Friday 23 March 2018

दलीय राजनीति: सब हवा-हवाई है

रसूख, बाहुबल, धनबल और कपट के खेल की लगातार कमेंट्री सुन-सुनकर हम फूले नहीं समा रहे हैं। दलीय राजनीति किसी मैच की तरह नहीं लगती! जहां हर पार्टी का अपना दर्शक-वर्ग है। हर कोई मुखपत्र बन गया है, प्रवक्ता बन गया है, विश्लेषक बन गया है, उद्घोषक बन गया है। क्या राजनीति के विमर्श विधानसभाओं-राज्यसभाओं-लोकसभाओं की सीटों के सांख्यिकीय विश्लेषण के अलावा कुछ भी नहीं है? दलीय राजनीति से लोकतंत्र बहुत उम्मीद करता था। सब अब हवा-हवाई है।

किसानों की, जवानों की, छात्रों की, सामान्य नागरिकों की व्यथा कथाओं से उनके माथे पर आर्टिफिशल शिकन पड़ती है। कुछ ही दिनों में वह देश को बहा ले जाते हैं हंसी-ख़ुशी-रोमांच की नयी दुनिया में। हम भी तो अभी बच्चे हैं। कुछ दिन पहले के आंसू थम गए हैं। नया खेल जैसे ही मिला। हम छाले भूल गए। हम छल भूल गए। हम इस क़दर बच्चे हैं कि हमें हर दिन आंसू भी नए-नए चाहिए। पता नहीं, कैसे क्या किया जाए। मैं राजनीतिक विश्लेषक नहीं हूँ। टीवी पर केवल राजनीति दिखती है। शाही महल में लगे किसी सीसीटीवी कैमरे सा लगता है भारतीय मीडिया और तमाशबीन लगती है भारतीय जनता। इस जनता में बेशक उन लोगों का गिना जाना केवल भ्रम है जिनसे यह देश अथाह उम्मीद करता है।

राजनीति के नाम पर हम इतिहास-भूगोल-गणित-संस्कृत-विज्ञान एटसेट्रा एटसेट्रा सब पर बात कर लेते हैं। अगोड़ो-भगोड़ों, दल-बदलू, धोखेबाजों, बेईमानों, भ्रष्टों सब पर बात कर लेते हैं। पड़ोसी जिला, पड़ोसी राज्य, पड़ोसी देश तक पर चिल्ल पों मचा लेते हैं। हम सब करते हैं ऐसा। सीमित विकल्पों की विवशता पर हारकर बैठ जाते हैं। कि हम तो विकल्प नहीं बन सकते। क्यों! क्योंकि विकल्प बनने की हैसियत सबकी नहीं है। क्यों नहीं है! क्योंकि राजनीतिक प्रतिष्ठानों ने अपने रहनुमाओं की योग्यता की कसौटी का आधार ही बदल दिया है। तो! तो उस आधार पर हर कोई फिट नहीं बैठता। क्यों! क्योंकि हर कोई पहुंचा हुआ नहीं है। कहाँ पहुंचा हुआ नहीं है! राजनीती तक। तो राजनीति को हम तक आना चाहिए! नहीं। क्यों! वह बंधक है और लोग भ्रम में हैं कि वह उनसे दूर चली गयी है। तो!

तो, दो ही काम हो सकते हैं। व्यवस्था को चुनाव सुधार, राजनीति के चरित्र सुधार के लिए विवश करें या फिर राज्यसभा के मतों की गिनती करें और विजयी-पराजयी प्रत्याशियों के लिए हर्ष-संवेदना व्यक्त करें, विश्लेषण करें, ज्ञान बघारें, जोक टीपकर जोकर बन जाएं। चोट्टों की चोट्टई पकड़ लेना बहुत कठिन नहीं है। परीक्षा यहां से है कि चोट्टई पकड़ने के बाद का हमारा अगला कदम क्या है! पता नहीं क्या होना चाहिए! मुझे नहीं समझ इतनी। मुझे फिलहाल ऐसा लगता है कि चुनाव-उनाव मौजूदा स्वरुप में पूरी तरह से बकवास हैं। नौटंकी हैं। नौटंकी यूं कि इर्रिटेट करने लगी है। आज दिन भर राज्यसभा की सीट गिनते तमाशबीन जैसा महसूस कर रहे थे। कि परत दर परत तमाशा जारी है, खुलेआम। हम दावों पर खुश हैं और वो अपने दावों पर और पॉलिश पोत रहे हैं।

सोचिए, मेरा तो सर दर्द हो रहा। हाँ, सोचते-सोचते ही। नहीं सोच पा रहे, क्या किया जाए। मदद करेंगे क्या!

(आलेख ज्यादा लम्बा हो गया हो और आपका भी सर दर्द हो गया हो और समझ नहीं आया हो कि कहना क्या चाहते हैं तो हृदय की गहराइयों से माफ़ी मांगते हैं।)

~फेसबुक वाल से

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