Thursday 27 July 2017

दोहे: जी में आए फूंक दें, गीता और कुरान

दिल्ली से बंगाल तक, लहू-लहू-अंगार।
आर्यवर्त में चल रहा,संस्कृति का श्रृंगार।

ज़हर-ज़हर हर शहर में,नफरत की दुर्गंध।
घर टूटे पर बन रहा, है वैश्विक सम्बंध।।

राष्ट्रवाद बंधक बना,मानवता असहाय।
राजनीति के व्यूह में, मंदिर-मस्जिद-गाय।

संसद की बेचारगी, जन-गण का दुर्भाग।
कैसे हो प्रतिरोध जब, चूनर में है दाग।।

गलियां हैं सहमी हुईं, चौराहे खामोश।।
लुच्चे खोते होश हैं, सरकारें बेहोश।।

'काम' के बदले लाठियां, 'दाम' के बदले मौत।
'जाम' के बदले लोन है, 'नाम' के बदले मौत।

तलवारों की नोक पर, कितने पहलू खान!
इतना सस्ता हो गया, आखिर कब इंसान?

देख तेरे संसार की, क्या हालत भगवान।
जी में आए फूंक दें, गीता और कुरान।

Sunday 23 July 2017

अनुभवों के अध्याय सरल नहीं होते

अनुभवों के अध्याय सरल नहीं होते लेकिन समझ में सरलता से आ जाते हैं। आज बहुत सी चीज़ें अनुभव के रास्ते दिमाग में आ चुकी हैं और कुछ धारणाओं और मान्यताओं के रूप में परिणत हो चुकी हैं। अब ज़िन्दगी थोड़ी-थोड़ी समझ भी आने लगी है। जब भी मन उदास होता है हम ज़िन्दगी की परिभाषाएं पढ़ने बैठ जाते हैं। जब भी हम निराश छोटे हैं किस्मत के अर्थ टटोलने लगते हैं। जब भी हम हारते हैं तो बजाय अपनी कमियों पर सुधारात्मक दृष्टि डालने के हम उन कमियों पर घुटने टेक देते हैं। सबकी तो नहीं लेकिन बहुतों की यही कहानी है। मेरी भी इसलिए है क्योंकि मैं केवल अनुभव लिख पाता हूँ और आज भी मैं वही लिख रहा हूँ।

अपना स्वयं का अध्ययन करना, खुद की पड़ताल करना अपने आप को पहचान लेना कितना ज़रूरी है? यह ज़रूरी भी है या नहीं? मुझे ऐसा लगता है कि यह मानसिक तनाव और हीन भावना के अलावा कुछ भी सृजित कर पाने के लायक नहीं है। इसलिए इसके बदले किसी महापुरुष की जीवनी पढ़नी चाहिए। कोई अच्छा सा लेख पढ़ना चाहिए।

मैंने अपने आप को बहुत पढ़ा है। मेरी हर आदत पर विश्लेषण किया है। इससे मुझे पता चला कि मुझमें एक नहीं, दो नहीं हज़ारों कमियां हैं। मैं जानता हूँ कि इनका परिणाम अच्छा नहीं होगा, फिर भी मैं इन कमियों में सुधार नहीं कर पा रहा। यह भी मेरी एक कमी ही है। मेरे साथ यह भी दिक्कत है कि मुझे अपनी सारी गलतियां पता होती हैं। मुझे पता होता है कि मैं जो कर रहा हूँ या करने जा रहा हूँ वो गलत है फिर भी मैं उसके लिए कुछ भी नहीं कर पाता। अपने आप को कोसने के सिवाय। एक वाकया है ऐसा कि एक बार दारागंज इलाहाबाद के रेलवे स्टेशन पर अपने मित्र राकेश से बात करते हुए मैं अपनी कही किसी बात को याद करने की कोशिश कर रहा था और यह भी कि ये बात मैंने कही किससे थी। हल्का सा संकेत पाते ही राकेश बोल पड़े कि बात यह थी और आपने मुझसे ही कही थी। आगे जोड़ते हुए उन्होंने जो कहा था उस पर मुझे हंसी भी आई और बात कम से कम मेरे लिये तो चिंतन का विषय थी ही। उन्होंने कहा कि दिन भर आप अपने आपको कोसते ही तो रहते हैं।

मुझे ख़ुशी है कि मुझमें आत्ममुग्धता नहीं है, आत्मप्रशंसा की आदत नहीं है, शायद अहंकार भी न हो, लेकिन इस बात की चिंता भी काम नहीं है कि मुझमें खुद के बारे में अच्छा महसूस करने की भी आदत नहीं है। पता नहीं टैलेंट वगैरह का स्तर मुझमें कितना है! लोगों की आशाएं मुझे कभी कभी डरा देती हैं। कभी कभी नहीं शायद हमेशा ही। इससे आत्मविश्वास गिरता है, आत्मबल कमजोर होता है। कभी कभी मैं कई प्रतियोगिताएं इसीलिए ज्वाइन ही नहीं करता हूँ कि मन में पहले से ही धारणा बन जाती है कि यह जीतना मेरे वश की बात नहीं।

मेरे आस-पास रहने वाले लोगों से पूछिए! शायद उनको मेरी अच्छाइयों से ज्यादा मेरी कमियों के बारे में पता हो! ऐसा इसलिए कि मैं दिन भर उसी पर विमर्श करता रहता हूँ। जब भी खाली रहता हूँ, शांत हो जाता हूँ बिलकुल। सोचनीय मुद्रा में। लोगों को लगता है असामाजिकता की ओर जा रहा हूँ, उदास हूँ, निराश हूँ, सबसे अलग एकांत रहने की इच्छा है मेरी। लेकिन मेरे मन में तो मेरे अतीत-वर्तमान-भविष्य के घटनाक्रमों में संग्राम छिड़ा होता है। उथल-पुथल मेरे सामाजिक व्यवहार को लेकर भी होती है। किसी की मज़ाक में कही छोटी बातें भी गहरी लग जाती हैं। किसी से कभी मज़ाक कर दिया तो एक चिंता और मन में बैठ जाती है कि उसे बुरा तो नहीं लगा होगा! 'सॉरी' तो हमेशा इसीलिए तैयार रखते हैं। वही एकमात्र इलाज भी तो है इस तनाव का।

अब देख लो! आज फिर कोस लिया खुद को! पता नहीं ऐसा केवल मेरे साथ है या फिर इस तरह के और भी पीस भगवान ने बनाये हैं। ज़िन्दगी है तो जीना है ही। चाहे रोकर जियें या फिर हंसकर। हंसकर ही जीने का मैं समर्थक हूँ। बचपन से हंसने का आदती भी हूँ। लेकिन आजकल वो आदत अपने आप न जाने कहाँ खो गयी है। शायद जीवन के उस नये अनुभव का असर है।

Saturday 22 July 2017

साहित्यः कविता का सबसे संक्षिप्त रूप-विन्यास है हाइकू


 कविताओं के लिए गागर में सागर की कहावत तो बहुत पुरानी है। बात चाहे कबीर के दो लाइन और चार चरण वाले दोहों की हो या फिर गालिब के दो मिसरों वाले किसी शेर की। ये वो चमत्कार है जो शब्दों की सबसे न्यून मात्रा में जीवन के सबसे गूढ़ रहस्यों का पूरा ग्रंथ अपने आप में समेटे हुए होता है। कविता लेखन की हाइकू विधा इसी परंपरा का एक महत्वपूर्ण सोपान है। पांच-सात-पांच शब्दों के अनुशासन में बंधा तीन लाइन का यह विचित्र काव्य कम से कम शब्दों में विशद अर्थ देते हुए कविता लेखन के गागर में सागर विशेषण को पुष्ट करता हुआ दिखाई देता है। हाइकू वर्तमान में संभवतः विश्व साहित्य की सबसे संक्षिप्त कविता है। सत्रहवीं शताब्दी के आस-पास जापान में के एक कवि मात्सुओ बाशो ने पहली बार जापानी साहित्य में हाइकू का शिल्प किया था। बाशो एक बौद्ध साधक थे। यही वजह रही कि हाइकू अपने पैदाइशी दौर में प्रकृति संबंधी विषयों के इर्द-गिर्द ज्यादा गढ़ी जाती रही। जापान में हाइकू ज्यादातर प्रकृति को चित्रित करती रही और यही हाइकू जब भारत में आती है तब अपनी प्रकृति कुछ यूं बदलती है कि गोपालदास नीरज से लेकर सत्यभूषण वर्मा तक जब हाइकू लिखते हैं तो उसे सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों पर व्यंग्य-बाण के धनुष की तरह इस्तेमाल करते हैं। जापान में भी व्यंग्य साहित्य उन्नत है। वहां व्यंग्य साहित्य सेर्न्यू कही जाती है।
हाइकू के प्रवर्तक मात्सुओ बाशो


शब्द-विन्यास का यह सबसे संक्षिप्त रूप भारत में गुरूदेव रविंद्रनाथ टैगोर के प्रयासों से आया। अपनी जापान-यात्रा से लौटने के बाद गुरूदेव ने 1919 में जब जापानी-यात्री लिखी तो उसमें हाइकू का जिक्र करते हुए इस विधा के प्रवर्तक बाशो के कुछ हाइकू का अनुवाद भी किया-

पुरोनो पुकुर
ब्यांगेर लाफ
जलेर शब्द

पचा डाल
एकटा को
शरत्काल।

सिर्फ गुरूदेव ने ही नहीं, हिंदी साहित्य के अनन्य साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने भी हाइकू को भारतीय साहित्य में स्थापित करने में अमूल्य योगदान दिया है। अपनी जापान-यात्रा में अज्ञेय ने कवि बाशो की हाइकू साधना का बड़ा गहरा अध्ययन किया। 1959 के आस-पास अज्ञेय जब भारत लौटे तब उनके हे अमिताभ, सोन मछली, घाट-घाट का पानी, सागर में ऊब-डूब जैसी कालजयी कविताओं की गठरी में छंद का यह नया सांचा हाइकू भी मौजूद था। अज्ञेय ने भी बाशो की कविता का अनुवाद हिंदी मे किया था।

फुरु इके या (The Old Pond, Oh!) - तालपुराना
कावाजु तोबुकोमु (A frog jump In) – कूदा मेंढक
मिजुनो ओतू (The Water’s) – गुड़प्प..

हालांकि उपर्युक्त रचना अज्ञेय द्वारा बाशो की हाइकू का शाब्दिक अनुवाद भर है। इसमें हाइकू के अनुशासन का ख्याल नहीं रखा गया है। हिंदी साहित्य में हाइकू के प्रवेश के बाद कई साहित्यकारों ने इसके पैटर्न पर कविताएं लिखीं।

इकला चांद
असंख्यों तारे
नील गगन के
खुले किवाड़े
कोई हमको
कहीं पुकारे
हम आंएंगे
बांह पसारे।।

1964 के आस-पास लिखी गई केदारानाथ अग्रवाल की इस कविता में हाइकू की संक्षिप्तता का गुण स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। स्वयं अज्ञेय की कई कविताएं इसी तरह की हैं। साठ के दशक के बाद केदार नाथ अग्रवाल, श्रीकांत शर्मा, बच्चन, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, भवानी प्रसाद मिश्र और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे कई साहित्यकारों ने अपनी कविताओं में नया प्रयोग करते हुए दो या तीन पंक्तियों की छोटी-छोटी कविताएं लिखी हैं। इस तरह के नवप्रयोगों की प्रेरणा हाइकू से ही मिलने का अनुमान लगाया जाता है।

इस तरह से नव-प्रयोगों की अपनी प्रवृत्ति और सहज भाव से सबको स्वीकारने की संस्कृति वाले हिंदी साहित्य के कोश में इस विधा का पदार्पण हुआ। अरथ अमित अति आखर थोरे का प्रायोगिक प्रतिमान स्थापित करने वाली हाइकू आज अपनी संक्षिप्तता की वजह से सर्वाधिक तेजी से अपनाई जाने वाली विधा बनती जा रही है। हाइकू में सत्रह वर्ण होते हैं। ये सत्रह वर्ण तीन पंक्तियों में इस तरह विभाजित होते हैं कि पहली और तीसरी पंक्ति में पांच-पांच वर्ण हों जबकि दूसरी पंक्ति में सात वर्ण। जैसे-
जन्म मरण
समय की गति के
हैं दो चरण

वो है अपने
देखें हो मैने जैसे
झूठे सपने

--गोपाल दास नीरज

इसी तरह की कई हाइकू कविताएं आधुनिक हिंदी साहित्य में तेजी से अपना स्थान बनाती जा रही हैं। इसका संक्षिप्त होना ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है जो नए कवियों को अपनी ओर आकर्षित करती है। हाइकू लिखने से पहले इसका पूरा विज्ञान समझना भी जरूरी है, क्योंकि तभी इसके अर्थों का वजन बरकरार रहेगा। आज के दौर में ऐसे कवियों की कोई कमी नहीं है जिनके लिए हाइकू सिर्फ पाच-सात-पांच वर्णों का संयोजन मात्र है, इसके अलावा कुछ भी नहीं। ऐसे लोग धड़ाधड़ हाइकू की पुस्तकें छपवाकर सिर्फ कूड़ेदानों का बोझ बढ़ा रहे हैं। हाइकू के लिए गंभीर चिंतन और एकाग्रता की आवश्यकता होती है। जीवन अनुभूतियों को शब्दों में ढालकर उकेरने के लिए पर्याप्त धैर्य चाहिए होता है। तब जाकर कहीं सच्चे अर्थों में हाइकू अपने लक्ष्यों तक पहुंचता है।


कला-खेल-साहित्य सीमाओं के बंधनों को नहीं मानते। हाइकू इस तथ्य का सबसे सटीक उदाहरण है। सोलहवीं शताब्दी में जापान में पैदा हुए साहित्य के इस सबसे लघु स्वरूप ने दुनिया के कई देशों की सीमाएं पारकर वहां के साहित्य में अपना स्थान बनाया है। हिंदी में इसका स्थान साल दर साल और दृढ़ और महत्वपूर्ण होता ही जा रहा है। यूरोप में अंग्रेजी के इतर लगभग सभी भाषाओं में हाइकू काफी उत्साह से लिखे जा रहे हैं। वैश्विक एकात्म्य की स्थापना में साहित्य के योगदान की सार्थकता सिद्ध करने का दायित्व हाइकू ने अपने कंधे पर ले लिया है और वह अपने इस काम में निरंतर सफल भी हो रहा है। यह वसुधैव कुटुंबकम के मंत्र की साकार्यता के लिए शुभ संकेत है।

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...