Monday 18 June 2018

व्यंग्यः यह प्रतीकात्मक राजनीति का दौर है

प्रतीकात्मक चित्र (इंटरनेट से साभार)

आजकल देश में प्रतीकात्मक राजनीति का दौर है। मतलब झगड़ा ठीक से नहीं हो पा रहा है तो प्रतीकात्मक कर लें। केजरीवाल एलजी साहब के यहां, कपिल मिश्रा और भाजपा वाले केजरीवाल के यहां रजाई गद्दे और सोफे पर गिरे पड़े हैं। वो एक प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसी ही प्रतीकात्मक लड़ाई कांग्रेस ने कथित भूख हड़ताल की मदद से लड़ी थी और भाजपा ने संसदीय गतिरोध के खिलाफ देशव्यापी भूख हड़ताल के माध्यम से इस परंपरा को और मजबूत किया था। अमित शाह प्रतीकात्मक संपर्क अभियान पर हैं। देश भर की महान हस्तियों को अपनी उपलब्धियां गिना रहे हैं, जैसे किसी को पता नहीं है। लेकिन प्रतीकात्मक राजनीति को मजबूत करने के लिए ऐसा करना जरूरी है।

हम प्रतीकों के लिए लड़-कट-मरने वाले लोग हैं। प्रतीक हमें आकर्षित करते हैं। प्रतीकों से हमारी बहुत आस्था है। 'अप्रतीकीय संस्कृति' वाले लोगों ने भी प्रतीकों की महिमा को भलीभांति समझ लिया है। वह भी अपने प्रतीकों पर होने वाले प्रहार पर प्रतीकात्मक प्रतिक्रिया देने लगे हैं। भारतीय जनता के इस प्रतीक प्रेम को 'भारतीय जनता पार्टियों' ने अपनी रणनीति का अहम हिस्सा बना लिया है। अब वह प्रतीकों को लेकर गंभीर हो गए हैं। ऊना से लेकर सहारनपुर तक की घटना पर विरोधियों को क्या जबर्दस्त उत्तर दिया था हमारी सरकार ने। उन्होंने प्रतीकात्मक उत्तर का सहारा लिया। यह बहुविकल्पीय और विस्तृत उत्तरीय प्रश्नों के बीच का रास्ता था। प्रतीकात्मकीय उत्तर। उन्होंने सर्वोच्च संवैधानिक प्रतीकात्मक पद के लिए प्रतीकात्मक व्यक्ति की तलाश की और विपक्ष को प्रतीकात्मक जवाब दे डाला।
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फोटो सोर्सः वन इंडिया 

काम तो काम, राजनीतिज्ञों ने अपने बयानों तक में प्रतीकात्मकता को पर्याप्त जगह दी है। हम लोग खामख्वाह मजाक बनाते हैं। प्रधानमंत्री ने प्रतीकात्मक रूप से अपनी भारी जीत को भारी महसूस कराने के लिए 600 करोड़ मतदाताओं की कल्पना की थी और प्रतीकात्मक राजनीति के प्रति उनकी श्रद्धा देखिए कि वह भूल गए कि प्रतीकों के देश भारत में नहीं विदेश की किसी धरती पर हैं। प्रेम और जुनून ऐसा होना चाहिए। देश के राजनीति शास्त्र के राष्ट्रीय शिष्य राहुल गांधी भी इसी दृष्टिकोण से आजकल भाषण देते हैं। उन्होंने कहा कि कोका कोला कंपनी के मालिक पहले शिकंजी बेचते थे। आपको इसे प्रतीक के तौर पर स्वीकार कर लेना चाहिए था। वैसे भी महान हस्तियों के संघर्षों की कहानियों में जो वो बताते हैं क्या सब सही ही होता है? हां, मगरमच्छ वाली बात और है। उसके सही होने में कोई संदेह नहीं है। राष्ट्रीय अध्यक्ष जी ने सोचा होगा सारे महापुरुषों ने बचपन में अखबार, चाय इत्यादि बेचा ही होता है। ये सारे प्रतीक तो अब पुराने हो गए हैं। मार्केट में कुछ नए प्रतीक लाने की जरूरत है। प्रतीकात्मक राजनीति के लिए यह उनकी प्रतिबद्धता तो ही थी।

वैसे, हम प्रतीकात्मक राजनीति के एक महान पुरोधा के युग में जी रहे हैं। इसका हमें गर्व होना चाहिए। बदलाव के वादे के रास्ते सत्ता में आई सरकार ने ढाई साल बाद भी कोई बदलाव नहीं देखा तो प्रतीकात्मक बदलाव के तौर पर नोट बदल दिए। प्रतीकात्मक झाड़ू लेकर घूमने से लेकर प्रतीकात्मक योगा तक क्या कुछ नहीं किया प्रतीकों की राजनीति के लिए। हां, प्रतीकात्मक योगा ही तो है। इससे पहले फिटनेस के लिए ऐसा योगा कभी नहीं देखा था। और तो और पार्टी के बुजुर्ग लोगों की प्रतिष्ठा में कोई कमी न हो इसके लिए उन्हें भी प्रतीक बनाना जरूरी था। इसलिए एक अलग से प्रतीकात्मक (सॉरी) मार्गदर्शक मंडल बना दिया। प्रधानमंत्री के पास विपक्ष के हर सवालों का प्रतीकात्मक जवाब था। लोगों ने कहा कि इंटरव्यू नहीं देते सो एक नहीं, तीन-तीन प्रतीकात्मक इंटरव्यू दे डाले। पुरोधा को छोड़िए, उनके मंत्री भी क्या कम हैं! झोपड़ी में रहने वाले लोगों को फाइव स्टार होटल में बुलाकर और उनके साथ खाना खाकर दलित-उत्थान और समतामय समाज की दिशा में उनके प्रतीकात्मक योगदान को कौन भूल सकता है! प्रतीकात्मक राजनीति के जनक का जीवन ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है। और पिक्चर तो अभी बाकी ही है, भाइयो भैणों।
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खैर, लोकतंत्र के नाम पर अब इस देश में प्रतीकात्मक लोकतंत्र ही तो बचा है। राजशाही, भाई-भतीजावाद, पुत्रवाद, मित्रवाद, गुरूवाद को संवैधानिक पद-प्रतीकों के खांचे में घुसाकर मनमानी की ही जा रही है। सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक प्रतीकात्मक प्रतिरोध की संस्कृति पनप रही है। संसद में प्रतीकात्मक कार्यवाही हो रही है। लोग प्रतीकों को लेकर पागल हैं। मार-काट मचा रहे हैं। प्रतीकों को सत्य मान लिया गया है, यह भूलकर कि प्रतीक तो प्रतीक ही हैं, यथार्थ नहीं। कहीं ऐसा न हो जाए कि इस प्रतीकवादी युग में यथार्थवाद भी एक प्रतीक बनकर रह जाए।

जनसत्ता वेव में प्रकाशित

Friday 8 June 2018

पक्षपात आज के डिबेट का नया नैतिक चरित्र है

स्वर्गीय अनुपम मिश्र ने अच्छे विचारों के अकाल की कल्पना की थी। विचारों के सन्दर्भ में कुछ और संकट हैं। विचारों के अच्छे विमर्श के अकाल का। असल मुद्दों को छिटकने न देने के कौशल के अकाल का। आज के दौर में हर दूसरी राजनितिक घटना ऐतिहासिक है। ज़ारी है उन पर विमर्श पर विमर्श। वो भी ऐसा, जैसे बांस के कईन से गन्ने का रस निकाल देंगे।

स्वस्थ प्रतिरोध का जिम्मा सँभालते-सँभालते हम कब सवालों की जिम्मेदारी से फैसले देने पर उतारू हो गए, कब विपक्ष से न्यायाधीश बन गए, पता ही नहीं चला। अब हम सब भविष्यवक्ता हैं। अब हम आंकलन नहीं करते, भविष्य बकते हैं। आलम ये है कि दीनानाथ के भैंस के रंभाने की आवाज सुनकर ही लोग बता सकते हैं कि उनका बिटवा इस बरस 12वीं में पास होगा कि नहीं। यह अद्भुत कला है।

बड़े बारीक तर्क होते हैं जो जनरलाइज्ड नहीं होते। ये तर्क हर बार अलग-अलग विमर्शों में अलग-अलग होते हैं। बहुत सारे अपवादों से भरे इस विमर्श को बुद्धिजीविता का उत्कर्ष माना जाता है। बाकी इस पर कोई भी सवालिया टिप्पणी मूर्खता, देशद्रोह और एंटी-फलां वाद का प्रमाण पत्र भी होती है। 'पक्षपात' आज के डिबेट का नया नैतिक चरित्र है। आप खोपड़ी फोड़कर भी इसे नहीं समझ सकते।

Tuesday 5 June 2018

पर्यावरण मंथन: 'प्रकृति' की नाराजगी के आगे घुटने टेकती 'संस्कृति'


आर्कटिक के बर्फीले देश की सफ़ेद लोमड़ी अपने रंग का फायदा उठाकर शिकार करती है। वह सफ़ेद बर्फ में छिप जाती है और सच में लगभग अदृश्य हो जाती है। ऐसा वह तब भी करती है जब बाज़ उसका शिकार करने की कोशिश करते हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से आर्कटिक पिघल रहा है। लोमड़ी का सफ़ेद रंग अब काम नहीं आ रहा। उसकी समूची प्रजाति पर खत्म होने का संकट आन पड़ा है। रंग सिर्फ लोमड़ी की धरती का नहीं बदल रहा है। आपकी अपनी धरती का भी बदल रहा है। बहुत तेजी से। पर्यावरण संकट का शोक गीत गाते आज 43 साल बीत गए। वैश्विक तापमान में वृद्धि लगातार जारी है। ऐसे में आर्कटिक लोमड़ी केवल एक उदहारण है। हमारी तथाकथित विकास-धारा में धरती के विभिन्न कोनों में ऐसी न जाने कितनी प्रजातियां अपने अस्तित्व की समाप्ति के संकट के मुहाने पर खड़ी हैं। और किसी की क्या बात करें, हमारी अपनी प्रजाति क्या इस संकट से अछूती है!

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि कार्बन उत्सर्जन में तत्काल कमी नहीं लायी गयी तो सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में भयानक स्तर की वृद्धि होगी। ये वृद्धि हम अभी ही नहीं झेल पा रझे हैं। सोचिए, आने वाली पीढ़ियां इसे कैसे झेलेंगी। इसके दुष्प्रभाव देश के अनेक हिस्सों में दिखाई देने लगे हैं। शिमला के लोगों ने अपने पर्यटकों से अपील की है कि हमारे यहाँ हमारे लिए ही पानी नहीं है, आपको क्या पिलाएंगे। इसलिए यहाँ न ही आइये। हमारे यहाँ आगंतुकों का पानी और मीठा से स्वागत करने की परंपरा रही है। लेकिन वहां अब मीठा बचा है। पानी नहीं है। देख लीजिए, स्वाद और रंग से हीन एक पदार्थ आपके जीवन के सारे रंग कैसे छीन लेता है। इतनी सुंदर जगह शिमला। लोगों ने किसी बाहरी को वहां आने से मना कर दिया है। होटलों ने बुकिंग बंद कर दी है। अतिथि देवो भवः की संस्कृति ने प्रकृति की एक नाराजगी के आगे घुटने टेक दिए हैं। अब ये आपको सोचना है कि आप प्रकृति को बचाएंगे या संस्कृति को।

यह केवल शिमला की हालत नहीं है। बुंदेलखंड और मराठावाड़ा के बारे में हम अक्सर समाचारों में सुनते रहते हैं। सूखा और अकाल का नाम सुनते ही इन दो क्षेत्रों के नाम बरबस होठों पर आ जाते हैं। जल का दोहन, जंगलों का खात्मा और बढ़ता वैश्विक तापमान अगर नहीं रुका तो न सिर्फ सारे देश का बल्कि समूची दुनिया का 'बुन्देलखण्डीकरण' होना तय है। पानी है तो सब कुछ है। गर्मियों में देश की नदियों की हालत नालों की तरह हो जाती है। नाले फिर भी अपने स्तर पर पानी से भरे होते हैं। नदियों के टापुओं पर लोग गाड़ी चलाना सीख रहे हैं। बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि 22वीं सदी तक समुद्री जलस्तर में तकरीबन 1 मीटर का इज़ाफ़ा हो जाएगा और लगभग साढ़े 5 हजार वर्गकिमी की जमीन समुद्र में समा जाएगी। इससे करीब 70 लाख लोग अपनी जमीन से विस्थापित होंगे। इतना ही नहीं क्लाइमेट चेंज की वजह से मौसम का वो हाल होगा कि सूखा और बाढ़ की ऐसी भयावह स्थिति पैदा होगी जिसका सानी इतिहास में ढूंढना मुश्किल होगा। इससे खाद्य संकट की भयानक स्थिति हमारे समक्ष उपस्थित होगी।

किसानों का आंदोलन आजकल चर्चा में है। उन्हें अपनी फसल का उचित दाम नहीं मिल रहा है। ऐसे भी किसान हैं जिनकी फसल मौसम की वजह से ख़राब हो जाती है। फसल के लिए जब बारिश होनी चाहिए तब होती नहीं। जब नहीं होनी चाहिए तब होती है। दोनों ही परिस्थितियों में उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है। कुछ झेल नहीं पाते तो आत्महत्या कर लेते हैं। मौसम की मार से हमारी भोजन की थाली पर असर पड़ना तो तय है। थाली के साथ पानी के गिलास पर भी संकट है। बारिश न होने की वजह से किसान सिंचाई के अन्य विकल्पों की ओर बढ़ते हैं। इनमें नदियों-नहरों से फसल सींचने का विकल्प है। इनकी व्यवस्था न होने पर किसान बोरिंग से भूमिगत जल सिंचाई के लिए निकालते हैं। भूमिगत जल स्तर पहले ही गिरता जा रहा है। ऐसे में आपके पीने के हिस्से के पानी से सिंचाई हो रही है। भोजन के लिए की जाने वाली यह कवायद आपके लिए भयंकर जल संकट की भूमिका तैयार कर रही है।

पॉलीथीन हमारे पर्यावरण के लिए एक नए दानव की तरह उभर रहा है। इसे नष्ट होने में हजारों साल लगते हैं। इसे नष्ट करने की दूसरी विधि है कि इसे जला दिया जाए लेकिन ऐसा करना भी बड़ी मूर्खता होगी। इसके धुएं से निकलने वाले हानिकारक रसायन हमारा सांस लेना दूभर कर देंगे। पिछले दो दशकों में पॉलिथीन के इस्तेमाल में काफी वृद्धि देखने को मिली है। केवल भारत की ही बात करें तो आज की तारीख में देश में प्लास्टिक की उत्पादन क्षमता तकरीबन 50 लाख टन से भी ज्यादा है। 2001 तक भारत में हर दिन 5400 टन के हिसाब से साल भर में 20 लाख तन प्लास्टिक कचरा पैदा होने लगा था। अब तो 2018 है। आज की स्थिति का आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। पॉलीथीन गैर- जैव विघटित पदार्थ है। मतलब कि यह सड़ता-गलता नहीं है। ऐसे में यह मिट्टी की उर्वरा शक्ति को प्रभावित करता है। भूमिगत जल के पुनर्संचयन में दिक्कतें पैदा करता है। नालियों में पहुंचकर जाम की स्थिति बनाता है। इससे तमाम तरह की बीमारियां फैलती हैं। अक्सर पशु इनमें अपने लिए भोजन तलाशते इन्हें निगल जाते हैं। जिससे उनकी मौत तक हो जाती है।

प्लास्टिक से पर्यावरण को बचाने का एक ही उपाय है कि इसके इस्तेमाल में कमी लाई जाए। इसके लिए कठोर संकल्प की जरूरत होगी। प्लास्टिक थैलियों के उपयोग के हम इतने आदी हो चुके हैं कि इसे छोड़ पाना बेहद मुश्किल है। लेकिन यह असंभव नहीं है। तमाम प्रदेशों की सरकारों ने इनके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया है लेकिन फिर भी यह चोरी-छिपे दुकानों पर मिल ही जाती हैं। हम इनसे होने वाले नुकसानों को इग्नोर कर धड़ल्ले से इसके इस्तेमाल में जुट जाते हैं। यह जानते हुए भी कि पॉलिथीन पर्यावरण को बाद में नुकसान पहुंचाता है, उससे पहले यह आपकी सेहत पर हमला बोलता है। कई शोधों में यह बताया गया है कि पॉलिथीन में रखे गर्म भोजन, चाय आदि का सेवन करने से कैंसर जैसी घातक बीमारी हो सकती है। गर्म खाद्य पदार्थों की वजह से पॉलिथीन के केमिकल्स टूटते हैं और खाने वाली चीजों में घुल जाते हैं। यही चीजें जब आप खाते हैं तो बीमारी की चपेट में आते हैं।

इस साल पर्यावरण दिवस की थीम बीट प्लास्टिक पॉल्यूशन रखी गई है। पॉलीथीन पॉल्यूशन दूर करने का एक ही तरीका है कि इसके इस्तेमाल में कमी लाई जाए। इसके लिए खुद के प्रति जवाबदेही रखते हुए ईमानदारी से पॉलीथीन को अपने जीवन से रिमूव करना होगा। सामान रखने के अन्य विकल्प जैसे- जूट या कपड़ों की थैली का इस्तेमाल इसमें आपकी मदद कर सकते हैं।  ध्यान रखें, धरती आने वाली पीढ़ियों के लिए आपके पास रखी विरासत की तरह है। इसे जब आप अपनी अगली नस्लों को सौंपेंगे तो यह आपकी जिम्मेदारी है कि इसका माहौल जीवनानुकूल हो। यह धरती जैसी आपको मिली थी आप उससे बेहतर रूप में आने वाले वक़्त को सौंपे, आज के दिन आपका यही संकल्प होना चाहिए।

(5 जून 2018 को जनसत्ता वेब में प्रकाशित)

व्यंग्यः देश 'अंकल' का वायरल डांस देखने में बिजी है और तुम कर्ज माफी का रोना रो रहे हो!


वायरल अंकल का डांस वीडियो वायरल होते ही पेट्रोल की महंगाई का प्रतिरोध पार कर भी हमारे मीडिया के जांबाज़ अंकल के घर पहुँच गए। उनका इंटरव्यू लिया गया जो अखिल भारतीय नृत्यकला प्रशिक्षण और प्रेरणा के लिए ऐतिहासिक जरूरत है। ऐसे ही कुछ दिन पहले कोई प्रिया प्रकाश वारियर भी वायरल हुई थीं। तब हिंदुस्तान का आखिरी किनारा भी दिल्ली से काफी नज़दीक हो गया था। सभी के माइक के पीछे वारियर थीं और कैमरे पर उनका मुस्कुराता चेहरा। रातोरात प्रसिद्धि के उड़नखटोले पर विराजमान उस दिव्य महिला के सौंदर्य और उसकी खुशी पर समूचा देश मोहित था। हमें उसकी खुशी करीब से महसूस हो इसलिए समाचार वालों ने दिन भर उसके हंसते चेहरे के प्रसारण की पुनरावृत्ति की हद कर डाली थी।

वायरल चीजें हैं भाई। जो देश देखना चाहता है हम तो वही दिखाते हैं। लेकिन मैं नहीं मान सकता कि देश गुज्जू पहलवान का डांस नहीं देखना चाहता होगा। हाँ, थोड़ा बोरिंग है पर डांस तो डांस है। नृत्य कला। एकदम नए जमाने की नृत्य कला। पहले कभी नहीं देखी गयी। गुज्जू पहलवान कोई प्रोफेशनल डांसर नहीं थे। किसान थे। डांस तो उनसे देश की कला-प्रेमी सरकार ने जबर्दस्ती करवाया। खेत के लिए बैंक से लगायत खाद-बीज-विक्रय केंद्र तक नाचने के बाद गुज्जू ने आखिरी नाच में तो कमाल कर दिया। बिना प्राण के नाचना तो कमाल ही है न। पहलवान आखिरी बार नाचे अपने दुआर पर खुद ही के लगाए नीम के पेड़ पर। गले में फंदा था। टांगें जमीन से कुछ ऊपर थीं और शरीर एक शांत, स्थिर डांस में मग्न। वीडियो तो नहीं, फोटो वायरल हुआ। बहुत वायरल हुआ। ट्वीट भी हुआ। लोग रोए, धिक्कारे सब किए। एमपी वाले मामा तब मुंह में पान चबाकर भोपाल की सड़क (बेटर दैन अमेरिका) रंग रहे थे। नहीं तो बोलते जरूर कि पसन्द आया डांस।

टीवी का असर बहुत दूर तक है। मामला वहां पहुँच जाए तो नदियापार वाले जेबकतरा भक्कू की चोरी हुई साइकिल के बदले नयी मोटरसाइकिल सरकार घर आकर दे जाती है। बस नाटक मज़ेदार होना चाहिए कि टीवी पर चले तो लोगों का अच्छा खासा मनोरंजन हो। मनोरंजन से कोई समझौता नहीं। मनोरंजन के लिए हम किसी के मौत का भी तमाशा बना सकते हैं। बस, एंटरटेनमेंट-एंटरटेनमेंट-एंटरटेनमेंट। खैर, यही सोचकर मद्रास वाली मंडली ने पहली बार स्क्रिप्ट लिखी। तैयार होकर आए। लेकिन क्या करें। 'प्रचारक' तो नहीं थे। किसान ही तो थे। उन्होंने सोचा जब यही सब करने से लोग 'ट्वीट' करेंगे तो यह भी कर लें। लेकिन कोई फायदा नहीं। ट्वीट तो छोड़िए किसी 'सफेद कबूतर' ने 'बीट' तक करने की जरूरत नहीं समझी।

इसलिए, खेत वालों को अभी और मेहनत करना चाहिए। थोड़ा डांस-वांस सीखें। गाना-वाना गाएं तब तो लोग देखना पसंद करने के बारे में सोचें भी। क्या हर बार वही रोना रोते रहें कि 'कर्ज माफ कर दो' - 'कर्ज माफ कर दो'। कर्ज क्या पेड़ पर उगते हैं! वो 'पेड' पर उगते हैं। जिसने 'पेड' किया उसको कर्ज भी अदा किया और उसके प्रति फ़र्ज़ भी अदा किया। तुम रोना रोओ। देते भी क्या हो! चावल-दाल-रोटी। कुछ इनोवेटिव करो यार। जिससे मज़ा आए। नहीं कुछ तो गेंहू-चावल का नाम ही बदलो। जैसे, चावल का नाम बदलकर 'वंदे मातरम अन्न' और गेहूं का नाम 'जय हिंद दाना' करो। देशभक्ति झलके। तब तो लोग इमोशनली जुड़ेंगे। यू नो! देश ही सबकुछ है। तुम्हारे खेत से देशभक्ति वाली फीलिंग ही नहीं आती। एक तो फसल भी तुम्हारी हरी-हरी होती है। उगाओगे भारत की जमीन पर पाकिस्तान का झंडा। तुम्हारे देशद्रोह पर बुलेटिन नहीं चलवा रहे, ये क्या कम है!

देखिए! वायरल अंकल के डांस के परम आनन्द के बीच किसान की याद दिलाने का अपराध मैं बिल्कुल नहीं करना चाहता था। लेकिन उन्हें भी समझाना जरूरी हो गया था कि हर बार का नाटक बंद करें। सारा देश अंकल का वायरल डांस देखने में बिजी है। किसानों ने अपनी सब्जियां सड़क पर फेंक दी तो क्या हुआ। इससे हमारे (अ)धर्म को, हमारी देश(भक्ति) को तो कोई नुकसान नहीं पहुंचा। किसानों ने दूध ही तो सड़क पर बहाया है। अब ये तो कन्फर्म नहीं ही है कि दूध गाय का है। एक बार हो जाए तो हड्डी पसली एक करने में देर थोड़े लगेगी। ऐसे नाटक चलते रहते हैं। सब मीडिया में आने की ललक है। मैले-कुचैले कपड़ों के साथ देश को रुलाने के लिए टीवी पर आना है इनको। अरे, देश को हंसने दीजिए भाई। वैसे ही कितने सारे रोने के संसाधन जनता के पास उपलब्ध हैं। जिस टीवी पर तुम रोने जा रहे हो वहां देश के जिम्मेदार प्रतिनिधि लाखों रुपए की सैलरी लेकर जनता को हंसाने का काम करते हैं। वे मेहनत करके ऐसे वाहियात बयान देते हैं जिस पर जनता हंसे और आलू-टमाटर-दाल-पेट्रोल के दर्द को भुलाए रखे। मंत्री जी ने भी इस बात की पुष्टि कर दी कि तुम लोग मीडिया में आने के लिए ही ये सब करते हो। मंत्री जी को डर है कि अगर तुम मीडिया में आ जाओगे तो उनका क्या होगा। महीने में दो-तीन बार जब तक मंत्री जी को फुटेज नहीं मिलता है तब तक उनका दस्त ठीक नहीं रहता। उनकी भी तो सोचो।

सोशल मीडिया पर लिखने वाले धुरंधरों की भी अपनी मजबूरी है। वह अपने सभी करुण शब्दों को विभिन्न घटनाओं पर खर्च कर चुके हैं। वे अब कुछ भी लिखते हैं तो बहुत बोरिंग लगता है। वो क्या ही करें। इतनी बार उन्हें भावुक पोस्ट लिखना पड़ता है कि शब्दों और आंसू का स्टॉक ही खत्म हो जाता है। वैसे, जनता का दुख-दर्द दूर करने की यह सरकारी नीति भी हो सकती है। इससे आप सुख में और दुख दोनों में एकदम सामान्य रहने लगेंगे। सरकार ने वह स्टेटस पढ़ा है जो एक बार द्वापर में श्रीकृष्ण ने अपने वाट्स एप पर लगाया था। जिसमें उन्होंने कहा था कि सुख-दुख में समान रहने वाला ही योगी है। सरकार सबको योगी बना रही है तो इसमें क्या हर्ज है। क्या पता, कब मुख्यमंत्री या राज्यमंत्री का दर्जा मिल जाए। हम सबको वहीं तो पहुंचना है। जब तक तुम्हारी बात करेंगे लात खाएंगे। कुर्सी मिलने के बाद कहां तुम-कहां हम।

वायरल होना है तो रोना छोड़ो। कुछ नया करो। बिना वायरल हुए कौन पूछेगा तुम्हें? वैसे भी वायरल के नाम पर तुम्हारे हिस्से सिर्फ वायरल वाला बुखार ही आता है। ये दूध फेंकने, सब्जियां फेंकने से काम नहीं बनेगा। लोग इतनी बार ये 'नाटक' देख चुके हैं कि अब भावुक होने भर की भावुकता उनके जेहन में बची ही नहीं है। लोगों का दिल भी तो अब सरकार-सरकार हो गया है, कुछ भी करो वह क्या ही पिघलेगा!

(5 जून 2018 को जनसत्ता वेब में प्रकाशित)

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...