Thursday 30 May 2019

गरीब सांसद शब्द का पुनर्जीवन

सारंगी सराहना के योग्य हैं, जिन्होंने गरीब सांसद शब्द को पुनर्जीवित किया है

यह देश काल के इस पड़ाव पर भी और कितने प्रताप चंद्र सारंगी दे सकता है? सवाल है कि कमल-निशान न होने पर भी क्या साइकिल से प्रचार करने वाले और झोपड़े में रहने वाले सारंगी संसद पहुँच सकते थे? भारतीय सियासत में गरीब सांसद शब्द कब का लुप्त हो चुका था। कब सुना था यह याद नहीं। शायद न ही सुना हो लेकिन यह सुकून देता है।

हम खुश हो रहे हैं, मोहित हैं, न्यौछावर हैं, सारंगी की गरीबी पर। उनकी जनप्रियता पर फिर भी नहीं। हम द्रवित हैं कि वह सरकारी हैण्डपम्प पर भी स्नान कर लेते हैं, उनकी योग्यता पर अब भी नहीं। उन्हें किस लिहाज से 'उड़ीसा का मोदी' कहा जाता है यह जानना हमारे लिए अभी बाकी है लेकिन यह सच है कि तमाम मोदी और सारंगी हमें तब ही पसन्द आते हैं जब वह गरीब नहीं रह जाते, गरीबी के प्रतीक बन जाते हैं। जैसे अनेक वस्त्रहीन नागरिकों का यह देश अपने तिरंगीन प्रतीक को देखकर मोहित होता है।

वास्तविकता है कि सारंगी हमारे लिए विकल्प भी नहीं होते। सारंगी जैसे लोग संसद पहुँचते हैं तो इसमें उनकी निजी प्रतिभा है। हमारा कोई योगदान नहीं। अगर होता तो जनसेवा का सबसे उर्वर अवसर करोड़पतियों का गंदा खेल न बन जाता। 17 लाख की संपत्ति वाले सांसद को 5 साल में 10 करोड़ की संपत्ति का सर्वेसर्वा होते हुए देखते भी हम उसे फिर से अपना रहनुमा नहीं चुनते। तमाम सारंगी चुनाव में खड़े होते हैं और हरा दिए जाते हैं।

यह भी विडम्बना है कि हम 'गरीब सांसद' शब्द से परेशान नहीं होते। हमें यह बेचैन नहीं करता क्योंकि हमने समझौता कर लिया है कि इस देश में कोई सांसद गरीब नहीं हो सकता है। वह हमेशा अमीर ही होता है। करोड़पति। इसलिए सारंगी आश्चर्यजनक हैं। हैरान करने वाले हैं। डेमोक्रेसी पर इतराने के तौर पर इस्तेमाल किए जाने के लायक हैं लेकिन सच है कि 90 प्रतिशत करोड़पति सांसद देने वाली मतदाताओं की जमात के गाल पर सारंगी तमाचा हैं। कि होश में आ जाओ और देखो। विकल्प का रोना न रोओ। बनो और चुनो।

Saturday 4 May 2019

केजरीवाल पर हमला: लोकतान्त्रिक प्रश्नोत्तर की भाषा

प्रतिक्रियाएं भी किसी मसले पर आपका पक्ष रखती हैं। केजरीवाल को थप्पड़ पड़ने पर अगर आप हंस रहे हैं तो राजनैतिक फीडबैक की इस अपसंस्कृति को आपकी हरी झंडी है। किसी नेता से नाराजगी हो सकती है। प्रधानमंत्री इजाजत भी दे सकते हैं कि 'जूतों से मारें' या 'दलित भाइयों के बदले हमें मारें' लेकिन तय हमें करना है कि लोकतांत्रिक प्रश्नोत्तर की भाषा क्या होगी? हम किस तरह के राजनीतिक पर्यावरण का निर्माण चाहते हैं?

क्या हम चाहते हैं कि नेता काम न करें या बेईमानी करें तो उन्हें पीटा जाए? या फिर प्रक्रियात्मक तरीके से चुनाव में अपने मताधिकार से उन्हें जवाब दिया जाए? अगर ज़ाहिर तौर पर पहली बात ग़लत लगती है, जो कि है भी, तो समझना चाहिए कि हमारी हंसी, हमारा मजाक ऐसी घटनाओं में लगातार वृद्धि में मदद कर सकता है। किसी पर जूता फेंकना, थप्पड़ मारना, जूतों से मारने जैसी अराजक प्रतिक्रियाएं लोगों के गुस्से का प्रतिनिधि न बनें बल्कि, लोगों में जवाब देने का लोकतान्त्रिक तरीका विकसित हो। इसके लिए, ऐसी घटनाओं की सामूहिक और सर्वदलीय आलोचना होनी चाहिए।

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...