Monday 29 January 2018

कविताः पीड़ा की प्रतिक्रिया पीर की तीव्रता का मात्रक होती है

विस्फोट

हमारी बात
('मुद्दा' किसी धोखे सा लगता है)
और प्रतिरोध के स्लोगन
कुछेक पत्थर-शब्दों से बनें तो बात बने।
छोटे-मोटे ढेले और ठिप्पियां
लड़ाई में भर देती हैं खोखलापन,
ठीक वैसे ही, जैसे
अधजल गगरी में भर देता है
खोखलापन, उसका छलकना।
ठीक वैसे ही जैसे
खोल देता है ढोल के खोखलेपन की पोल
उसका जरा सी थाप पर धमक उठना।
पीड़ा की प्रतिक्रिया
पीर की तीव्रता का मात्रक होती है इसलिए
हमारी बात
('मुद्दा' किसी धोखे सा लगता है)
और प्रतिरोध के स्लोगन
छोटे ही हों
लेकिन किसी हैंड ग्रेनेड की तरह हों।
कि जिनके खोखलेपन के भ्रम की धज्जियां उड़ा दे,
उनका विस्फोट।

Thursday 25 January 2018

कविताः देश सिमट गया है


राष्ट्रवाद

देश सिमट गया है
चुनाव, चिंदी चोरों और चरित्रहीन 'बाबाओं' में।
'ऐतिहासिक' - 'सामाजिक' - 'धार्मिक' खून में,
कथाओं-कविताओं में,
'झंडों' के हथकंडों में,
सांसों का स्रोत
'नागफनियों' की हवाओं को साबित करने के इस दौर में,
धड़कन की धक-धक को
जीवन की जमीन पर भूख के भूकंप से
जारी रखने की कोशिश के इस वक्त में
अगर तुम देश का मतलब अब भी 'आदमी' समझते हो
तो सच में
किसी 'बाबा' के उन्मादी भक्त के पेट्रोल बम से
तुम्हारी खोपड़ी फूट जानी चाहिए,
या तुम्हें बुंदेलखंड और मराठावाड़ा के किसी किसान की मानिंद
रस्सी से अपने दिमाग को पहुंचने वाले
उस खून की आपूर्ति को बंद कर देनी चाहिए
जिसके होने की शर्त केवल उसका 'राष्ट्रवादी' होना है।

Wednesday 24 January 2018

कविताः इससे इज्जत बच जाएगी तुम्हारी

भगवा

सूरज लाल है
शरम से
दिए की रोशनी मुंह छिपा रही है
पराजित होकर।
दादी से नजरें नहीं मिला पा रहे
उनके भगवांबर ठाकुर।
कि जबसे हमने कहा है
कि तुम क्या दोगे हमें प्रकाश
जो बचा पाए नहीं अपना रंग
कुछ डकैतों के लूटने से
जो बांट रहे हैं अंधेरे उन्हें,
जिन्होंने पहले भी ठीक से उजाला नहीं देखा।
देव, दिवाकर और दीवा
अपने वस्त्रों का रंग बदल सकते हो
तो बदल डालो,
कि इससे
इज्जत बच जाएगी तुम्हारी।

Monday 22 January 2018

गांडीव पुराण

अर्जुनः हे केशव! आप अपनी भगवदगीता तनिक झाड़िए-पोछिए तो। लगता है कहीं एकाध श्लोक रह गया था। आज पितामह का वध करने का बहुत अफसोस हो रहा है हमको।

श्रीकृष्णः अरे नहीं! अर्जुन, रह-वह नहीं गया था, हमने जानबूझकर नहीं बताया था। अब सही समय है सुन लो-

अभियोजनशीलस्य नित्यम् वृद्धोपसेविनः
चत्वारि तस्य वर्द्धंते ट्यूबलाइट दर्शकमंडले।।

भावार्थः हे पार्थ! 'अभियोजनशील' लोग जब बुड्ढों की सेवा करते हैं तब उनके मार्गदर्शक मंडल को चार ट्यूबलाइट की प्राप्ति होती है।

अर्जुनः तब काहे नहीं बताया था?

श्रीकृष्णः ताकि तुम पितामह को मार्गदर्शक मंडल में डालकर उनका वध करने से मुकर न जाओ, पार्थ!
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श्रीकृष्ण:- अर्जुन! तुम मुझे वहाँ ढूंढ रहे हो और मैं तुम्हारा यहाँ इंतज़ार कर रहा हूँ, हईं😝

अर्जुन:- हे योगेश्वर! आप भी कभी कभी राहुल गांधी जैसा बर्ताव करने लगते हैं, दिखते ही नहीं! फिर तो आपको ढूंढने से ज्यादा मुश्किल काम और क्या है इस दुनिया में?

श्रीकृष्ण: हाहाहा, नहीं अर्जुन! मुझे ढूंढना अब मुश्किल नहीं रहा। 'अच्छे दिनों' में मुझे पाने का रास्ता बेहद आसान हो गया है!

अर्जुन - वो कैसे सुरेश??

श्रीकृष्ण: सुनों-

बीआरडी वा दंगया, रेलस्यार्जुन यात्रा:।
सम्प्रत्येतत् मार्गया, प्राणिनाम्प्राप्नोम्यहम्।।

भावार्थ: हे अर्जुन! बीआरडी मेडिकल कॉलेज में भर्ती होकर, दंगों के रास्ते या फिर रेल यात्रा करके। आजकल मैं इन्हीं मार्गों से लोगों को आसानी से प्राप्त हो जाता हूँ।
बूझे?

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अर्जुन-: लो, चिपका दिया एक और फोटो। काम-धाम है नहीं, अब बताइये, क्या मतलब है ई फोटो का?

श्रीकृष्ण:- ..मतलब है पार्थ! और मतलब ये है कि

टंकणेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न ज्ञानया।
सर्वैच्छन्ति जयन्तैव न यशवंत समार्जुन:।।

भावार्थ:- अर्थात्, ज्ञान से कुछ नहीं होता, टंकण आना चाहिए या फिर टंकणकार वाले गुण होने चाहिए। जैसे जयंत सिन्हा ने तुरंत बाप के ख़िलाफ़ आर्टिकल चेंप दिया एडिटर साहब के पलक झपकते। ज्ञान बांटने वाले यशवंत सिन्हा थोड़े पसंद हैं किसी को। का समझे?

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अर्जुन: 'आस्तीन का सांप' बड़ा खतरनाक होता है न, भुजगशयन! व्यक्ति को इससे बचकर ही रहना चाहिए।।

श्रीकृष्ण: हा हा हा हा! तुम तो 'श्री श्री रविशंकर' की तरह ज्ञान देने लगे, गांडीवधर! तुमको पता नहीं है का, कि अब सांप-वांप का खतरा कुछौ नहीं है। उससे भी खतरनाक और क्रूर प्रजाति है हिन्दोस्तान में!!

अर्जुन: हे जगसत्ता के अधिपति! दुनिया में ऐसी कौन सी प्रजाति है, जो हम नहीं जानते!

श्रीकृष्ण: हे पार्थ! तुम सब कुछ जान जाते, तो 'कपिल मिश्रा' न बन जाते!! सुनों-

"सर्पः क्रूरः, सत्ता क्रूरः, सर्पात्क्रूरतरः सत्ता।।
मंत्रौषधवशः सर्पः, सत्ता केन निवार्यते।।"

भावार्थ: 'सांप' और 'सत्ता' दोनों क्रूर होते हैं, बल्कि 'सांप' से भी क्रूर 'सत्ता' होती है। इसलिए कि मन्त्र या फिर औषधियों से 'सांप' के विष को फिर भी नियंत्रित किया जा सकता है लेकिन सत्ता के ज़हर का निवारण कैसे करोगे? बताओ!😐
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अर्जुन: हे योगेश्वर! क्या मामला है! कुछ समझी में नहीं आ रहा। आखिर कौन सा अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीख लिए हैं जो अचार्यश्रेष्ठ द्रोण हमको नहीं सिखाए, और ई सब सीख-सीख मारे हैं सबकी बोलती बंद कर दिए हैं। इधर हम ज़िन्दगी भर शकुनि की बोलती बंद नहीं करवा पाये, वहीं ई लोग तीनै साल में सारे 'oddवाणी' का मुंहवे बन्द कर दिए हैं!! क्या रहस्य है, महाराज!

श्रीकृष्ण: सरल सा कांसेप्ट है पार्थ! भारतवर्ष में पिछले कई दशकों से इसी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग दूसरे पक्ष के लोगों को 'मनमोहन सिंह' करने के लिए प्रयुक्त होता है। सुनो! आज के इस युग में जीत उन्हीं के पाले में जाती है जिनके पास यह अस्त्र होता है-

"तेनैवजया: प्राप्यन्ति, येषां पक्षे सत्तार्जुनः।।
यतस्सत्तास्ततो 'सिबिआई', यतो 'सिबिआई' ततो जय:।।"

भावार्थ: हे अर्जुन! (आजकल) 'जीत' उन्हें ही मिलती है जिसके पक्ष में 'सत्ता' खड़ी होती है। (क्योंकि) जहां 'सत्ता' है वहां 'सीबीआई' है और जहां 'सीबीआई' है वहीं 'जीत' है।

का समझे!😜
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अर्जुनः- नारायण! कांग्रेस पार्टी का यह 'जनेऊ-दांव' क्या है? कुछ 'टिप्पणियाएंगे' आप भी?

श्रीकृष्ण:- नहीं, अर्जुन! बहुत खुलकर क्या बोलें अब! संकेत ही समझो बस, कि

"शौचादि समये यस्योपयोग: यज्ञोपवीतं परमम् पवित्रम्।"

भावार्थ:- ब्राह्मण लोग जनेऊ पहनते हैं और उसका इस्तेमाल तब भी होता है जब 'पाकिस्तान' जाते हैं।
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अर्जुन:- एक बात पूछूं, गोपाल!
श्रीकृष्ण: पूछो, हे धनुर्धरयूथप्रधान अर्जुन! क्या पूछना है?
अर्जुन:- धरती पर सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
श्रीकृष्ण:- हे धनञ्जय ! उस दिन यदि तुमने जल पीने की जल्दबाजी में अपना होश न गंवाया होता और यक्ष प्रश्नों पर बड़े भैया युधिष्ठिर का जवाब सुन लिया होता तो आज ये प्रश्न हमसे न कर रहे होते! फिर भी सुन लो, उन्हीं का उत्तर कोट कर रहा हूँ,

"अहन्यहनि विघ्नानि गच्छन्त्यात्रे सस्पेंड्त्वा।
शेषा: स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम्।।"

भावार्थ:- विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं के हर दिन यहां से अर्थात् संस्थान से सस्पेंड (ट्रांसफर्ड आदि) होकर जाते हुए देखने पर भी बचे हुए लोग (मौन हो) ऐसा सोचते हैं कि उन्हें यहाँ से नहीं जाना पड़ेगा अर्थात वो यहां पर स्थिर हैं, इससे बड़ा धरती पर आश्चर्य क्या हो सकता है? धनुर्धर!😝
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अर्जुन: ये क्या अंधेर है, प्रभु! कभी बरसात मारे, कभी सूखा मारे, कभी अकाल तो कभी ओले मारें। अब ये सरकार भी...
मुझे तो इस देश में जनतंत्र की सांसें चलती दिखाई नहीं देती,केशव!
इन किसानों की यह गति क्यों है, दयानिधि! उनका क्या कसूर है?

श्रीकृष्ण: 'अति' पार्थ 'अति'! मौन की अति, अन्याय सहने की अति, और इस देश की जनता की नासमझी की अति। ये 'अति' की समस्या सामान्य नहीं है सुभद्रापति! इस 'अति' की परिणति बड़ी दुर्गति है, बड़ा भयंकर है!

अतिदानाद्धत: कर्ण:, अतिलोभात्सुयोधन:।।
अति द्वेषाद्धत: अस्या देशस्य च स्वतंत्रता।।

अति मौनाद्धनिष्यन्ति,जनतंत्रापि धनंजय!
अत: अतिसदानोचिता:,अति सर्वत्र वर्जयेत्।।

भावार्थ: अति से अधिक दान की वजह से कर्ण मारा गया, अति से अधिक लोभ से सुयोधन मारा गया। जब इस देश में (राजाओं का) परस्पर द्वेष अति से अधिक हुआ तब इसकी स्वतंत्रता मारी गई।

हे धनञ्जय! (अगर ऐसा ही रहा तो) 'मौन रहने की अति' एक दिन इस देश का 'जनतंत्र' भी मार देगी। इसलिए अति हमेशा उचित नहीं होती, 'अति' हर जगह वर्जित है।
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अर्जुन:- बीच मैदान -ए-जंग में गीता के 18 अध्याय पढ़ाने वाले गुरु प्रणाम स्वीकार करें🙏,
हे केशव! आपने अपने गुरू को विश किया कि नहीं?

श्रीकृष्ण :- हाँ, पार्थ! कर दिया।

अर्जुनः- किसको किया, संदीपन को, गर्ग को या फिर वसिष्ठ को?

श्रीकृष्ण:- विश्वगुरु को, पार्थ! विश्वगुरु को.

अर्जुनः- विश्वगुरू !!😳😳

श्रीकृष्ण:- हा हा हा हा, चौंको मत, सुनो

नमस्तस्यै भूमि पार्थः, या शिक्षति विश्वैकमेव।
तोपया देशभक्तिज्ञानं, अत विश्वगुरूश्च मन्यते।

भावार्थ:- हे पार्थ! इस धरती पर एक भूमि ऐसी भी है जिसने शिक्षा के क्षेत्र में अद्भुत क्रांति की स्थापना की है। वह भूमि सारे संसार में अकेली ऐसी भूमि है जिसने तोप से देशभक्ति सिखाने के विज्ञान का सृजन किया है, और इसीलिए उसे विश्वगुरू माना जाता है। मैं ऐसी भूमि को नमस्कार करता हूँ। तुम भी करो,
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अर्जुन:- हे वंशीधर! पिछली बार तो प्र'भाव' कम ही हो गया था। इस बार तो जेएनयूवे पे उसका प्रभाव कम हो गया है। इस बार साहब ई तो नहीं न कह देंगे कि जेएनयू पर आईआईएमसी का प्रभाव बढ़ा है??

श्रीकृष्ण:- भक्क! अइसा बोलकर ऊ दूसरे की मेहनत पर पानी नहीं फेर सकते, अर्जुन! तुमको नहीं पता का, कि ऐसे-ऐसे बछड़े अब हर संस्थान में तैनात हैं?
अर्जुन:- बछड़े?😳
श्रीकृष्ण:- आँख मत फाड़ो, सुनो!

"सर्वे संस्थाना: गावः दोग्धाः संघस्य चालकः।
डीजी वत्सः सुधीः भोक्ता दुग्धं राष्ट्रवाद च॥"

भावार्थ :- अर्जुन! देश के सभी सरकारी संस्थान एक गाय की तरह हैं और 'संगठन' के मालिक इस गाय को दुहने वाले दोग्धा यानि कि ग्वाला हैं। ऐसे ही संस्थान के मालिक बछड़े की तरह हैं, और इस तरह से गाय से 'राष्ट्रवाद' का दूध दुहा जाता है,( जिसकी पहले दही जमाई जाती है और बाद में रायता फैलाया जाता है।)
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अर्जुन: आज मूर्खों का दिवस है,नारायण!वैसे तो संसार 'ज्ञानियों' से भरा पड़ा है,लेकिन आज के समय में मूर्ख किसको कहा जा सकता है?

श्रीकृष्ण: वॉव!यू आर अ गुड क्वेश्चन,अर्जुन!ऐसे समय में जब चारों ओर 'फूल ही फूल' नज़र आ रहे हों,तब तुम्हारा ये पूछना कि मूर्ख किसको कहेंगे,आज के दिन के हिसाब से अच्छा सवाल है।😝
सुनों,

"अयं निज: परोवेति, गणनाम् राष्ट्रवादिनः!
मूर्खाणाम् तु कौन्तेय!वसुधैव कुटुम्बकम्।"

भावार्थ: (आज के दौर में) हे कौन्तेय! यह मेरा है,यह तुम्हारा है की गणना 'राष्ट्रवादी' लोगों का पावन कर्तव्य है।उन्हें अपनी संस्कृति ,अपने देश,अपनी परंपरा और अपना अस्तित्व बचाने के लिए ऐसा करना ही पड़ता है।
और हे पार्थ!आज सबसे बड़े मूर्ख वही हैं,जिनके पास 'मेरा-तेरा' का कोई कांसेप्ट नहीं है।इसलिए मूर्खों के लिए 'वसुधा ही परिवार' है,या फिर vice versa!!
बूझे!!😜

Wednesday 17 January 2018

कविताः गीत गाना चाहता हूँ


गीत जो आशा नहीं हो
गीत गाना चाहता हूँ,

स्वच्छन्द सुर-लय-ताल से,
ध्वनि की अनिश्चित चाल से।
वह गीत जिसका अर्थ भी-
निश्चित न हो,पर गीत हो,
वह गीत जिसमें सुर न हो,
पर स्वर में सुरभित प्रीत हो।
वह गीत जो मैं गुनगुनाऊँ
मैं सुनूँ,मैं ही सराहूँ।
वह गीत जो एकान्त में
खलिहान,खेतों,रास्तों में।
वायु के तन पर लिखूँ,
गाऊँ,लिखूँ लिखकर मिटाऊँ।
वह गीत जो हो क्षणिक पर
हो चिर असर जिसका,मगर।
मैं झाल पत्तों की बजाऊँ,
तरूओं के सुर में सुर मिलाऊँ।
वह छंद,जो स्वच्छंद हो,
जिसमें भरा आनंद हो।
ऐसी कृति,ऐसी नवल
संकल्पना के शिल्प से,
अपने ढहे ख्वाबों के छप्पर
को सजाना चाहता हूँ।

गीत गाना चाहता हूँ।

इक गीत जो सीधा-सरल हो,
ढाल के जल की नकल हो,
गीत जो आशा नहीं हो,
गीत अभिलाषा नहीं हो,
क्लिष्टता की ओट में
या व्यंजना के खोल में
पीर छिप जाएं कहीं
वह गीत की भाषा नहीं हो।
गीत जो बस सच रहे
जैसी गति, वैसी कहे
हर भय, शरम,आलस परे हो
गीत जो हिम्मत भरे हो,
हर बात जिस जिससे अधूरी
कह न पाए, हो जरूरी
उन सभी के भार-श्रम से 
दिल की इच्छा, मन के भ्रम से
और अनवरत स्वप्न-यात्रा
से गिरा का पर लगाकर
मुक्ति पाना चाहता हूं,

गीत गाना चाहता हूं।

यह गीत अब है यूं जरूरी,
ज्यों कि भू-दिनकर की दूरी,
बीज का दबना, सृजन की
नींव है, पर बात मन की
आग है जो जल रही है,
ताप से व्याकुल मही है,
पर नहीं प्रत्यक्ष है वह
ध्वंस के समकक्ष है वह।
इससे पहले फूट जाए,
ज्वाल का मुख टूट जाए।
गीत बनकर बरस जाना
विश्व सारा सरस जाना।
गीत मेरा गीत न हो,
गीत केवल प्रीत न हो,
गीत इक संवेदना हो,
गीत गीतों से बना हो,
गीत में हुंकार भी हो,
गीत में अधिकार भी हो,
गीत ही में अर्चना हो,
गीत ही अवमानना हो,
गीत निर्मिति, शेष भी हो
गीत गलियां, देश भी हो,
गीत केवल तुक न गाए,
गीत छंदन तोड़ जाए,
गीत केवल मैं न गाऊं,
गीत दुनिया गुनगुनाए।
गीत ही से रीतियों की
गीत ही से रूढ़ियों की
गीत ही से सभ्यता की
गीत से निर्लभ्यता की
गीत से तेरे सृजन की
गीत से जीवन-मरन की
गीत से वरदान का भी
गीत से व्यवधान का भी,
गीत से कल्पांतरों की 
गीत से सब प्रांतरों की
गीत से ही हर प्रथा की
हर विधि, हर व्यवस्था की
गीत के ब्रह्मास्त्र से 
धज्जी उड़ाना चाहता हूं।

गीत गाना चाहता हूं।

Friday 5 January 2018

कविताः ज़िंदा रहना एक हुनर है

ज़िंदा रहना एक हुनर है।

सीमाबद्ध मलय समीर का,
रज-संगति में स्वच्छ नीर का,
बिना तुम्हारे, इन नयनों में
हंसी-ख़ुशी का, पल सुधीर का, ज़िंदा रहना एक हुनर है।

रोज कुचलती आशाओं का,
चारणता में भाषाओं का,
आर्द्र-भाव के दहन से उठे
धूम मध्य अभिलाषाओं का, ज़िंदा रहना एक हुनर है।।

सागर के गढ़ में पनघट का,
अमरों के पुर में मरघट का,
संगरता की भीड़-भाड़ में
त्यौहारों के जन-जमघट का, ज़िंदा रहना एक हुनर है।

Thursday 4 January 2018

क्योंकि आग से आग नहीं बुझती, पानी से ही बुझती है

गरम मुद्दों का समाधान गरम होने से नहीं ठंडे दिमाग से सोचकर मिलेगा, क्योंकि आग से आग नहीं बुझती, पानी से ही बुझती है।

गर्व करने के लिए हम कब तक इतिहास की जमीन को सजाते फिरेंगे। इतिहास सबक से ज्यादा अब विवाद का विषय बनता जा रहा है। पता नहीं, भविष्य और वर्तमान के लिए इतिहास की कितनी जरूरत है लेकिन जिस तरह से इतिहासों का हथियार विखंडन, विद्वेष और वैमनस्य को बढ़ावा दे रहा है, इसकी तमाम जरूरतें व्यर्थ लगती हैं।

विवादों की जड़ इतिहास है। ब्राह्मणों का इतिहास, दलितों का इतिहास, मराठाओं का इतिहास, पेशवाओं का इतिहास, राजपूतों का इतिहास आदि आदि। सारे इतिहास अपने हिसाब से व्याख्यायित हो रहे हैं। सही-गलत से किसी को कोई मतलब नहीं है। गौरवशाली इतिहास में गौरव का अतिरेक, दमनशाली इतिहास में दमन का अतिरेक। इतिहास-पुरुषों के गलत आचरण शौर्य-कथाओं की तरह प्रचारित किए जा रहे हैं। उसे गौरवशाली बताया जा रहा है। गले कट सकते हैं इसके लिए। अब बैठकर सोचिए कि वर्तमान को क्या दे रहा है इतिहास।

हर किसी के इतिहास की अलग-अलग जमीन है। इस जमीन की सीमाओं पर टकराव का खूनी हो जाना उतना भयानक नहीं है जितना इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन है। कुछ लोग हैं जिन्हें अपनी जमीनों के अलावा दूसरे की जमीनों की गतिविधियों की निगरानी की स्वतःप्राप्त ठेकेदारी है, लेकिन स्वजाति का अभिमान-बोध अनावश्यक घमंड में न बदले यह भी तो एक सामाजिक चिंता है। सहानुभूति कहीं किसी के अनैतिक कृत्यों को समर्थन न देने लगे।

सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए दिल बड़ा करना होगा। सब कुछ सही हो जाएगा अगर आप मानवता को वरीयता देंगे। मानवता की कसौटी पर कसिए अपने जातीय स्वाभिमान को। जो-जो विधान इस कसौटी पर फेल हैं, उन्हें अपने संविधान से निकाल फेंकिए। वर्तमान समस्याओं की ऐतिहासिक मर्ज के आधार पर चिकित्सा की जाएगी तो परिणाम और भी तनावपूर्ण होंगे ही। यह सही है कि इसके इलाज में इतिहास को पूरी तरह से नहीं छोड़ सकते, लेकिन जख्म की दवा जख्म को कुरेदकर देने से बेहतर है कि उस पर आराम से कोई औषधीय लेप लगाया जाए।

इस लेप का भी विरोध करने वाले हो सकते हैं। यही विरोधी हमारी असल चुनौती हैं। इन्हें लक्ष्य बनाकर समूचे समुदाय पर तीर छोड़ना क्या सही है? समुदाय विशेष में पैदा होना अपने वश में नहीं है। इसलिए एक समुदाय विशेष में पैदा हुए व्यक्ति पर उसकी जातीय अस्मिता को लेकर मोरल प्रेशर से उपजा अवसाद भी उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है जितना कि किसी अन्य शोषित समुदाय विशेष में पैदा हुए व्यक्ति का जातीय आधार पर शोषण। अभिषेक ने बड़ी अच्छी बात कही है। कट्टरता से कोई नहीं बच पा रहा है। कट्टरता बुरी है ये सब लोग मानते हैं। लिबरल्स में अपने लिबरलपन को लेकर कट्टरता और कट्टरता के विरोधियों में अपने कट्टरतारोधी प्रवृत्ति को लेकर कट्टरता हावी है।गरम मुद्दों का समाधान गरम होने से नहीं ठंडे दिमाग से सोचकर मिलेगा, क्योंकि आग से आग नहीं बुझती, पानी से ही बुझती है।

Wednesday 3 January 2018

'बहुत होते हैं पर कोई मेरे जैसा नहीं होता'

तस्वीर साभारः पल्लवी सिंह
बहुत होते हैं पर कोई मेरे जैसा नहीं होता।
मेरे जैसा अगर होता तो मैं तनहा नहीं होता।।

जुबैर अली 'ताबिश' की इन पंक्तियों को पढ़ें तो सामान्य सी प्रतिक्रिया यही होती है कि शेर लिखने वाले का गुरूर बोल रहा है। जरा सा शेर के अंदर झाकेंगे तो दिखेगा कि शेर लिखने वाला किस कदर अकेला है। इस शेर के मनोवैज्ञानिकता का मुरीद हुए बिना रह पाना मेरे लिए मुश्किल है। भीड़ के बीच का अकेलापन केवल शाब्दिक चमत्कार नहीं होता, यह असल में भी होता है, और जिसके साथ ऐसा होता है वही ऐसे शेर कह पाता है।

ताबिश साहब ने जाने क्या सोचकर यह शेर लिखा होगा, लेकिन मुझे इस शेर में अपनी कहानी का प्रतिबिंब दिखता है, जहाँ पर मेरे अकेलेपन का मकान शून्य के अनेक ईटों से बनकर खड़ा है। 'मेरे जैसा' का मतलब कतई श्रेष्ठता नहीं है। मैं आत्म-श्रेष्ठता की घोषणा से उतना ही डरता हूँ जितना कि एक आदमखोर जानवर से। मैं निहायत ही अधम दर्जे का व्यक्ति हूँ ऐसा कुछ देर के लिए मान लें और इस शेर को अप्लाई करें तो भी हमें हमारे किस्म का अधम साथी नहीं मिलता शायद।

मेरे एक नहीं अनेक मित्र हैं। अलग-अलग स्वभावों वाले। सब प्यारे हैं। सभी इतने स्नेहिल कि मैं उनकी वरीयता निश्चित नहीं कर सकता। मेरा सबसे अच्छा दोस्त कौन है, इसकी घोषणा पक्षपात का स्थायी मामला है, लेकिन समुच्चय तो कुछ शर्तों से ही बनता है न! उन शर्तों को फॉलो किया जाए तो सच में एकल समुच्चय के अलावा मैं किसी अन्य वर्ग में नहीं रखा जा सकता हूँ। ये मेरी अपनी समस्या है। अकेला रहना मेरी मजबूरी है। ये अकेलापन मुझे अपने छोटे से कमरे में अकेले रहते हुए भी महसूस होती है और जेएनयू के किसी ढाबे में 'पार्टी' कहे जाने वाले आयोजनों की भीड़ में भी महसूस होती है।

व्हाट्सअप स्टेटस में लिखी इस शेर की पहली पंक्ति को पढ़कर एक दोस्त ने लिखा - 'सच में तेरे जैसा कोई नहीं है।' उसका प्रेम देखकर अगली लाइन लिखने का मन नहीं हुआ। सोचा, चलो छोड़ो। उसे अगली लाइन पढ़ाकर दुखी करने से बेहतर है अपने हिस्से का शनीचर खुद झेलो। इन सब चीज़ों के बारे में सोचता हूँ तो एक अपराधबोध भी मन को सालता है। वो ये कि दुनिया में और भी दुःख और दुखी लोग हैं। ऐसे में इतनी छोटी सी परेशानी पर हाय तौबा मचाकर क्या हासिल करना चाहते हो! सच में इस सवाल का कोई जवाब नहीं है मेरे पास। दुःख और भी खतरनाक हो सकते हैं। मेरे सामने भी अनेक दुःख आते रहते हैं लेकिन ये दुःख भी तो अपनी जगह अस्तित्वमय है कि नहीं! दरअसल ये दुःख नहीं है, यह एक बीमारी की तरह लगता है। इसका प्रहार भीतरी है। जब आपकी अनेक ऐसी बातें मन के कब्रिस्तान में दफ़्न हो जाती हैं जिन्हें आप किसी ऐसे शख्स से कहना चाहते हों जो इसके मानी समझ सके तब आपको इस अकेलेपन का बुरा वाला एहसास होता है।

शेर में दूसरी पंक्ति का सवाल शायद दुनिया की हकीकत है। शायद हर कोई इसी तन्हाई से दो-चार हो। मैंने इस अकेलेपन को शिकायत बना लिया हो जबकि यह शिकायत नहीं संसार का नियम हो। हो सकता है कि यह जिसके सवाल का जवाब है वह भी यही सोचता हो कि 'मेरे जैसा कोई होता तो मैं तनहा नहीं होता।'

इस लेख या फिर इस शेर से मैं कतई यह साबित करने की मंशा नहीं रखता हूँ कि मैं किसी दुर्लभ प्रजाति का मनुष्य हूँ और भगवान ने मेरे जैसे कम ही पीस बनाए हैं। साथ ही मैं अपने अकेलेपन के हवाले से किसी सहानुभूति की आशा भी नहीं रखता। मेरा ब्लॉग कुछ-कुछ मेरे जैसा है। अकेला, उदास सा दिखने वाला लेकिन जो कुछ भी लिखो कभी विरोध नहीं। ये लेख मैं इसी ब्लॉग को अपनी मनःस्थिति बताने के लिए लिख रहा हूँ और कुछ हद तक अकेलेपन से दूर भागने के लिए भी, जो इसे लिखने के बाद एक बार फिर मेरे बगल में आकर बैठ जाने वाली है।

कविताः तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून

विद्रोह

तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून
तुम देखो, डरो,
चाहो तो गरम लोहे की कोई रॉड
घावों में घुसा लो।
मगर, जिधर तुम देखते हो
अपने घावों का इलाज,
महज भ्रम तुम्हारा है।
तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून
उन्हें दिखते हैं इक मज़मून
जिससे वो खरीदेंगे
तुम्हारे ज़ख्म गहरे
और करने के लिए हथियार।
तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून
उनकी पार्टी के
वोट देने की किसी अपील के मानिंद
केवल होर्डिंग हैं,
जिसे वो देश भर में, विश्व भर में
बेच देंगे, तुम्हें आश्वस्ति भर का
कमीशन देकर।
तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून,
उनके हाथ की दहकती मशाल है
जिसकी जद में कभी भी आ सकती है
तुम्हारी फटी बनियान।
जानते हो?
तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून
बहा सकते हैं उनके सिंहासनों के
पायों के नीचे की जमीन,
इसलिए, मत देखना
उस ओर, जिधर से
आते हैं ये नीम-हकीम,
हो सके तो बुझा देना उनकी मशाल
फाड़ देना उनकी होर्डिंग,
और लोहे की सरिया ही घुसा लेना,
अपने घावों में,
क्या पता! इससे ही घाव भर जाएं पल भर में
सदियों के
तुम्हारे ज़ख्म, रिसते खून के।

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...