्न होने वाली बिमारियों का मामला इतना सामान्य नहीं है जितना हम समझते हैं।बिल एण्ड मिलिण्डा गेट्स फाउण्डेशन द्वारा किये गये सर्वे के मुताबिक खुले में शौच के चलते हर साल भारत में 6 महीने से कम उम्र के करीब 2 लाख बच्चों की जान जाती है।इसकी वजह से बच्चे खासतौर पर डायरिया का शिकार होते हैं।शौचालयों के अभाव में महिलाओं की सुरक्षा भी दाँव पर लगी हुयी है।ग्रामीण क्षेत्रों में बलात्कार तथा छेड़खानी जैसी अधिकतर घटनाएं ऐसे ही समय घटित होतीं हैं।गांवों में लोक-लाज के कारण महिलाएं दिन में घर से बाहर नहीं निकलतीं।अत: शौचालय के अभाव में वे प्राय: शौच के लिये अंधेरा होने की प्रतीक्षा करती हैं।ग्रामीण महिलाओं में अनेक बिमारियों का यह भी एक महत्वपूर्ण कारक है।
          शहरी (तथा ग्रामीण) क्षेत्रों में लोग शौच के लिये रेलवे ट्रैकों का भी प्रयोग करते हैं।इससे स्वच्छ और सुन्दर पर्यावरण की परिकल्पना को धक्का तो लगता ही है साथ ही साथ दुर्घटनाओं की भी संभावना बनी रहती है।शायर फ़रमूद इलाहाबादी ने अपनी एक हास्य ग़ज़ल (ह़ज़ल) में लिखा है-
रेलवे ट्रैक पर लोटा लेकर मत बैठा करो।
मेरे ऊपर राजधानी आते-आते रह गयी।।
खैर,यह तो थी मज़ाक की बात।लेकिन यह मसला मज़ाक नहीं है।रेलवे हिन्दुस्तान की नज़र भी है,जहां से अनेक देशों से आये पर्यटक भारत का दर्शन करते हैं।और फिर रेलवे ट्रैकों पर बैठे ये लोग उनके कैमरों में कैद होकर भारत के सौन्दर्य को,भारत की छवि को विश्व स्तर पर किस तरह प्रस्तुत करते हैं,आप इसका अंदाजा लगा सकते हैं।
          शौचालयों का निर्माण और उपयोग स्वच्छता की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है।इसके बाद बात आती है अपने पास-पड़ोस को,अपने घरों को,सड़कों को,मोहल्लों को और खुद को भी स्वच्छ रखने की।स्वच्छता की जमीन पर ही अच्छे स्वास्थ्य की पौध उगती है।साफ-सफाई के मामले में देश के विभिन्न विभागों के कार्यालय बड़े बदनाम हैं।प्रधानमंत्री ने भी अभियान शुरू करने के दौरान इस मसले पर ध्यान आकृष्ट कराया था।आलमारियों में पड़ी फाइलों पर जमी धूल,दीवारों पर,फर्श पर अधिकारियों-कर्मचारियों के पान-गुटके की जमीं पीक तथा उससे उठती बदबू अधिकतर सरकारी कार्यालयों की बदनाम तसवीर है।लोग सड़कों पर चलते इधर उधर थूकने की आदत पाले हुए है।बिस्किट,नमकीन,गुटकों आदि के पैकेटों,पानी की खाली बोतलों और घर के कचरे आदि को यत्र-तत्र फेंककर किस तरह के संस्कारों का परिचय दे रहे हैं?याद रखिए,सार्वजनिक स्थलों की स्वच्छता को संरक्षित रखना देश के प्रत्येक व्यक्ति का नागरिक-कर्तव्य भी है।देशभक्ति का एक स्वरूप यह भी है।
          छोटे-छोटे शहरों या फिर गाँवों की क्या बात करें,देश के महानगरों में ही स्वच्छता की जो हालत है वो सोचने पर मजबूर करती है।कूड़ेदान भी कम से कम बाहर से स्वच्छ दिखने चाहिए।लेकिन उससे भी जरूरी है कि कूड़ेदान दिखने चाहिये।और लोगों को इसके प्रयोग की आदत भी डालनी चाहिए। स्वच्छता की समस्याओं में एक बड़ी समस्या के तौर पर सामने आती है कचरा प्रबंधन की समस्या।कचरों के पुनर्चक्रण(recycling) की व्यवस्था करके इस समस्या से निपटा जा सकता है।
          2 अक्टूबर को स्वच्छ भारत दिवस केवल इसकी जयन्ती मनाने का दिवस भर न रह जाए।ऐसी तमाम जयंतियाँ हिन्दुस्तानी कैलेण्डर में भरी पड़ी हैं। स्वच्छता दिवस नयी पीढ़ी या फिर स्वच्छता की पढ़ाई से अनभिज्ञ लोगों को जागरूक करने में इस्तेमाल किया जा सकता है। स्वच्छ भारत की मूल धारणा को दैनिक जीवन का अंग बनाने पर ही कुछ काम बन सकता है।
          तो आइये,हम सभी 21वीं सदी के इस स्वच्छता महायज्ञ का हिस्सा बनें तथा अस्वच्छता को आहूति बनाकर इस यज्ञाग्नि में स्वाहा कर दें।हम सभी स्वच्छता के प्रति कटिबद्ध हों,संवेदनशील हों और इस दिशा में निरंतर प्रयास करें।क्योंकि स्वच्छ पर्यावरण में ही स्वस्थ शरीर का निर्माण होता है,और स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है।स्वस्थ मस्तिष्क का होना बहुत जरूरी है,न सिर्फ अपने लिए या अपने देश के लिए बल्कि समूची मानवता के लिए।
सर्वे भवन्तु सुखिन: ,सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,मा कश्चिद् दुखभागभवेत्।
              जय हिन्द.

                                                                                   राघवेन्द्र शुक्ल
                                                                            भारतीय जनसंचार संस्थान
                                                                                    नई दिल्ली                                                                                                       
                                                                                 

Monday 19 September 2016

सफ़र के धार



"सफ़र के धार की रखने सदा कायम रवानी को।
पुराने पृष्ठ पर रचने चले नूतन कहानी को।
इलाहाबाद की यादों के मेले दिल में लेकर हम,
चले हैं आज़माने भाग्य अपना राजधानी को।"
--राघवेंद्र शुक्ल 

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...