Wednesday 22 January 2020

लखनऊ के 'शाहीन बाग' में

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स्मार्टफोन नहीं था, सो फोटो नहीं ले पाए। यह फोटो ट्विटर से साभार

"मुझको जालिम का तरफदार नहीं लिख सकते।
कम से कम वो मुझे लाचार नहीं लिख सकते।।
जान हथेली पर लिए बोल रहा हूँ जो सच।
उसको इस देश के अखबार नहीं लिख सकते।"

राजधानी लखनऊ के हुसैनाबाद इलाके के घंटाघर कैंपस में रस्सियों से घेरे गए परिसर में सैकड़ों महिलाएं नागरिकता संशोधन ऐक्ट के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थीं और उसके बगल में एक छोटे से परिसर में एक दादाजी और उनके साथ आफताब आलम बैठे थे। ऊपर जो शेर लिखा गया है, आलम वही दादाजी को सुना रहे थे, जब मैं उनके पास रुक गया और वहीं जमीन पर उनके साथ बैठ गया। दादाजी मेरी ओर देखकर मुस्कुराए और पूछा कि क्या मैं प्रोटेस्ट में हिस्सा लेने आया हूं। मैंने कहा, यही मान लीजिए और यह कहते हुए मैंने मेरी ओर बढ़ाए उनके हाथ को अपने हाथों में थाम लिया।

मैंने दोनों से बातचीत शुरू करने के लिए मजाकिया लहजे में सवाल किया, 'आप लोग अलग से प्रोटेस्ट कर रहे हैं क्या?' दोनों हंसने लगे। फिर दादाजी बोले, हां, ऐसा ही समझ लो। प्रदर्शनस्थल पर हमे तो जाने नहीं देंगे। पता नहीं कौन-सी धारा लगाकर ये पुलिसवाले जेल में डाल दें, इसलिए हम यहीं बाहर बैठे हैं। आलम ने बताया कि उन्होंने चाचा को यहां बैठे देखा तो वह भी उनके पास आकर बैठ गए। दोनों काफी देर से बातें कर रहे होंगे। उनकी बातचीत में शामिल होते हुए मैंने कहा कि काफी लोग जुट गए हैं तो मेरी बात काटकर आलम बोले, अरे अभी तो और भीड़ होगी।

रात के 8-9 बजे के बाद संख्या दोगुनी के लगभग होने का दावा करते हुए आलम बोले, 'कई महिलाएं ऐसी हैं जो काम पर जाती हैं। वह अभी नहीं आ पाई हैं। कुछ ऐसी हैं जो वापस चली गई हैं और घर में बच्चों और परिवार के लिए खाना बनाकर वापस लौटेंगी।' उन्होंने ही बताया कि रात के 8-9 बजे के बाद यहां हर धर्म के लोग दिखेंगे। आलम बोले, 'अभी सिर्फ मुस्लिम महिलाएं ही दिख रही हैं। रात होने तक यहां काफी मात्रा में गैर-मुस्लिम लोग भी जुटेंगे।' वह आगे बोले, 'यह लड़ाई केवल मुसलमानों की थोड़ी है। अभी मुस्लिमों की बारी है। इसके बाद ये लोग (केंद्र सरकार) दलितों पर टूटेंगे और फिर धीरे-धीरे सबका नंबर आएगा। यह किसी को नहीं छोड़ेंगे। बचेंगे तो सिर्फ उनके अंधभक्त।'

मीडिया पर गुस्सा
यह सब बोलते हुए आलम काफी उग्र हो गए। थोड़ी देर चुप्पी रही और फिर दादाजी हमारी ओर मुखातिब हुए और बोले, 'बेटा, मोहम्डन हो?' मैं कुछ देर शांत रहा फिर बोला, 'मेरा नाम राघवेंद्र है।' दादाजी आलम की ओर देखकर खुशी से मुस्कुराए और बोले कि देखो, 'जो गलत है उसके खिलाफ सब लोग आएंगे।' मुझे अब जाकर अंदाजा हुआ था कि आलम के अलावा दादाजी भी मुसलमान हैं। मैंने उनसे पूछा कि आप रोज यहां आते हैं। वह बोले, 'हां। मैं यहां बैठता हूं और मेरी बहू वहां ( प्रदर्शनस्थल की ओर इशारा करते हुए)।' उन्होंने बताया कि वह कल भी यहां आई थी और आज भी आई है। मुझसे मेरे काम के बारे में पूछा गया तो मैंने कहा, 'पत्रकार हूं।' इस पर दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और उनकी आवाज में थोड़ा और तेज आ गया।

आलम बोले, 'आप हम लोगों की बात छापेंगे?' हमने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा कि अगर हमें छापना होगा तो हम उसके साथ वैसा नहीं करेंगे जैसा आप अभी मीडिया को लेकर सोच-बोल रहे थे। आलम जैसे फट पड़े। बोले, 'मीडिया पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मीडिया को नरेंद्र मोदी ने खरीद लिया है। सब उन्हीं की बातें फैला रहे हैं। जी न्यूज-आज तक, हर जगह हमारे आंदोलन को बदनाम किया जा रहा है।' उनकी इस बात पर दादाजी ने हामी भरी तो मुझे वहीं की एक घटना याद आ गई। मैंने उन्हें भी सुनाया।

'मैं घास हूं'
जहां महिलाएं प्रदर्शन कर रही हैं, उसी बाड़े में तीन लोग वीलचेयर पर बैठे थे। इनमें दो पुरुष और एक महिला शामिल थी। महिला ने अपने हाथ में एक पोस्टर लिया था, जिस पर लिखा था, 'मैं घास हूं, आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा।' उसके नीचे लिखा था, 'पाश'। मैंने उनके पास जाकर पूछा कि आपने पाश की कविता लिखी है तो आप पाश को जानती होंगी। वह मुस्कुराने लगीं और अपने बगल में बैठे मोहम्मद (नाम पूछा था लेकिन याद नहीं रहा, इसलिए काल्पनिक) की ओर इशारा कर बोलीं, 'इन्होंने इस पोस्टर को बनाया है और वह मेरे पति हैं।' इतने में मोहम्मद बोल पड़े कि हां अच्छी तरह से जानता हूं पाश को।

मैंने पूछा कि आपको साहित्य में रूचि है? वह जवाब देते कि वहां एक युवती आई और उसने मुझसे पूछा कि आप मीडिया से हैं? उसके गले में वॉलंटियर का कार्ड टंगा था। मैं वहां रिपोर्टिंग के लिए नहीं गया था लेकिन वहां थोड़ी देर रुकने के लिए मेरा मीडियावाला होना जरूरी था, ,सो मैंने कह दिया कि हां, नवभारत टाइम्स से हूं। फिर युवती वहां से चली गई। अब जब मैं मोहम्मद से मुखातिब हुआ तो वह मीडिया को लेकर काफी उग्र थे। बोले कि मीडिया वाले हमको बदनाम करना चाहते हैं। मैंने जानना चाहा कि क्या हुआ तो वह बगल में वीलचेयर पर बैठे दिव्यांग सज्जन की ओर इशारा करते हुए बोले कि यह भाई साहब कुछ देर पहले उनके पास यह पूछने के लिए आए थे कि जिस बैटरी वाले वीलचेयर पर उनकी पत्नी बैठी हैं, वह कहां और कितने में मिलता है?

मोहम्मद ने बताया कि इतने में एक टीवी रिपोर्टर वहां आया और दिव्यांग शख्स से पूछने लगा कि आप किसलिए प्रोटेस्ट कर रहे हैं और आप सीएए के बारे में क्या जानते हैं? उन्होंने जब इस पर जानकारी न होने की बात बताई तो रिपोर्टर ने उन पर लांछन लगाना शुरू कर दिया। उसने कहा कि इन लोगों को पैसे देकर प्रोटेस्ट के लिए लाया गया है। इन्हें यह भी नहीं पता कि यह जिसके लिए प्रोटेस्ट कर रहे हैं वह क्या है? मोहम्मद यह बताते हुए काफी क्रोधित हो गए। उन्होंने बताया कि इसके बाद वह लगभग चिल्लाते हुए रिपोर्टर से बोले कि जो भी जानना चाहते हो, हमसे पूछो। हम बताएंगे। इस पर भी वह रिपोर्टर बिना सवाल पूछे वहां से चला गया।

क्रोधित मोहम्मद बोले कि वह अब मीडिया वालों पर बिल्कुल भरोसा नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि वह अब किसी मीडिया वाले को इंटरव्यू नहीं देंगे। चार दिन से कई मीडियाकर्मियों ने उनका इंटरव्यू लिया लेकिन वह उन्हें कहीं पर भी दिखा नहीं। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि केवल रवीश कुमार अगर उनसे बात करना चाहेंगे तब वह उनसे बात करेंगे क्योंकि वह निष्पक्ष हैं। यह घटना सुनकर आलम मीडिया पर और क्रोधित हो गए और मुझे बाकी मीडिया से (न जाने क्यों) अलगाते हुए बोले कि लोग केवल आंदोलन को बदनाम करना चाहते हैं।

'चोर' पुलिस
आलम पुलिस के रवैये से भी दुखी थे। वह बोले कि पुलिस चोरों जैसा बर्ताव कर रही है। परसो, उसने रात में प्रदर्शनस्थल पर जल रहे अलाव पर पानी डाल दिया। महिलाओं का कंबल छीनकर ले भागे। सुनने में आया कि पास के सुलभ शौचालय में ताला भी लगवा दिया। उन्होंने कहा कि पुलिस बिल्कुल गुंडो जैसा बर्ताव कर रही है। बीते दिनों के प्रदर्शन की याद दिलाते हुए आलम बोले कि योगीजी ने कहा कि पुलिस ने गोली नहीं चलाई जबकि विडियो में साफ दिखा कि पुलिस ने गोली चलाई। दादाजी ने मुझसे पूछा कि क्या लगता है कि इन सबका क्या हासिल होगा?

मैंने उनसे कहा कि अभी तो सरकार अपने फैसले पर अड़ी हुई है। कल (मंगलवार को) अमित शाह ने लखनऊ में ही कहा था कि चाहे जितना विरोध हो वह कानून को वापस नहीं लेंगे। इस पर आलम बिफर उठे। बोले, 'कैसे नहीं लेंगे वापस। उन्हें वापस लेना पड़ेगा। इतने लोग विरोध कर रहे हैं।' आलम बोले, 'अमित शाह-नरेंद्र मोदी झूठे हैं।' नरेंद्र मोदी पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री को भी नहीं पता है कि वह देश में एनआरसी लागू करने की योजना बना रहे हैं? आखिर, बिना उनसे पूछे यह योजना कैसे बन सकती थी? ये लोग केवल मुसलमानों को निशाना बना रहे हैं।

लंबी बातचीत के बाद मैं वहां से जाने को हुआ तो दादाजी ने मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया और बोले कि आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। मैंने भी 'मुझे भी' कहकर वहां से विदा ली। आगे बढ़ने पर रैमॉन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय चरखा कातते दिखे। सफेद कुर्ता-पायजामे में संदीप चरखे पर सूत कात रहे थे और उन्हें कुछ मीडिया वालों ने घेर रखा था। वह केंद्र सरकार के बारे में बोल रहे थे और केंद्र सरकार के रवैये की तुलना अंग्रेजी सरकार से कर रहे थे। संदीप ने कहा कि बीजेपी सरकार के लोग अंग्रेजी हुकूमत की तरह बर्ताव इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आजादी के आंदोलन में इनकी कोई भूमिका नहीं थी।

पांडेय सीएए को लेकर बोले कि अमित शाह ने बहुमत के बल पर नागरिकता संशोधन कानून भले ही संसद से पास करा लिया लेकिन उन्हें यह भी ध्यान देना चाहिए कि उन्हें केवल 37 फीसदी वोट ही मिले हैं जबकि लोकतंत्र 100 प्रतिशत लोगों को साथ लेकर चलने का नाम है। इतने व्यापक विरोध के बाद भी सीएए पर अपने रुख पर अडिग शाह की उन्होंने जमकर आलोचना की। प्रदर्शनस्थल को लगातार स्थानीय और बाहरी लोगों ने भी घेर रखा था। सब अपने-अपने हिसाब से इस ज्वलंत मुद्दे पर बात कर रहे थे।

विरोध की काली नदी
कुछ देर वहां रहने के बाद मैं प्रदर्शन परिसर से बाहर निकल आया। महिलाओं के बीच वालंटियर खाने-पीने के सामान बांटने लगे थे। लड़कियां लगातार छोटे माइक्रोफोन पर लोगों से बैठने की अपील कर रही थीं। इस दौरान बुर्का पहने प्रदर्शनकारी महिलाएं विरोध की काली नदी की तरह लग रही थीं। जिनमें छोटे-छोटे समूहों के तीन-चार टापू भी थे।

कई लड़कियों ने हाथ में तिरंगा थाम रखा था। कई ने हाथ में तख्तियां ले रखी थीं, जिस पर सांप्रदायिक सद्भावना और सर्वधर्म बंधुत्व के संदेश लिखे थे, जिस पर संविधान की प्रस्तावना लिखी थी, जिस पर संविधान का चित्र बना था, जिस पर लिखा था, 'तानाशाह आएंगे-जाएंगे लेकिन हम कागज नहीं दिखाएंगे।' सामने सबसे आगे, मंच के नजदीक, परिसर के सबसे अंतिम छोर पर और दाहिने छोर पर भी कुछ महिलाओं का हुजूम था, जो लगातार नारेबाजी कर रहा था।

मैं वापस गोमतीनगर की ओर लौट रहा था और पीछे किसी बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह गगनचुंबी नारों का अवरोही स्वर मुझे विदाई दे रहा था। चारों तरफ जेएनयू गूंज रहा था। मेरे कानों में अब भी वे स्वर वैसे ही बज रहे हैं। लड़कियों का-महिलाओं का सम्मिलित स्वरः 'हमें चाहिए आजादी', 'हम लेके रहेंगे आजादी', 'है हक हमारा आजादी', 'लाठी बरसा लो', (आजादी) 'तुम डंडे मारो (आजादी)' 'हम नहीं हटेंगे (आजादी)' हम लेके रहेंगे...

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...