Sunday 10 February 2019

चिट्ठियां मौन का अनुवाद होती हैं


मेल पर दोस्त की चिट्ठी आई है। यह कतई आश्चर्य की बात हो सकती है कि फोन, वाट्सऐप, मैसेंजर के दौर में चिट्ठी की क्या जरूरत थी? चिट्ठी में ऐसी कौन सी बात हो सकती है जो आप फोन पर नहीं कह सकते? आप चैट पर नहीं लिख सकते। मुझे नहीं पता। ऐसा इसलिए भी कि जिंदगी में न तो कभी किसी को चिट्ठी लिखने की जरूरत लगी और न ही चिट्ठियों को लेकर कोई आकर्षण रहा। हम सेलफोन्स के दौर में पैदा हुए हैं लेकिन चिट्ठियों के सौंदर्य से, उनके वैभव से अपने आपको अलग रख पाना भी ऐसे वक्त में संभव नहीं है जब चिट्ठियों के युग की सांझ हो रही हो। कि सांझ में भी तो दिन का कुछ अंश शेष होता है।

जीवन में मैंने दो बार चिट्ठी लिखी है। यह दोनों बार की चिट्ठी बहुत अनिवार्य कारणों से लिखी गई हो ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि चिट्ठी न लिखते तो इससे इतर कोई संसाधन ही नहीं था कि अपनी बात चिट्ठी के प्रापक तक पहुंचाई जा सके लेकिन चिट्ठी लिखी गई। एक नहीं दो बार लिखी गई। शायद 21वीं सदी के दो-चार साल के भीतर ही मां के पास फोन मौजूद था लेकिन फिर भी इन चिट्ठियों के लिखे जाने की अहमियत अपनी जगह है।

पहली बार चिट्ठी लिखी गई पिता को। कक्षा 6 में रहे होंगे शायद। पापा बनारस में थे और हम रुद्रपुर में। हिंदी की पाठ्यपुस्तक में पत्र लिखने के तरीके के बारे में बताया गया था। पापा से अक्सर शाम को फोन पर बात हो जाती लेकिन शायद ही कभी हिम्मत हो पाई हो कि उनसे यह पूछ पाएं कि वह कैसे हैं? उनकी तबीयत कैसी है? पापा बोलते और हम जवाब देते। यही हमारी बातचीत थी और आज भी हमारा संवाद ऐसे ही होता है। चिट्ठी लिखे जाने जैसी कोई बात नहीं थी। मां को परीक्षा देने बनारस जाना था। पापा के पास ऐसी क्या चीज भेजी जा सकती है? बहुत सोचने के बाद चिट्ठी का आईडिया आया था।

कॉपी के बीच से दो पन्ने फाड़े गए और कुछ ही देर में हिंदी की किताब की उंगली थामकर कागज की सड़क पर शब्दों के पांव टहलने लगे। कि धीरे-धीरे चलते-चलते पापा के पास पहुंच जाना है। क्या सवाल करेंगे उनसे?

प्रिय पिताजी,
सादर प्रणाम
मैं यहां सकुशल हूं। आशा है कि आप भी सकुशल होंगे..

जो बात कभी सामने नहीं कह पाए वह चिट्ठी में भी तो नहीं कह पा रहे थे। वहां भी आशा कर ली थी कि वह सकुशल होंगे। ऐसा इसलिए भी कि पापाओं को अकुशल होने का कोई अधिकार नहीं होता। 23 साल के जीवनकाल में पापा को कुछ गिने-चुने बार अकुशल देखा-सुना है। खैर, जो भी मंतव्य रहा हो लेकिन किताब ने पत्र लिखने का यही ढांचा दिया था। पिता के नाम पत्र अगर मांगपत्र न हो तो आपके पुत्र होने में संदेह होने लगे। सो किताब मांगी गई थी पिता से पत्र में। पत्र का लिफाफा नहीं था। उसे चार बार मोड़ा और मां के पर्स में डाल दिया। अगले दिन फोन से सूचना मिली जो पापा ने खुद दी कि उन्हें मेरी चिट्ठी मिल गई है। मुझे आज भी वह वाक्य और वह लहजा तक याद है और मुझे आज भी लगता है कि 'तुहार चिट्ठी मिलल' बोलते हुए तब पापा मुश्किल से अपनी हंसी दबा पाए होंगे।



दूसरी चिट्ठी हिंदी में नहीं लिखी गई थी। यह संस्कृत में थी। सभी विषयों में संस्कृत और हिंदी से विशेष प्रेम था। यह चिट्ठी भी प्रशिक्षणजन्य चिट्ठी थी। संस्कृत की चिट्ठी लिखने के अभ्यास में लिखी गई। पत्र छोटे भाई शशांक के नाम लिखा गया था। वह गांव में रहता था। उससे मिलने के लिए हम छुट्टियों का इंतजार करते कि घर जाएंगे और उससे मुलाकात होगी। यह मुलाकात इसलिए भी बहुत रोमांचक और खुशनुमा होती थी क्योंकि हमारी मनमर्जियां, हमारा सारा बचपना या क्रिएटिविटी कह लें या खुराफात,शरारत चंचलता, मनबढ़ई या जो कुछ भी। उन सबमें वह हमारा एक मजबूत साझीदार था।

संस्कृत में लिखी चिट्ठी या ऐसे कह लें कि किताब से नकल कर लिखी गई चिट्ठी में घर और गांव का हालचाल पूछा गया था। किताब में लिखी चिट्ठी में किसी बड़े भाई ने अपने छोटे भाई के लिए चिट्ठी लिखी थी। शायद बड़ा भाई घर से किसी वजह से बाहर रहता था। नकल कर लिखी गई चिट्ठी में मैंने संस्कृत में लिखा, जिसका अनुवाद होता है, 'जब मैं घर से आया था तब मां कुछ बीमार थीं। अब उनकी तबीयत कैसी है?' यह तो नकल के साइड इफेक्ट का जीता-जागता उदाहरण बन गया था क्योंकि मां तो मेरे पास ही थीं रुद्रपुर में। नकल कर मैंने लिख दिया कि मां बीमार थीं कैसी हैं? हालांकि, पत्र प्रेषण से पहले प्रूफरीडिंग के लिए मां के पास ले जाई गई। तब मां की नजर इस लाइन पर गई। उन्होंने होशियारी दिखाई और केवल 'मां' की जगह 'तुम्हारी मां' (संस्कृत में) लिखकर पत्र में सुधार कर दिया।

वाक्य सही और सार्थक हो गया। पत्र में ज्यादा काट-पीट नहीं करनी पड़ी। घर से आते वक्त चाची सचमुच बीमार थीं। उनका हाल-चाल लेना तो बनता ही था। तो इस तरह से दूसरी चिट्ठी लिखी गई। इसका जवाब भी आया था। जवाबी चिट्ठी भोजपुरी में लिखी गई थी। इसे पढ़कर भाई-बहनों को बहुत हंसी आई लेकिन हमारे लिए तो उस वक्त यह अमोल थी। क्योंकि गांव से आई थी और इसमें उस मक्के की फसल की खबर थी जो हमने घर के सामने दुआर पर सरकारी नल के ठीक बगल में थोड़ी सी खाली जमीन पर बो दी थी और जिसके लिए मास्टर पापा से डांट भी सुनी थी।

इन दो पत्रों के बाद कोई पत्र नहीं लिखा गया। हां, तीसरे पत्र की भूमिका जरूर बनी। आईआईएमसी छोड़ने के बाद एक बेहद करीबी मित्र हैदराबाद चले गए। एक दिन फोन पर बातचीत के दौरान उन्होंने प्रस्ताव रखा कि हम एक दूसरे को चिट्ठी लिखेंगे। हमारा पता भी लिया। हमने यह भी सुनिश्चित किया कि हम इस पत्र के पहुंचने या इसमें लिखी बातों के बारे में चैट पर या फोन पर चर्चा नहीं करेंगे। उसका जवाब पत्र से ही दिया जाएगा लेकिन यह योजना पूरी नहीं हो पाई। न तो हमारी चिट्ठी हैदराबाद गई और न तो हैदराबाद से ही कोई चिट्ठी आई। लेकिन, आज दिल्ली से एक डिजिटल चिट्ठी आई है।

इस चिट्ठी को देखकर पहली बार लगा कि चिट्ठी में क्या चीजें होनी चाहिए? और यह भी कि चिट्ठी क्यों जरूर लिखनी चाहिए। अब एक चीज तो तय है कि चिट्ठी लिखने के लिए किताब की जरूरत नहीं पड़ेगी इसलिए इस चिट्ठी के जवाब में जो चिट्ठी लिखी जाएगी वही मेरे लिए सही मायने में पहली चिट्ठी होगी। चिट्ठी में पल्लवी ने एक ही बार में सारी बातें कह दी हैं जो अक्सर आमने-सामने की बातचीत में न कही जा सकें। यह चिट्ठी सुंदर है। इसने जरूर आंखे भिगो दी हैं जो आमतौर पर चिट्ठियां अक्सर करती रही हैं।

मेरे पत्र व्यवहार में हर जगह डाकिया अनुपस्थित है। जिन्होंने डाकिए का कर्तव्य पूरा किया वह पेशे से डाकिया नहीं थे। इस बार भी जो चिट्ठी आई है वह ईमेल पर आई है। उसका भी कोई डाकिया नहीं है लेकिन पत्र व्यवहार के इस तरीके ने एक तरह से चिट्ठी लेखन को परंपरा, पर्व या फिर रीति-रिवाज की कतार में खड़ा कर दिया है। हम एक ऐसी दुनिया में अब भी हैं, जहां भाषा के शरीर से आप भले हर किसी से 1-2 सेकंड दूर हों लेकिन मन के शरीर से आज भी उतनी ही दूरी है जितनी एक कबूतर के कहीं चिट्ठी पहुंचाने या फिर किसी साइकिल वाले बूढ़े डाकिया चाचा के पत्र लेकर घर पहुंचने वाले जमाने में लोगों के बीच होती थी। चिट्ठियों की जरूरत इसीलिए आज भी खत्म नहीं होती बल्कि बढ़ जाती है। चिट्ठियां मौन का अनुवाद भी हो सकती हैं।

चिट्ठी के लिए शुक्रिया, पल्लवी! वह चिट्ठी पढ़कर यह सारी ही स्मृतियां एक झटके से चलचित्र की तरह दिमाग में चलने लगी थीं। तुम्हारे पत्र में कुछ शिकायतें हैं, कुछ स्मृतियां हैं और कुछ सवाल भी। उम्मीद है कि जल्दी ही तुम्हें जवाबी चिट्ठी लिखें।

बनारसः वहीं और उसी तरह

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