Wednesday 5 September 2018

सब कुछ छोड़कर हम आदमखोर बनते जा रहे हैं

तरकशः बीते साल पर साल, आजादी का क्या हाल!

निर्दोष और वैचारिक भिन्नताओं के खिलाफ हिंसा किसी भी सूरत में गलत है। अगर आप उसे जस्टिफाइ कर रहे हैं तो एक आजाद और शांतिप्रिय देश के लिए आपसे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता। सालों, युगों और कल्पांतरों पहले क्या हुआ था या सालों, युगों और कल्पांतरों से क्या हो रहा है जैसे वाहियात और गैर-जरूरी कुतर्क भी किसी की हत्या को जायज नहीं ठहरा सकते। हिंदू, मुसलमान, सिख - की धार्मिक भावना, के अस्तित्व पर खतरा या के संरक्षण के लिए भी किसी की हत्या नहीं की जानी चाहिए। देशद्रोही को भी मारने का अधिकार हमें नहीं है।

कानून है। लाखों-करोड़ों खर्च करके हमने अपना संविधान बनाया है। और इस संविधान बनाने के लायक बनने के लिए बहुत खून बहाया है। यह खून इसलिए बहा है कि आगे निरर्थक खून बहने से रोका जा सके। लेकिन, क्या ऐसा हो पाया है। 70 साल भी ठीक से नहीं बीते और हमने आजादी के समस्त मूल्यों को लहूलुहान कर दिया है। अंग्रेजों को जिनकी बात पसंद नहीं आती थी उनके साथ वो हिंसक सुलूक से नहीं हिचकते थे। आजादी की नींव यहीं से पड़ी थी। शासन के चरित्र से हमें दिक्कत थी। शासन के उसी चरित्र की ओर हम क्या नहीं बढ़े जा रहे आजादी के 70 साल बाद।

बहुत से लोग कहेंगे कि इतना भी बुरा हाल नहीं है भाई। वो जान लें कि है। जितना वो सोचते हैं या हम सोचते हैं उससे भी बुरे हालात हैं। हम जब विचारधारा, देश और धर्म के नाम पर मनुष्यों की हिंसा को जस्टिफाइ करने लगें तो समझिए हालात बुरे ही नहीं अनियंत्रित भी हैं। आजादी के बाद हमें अपने कृषि क्षेत्र में काम करना था कि आत्मनिर्भर ही नहीं दुनिया में पोषक भी बन सकें। हमें अपनी शिक्षा पर काम करना था कि शिक्षित ही नहीं विश्व-शिक्षक भी बन सकें। हमें अपने स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करना था कि निरोग ही नहीं विश्व-चिकित्सक भी बन सकें। उद्योग की दिशा में मेहनत करनी थी कि उद्यमी ही नहीं विश्व में पालक भी बन सकें। खेल की दिशा में आगे बढ़ना था कि खिलाड़ी ही नहीं खेल-शक्ति भी बन सकें। बनने के लिए कितना कुछ सोचा गया था। लेकिन हम क्या बन पाए? हालत यह है कि सब कुछ छोड़कर हम आदमखोर बनते जा रहे हैं।

शांति, सद्भाव, प्रेम, बंधुता डरपोक लोगों की ढाल नहीं है। ये मानव-मूल्य हैं। विचारों की लड़ाई में विचारों को कटने की बजाय ये कट रहे हैं। दिमाग और दिल अलग-अलग जगहों पर होते हैं। इनके संवाद भी अलग-अलग ही होने चाहिए। मतभेद और मनभेद को एक होने देना आपके व्यवहारकुशलता और नागरिक जिम्मेदारी की सबसे बड़ी हार है। कुछ घंटों बाद हम आजादी की 72वीं सालगिरह मनाएंगे। हर साल की तरह आजादी के शूर याद किए जाएंगे। अपने देश को सबसे आगे ले जाने की बातें होंगी। प्रेम, अमन को बढ़ावा देने की जिम्मेदारियों के पालन का वादा किया जाएगा। तिरंगे के आगे राष्ट्रगान गाया जाएगा - भारत भाग्य विधाता - जय हे, जय हे। हर साल करते हैं ये सब हम। 15 अगस्त 1948 से लेकर आज तक हर साल।

ये अलग बात है कि आजाद भारत की सुबह ही आजादी की मूल भावना की हत्या से होती है। हमने आजादी के लिए अहिंसा को हथियार बनाया। आजादी मिलते ही सबसे पहले अहिंसा के साथ हिंसा की और लगातार करते आ रहे हैं। क्या अर्थ है आजादी का? हमें इसकी परिभाषाओं में एक बार फिर उतरने की जरूरत है। हम तरह की विचारधारा, हर तरह के धर्म, हर तरह की संस्कृति, हर तरह के त्योहार, हर तरह के लोग सबको आजाद करने की जरूरत है। आखिर, आजादी सबको मिली थी न। फिर, वर्चस्व की लड़ाई के जरिए हम फिर गुलामी को पोषण देने पर क्यों तुले हैं? इस 15 अगस्त इसी पर सोचिए। एकांत में बैठकर। आंखें मूंदकर। एक नागरिक की तरह। एक भारतीय की तरह। एक बटा एक सौ पच्चीस करोड़ भारत की तरह।

(15 अगस्त 2018 को लिखित)

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