Friday 23 March 2018

दलीय राजनीति: सब हवा-हवाई है

रसूख, बाहुबल, धनबल और कपट के खेल की लगातार कमेंट्री सुन-सुनकर हम फूले नहीं समा रहे हैं। दलीय राजनीति किसी मैच की तरह नहीं लगती! जहां हर पार्टी का अपना दर्शक-वर्ग है। हर कोई मुखपत्र बन गया है, प्रवक्ता बन गया है, विश्लेषक बन गया है, उद्घोषक बन गया है। क्या राजनीति के विमर्श विधानसभाओं-राज्यसभाओं-लोकसभाओं की सीटों के सांख्यिकीय विश्लेषण के अलावा कुछ भी नहीं है? दलीय राजनीति से लोकतंत्र बहुत उम्मीद करता था। सब अब हवा-हवाई है।

किसानों की, जवानों की, छात्रों की, सामान्य नागरिकों की व्यथा कथाओं से उनके माथे पर आर्टिफिशल शिकन पड़ती है। कुछ ही दिनों में वह देश को बहा ले जाते हैं हंसी-ख़ुशी-रोमांच की नयी दुनिया में। हम भी तो अभी बच्चे हैं। कुछ दिन पहले के आंसू थम गए हैं। नया खेल जैसे ही मिला। हम छाले भूल गए। हम छल भूल गए। हम इस क़दर बच्चे हैं कि हमें हर दिन आंसू भी नए-नए चाहिए। पता नहीं, कैसे क्या किया जाए। मैं राजनीतिक विश्लेषक नहीं हूँ। टीवी पर केवल राजनीति दिखती है। शाही महल में लगे किसी सीसीटीवी कैमरे सा लगता है भारतीय मीडिया और तमाशबीन लगती है भारतीय जनता। इस जनता में बेशक उन लोगों का गिना जाना केवल भ्रम है जिनसे यह देश अथाह उम्मीद करता है।

राजनीति के नाम पर हम इतिहास-भूगोल-गणित-संस्कृत-विज्ञान एटसेट्रा एटसेट्रा सब पर बात कर लेते हैं। अगोड़ो-भगोड़ों, दल-बदलू, धोखेबाजों, बेईमानों, भ्रष्टों सब पर बात कर लेते हैं। पड़ोसी जिला, पड़ोसी राज्य, पड़ोसी देश तक पर चिल्ल पों मचा लेते हैं। हम सब करते हैं ऐसा। सीमित विकल्पों की विवशता पर हारकर बैठ जाते हैं। कि हम तो विकल्प नहीं बन सकते। क्यों! क्योंकि विकल्प बनने की हैसियत सबकी नहीं है। क्यों नहीं है! क्योंकि राजनीतिक प्रतिष्ठानों ने अपने रहनुमाओं की योग्यता की कसौटी का आधार ही बदल दिया है। तो! तो उस आधार पर हर कोई फिट नहीं बैठता। क्यों! क्योंकि हर कोई पहुंचा हुआ नहीं है। कहाँ पहुंचा हुआ नहीं है! राजनीती तक। तो राजनीति को हम तक आना चाहिए! नहीं। क्यों! वह बंधक है और लोग भ्रम में हैं कि वह उनसे दूर चली गयी है। तो!

तो, दो ही काम हो सकते हैं। व्यवस्था को चुनाव सुधार, राजनीति के चरित्र सुधार के लिए विवश करें या फिर राज्यसभा के मतों की गिनती करें और विजयी-पराजयी प्रत्याशियों के लिए हर्ष-संवेदना व्यक्त करें, विश्लेषण करें, ज्ञान बघारें, जोक टीपकर जोकर बन जाएं। चोट्टों की चोट्टई पकड़ लेना बहुत कठिन नहीं है। परीक्षा यहां से है कि चोट्टई पकड़ने के बाद का हमारा अगला कदम क्या है! पता नहीं क्या होना चाहिए! मुझे नहीं समझ इतनी। मुझे फिलहाल ऐसा लगता है कि चुनाव-उनाव मौजूदा स्वरुप में पूरी तरह से बकवास हैं। नौटंकी हैं। नौटंकी यूं कि इर्रिटेट करने लगी है। आज दिन भर राज्यसभा की सीट गिनते तमाशबीन जैसा महसूस कर रहे थे। कि परत दर परत तमाशा जारी है, खुलेआम। हम दावों पर खुश हैं और वो अपने दावों पर और पॉलिश पोत रहे हैं।

सोचिए, मेरा तो सर दर्द हो रहा। हाँ, सोचते-सोचते ही। नहीं सोच पा रहे, क्या किया जाए। मदद करेंगे क्या!

(आलेख ज्यादा लम्बा हो गया हो और आपका भी सर दर्द हो गया हो और समझ नहीं आया हो कि कहना क्या चाहते हैं तो हृदय की गहराइयों से माफ़ी मांगते हैं।)

~फेसबुक वाल से

2जी स्पेक्ट्रम और आरूषि हत्याकांड जैसे मामलों के परिणाम देखकर सीबीआई पर कैसे भरोसा हो ?

उनमें से हर किसी ने काग़ज़ पर एक-दो शेर लिख रखा था जिसे वो तब सुनाते थे जब उन्हें अपनी बात रखने के लिए माइक थमाया जाता था। राहत इन्दौरी से लेकर रामप्रसाद बिस्मिल तक के इंक़लाबी शेरों से वो अपने पीछे की बिल्डिंग में बैठने वाले 'स्वप्न-चोरों' को सख़्त चेतावनी देते कि उनके सपनों पर डाका पड़ेगा तो कुछ नहीं बचेगा। इंक़लाब का सैलाब सब कुछ बहा ले जाएगा। ये व्यवस्था, व्यवस्था के साजो सामान और व्यवस्था के तथाकथित रहनुमा सब। लेकिन इस अदम्य जोशो-जुनूँ और साहस के दूसरे पृष्ठ पर एक डर भी है। एक चिंता, एक आशंका, कि आवाज की बुलन्दी कहीं उनके स्वप्नों के महीन धागों को तोड़कर न रख दे जिससे उनके भविष्य के सुखद वक़्त की उम्मीदें जुड़ी हैं। एक आशंका है कि आवाज की बुलन्दी कहीं उनकी कोई गलती तो नहीं जिसके लिए उन्हें बाद में पछताना पड़े। यह जायज भी है और इसीलिए तमाम छात्रों से जब बातचीत की कोशिश की गयी तब अपनी बात रिकॉर्ड करवाने को लेकर वो तैयार न हुए। साथ ही अपनी लड़ाई में केंद्र सरकार को ख़िलाफ़ रखने से भी बचते रहे।

उनके शेरों के दावे थोडे़ हास्यास्पद जरूर लग रहे होंगे लेकिन उनकी हिम्मत को जीवन देने के लिए ये बहुत जरूरी हैं। देश के युवापन पर गर्व करने के लिए प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक हमेशा तैयार रहते हैं। युवाओं, किशोरों और बच्चों के हितों पर मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री उम्मीदें बहुत जगाते हैं। उनके मन में छात्रों के भविष्य को लेकर चिंता है या इस बारे में वह सोचते हैं यह जानकर अच्छा लगता है। देश के तमाम छात्र भी इस वजह से उनसे अपनापन महसूस करते होंगे लेकिन उनके मन की चिंता की जब असली परीक्षा होती है तब वो मौन क्यों हो जाते हैं? युवाओं ने जब नौकरियां मांगी, युवाओं ने जब अपने अधिकार मांगे, युवाओं ने जब अपनी परीक्षाओं की सुरक्षा मांगी तब प्रधानमंत्री मौन क्यों हो जाते हैं? क्या यह उनके वश की बात नहीं है? क्या ऐसी कोई मजबूरी है जो उन्हें इन छात्रों की मदद करने से रोकती है? क्या वह इसे बेहद ही मामूली सा मुद्दा समझते हैं जिस पर प्रधानमंत्री का बोलना ठीक नहीं है? या फिर अभी देश के विकास के मार्ग में इतनी भारी मात्रा में युवाओं की निराशा कोई बड़ी बाधा नहीं? क्या कारण है आखिर?

एसएससी बिल्डिंग के सामने छात्रों का प्रदर्शन आज हो रहा है तो इसका मतलब यह नहीं कि परीक्षाओं में धांधली की यह पहली घटना है। मध्यमवर्गीय और गरीब परिवारों की मजबूरियों का सागर लांघकर अगर ये छात्र अपने अधिकारों के लिए इस स्तर पर लड़ने आए हैं तो जाहिर है कि सब्र का घड़ा भर चुका होगा। आंदोलनरत छात्रों में ऐसे भी कई छात्र दिखे जो मीडिया के कैमरे से इसलिए दूरी बनाए हुए थे कि अगर बाद में इसमें दिख रहे लोगों पर कार्रवाई होती है और उन पर मुकदमा हो जाता है तो जीवन भर उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी। इस आशंका या भय से पार पाकर आंदोलन के लिए आए छात्रों की मजबूरी कौन समझेगा और कौन इसका समाधान निकालेगा?

इलाहाबाद को सरकारी नौकरियां दिलाने के तमाम गढ़ों में से एक माना जाता है। तीन साल इलाहाबाद रहने के दौरान हमें नौकरियां मिलने की उतनी चर्चा सुनने को नहीं मिली जितनी परीक्षाओं में धांधली को लेकर प्रदर्शन करने वाले छात्रों की सुर्खियां कानों में पड़ीं। ग्रेजुएशन द्वितीय वर्ष के एक मेरे मित्र ने पीसीएस परीक्षाओं में धांधली को लेकर तकरीबन 8 दिन का अनशन किया था। सरकारी व्यवस्थाएं यह क्यों नहीं समझतीं कि जिन पेपर्स को वह 'सेटिंग्स' के जरिए प्रभावशाली लोगों के हाथों में बेच रहे हैं उनके एक-एक अक्षर में न जाने कितने छात्रों की जमीन, उनके घर बार तक की नीलामी के हर्फ होते हैं। प्रशासन और छात्रों का वर्ग जमीन-आसमान का अंतर रखता है। हर छात्र प्रशासनिक अधिकारी होना चाहता है। हर प्रशासनिक अधिकारी कभी न कभी छात्र रहा होता है। दुख की बात भी तो यही है। जो छात्र कल तक इन्ही परीक्षाओं से होकर अपनी दक्षता और अपनी प्रतिभा के बल पर आज अधिकारी के मुकाम तक पहुंचा वही आखिर क्यों अपनी परंपरा की नई नस्लों के अवसरों का व्यापार करने में लगा हुआ है?

बेरोजगारी के सुरसा-मुखी दौर में सरकारी नौकरियां ग्रामीण और शहरी निम्न और उच्च मध्यवर्गीय परिवारों के लिए बहुत मायने रखती हैं। यह उनके लिए आर्थिक सुरक्षा का सबसे विश्वसनीय विकल्प होते हैं। भारी संख्या में छात्र एसएससी, बैंक, रेलवे, सिविल सर्विस आदि की परीक्षाओं की तैयारियों के लिए अपना घर-बार छोड़ते हैं और इलाहाबाद, दिल्ली, पटना जैसी जगहों पर किराए पर कमरे लेकर तैयारी करते हैं। अधिकांश छात्र नारकीय हालात में रहते हुए परीक्षाओं की तैयारियां करते हैं। डब्बों की तरह बंद कमरों में रहकर पढ़ाई करते हुए उन्हें सिर्फ एक ही उम्मीद होती है कि ये संघर्षों का दौर है और सुकून और आराम इन संघर्षों के उस पार ही मिलता है। पता है, इन संघर्षों में उन्हें प्रेरित कौन करता है? यातनामय संघर्षों के बीच जीत के लिए उन्हें आश्वासन देती हैं असीम खुराना जैसे अधिकारियों की प्रेरक कहानियां। ये वो कहानियां होती हैं जिनमें आज बड़े से बड़े अधिकारी एक दिन उनके किरदारों में हुआ करते थे और ऐसे ही हालातों से होकर गुजरे होते थे जिनसे वो अभी गुजर रहे हैं। हैरत है कि उनके वही प्रेरक, उनके वही हीरो बाद में उनके इन संघर्षों के प्रतिफलों की खरीद-फरोख्त करते पाए जाते हैं।

सरकार ने परीक्षा में धांधली को लेकर सीबीआई जांच को मंजूरी दे दी है। हालांकि, यह कोई बहुत बड़ी फतह नहीं है। इसलिए भी कि 2जी स्पेक्ट्रम से लेकर आरूषि हत्याकांड मामले तक की जांच में सीबीआई ने ऐसा कोई झंडा नहीं गाड़ा है जिससे इस बात का आश्वासन मिले कि जांच में दोषी पकड़े ही जाएंगे और छात्रों को न्याय मिल ही जाएगा। दिल्ली की सड़कों पर विद्यार्थियों की इस आवाज को कुछ प्रभावी काम करके जाना चाहिए।  इस आंदोलन को एक निर्णायक मोड़ मिलना चाहिए। इस बात का एक मजबूत आश्वासन मिलना चाहिए जिसमें ऐसी धांधली की पुनरावृत्ति की संभावनाएं खत्म हों। छात्र, आमजन, शिक्षक अपने दैनिक जीवन की तमाम जिम्मेदरियों से बंधे होते हैं। बार-बार आंदोलन नहीं किया जा सकता। कानूनों के भरोसे देश चल रहा है। कानूनों की मजबूती जरूरी है और उनका क्रियान्वन भी। आपकी ये व्यवस्थाएं एक अंधेरे का सृजन कर रही हैं। जिसमें सपने भी दिखाई नहीं देते। आप इस देश की आंखों से सपने छीन रहे हैं। कानून और सजाओं से इतर आप अधिकारियों को अपनी अंतरआत्मा की आवाज सुनना चाहिए। निबलों की आह, उनकी विवशता की कराह और उनके आंसुओं की आंच बेहद धीमी होती है। शायद आप तक नहीं पहुंच पाए। लेकिन इसे अनसुना मत करिएगा। इसे नैतिक शिक्षा की तरह भी समझिए और एक चेतावनी की तरह भी। क्योंकि ये सपनों के मरने की परणति हैं और पाश कहते हैं कि सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना। यह खतरनाकत्व आपके लिए भी डरावना है और आपके देश के लिए भी बेहद भयावह है।

जनसत्ता वेब में प्रकाशित

Thursday 15 March 2018

राही मासूम रजाः 'मैं गंगा-पुत्र हूं, मैं लिखूंगा महाभारत'


ऐसे ही नहीं कलम ने लिखा होगा कि 'मेरा नाम मुसलमानों जैसा है, मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो',  कि 'मेरे लहू में गंगा का पानी दौड़ रहा है' या फिर कि 'मेरे लहू में से चुल्लू भरकर महादेव के मुंह पर फेंकों'। कलम ऐसा इसलिए लिख सकी क्योंकि राही साहब की नसों में लहू नहीं हिंदुस्तानियत बहती थी। हिंदुस्तानियत वह, जिसमें महादेव की जटाओं से निकलने वाली गंगा और उस गंगा से सरगोशी करके कालिदास के मेघदूत से संदेश भेजने की रवायत शामिल थी। इसीलिए तो राही साहब कहते हैं कि मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुंह पर फेंककर उनसे कहो कि अपनी गंगा को वापस ले लें। कि ये अब हम जलील, तुर्क, पाकिस्तानी आदि कहे जाने वाले लोगों के रगों में लहू की तरह दौड़ रही है। यह पीड़ा केवल राही साहब की नहीं थी। वह इस पीड़ा के पीड़ितों का विस्तार जानते थे। इसीलिए जीवनभर आधा गांव, नीम का पेड़ और टोपी शुक्ला जैसी अपनी रचनाओं से इस पीड़ा का मरहम तैयार करने की कोशिश करते रहे।

अगर राही साहब को ठीक से पढ़ें (केवल उनके उपन्यास नहीं उन्हें भी) तब समझ आए कि उनके लहू में मुसलमानत्व ज्यादा था या हिंदुस्तानियत। गंगा किनारे वाला गंगापुत्र लगातार कट्टरपंथियों के लांछनों से नवाजा जाता रहा। मुसलमान कहते कि कुरआन पर कुछ नहीं लिख सकते। महाभारत लिख रहे हो। हिंदू कहते कि सारे हिंदू मर गए हैं क्या जो यह मुसलमान हमारे धर्मग्रंथों के बारे में लिखेगा। राही डटे रहे कि इन्हें भाव नहीं देना है। इसीलिए तो जब बीआर चोपड़ा ने हिंदू कट्टरपंथियों के धमकी भरे खत राही साहब को दिखाए तब उन्होंने बड़े ही आत्मविश्वास और थोड़े क्रोध के साथ कहा - मैं लिखूंगा महाभारत। गंगा-पुत्र होने के नाते कोई मुझसे ज्यादा इस संस्कृति के बारे में नहीं जानता। चोपड़ा यह नहीं जानते थे कि उन्होंने महाभारत लिखने के लिए एक नए जमाने के वेदव्यास को नियुक्त कर दिया है।

'मैं समय हूं' वो खुशनुमा आवाज होती थी जिससे यह महाकाव्य परदे पर शुरू होता था। शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिंदी जो सामान्य से सामान्य दर्शकों को समझ आ जाए, साथ ही कथा के देशकाल के हिसाब से फिट हो, इस धारावाहिक के संवाद लेखन की मुख्य चुनौती थी। पिताश्री, भ्राताश्री, तातश्री, आदि संबोधन पुराने किंतु प्रयोग के नवीन संस्करणों जैसे हो गए थे। यह अचंभित करने वाला ही है कि महाभारतीय संस्कृति और संस्कारों में पला-बढ़ा व्यक्ति भी उसके बारीक मर्म को इतनी सहज और सच्ची भाषा नहीं दे सकता जितनी डॉ. साहब ने दी है। इसीलिए वह विलक्षण थे, अद्भुत थे। भारतीय संस्कृति के विभिन्न प्रतीकों के प्रति उनका सम्मान भाव अद्भुत था। उनका निर्मल मन इसीलिए आक्रामक हो गया था जब उन्हें पता चला था कि हिंदुत्व के तथाकथित स्वयंभू ठेकेदारों ने उनके मुसलमान होने पर महाभारत संवाद लेखन की उनकी दावेदारी पर सवाल उठाए थे। राही साहब ने महाभारत लिखकर उनके मुंह पर तमाचा ही मार दिया था।

पहली बार जब मुझे पता चला था कि महाभारत के संवाद लिखने वाले राही मासूम रजा मुसलमान हैं तो यह मेरे लिए तब बेहद आश्चर्य का विषय था। अब मुझे अपने उस आश्चर्य पर अपराधबोध होता है। कि संस्कृतियां कभी अपनी-पराई नहीं होतीं। संस्कार कभी अपने-पराए नहीं होते। राही साहब को कभी इस बात से दिक्कत नहीं थी कि उनकी भारतीय संस्कृति में महाभारत-रामायण-गीता आदि शामिल हैं और उनके साथ ही कुरआन भी। ये बातें आज के दौर में तब और प्रासंगिक हो जाती हैं जब धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र और सबसे प्राचीन समावेशी संस्कृति वाले देश के संवैधानिक पदों से इस तरह की आवाजें आती हों कि उन्हें गर्व है कि वे हिंदू हैं और वे ईद नहीं मनाते।

मैं हिंदू हूं। बचपन से दादी की गोद में पुराणों की अनेक कथाएं सुनते आया हूं लेकिन गीता समझ तभी आई जब नीतिश भारद्वाज की आवाज में राही साहब ने समझाया।

'हे पुत्र! किसी समाज की कुशलता की सही कसौटी यही है कि वहां नारी जाति का मान होता है या अपमान किया जाता है।

'देश की सीमा माता के वस्त्र की भांति आदरणीय है। उसकी सदैव रक्षा करना।'

'धर्म विधियों और औपचारिकताओं का अधीन है। धर्म अपने कर्तव्यों और दूसरों के अधिकारों के संतुलन का नाम है।'

'यदि कोई परिस्थिति देश के विभाजन की मांग कर रही हो तो कुरुक्षेत्र में आ जाओ लेकिन देश का विभाजन कभी न होने दो।'

महाभारत के संदर्भों से आधुनिक सामाजिक विषमताओं का संदेश देते ये संवाद धारावाहिक के अंतिम भाग से लिए गए हैं। महाभारत का यह एपिसोड मेरा सबसे पसंदीदा भाग है। इसी एपिसोड के अंतिम गीत की आखिरी पंक्ति कहती है - महाभारत है शांति संदेश। वो राही मासूम रजा ही थे जिन्होंने मनोरंजन के दृष्टिकोण से मार-काट, राजनीति, षड्यंत्र, घृणा की अनेक आकर्षक कथाओं से भरे महाभारत की भाषा को शांति संदेश की तरह बना दिया था। धारावाहिक के आखिरी दृश्य में श्रीकृष्ण संसार को संबोधित करते हुए कहते हैं - 'धन्य हैं वे, जो नश्वर के अनश्वर होने का दृश्य देख रहे हैं।' सच में, वो लोग धन्य थे जो मेरे जन्म से तीन साल पहले तक के समय के गवाह हैं, जब राही साहब उनके साथ इस दुनिया में थे।

Wednesday 14 March 2018

स्टीफन हॉकिंग्सः जवानी की दहलीज पर आई भयानक बीमारी ने बना दिया था वैज्ञानिक!

ईश्वर की सत्ता को चुनौती देने वाले हम न जाने कितने व्यक्तियों के बारे में जानते होंगे। तार्किक कसौटियों पर अपनी मान्यताओं को कसने वाले लोगों का व्यवहारिक जीवन पूर्णतः नास्तिकता की अनुपालना में सफल है, इस बात का दावा वह खुद भी नहीं करते। लेकिन इसी दुनिया में कोई था जिसने यह दावा किया था कि ईश्वर नहीं है और उसने अपने 76 साल के जीवनकाल के पग-पग पर इसे प्रमाणित किया कि जो कुछ भी है सब विज्ञान है। जो कुछ भी होगा सब आपसे होगा। जो कुछ भी हैं सब आप हैं। कोई भाग्य नहीं है। कोई आश्रय-शक्ति नहीं है। जिंदगी चाहे जितनी भी कठिन हो, उसे आसान बनाने के लिए आप ही कुछ कर सकते हैं। ये किसी प्रेरक फिल्म, उपन्यास या कहानी का कोई पात्र नहीं है बल्कि, ये विज्ञान के आधुनिक युग का वो महर्षि है जिसने अपनी अपंगता कौ रौंदकर ब्रह्माण्ड के ऐसे-ऐसे रहस्यों को भेद डाला जो सदियों से इंसानी सभ्यता के लिए किसी जादू या किसी दैवीय रचना से कम नहीं लगते थे। हम बात कर रहे हैं आज के दिन 76 साल की उम्र में सजीव शरीर से प्रयाण कर जाने वाले सदी के महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग्स की।

स्टीफन हॉकिंग्स तब 21 साल के थे जब एक दिन अपने घर की सीढ़ियों से उतरते हुए अचानक बेहोश होकर गिर पड़े। सामान्य शारीरिक कमजोरी का अनुमान लगाते हुए उन्हें डॉक्टर के पास ले जाया गया, जहां डॉक्टर ने उनकी सेहत को लेकर जो सच्चाई बताई वह किसी भी सामान्य आदमी को तोड़कर रखने के लिए पर्याप्त थी। 21 साल के स्टीफन मोटर न्यूरॉन नाम की लाइलाज बीमारी के शिकार हो चुके थे। एक ऐसी बीमारी जिसमें इंसान को हर दिन थोड़ा-थोड़ा मरना होता है। एक बीमारी जिसमें इंसान मानसिक तौर पर तो ठीक रहता है लेकिन उसके शरीर का हर अंग धीरे-धीरे मरना शुरू कर देता है और एक दिन जीवन की आखिरी डोर उसकी सांस नली भी साथ छोड़ देती है और इंसान की मृत्यु हो जाती है। स्टीफन को तब डॉक्टरों ने दो साल का समय दिया था। उनका कहना था कि इससे ज्यादा इनके पास उम्र नहीं है। लेकिन वह तो स्टीफन हॉकिंग थे जिन्होंने जीने की जिद ठान ली थी। उन्हें अभी बहुत से काम करने थे। उन्हें अभी सृष्टि के तमाम ज्ञात-अज्ञात रहस्यों के उद्घाटन पर अपने हस्ताक्षर करने थे। उन्हें मानवीय जीवन की क्षमताओं और उसकी शक्ति की सत्ता का प्रमाण पत्र भी तो बनना था।

डॉक्टरों द्वारा 23 साल की उम्र तक जीने की भविष्यवाणी के बाद भी हॉकिंग की चिंता ये थी कि अगर ऐसा होता है तो वे अपनी पीएडी कैसे पूरा करेंगे। धीरे-धीरे उनके अंगों ने उनका साथ छोड़ना शुरू किया और वह बैसाखी पर आते गए। इस बीच शोधकार्य और अध्ययन अबाध रूप से चलता रहा। जिंदगी रुकी नहीं तो उसकी सीमा अपने आप बढ़ने लगी। इस बढ़ी हुई सीमा को स्टीफन बोनस मानते थे। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि '21 की उम्र में मेरी सारी उम्मीदें शून्य हो गयी थी और उसके बाद जो पाया वह बोनस है ।' शारीरिक अक्षमता के बावजूद वह तमाम सेमिनार, यात्राओं आदि में भाग लेते रहे और अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में वो कर दिखाया जिसनें विज्ञान को अपने विस्तार के लिए कई नए आयाम मिले। हॉकिग्स ने बिग बैंग थ्योरी और ब्लैक होल जैसी खगोलीय घटनाओं पर अपने शोध और विचारों से विज्ञान का कोष समृद्ध किया।


हॉकिंग महान वैज्ञानिक गैलिलियो की मौत के ठीक तीन सौ साल बाद पैदा हुए थे। गैलिलियो और हॉकिंग्स सामान्य प्रचलित धारणाओं को सत्य के तार्किक धार से काटने की हिम्मत रखने वालों में गिने जाते हैं। अपनी इसी प्रवृत्ति से प्रेरित होकर स्टीफन ने यह दावा किया था कि यह दुनिया किसी ईश्वर ने नहीं बनाई बल्कि यह विज्ञान के तमाम नियमों और प्रक्रियाओं का एक परिणाम है। उन्होंने ब्लैक होल्स से जुड़े तमाम रहस्यों से पर्दा उठाने की दिशा में काफी काम किया है। ब्लैक होल्स के बारे में कहा जाता है कि उसका गुरुत्वाकर्षण इतना ज्यादा होता है कि उसकी जद में आया प्रकाश तक उससे बाहर नहीं निकल सकता। हॉकिंग्स ने ब्लैक होल्स के आस-पास निकलने वाली रेडिएशन्स की सच्चाई को दुनिया के सामने रखा जिसमें उन्होंने बताया कि ब्लैक होल्स के उच्च गुरुत्वाकर्षण बल की वजह से जो भी चीजें उसकी जद में आती हैं वह पहले तो उसका चक्कर लगाती हैं। इसकी वजह से होने वाले घर्षण की वजह से रेडिएशन की घटना होती है। यह रेडिएशन कोई ऐसा प्रकाश नहीं होता जो ब्लैक होल्स के अंदर से बाहर निकल रहा हो। ब्लैक होल से निकलने वाले इस रेडिएशन को हॉकिंग रेडिएशन कहा जाता है।

हॉकिंग की पीएचडी थीसिस को कैंब्रिज विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर डाल दिया गया है। इसे वेबसाइट पर डालने के वक्त से अब तक तकरीबन बीस लाख बार इसे देखा जा चुका है। साल 2014 में उनके जीवन पर आधारित एक फिल्म भी बनी थी। इस फिल्म का नाम द थ्योरी ऑफ एवरीथिंग था जिसमें एक्टर एडी रेडमैन ने उनका किरदार निभाया था। स्टीफन मे कई किताबें भी लिखी हैं। 1988 में आई उनकी किताब ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम की एक करोड़ से ज्यादा प्रतियां बिकी हैं। साल 2014 में विज्ञान की दुनिया का यह अद्भुत पुरुष सोशल मीडिया के फेसबुक प्लेटफॉर्म पर जब आया तो अपने पहले ही संबोधन में उसने दुनिया को जिज्ञासु बनने की सलाह दी थी। उन्हें पता है कि जिज्ञासा ही नए अविष्कारों का बीज है। उन्होंने कहा था कि समय और अंतरिक्ष हमेशा के लिए रहस्य बने रह सकते हैं लेकिन इससे उनकी कोशिशें नहीं रुक सकतीं। आज हाॉकिंग्स हमारे बीच नहीं हैं। आज अल्बर्ट आइंसटाइन का जन्मदिन भी है। बचपन में हॉकिंग्स को उनके सहपाठी आइंसटाइन कहकर बुलाते थे। जैसे हम अपनी कक्षा के विज्ञान में सबसे तेज सहपाठी को न्यूटन बुलाते थे। आइंसटाइन कहलाने पर भी हॉकिंग्स ने आइन्सटाइन बनने की कोशिश नहीं की, इसलिए हॉकिंग्स हो गए। विज्ञान-जगत के एक युगपुरुष, जिनके नाम से साइंस अपना एक कालखंड निश्चित करेगा। स्टीफन हॉकिंग समकालीन दुनिया के एकमात्र ऐसे वैज्ञानिक थे जिनके बारे में गैर-विज्ञान विद्यार्थी को भी कुछ न कुछ जानकारी है। ऐसे व्यक्ति के युग में होना अपने आप में एक सम्मान है। ब्रह्माण्ड के गुह्यतम रहस्यों को उजागर करने वाले इस महात्मा के लिए दुनिया का हर 'जिज्ञासु' और जुनूनी विद्यार्थी वर्ग सदैव कृतज्ञ और नतशीश रहेगा।

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...