Tuesday 31 December 2019

कविताः नया साल

नया साल है तो नए हाल के स्वप्न-
के पास स्तुति की भाषाएँ तो हैं।
मुझे है पता तुम नए तो नहीं हो
मगर जो भी हो तुमसे आशाएँ तो हैं।

वही सूर्य जो आज डूबा, उगेगा,
वही वायु चलती रहेगी निशा भर,
वही एक मेरा उदासी भरा गीत
कल भी विकल ही रहेगा तृषा भर।

वही चीख़ होगी, वही शोर होगा
वही रात ओढ़े हुए भोर होगा
सवालात होंगे, हवालात होंगे
बिना बात के फिर वबालात होंगे।

ज़रा और गर्मी बढ़ेगी धरा की
ज़रा और कॉलर चढ़ेगा गुमाँ का।
ज़रा और धरती धँसेगी नए साल
ज़रा शीश तन जाएगा आसमाँ का।

वही प्रार्थनाएँ भटकतीं गगन में
वही बहरे ईश्वर की सत्ताएँ होंगी।
वही सब पुकारों की प्रतिध्वनि मिलेगी
वही काम भर की महत्ताएँ होंगी।

वही दौर बदले हुए पैरहन फिर
उसी रास्ते से चला जाएगा ही,
नियति की उदासी का दीया नया फिर
निकलते-निकलते जला जाएगा ही।

तो क्या है नया कि नया साल आए?
तुम आओ, कि आना तो यूँ भी है तुमको,
लिखे हैं गए पृष्ठ पर जो तुम्हारे
वो सब कुछ सुनाना तो यूँ भी है तुमको।

भला हाथ में है क्या मेरे कि रोकूँ!
अगर रोक सकता तो स्वागत भी करता।
पुराना सभी ध्वस्त हो लेता पहले
नया फिर जो आता तो यूँ न अखरता।

विवश है बनाता तेरा आगमन कि
मैं द्वार खोलूँ ही, स्वागत करूँ ही।
अभी क्या नए की ज़रूरत, बताओ?
पुराने को कैसे मैं निर्गत करूँ ही।

तुम आओ कि सब (शेष मैं) हैं ख़ुशी में
सराबोर, तुमको नया जान कर ही।
तुम आओ कि अब तो निकल ही चुके हो
पुनः आगमन की पुनः ठान कर ही।

तुम आओ चलो, मान्यता है मेरी भी
नया ही कहूँगा तुम्हारा ये आना।
नए साल हो तुम तो कुछ तो है तुममें
तुम्हारी नवलता को भी मैंने माना।

तुम आओ कि तुम आ भी सकते हो, जा भी
ठहर तो नहीं जाओगे आह बनकर,
तुम आओ कि हम भी चलें साथ, साथी!
कहीं तो दबे पाँव हमराह बनकर।

Thursday 26 December 2019

पहले तुम बताओ

साभार इंटरनेट
कौन हो तुम!
रहनुमाई के मेरे उम्मीदवारों?
कौन हो तुम
देश का अपने
मुझे कह, मुझपे कृत्रिम भावनाएं लादने वालों?
तुम बताओ
कौन हो तुम?
'मेरे तुम!'
'हमारे तुम!'
मुझसे कब पूछा कि
हो सकता तुम्हारा हूँ?

तुमने मुझको कब कराया
है कोई अनुभव
कि तुम हो मानते अस्तित्व मेरा है जरा भी?
मौन मेरा, विश्व!
तुमने वाक्य माना ही नहीं,
यह तुम्हारी राज्यवादी लालसा है
या मेरी स्वच्छन्दता का अपहरण!
तुम बताओ
मैं तुम्हारे देश के भूगोल में
उग गया तो क्या मेरा यह था चयन?

तुम बताओ
क्या तुम्हारी मांग का उत्पाद हूँ मैं?
तुम बताओ
ये जो सीमाएं बनाई हैं सभी ने घेरकर
धरती के काग़ज़ पर
तो इसकी अनुमति ली थी
कि मेरे भाग की धरती को भी
अपने में शामिल कर लिया तुमने?
मेरे हिस्से के पानी-फूल-सूरज-वायु-नदियां-पेड़-पौधे
कब बताओ मैंने तुमको
राज्य में अपने मिलाने को कहा था?

मेरी रातें-दिन-दोपहरी-शाम की चर्या
तुम्हारी नीतियों से तय न होगी,
यह भी तुमने था सुना क्या?
तुमने क्यों बांधा मेरी आँखों को
कुछ रंगों के परचम से?

तुम बताओ
तुम जिसे अपनी जमीं-अपना वतन कह
गर्व से फूले नहीं समाते
उसमें कितनों के निजी राष्ट्रीय
स्वाभिमान के धड़ से अलग हैं शीश?
तुम बताओ विश्व में,
यह जो तुम्हारा विश्व है, उसमें
मेरे देश का अस्तित्व क्या है?
इसमें मेरे देश का भूगोल क्या है?
तुम बताओ
इसमें मेरा देश
मेरा 'मैं' कहाँ है?

तुम बताओ
मैंने तुम्हारे 'देश' को अपना बनाने के लिए
कब कहा था?
या कहा भी था तो वह काग़ज़ कहाँ है?
पहले
तुम
यह
बताओ?

Tuesday 10 December 2019

सिर्फ वही जीता

"सिर्फ वही जीता जो हारा"

एक स्पीड ब्रेकर जैसी यह पंक्ति कुछ देर रोक तो देती ही है कि एक बार और पढ़ो। सिर्फ वही जीता। जो हारा। कवि के कहन के मूल में शायद प्रेम की महत्ता पर ज्यादा जोर है। जीत मतलब विराम। विराम मतलब पूर्णता। पूर्णता मतलब संतुष्टि। संतुष्टि मतलब मोक्ष। मोक्ष मतलब मुक्ति। इस तरह जीत का अर्थ मुक्ति तक पहुंच रहा है। प्रेम तक नहीं। कवि का जोर प्रेम पर है। लक्ष्य से प्रेम। जो जीता वह तो पूर्णकाम हो गया। संतुष्ट हो गया और संतुष्टि में प्रेम का जीवन नहीं है। जैसे, विकास के शिखर पर फूल के मुरझाने की शुरुआत हो जाती है। वैसे ही, प्रेम की पूर्णता में उसके पतन की आधारशिला हो सकती है।

जो हारा, वह इस पूर्णता से वंचित रह गया। वह अपने अभाव के साथ अभी जीवित है। वह अभी सरस प्रेम की संभावनाशीलता में जीवित है। वह प्रेमोन्मुख है। अपने लक्ष्य के प्रेम में। शायद इसलिए वही जीत गया है। क्योंकि, उसकी हार में एक अभाव की जीत है। यह अभाव भावना की सबसे सुंदर मूर्ति प्रेम में प्राण भरता है। वह हारकर भी इसीलिए जीत गया।

थोड़ा दूसरी दृष्टि से भी देखते हैं। आप प्रेमियों का इतिहास उठाकर देखिए। विजेताओं का इतिहास नहीं, इतिहास के विजेताओं को देखिए। आप देखेंगे तो पाएंगे कि सभी विजेता दरअसल जीते हुए लोग नहीं हैं। वे सब हारे हुए हैं। अशोक की जीत-हार के अर्थ पर आज भी विवाद है। यह विवाद न हो अगर मान लिया जाए कि प्रेम की आधारभूमि पर उसकी समस्त जीत दुनिया की सबसे बड़ी हार है।

बड़े विजेता हुए कृष्ण। विजेताओं के इतिहास में भी वह दर्ज हैं लेकिन उल्लेखनीय वह इसलिए भी हैं क्योंकि वह इतिहास के विजेताओं में भी शामिल हैं। उनके जीवन की अपूर्णता और उनकी हार युगों बाद भी भावना की पराकाष्ठा के दृष्टान्त के रूप में याद की जाती है। क्या वह हारे? यीशु संसार के सबसे बड़े पराजितों में गिने जाते हैं। उन्हें उनके दौर के कथित विजेताओं ने सूली पर चढ़ा दिया। सुकरात को उनके दौर के शाहों ने ज़हर पिला दिया। मीरा को भी लोगों ने ज़हर दे दिया। इन लोगों ने अपने जीवन के लक्ष्यों से मुलाकात नहीं की थी। वह अपूर्ण मरे थे। हारे हुए-से लेकिन क्या वह हारे?

हम सोचें कि क्या इनकी असफलताओं को हार कहेंगे? क्या एक फूल के पौधे को उखाड़कर दावा किया जा सकता है कि उस पुष्प की नस्ल ख़त्म कर दी गई? नहीं। थोड़ी देर के लिए लोगों को अंदेशा हो सकता है कि ऐसा हुआ लेकिन उखड़े हुए पौधों के फूल सूखते हैं, झरते हैं और बीज बनकर फिर उग जाते हैं। उनमें सृजनशीलता होती है। भगत सिंह को कौन विजेता कहेगा? सांसारिक हार-जीत के मानकों पर तो वह पराजित योद्धा ही हैं लेकिन क्या ऐसा है? भगत सिंह से बड़ा विजेता क्या स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कोई है? गांधी भी नहीं हैं। इतिहास कहेगा कि गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन जीत लिया। वह विजेता हैं लेकिन यह बात केवल गांधी ही जानते थे कि वह कितने बड़े पराजेता थे।

इस तरह सभी हारे हुए लोग मूलतः प्रेमी रहे और प्रेम में हारे हुए लोगों की हार बंजर नहीं रही। वह उपजाऊ रही। सृजनशील रही। उसने विजय की कोई ज़मीन नहीं जीती, उसने अपनी जमीन पर जीत को उगाया। दुनिया ने समझा कि वे हारे लेकिन असल में सिर्फ वही जीते। यही इस दुनिया का मर्म है। यही शायद इस पंक्ति का मर्म है।
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(सन्दर्भ) कविता

बटोही, तेरी प्यास अमोल,
तेरी प्यास अमोल !
नदियों के तट पर तू अपने
प्यासे अधर न खोल,
बटोही, तेरी प्यास अमोल !

जो कुछ तुझे मिला वह सारा
नाखूनों पर ठहरा पारा,
मर्म समझ ले इस दुनिया का
सिर्फ़ वही जीता जो हारा ।

सागर के घर से दो आँसू-
का मिलना क्या मोल ।

जल की गोद रहा जीवन भर
जैसे पात हरे पुरइन के
प्यास निगोड़ी जादूगरनी
जल से बुझे न जाए अगिन से ।

जल में आग आग में पानी
और न ज़्यादा घोल !
बटोही, तेरी प्यास अमोल,
तेरी प्यास अमोल!

(शतदल)

Sunday 8 December 2019

भागिए क्योंकि आप 'भाग प्रधान' देश में रहते हैं


भागना सीखो। भागना नहीं जानते तो कुछ नहीं जानते। यह देश बनाया है हमने कि यहाँ भागना नहीं आया तो भोगते फिरोगे। चाहे जो करो। अच्छा-बुरा, ग़लत-सलत लेकिन मुद्रा ऐसी रहे कि भागने को तैयार हो। जैसे ही कोई असंगत संकेत हो भाग निकलो। यह ध्यान रखते हुए कि समय रहते भाग नहीं लिए तो भोगना पड़ेगा। भागने और भोगने का यह अंतर बस इतना ही है। सैकंड-दो सैकंड भर में लिए गए फैसले भर का।

भागने के लिए ज़रूरी नहीं है कि पैर हो या पैर गतिमान हो। एक जगह बैठे-बैठे भी भागा जा सकता है। एक झटके में अपने सहनागरिक, सहग्रामीण, सहपाठी और सहकर्मी के पाले से। एक फैसले भर में झट से काफी दूर भाग सकते हैं। नहीं भागोगे तो भोगोगे। वह सब कुछ जो तुम्हे अभी नहीं भोगना है। दो-चार दिन की तो राहत मिलेगी भाग लेने में तो क्यों न भाग लो।

भागने में दिव्यांगता की भी अपनी भूमिका है। पैरों में हो तो नहीं भाग सकते। ज़ेहन में हो तो उसेन बोल्ट से भी तेज भाग सकते हैं। ऐसे लोग भागते भी वैसे ही हैं। उन्हें बस एक कदम बढ़ाना होता है। फिर तो उन्हें लहर भगा ले जाती है। बिना शक्ति खर्च किये वह ऐसे लोगों से दूर भाग लेते हैं जो भोगने के विकल्प पर सर फोड़ रहे होते हैं। फिर वह उनकी खोपड़ी पर नाच रहे होते हैं। ऐसे भागे हुए लोग एक वक्त के बाद भूल जाते हैं कि भागना कैसे है? या ऐसा हो जाता है कि इनके पांव खींच लिए जाते हैं या फिर इनके नीचे की ज़मीन तोड़ दी जाती है। फिर उन्हें भागने का स्वप्न आता है। हर रोज एक स्वप्न। ऐसे लोग जब खुद भाग नहीं पाते तब भगाने वाले गिरोह में शामिल हो जाते हैं।

भागना कई प्रकार का होता है। छप्पन इंच का सीना लेकर भागने का अपना गौरव होता है। यह राष्ट्रहित में होता है और इसे राष्ट्रीय भाग भी कहा जा सकता है। यह बारम्बार भाग क्रिया होती है। इसमें भागने वाला मधुमक्खी के छत्ते पर बाण मारता है। फिर कुछ देर देखता है। जैसे ही मधुमक्खियों का दल परेड शुरू करता है, धनुर्धर भाग लेता है। फिर वह सीधे जापान या अमेरिका जाकर ही रुकता है। इधर सबके गाल तब तक फूल जाते हैं और जब वह लौटता है तब कोई कुछ बोलने की स्थिति में नहीं रहता।

परिस्थिति चाहे जो कुछ भी हो, मजे राजकुमारों के ही होते हैं। उन्हें क्या पड़ी है कि राजा कौन बने। थोड़ा-बहुत शस्त्र हिलाते-डुलाते हैं फिर थाईलैंड भाग जाते हैं। यह भागने की एकदम नई और अलग विधा है। इसमें आपके पांवों को भी पता नहीं चलता कि आप भागकर कहाँ गए हैं। फिर आप लौटते हैं और भागने की अगली तारीख तक किसी न किसी अभिनय में लग जाते हैं। इससे भी अद्भुत भाग तो स्टूडियो में होती है। वहां एक ही मालिक के बिस्कुट के लिए कई लोग भागते हैं। हड्डी नहीं कहूंगा क्योंकि शाकाहारी हूँ।

एक भाग तो वह भी भागा था। हालांकि, उसे भागना आता नहीं था। वह अपने जीवन की तरह, गेहूं के बीज की तरह धीरे-धीरे का अभ्यासी था। चलता-चलता कहीं न कहीं पहुँच जाने वाले पथिक की तरह। फिर एक दिन भाग गया। जीवन से ही भाग गया। भागना नहीं आता था लेकिन जब पीछे हंटर लगा हो तो बैल हो कि घोड़ा हो कि आदमी। अपने आप भागने लगता है। उसे तो भागने के लिए 32 हज़ार वर्गकिमी क्षेत्रफल की जमीन भी कम पड़ी। सो आकाश की ओर भाग गया। बोला, भय की सीमा से बाहर आने के बाद आकाश ही बचता है। सो उधर ही भागा।

फिर एक राष्ट्रीय स्तर का अंतरष्ट्रीय भाग भी होता है। यह पहली बार तब देखा गया था जब वह शाही मछुआरा कई लोगों का भाग लेकर भागा था। उसे भी तो लगा कि अब भाग जाना उचित है। उसे पूर्वाभास हो गया था कि लोग उसकी भागशक्ति छीन लेंगे। वह भी इसी देश का नागरिक था। भागना ही उसने भी सीखा था। बोला, इस देश की शिक्षा का इस्तेमाल करो। भाग लिया। उसके लिए धरती ने जगह दी। यहां धरतियों के पास झंडे होते हैं। ये झंडे बहुत से भगोड़ों को बचा लेते हैं। छिपा लेते हैं। उसने भी भागकर झंडा बदल लिया। हालांकि, उसे आकाश में नहीं भागना पड़ा। यह भी विचित्र रहा कि वह ज़मीन पर ही भागा और आकाश ने रास्ता दिया। पहले वाला जो आकाश में भागा उसे ज़मीन ने रास्ता दिखाया। यह भागने का अभियान था। सब अपनी-अपनी क्षमता, देशकाल के हिसाब से भागे।

वह पहली बार किसी राजनितिक विरोध प्रदर्शन के रिपोर्टिंग के लिए गई थी। वह धरना स्थल पर पहुंची। नेता से कहानी वाले प्रोफ़ेसर के लहजे में पूछा- नेताजी, आपको भाषण देना आता है। नेताजी बोले, ठीक-ठीक तो नहीं। वह बोली, अच्छा, आपको इस मुद्दे पर संविधान के प्रावधान के बारे में पता है? नेताजी बोले, बयान से खूब पलटे लेकिन कभी संविधान का पन्ना नहीं पलटा। वह बोली, अच्छा, यह जुटान किसलिए है, यह तो पता ही होगा! नेताजी लज्जित होने की मुद्रा में आते कि खाकी वाले आते दिखे। नेताजी झट्ट से उठे और रिपोर्टर से इतना ही पूछा, भागना आता है? इसके बाद जब उसने पलक उठाई तो किसी सरकारी अस्पताल में थी। बगल वाले मरीज ने कहा, आपको भागना आता तो यहाँ नहीं होतीं और हम भाग सकते तो यहां नहीं रहते।

यह भागने की महिमा है। भागने की यही महत्ता है इसलिए भागना सीखो। अपनी जिम्मेदारियों से भागो। कर्तव्यों से भागो। अपनी सच्चाई से भागो। अपने ईमानदारी से तीव्र प्रस्थान करो। भागने का युग भी तो है। दुनिया की दौड़ है। भागोगे नहीं तो रौंद दिए जाओगे। पहले भारत कृषि प्रधान देश था। अब भारत भाग प्रधान देश है। आने वाले दिनों में यह भाग्य प्रधान देश हो जाएगा। इसलिए जूते कस लीजिए। दिशा देख लीजिए। अब तय कर ही लीजिए। नहीं भागना चाहने का कोई विकल्प नहीं है। आप चाहें तो सवाल न कीजिए। विरोध न कीजिए। उंगली न उठाइये। चुप मारकर बैठ जाइए। लेकिन भाग आप तब भी रहे होंगे। कहीं न कहीं से। किसी न किसी से। भागिए और सम्पूर्ण भागिए क्योंकि आपका देश अब भाग प्रधान देश बन चुका है। भागेंगे नहीं तो भकोस लिए जाएंगे और भागते हुए रुकेंगे तो रौंद दिए जाएंगे।

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बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...