Tuesday 25 September 2018

यात्राएं रुकी नदी की तरह ठहरी जिंदगी को गतिशील करती हैं

मानक के हिसाब से स्थिर हो जाने की अलग-अलग परिभाषा होती है। साइकिल के पहिए घूमते रहें लेकिन साइकिल अगर स्टैंड पर खड़ी हो तो पहिए की इस गतिशीलता को भी स्थिर होना ही कहेंगे। काफी दिनों से कुछ ऐसी ही अनुभूति के दलदल से ऊबकर प्रतापगढ़ जाने का कार्यक्रम बना। प्रतापगढ़ ननिहाल है। पिछले साल 3 सितंबर को नाना का देहांत हो गया था। तब जाना नहीं हो पाया था। एक साल होने के बाद 1 सितंबर को उनकी पहली बरसी का कार्यक्रम था। हर लिहाज से जाना उचित लगा। यात्रागत असुविधाएं जो अब आदत में शामिल हो जाना चाहिए, हुईं। ट्रेन कैंसिल होने से लेकर सीट न मिलने और ट्रेन लेट होने तक की सारी दिक्कतें साथ चलीं। लेकिन, 3 साल बाद ननिहाल जाने का उत्साह था, सो ये दिक्कतें झेलने में दिक्कत नहीं हुई। पारिवारिक सम्मेलन के अलावा भी यह टूर कई मायनों में दिलचस्प रहा। इनमें वापसी के रास्ते में मधुबन गोष्ठी, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और उसके कुछ उत्साही, सशक्त और निर्भीक छात्र तथा लखनऊ यात्रा ने यात्रा को सफलता से एक कदम आगे तक पहुंचा दिया।

शुभम, सत्यम, पुरू और किरन मौसी – प्रतापगढ़ में नानी से मिलना सबसे आवश्यक प्रयोजन था। उनकी हमेशा की नानी से मिलने न आने की शिकायतों के निस्तारण के लिए तथा इस मामले में सफाई देने के लिए स्वतः निर्धारित समय सीमा भी कबकी पूरी हो चुकी थी। इसलिए जाना तो था ही। लेकिन, नानी से अपेक्षाकृत कम मुलाकात-बातचीत रही। ज्यादा समय बीता शुभम, सत्यम और पुरू के साथ। ये समय कितने अमूल्य और मजेदार होते हैं इस बारे में बता पाना संभव नहीं होगा। पुरू के साथ काफी देर तक राजनीति, समाजनीति की बहसें चलतीं। राफेल डील से लेकर आर्यन थ्योरी तक। कई पूर्वाग्रह उसकी डिबेट के साथ चलते रहे। शाखा अर्जित ज्ञान का संदर्भ भी देता। लेकिन, उसमें डिबेट करने की स्किल है, इस बात को मानने से कोई इनकार नहीं कर सकता। पढ़ता भी खूब है। जिस बारे में पढ़ता है उस विषय की ठीक याद्दाश्त होती है उसकी। उसके ऐसा मानने पर कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, दलितों का लंबे समय तक ब्राह्मणों ने शोषण किया था और राफेल डील भ्रष्टाचार नहीं है मेरे गहरे मतभेद हैं लेकिन इसे साबित करने के लिए मेरे जो भी संदर्भ थे उसके बारे में मेरी आशंका थी कि वह उसे खारिज कर देगा। इसलिए, हमने दलित विमर्श पर डॉ. तुलसीराम और ओमप्रकाश वाल्मीकि का संदर्भ देना उचित नहीं समझा। वह पुराणों के संदर्भ देता जिसका मैंने उसके मुकाबले कम अध्ययन किया है। खैर, जो भी हो, उसकी अपने तर्कों को मनाने के लिए तैयारी अच्छी थी। पुरू के साथ बहस में अच्छा-खासा समय बीत जाता।

शुभम सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहने वाला व्यक्ति है। वन लाइनर हास्य-व्यंग्य में उसकी काफी रूचि है। उससे इस बारे में काफी चर्चा होती। सोशल मीडिया पर कीर्तीश भट्ट से लेकर आशुतोष उज्ज्वल तक के लोगों की पोस्ट पर चर्चा होती। बाहर जाने पर तस्वीरें खींचने का काम भी शुभम का था। तस्वीरें वह अच्छी खींचता है। उसकी पुरानी कई तस्वीरें वाकई बेहतरीन थीं। सत्यम के साथ इनडोर गेम्स में समय बीतता, वहीं सुंदरम के पास अपने गांव-घर और स्काउट टीम को लेकर ढेर सारी कहानियां होतीं। जो वह समय-समय पर सुनाता रहता था। किरन मौसी मां की सबसे छोटी बहन हैं। उस पूरे परिवार में सबसे ज्यादा प्रगतिशील सोच रखने वाली महिला। हालांकि, वह एक ऐसे परिवार का भी हिस्सा हैं जहां अभी भी रूढ़िवादी जड़ें मजबूत हैं। उनसे महिला अधिकारों और बच्चों की पसंद-नापसंद संबंधी आजादी को लेकर काफी देर तक बहस हुई। इस मामले में उनका कहना यही है कि बच्चों को उनकी पसंद के मुताबिक शादी इत्यादि का अधिकार है। यह अरैंज्ड मैरिज से ज्यादा बेहतर होता है। इस मुद्दे पर उन्हें मां की ओर से कड़ा प्रतिरोध मिल रहा था। पर्दा प्रथा, पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं पर उनका स्पष्ट मत था। वह इन सबकी विरोधी थीं। लेकिन, धारा 377 पर शायद सहमत नहीं दिखीं। हालांकि, इस पर हमारी बहुत कम बात हुई।

वापसी और बनारस – 23 सितंबर को वापसी थी। प्रतापगढ़ से इलाहाबाद जाने का प्रोग्राम था। लेकिन, 23 को रविवार होने के नाते बनारस जाने का कार्यक्रम तय कर लिया। रविवार को बनारस इसलिए कि इस दिन वहां मधुबन गोष्ठी आयोजित होती है। बनारस के छात्रों और पूर्व छात्रों द्वारा किए जाने वाले इस आयोजन से परिचय आर्य भारत ने करवाया था। इस गोष्ठी में नए रचनाकारों को कविता पाठ का मौका दिया जाता है और उस पर वरिष्ठ कवियों द्वारा टिप्पणी की जाती है। यह शानदार था। इसमें शामिल होने को लेकर जो उत्साह था उसका वर्णन करना मुश्किल है। आर्य भारत का मुझ पर विश्वास कभी-कभी चकित कर देता है। मेरे लिए अपनी कविता पर आर्य भारत की ही प्रतिक्रिया का मिल जाना बहुत उत्साहित करता है। लेकिन, वहां सुशांत शर्मा भी मौजूद थे। आर्य की हमेशा की तरह दिल हिरोशिमा नागासाकी कविता की मांग वहां भी रही लेकिन, मेरे पास यह कविता उस समय मौजूद नहीं थी। इसलिए, गीत गाना चाहता हूं और तब जागता है कविता सुनानी पड़ी। पहली कविता पर टिप्पणी करते हुए सुशांत भइया ने मुझे भवानी प्रसाद मिश्र की परंपरा-सूची में रख दिया। यह बिल्कुल ही आशातीत प्रतिक्रिया थी। दूसरी कविता चूंकि कादंबिनी पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी, इसलिए उस पर बोलते हुए उन्होंने कादंबिनी के प्रति आशान्वित नजरिया प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अगर कादंबिनी इस तरह की भाषा वाली कविताएं प्रकाशित कर रहा है तो यह सुखद संकेत है। मेरे लिए दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं अनमोल थीं। यह भाव-विभोर होने के लिए काफी था।

बनारस की साहसी छात्राएं – मधुबन गोष्ठी से हम सभी को वहां जाना था जहां एक सफल आंदोलन के एक साल पूरा होने पर छात्राओं ने कार्यक्रम आयोजित किया था। वहां बारी-बारी से छात्राएं विश्वविद्यालय में छात्राओं की स्वतंत्रता और उस पर प्रशासनिक हस्तक्षेप संबंधी भाषणों से लोगों को संबोधित कर रही थीं। वहां पहुंचने पर देखा कि महिला महाविद्यालय के सामने एक ओर छात्राओं का कार्यक्रम चल रहा है, जिसमें छात्र भी शामिल हैं। वहीं उससे सटे हुए ही एबीवीपी के कार्यकर्ता नारेबाजी कर रहे हैं। कार्यकर्ताओं के धैर्य और सूझबूझ की वजह से न सिर्फ कार्यक्रम प्रभावित नहीं होता बल्कि झगड़े की नौबत भी बार-बार टलती रहती थी।

देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म के प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता और सभा करने की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार सभी को प्राप्त है। इस दृष्टि से यह कार्यक्रम किसी तरह की कोई गलती नहीं थी। न ही ये राष्ट्र अहित का ही कोई कार्य था। यह महज अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की सफलता का एक तरह से जश्न था। नारेबाजी कर रहे एबीवीपी के कार्यकर्ता कार्यक्रम कराने वालों को वामपंथी बोलते और धमकाते कि महामना की बगिया को जेएनयू नहीं बनने देंगे। उनका मतलब होता कि यहां वामपंथी विचारधारा को फलने-फूलने नहीं देंगे। और ऐसा करते हुए वह भूल जाते हैं कि यह खुलेआम संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण है। अपने इस अपराध पर वह लज्जित नहीं हैं। इसके परिणामों से वह भयभीत नहीं हैं। उलटे, उनके नारों में ऐसी बद्तमीजी और अभद्रता है कि सामने से गुजरने वाला कोई भी सभ्य नागरिक शरमा जाए। वह केवल कानूनन अपराधी नहीं लगते बल्कि वह नैतिक और सांस्कृतिक अपराध के लिए भी दंडित किए जाने योग्य हैं। कार्यक्रम के दौरान उनका साहस यहां तक बढ़ आया कि आर्य भारत की कविता के बाद वे सभी हाथापई पर उतर आए।

भारत माता की जय और वामपंथ का एक ही मोटो, खाओ, पीओ, साथ में लोटो जैसे नारे एक साथ लगाने वाले महामना की बगिया के वे तथाकथित संरक्षक मानवीय चरित्र के सबसे अधम स्तर पर पहुंच गए। उन्होंने साउंड सिस्टम को लात से मारकर सड़क पर फेंक दिया। कार्यकर्ताओं के बाल खींचे। छात्राओं को पीटा। आर्य भारत के कंधे पर किसी ने जोर से मार दिया। वह काफी देर तक दर्द से परेशान रहे। वह सब कुछ भयावह था। महाविद्यालय प्रशासन की महिला प्राधिकारियों ने छात्राओं को जबर्दस्ती अंदर जाने को कहा। छात्राएं प्रतिरोध करती रहीं लेकिन उन्हें जबर्दस्ती अंदर भेजकर गेट बंद कर दिया गया। बाहर लड़कों के बीच हाथापाई जारी रही। कुछ देर बाद लड़कियां समूह में जबर्दस्ती बाहर आ गईं। वह चीख रही थीं कि हमारे साथियों को एबीवीपी के गुंडे पीट रहे हैं और हमें अंदर क्यों बंद किया जा रहा है। प्रशासन के ये लोग हमें अंदर भेजने की बजाय कुछ कर क्यों नहीं रहे। अपने छात्र साथियों के लिए लड़ने की हिम्मत करने वाली इन लड़कियों का मैं मुरीद हो गया। अपनी इस हिम्मत से उन्होंने पितृसत्तात्मक व्यवस्था के संरक्षक सेनापतित्व के किले को भी भेद दिया। उन्होंने बताया कि वह अब न सिर्फ अपनी रक्षा करने में समर्थ हैं बल्कि अपने साथियों को बचाने के लिए भी वह कुछ भी कर सकती हैं।

अस्सी घाट और लाल साफे वाले कार्यकर्ता – कार्यक्रम तो था कि वहां से अस्सी घाट जाएंगे। और काफी देर वहां बैठेंगे। लेकिन आर्य भारत को कंधे पर चोट लगी थी। इस वजह से वह कमरे पर जाना चाहते थे। कार्यक्रम के सभी कार्यकर्ता जिनमें अधिकतर काले कपड़ों और लाल गमछों से लैस थे, अस्सी घाट के पास एक चाय की टपरी पर एकत्रित थे। वहीं पर शाश्वत उपाध्याय से ठीक तरीके से मुलाकात हुई। और भी लोगों से परिचय हुआ। आर्य ने परिचय कराया कि मैं जनसत्ता में सब-एडिटर हूं। ऐसे में सभी इस घटना को मीडिया में लाने के प्रति मुझसे आशान्वित थे। चाय पीने के बाद हम अस्सी घाट की ओर बढ़े। वहां कत्थक नृत्य और संगीत का कोई कार्यक्रम चल रहा था। काफी देर तक हम वही देखते रहे। टीम दो हिस्सों में बंट चुकी थी। एक में हम, आर्य भार, गरिमा और माधुरी थे। दूसरी में कार्यक्रम के सभी साथी जो चाय की दुकान पर थे, शामिल थे। वो लोग गंगा किनारे की ओर चले गए। हम घाट से ही आशुतोष के कमरे की ओर चल पड़े। रास्ते में गरिमा ने पूरे प्रकरण पर बहुत सी बातें बताईं। उन्होंने बताया कि पिछले साल लड़कियों के संघर्ष में जब पुलिस ने लाठी चार्ज किया तब एक छात्र को बचाने के लिए उसकी छात्रा दोस्त उसके ऊपर लेट गई थी। यह सच में भावुक कर देने वाला किस्सा था।

मां का फोन और पापा से बात – कार्यक्रम में मारपीट शुरू होने के बाद मैंने आर्य भारत को फोन किया। वह अस्सी पहुंच चुके थे। हमसे रिक्शा करके वहां आने को कहा। जैसे ही हम रिक्शे पर सवार हुए, मां का फोन आया। हाल-चाल देने के बाद फोन रखने ही वाले थे कि मां ने बताया कि पापा के मकान मालिक ने उनके कमरे का ताला तोड़कर अपना ताला लगा दिया है और उसकी चाभी नहीं दे रहा। पापा उसी दिन सुबह प्रतापगढ़ से दो दिन की छुट्टी के बाद वापस आए थे। मेरा क्रोध से भर उठना लाजिमी था। मां को बोला कि पापा से बात करें और मकान मालिक के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराएं। और तो और चोरी की धारा भी लगा दें। उन्होंने बात करके बताने को कहकर फोन रख दिया। यह दोहरा तनाव था। एक ओर एबीवीपी की गुंडागर्दी से दिमाग तनाव में था। अब उस मकानमालिक पर गुस्सा आ रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। भदोही जाने का मन बना लिया। कुछ देर बाद मां का फोन आया। उन्होंने बताया कि पापा का फोन नहीं लग रहा है। फिर मैंने खुद फोन लगाया। पापा ने बताया कि उसने चाभी दे दी है। मैंने एफआइआर कराने की बात कही तो बोले कि करा दिया है। सामाजिक धूर्तता के इस नमूने से बहुत देर तक मन दुखी रहा। ऐसी घटनाएं आत्मविश्वास को और गिरा देने का काम करती हैं और दुनिया से और भरोसा उठता जाता है।

बनारस से रवानगी और अपरिचित ‘दोस्त’ – रात में थकान ज्यादा होने की वजह से जल्दी नींद आ गई। माधुरी, गरिमा और आशुतोष ने मिलकर शानदार खाना बनाया था। खिलाने के लिए हमें जगाना पड़ा। खाना खाने के बाद माधुरी और गरिमा हॉस्टल चली गईं। हम भी सो गए। सुबह उठे तो साढ़े 4 बज रहे थे। 5 बजकर 10 मिनट पर इंटरसिटी एक्सप्रेस से लखनऊ जाना था। वहीं शताक्षी और नीलेश हमारा इंतजार कर रहे थे। आशुतोष ने कहा रुक जाइए, दूसरी ट्रेन से जाइएगा लेकिन मैंने हार नहीं मानी। संयोग से 5:10 बजे स्टेशन पहुंच गए। ट्रेन में सीट भी मिल गई लेकिन टिकट नहीं ले पाए। मेरे सामने एक लड़की बैठी थी। उसे भी लखनऊ जाना था। टिकट उसने भी नहीं लिया था। इसलिए, हमसे पूछा कि कौन से स्टेशन पर ट्रेन ज्यादा देर तक रुकेगी। मैंने इंटरनेट से चेक किया तो सभी स्टेशनों पर 5 मिनट का स्टॉपेज था। इतनी देर में टिकट कहीं से भी नहीं लिया जा सकता था। हम इसी बारे में चर्चा कर रहे थे कि टीटीई को क्या जवाब देना है। बात आगे बढ़ी तो और भी बहुत सी बातें हुईं। नीलम या लवली नाम था उसका। बनारस की ही रहने वाली थी। काशी विश्वनाथ की गलियों में कहीं उसका घर था। वहीं उसका बचपन बीता था। खेलते, साइकिल चलाते, शरारतें करते।

अपने परिवार से उसे काफी लगाव था। बुआ की कोई लड़की उसकी अच्छी सहेली भी थी। यात्रा के दौरान उसका फोन भी आया था। खुद के अंतर्मुखी होने को खारिज करते हुए उसने बताया कि वह अपनी तकलीफों के बारे में किसी को बताना नहीं चाहती। चाहे कोई उसका कितना ही करीबी क्यों न हो। नए दोस्त बनाने से शायद परहेज था उसे। बचपन के कुछ दोस्त ही उसके आज तक खासम-खास दोस्तों में शामिल थे। वह बताती कि कैसे लखनऊ के उस कॉलेज में जहां से वह एमबीए कर रही है, उसका कोई दोस्त नहीं है। या कहें कि उसने किसी को न तो दोस्त बनने दिया और न ही बनाया। उसका मानना है कि मेरे दोस्त पहले से ही हैं और मैं उनकी जगह किसी और को नहीं दे सकती। बनारस की बहुत तारीफ करती। बीएचयू का एग्जाम इसलिए दिया कि लोग उससे कहते कि वहां सेलेक्शन होना आसान नहीं है। फिर वहां पढ़ाई छोड़ दी और बीबीए कर लिया। अब लखनऊ से एमबीए कर रही है और एक नौकरी छोड़ चुकी है।

उसने बनारस की कई सारी तस्वीरें दिखाईं। अपने बारे में इतना सब कुछ बता दिया कि मुझे सोचना पड़ा कि यह सब कुछ मुझे क्यों बता रही है। खैर, यह तो वही जाने। उसने मुझे सर्दियों में बनारस आने का निमंत्रण दिया। बोला कि बनारस घुमाने की जिम्मेदारी मेरी। लेकिन ट्रेन से उतरते ही सोशल मीडिया और संपर्क के तमाम संसाधनों के इस दौर में भी वह भीड़ में कहीं गुम हो गई। या उसके लिए शायद मैं गुम हो गया। क्योंकि, ट्रेन से उतरने के बाद हमने एक-दूसरे को देखा ही नहीं। एक अपरिचित दोस्त, जिससे मैंने उसका नाम भी नहीं पूछा और जिसने मेरा नाम नहीं जाना मेरे लिए फिर उसी तरह अपरिचित हो गई जैसे 7 घंटे पहले ट्रेन के मिलने के पहले हम एक-दूसरे के लिए थे। बात-बात में उसने खुद ही अपना नाम बता दिया था। बनारस शायद सर्दियों में जाना हो भी लेकिन उस जिम्मेदारी का क्या जो उसके भीड़ में खो जाते ही अधूरेपन की अनिवार्यता को प्राप्त हो गई।

लखनऊ की एनबीटी यात्रा – इस यात्रा में एनबीटी के ऑफिस में बीते वक्त का हिस्सा काफी ज्यादा था। चारबाग स्टेशन से नीलेश के रूम तक और फिर एनबीटी के ऑफिस पहुंचने तक कुल 2-3 घंटे लगे थे। नीलेश को ऑफिस जाना था। ऐसे में यह एक मुलाकाती यात्रा से ज्यादा कुछ नहीं था। यात्रा के इस पड़ाव में दो सबसे अच्छे दोस्तों से मुलाकात हुई। दोनों स्टेशन तक लेने आए। जाम से लड़कर जब दोनों चारबाग मेट्रो स्टेशन के नीचे हमारे साथ बैठे तो एक बार फिर लखनऊ को कोसना शुरू कर दिया। खैर, यह यात्रा का अंतिम पड़ाव था और इसके बाद नोएडा के लिए रवाना होना था। इसलिए इसमें थोड़ा सा उदासीपन भी था।

अच्छे दोस्त आपसे कभी दूर नहीं होते। वो आपकी चर्चाओं में, बातों में, यादों में, दिमाग में स्थापित से हो गए होते हैं। आप जहां कहीं भी रहें उनकी उपस्थिति रहती है। बशर्ते दोस्ती अच्छी और गहरी हो। शताक्षी के ऑफिस में उसके एक सहकर्मी से परिचय के दौरान जब वह बोल पड़ा कि "वही, जिन्हें तुम शुक्ला-शुक्ला करती रहती हो?" तब लगा जैसे इस ऑफिस में मैं अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ अपनी चर्चाओं के रूप में हमेशा मौजूद रहता हूं। यह मेरी वहां हमेशा ही उपस्थिति को प्रमाणित करने वाला वाक्य था। इस उपस्थिति ने हमारी दोस्ती के प्रमाण-पत्र को और भी ज्यादा विश्वसनीय बना दिया। इससे मिलने वाला सुकून भी अवर्णनीय है। चर्चाएं चाहे जैसी होती रही हों, मैं इस बारे में सोचकर इस पावन भावना का अनादर नहीं करना चाहता।

हालांकि, इतने अच्छे दोस्तों के साथ होने पर भी लखनऊ में काफी बोर हुए। एक तो अपना मूड भी सही नहीं रह गया था। प्रतापगढ़ छोड़ने, बनारस और भदोही वाले मसले की वजह से मन खराब हो चला था। इसके अलावा अगले दिन से फिर जिंदगी के उसी ढर्रे पर चलने की कल्पना भी बार-बार मन को निराश कर रही थी। रात तकरीबन साढ़े 9 बजे लखनऊ से नोएडा की ओर रवाना हो गए।

यात्राओं से नदी के रुके हुए पानी की तरह ठहरा जीवन फिर से चलने लगता है। स्थिर मनस को गतिमान करने का यह शानदार तरीका है। इसलिए, यात्राओं को जारी रखने की दिशा में कोशिश करना उन सभी निराशाओं और उदासीनता से पीछा छुड़ाना है जो जीवन में प्रकृति के परिवर्तन सिद्धांत का रास्ता रोकती हैं। न जाने कितनी बार छुट्टियों पर यात्राएं करने का मन बना। अलग-अलग कारणों से यह कार्यक्रम टलता रहा। अब इसे टालने की कोशिश को विराम देकर जीवन गतिशील करना होगा। वरना, निराशाओं के जानलेवा होने में वक्त नहीं लगेगा।

Wednesday 5 September 2018

सब कुछ छोड़कर हम आदमखोर बनते जा रहे हैं

तरकशः बीते साल पर साल, आजादी का क्या हाल!

निर्दोष और वैचारिक भिन्नताओं के खिलाफ हिंसा किसी भी सूरत में गलत है। अगर आप उसे जस्टिफाइ कर रहे हैं तो एक आजाद और शांतिप्रिय देश के लिए आपसे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता। सालों, युगों और कल्पांतरों पहले क्या हुआ था या सालों, युगों और कल्पांतरों से क्या हो रहा है जैसे वाहियात और गैर-जरूरी कुतर्क भी किसी की हत्या को जायज नहीं ठहरा सकते। हिंदू, मुसलमान, सिख - की धार्मिक भावना, के अस्तित्व पर खतरा या के संरक्षण के लिए भी किसी की हत्या नहीं की जानी चाहिए। देशद्रोही को भी मारने का अधिकार हमें नहीं है।

कानून है। लाखों-करोड़ों खर्च करके हमने अपना संविधान बनाया है। और इस संविधान बनाने के लायक बनने के लिए बहुत खून बहाया है। यह खून इसलिए बहा है कि आगे निरर्थक खून बहने से रोका जा सके। लेकिन, क्या ऐसा हो पाया है। 70 साल भी ठीक से नहीं बीते और हमने आजादी के समस्त मूल्यों को लहूलुहान कर दिया है। अंग्रेजों को जिनकी बात पसंद नहीं आती थी उनके साथ वो हिंसक सुलूक से नहीं हिचकते थे। आजादी की नींव यहीं से पड़ी थी। शासन के चरित्र से हमें दिक्कत थी। शासन के उसी चरित्र की ओर हम क्या नहीं बढ़े जा रहे आजादी के 70 साल बाद।

बहुत से लोग कहेंगे कि इतना भी बुरा हाल नहीं है भाई। वो जान लें कि है। जितना वो सोचते हैं या हम सोचते हैं उससे भी बुरे हालात हैं। हम जब विचारधारा, देश और धर्म के नाम पर मनुष्यों की हिंसा को जस्टिफाइ करने लगें तो समझिए हालात बुरे ही नहीं अनियंत्रित भी हैं। आजादी के बाद हमें अपने कृषि क्षेत्र में काम करना था कि आत्मनिर्भर ही नहीं दुनिया में पोषक भी बन सकें। हमें अपनी शिक्षा पर काम करना था कि शिक्षित ही नहीं विश्व-शिक्षक भी बन सकें। हमें अपने स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करना था कि निरोग ही नहीं विश्व-चिकित्सक भी बन सकें। उद्योग की दिशा में मेहनत करनी थी कि उद्यमी ही नहीं विश्व में पालक भी बन सकें। खेल की दिशा में आगे बढ़ना था कि खिलाड़ी ही नहीं खेल-शक्ति भी बन सकें। बनने के लिए कितना कुछ सोचा गया था। लेकिन हम क्या बन पाए? हालत यह है कि सब कुछ छोड़कर हम आदमखोर बनते जा रहे हैं।

शांति, सद्भाव, प्रेम, बंधुता डरपोक लोगों की ढाल नहीं है। ये मानव-मूल्य हैं। विचारों की लड़ाई में विचारों को कटने की बजाय ये कट रहे हैं। दिमाग और दिल अलग-अलग जगहों पर होते हैं। इनके संवाद भी अलग-अलग ही होने चाहिए। मतभेद और मनभेद को एक होने देना आपके व्यवहारकुशलता और नागरिक जिम्मेदारी की सबसे बड़ी हार है। कुछ घंटों बाद हम आजादी की 72वीं सालगिरह मनाएंगे। हर साल की तरह आजादी के शूर याद किए जाएंगे। अपने देश को सबसे आगे ले जाने की बातें होंगी। प्रेम, अमन को बढ़ावा देने की जिम्मेदारियों के पालन का वादा किया जाएगा। तिरंगे के आगे राष्ट्रगान गाया जाएगा - भारत भाग्य विधाता - जय हे, जय हे। हर साल करते हैं ये सब हम। 15 अगस्त 1948 से लेकर आज तक हर साल।

ये अलग बात है कि आजाद भारत की सुबह ही आजादी की मूल भावना की हत्या से होती है। हमने आजादी के लिए अहिंसा को हथियार बनाया। आजादी मिलते ही सबसे पहले अहिंसा के साथ हिंसा की और लगातार करते आ रहे हैं। क्या अर्थ है आजादी का? हमें इसकी परिभाषाओं में एक बार फिर उतरने की जरूरत है। हम तरह की विचारधारा, हर तरह के धर्म, हर तरह की संस्कृति, हर तरह के त्योहार, हर तरह के लोग सबको आजाद करने की जरूरत है। आखिर, आजादी सबको मिली थी न। फिर, वर्चस्व की लड़ाई के जरिए हम फिर गुलामी को पोषण देने पर क्यों तुले हैं? इस 15 अगस्त इसी पर सोचिए। एकांत में बैठकर। आंखें मूंदकर। एक नागरिक की तरह। एक भारतीय की तरह। एक बटा एक सौ पच्चीस करोड़ भारत की तरह।

(15 अगस्त 2018 को लिखित)

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...