Monday 3 May 2021

चंदन प्रताप सिंह से आखिरी संवाद

 

हम शोक मना सकते हैं क्योंकि हम जीवित हैं। हम जब तक जीवित हैं तब तक हमें यह सुविधा प्राप्त है। जीवित न रहने के बाद शोक-अशोक कोई अर्थ नहीं रखते। चंदन प्रताप सिंह की बीमारी के बारे में पता था। ऐसा नहीं है कि यह आशंका नहीं थी कि उनके साथ यह अनहोनी हो सकती है लेकिन पता नहीं क्यों इतने सारे हादसों के बाद भी लगता था कि ऐसा एक झटके में तो नहीं होगा और अगर होने भी वाला होगा तो ऐसा होने नहीं दिया जाएगा। जाने क्यों और किस आधार पर यह विश्वास मन में था, जो अब अपनी बेकारी पर बिल्कुल अवाक हो गया है।

चंदन प्रताप सिंह, जिन्हें हम सीपी सिंह कहते थे, अपने कमरे में अकेले रहते थे, इस बात का पता था। मुझे यह भी पता था कि उन पर किसी मानवीय बीमारी का घातक हमला होगा तो संभालने वाला भी कोई नहीं होगा। उनके आसपास जो लोग थे, उनसे यह उम्मीद मैं नहीं कर सकता था। वह शायद इसलिए भी आशंकित रहते थे। उस दिन जब उनका फोन आया तो मुझे इसका थोड़ा संकेत मिल भी गया था। वह मदद चाहते थे। उनकी जिजीविषा का प्रमाण तो उनका यह अकेलेपन से ग्रस्त जीवन ही था, जो किसी भी रूप में मरण से कम तो न था।

परिवार का साथ नहीं, दोस्तों से संपर्क नहीं, सामाजिक जीवन के नाम पर जीवन प्लाजा के कुछ चाय वालों से रोज की परिहास भरी नोक-झोंक, ऑफिस में बॉस से तर्क-वितर्क और कुछ समय मुझे मीडिया में अपने शुरुआती और उत्थान के दिनों की कहानियां सुनाना, यही सब तो था जीवन में। उस जीवन में जो एक समय में अपनी संपूर्ण भव्यता देख चुका था। वह मशहूर टीवी पत्रकार एसपी सिंह (सुरेंद्र प्रताप सिंह) के दत्तक पुत्र थे। हालांकि, जब उन्होंने अपना परिचय मुझे दिया था, तब बताया था कि वह उनके बेटे हैं। काफी समय तक मैं उन्हें एसपी सिंह का बेटा ही मानता था। वैसे यह ज्यादा मतलब नहीं रखता कि वह एसपी सिंह के बेटे थे या नहीं। इतना ही पर्याप्त था कि वह चंदन प्रताप सिंह थे। गोमतीनगर के विराम खंड-5 के 276 नंबर वाले मकान की पहली मंजिल पर एक किराये के कमरे में अकेले रहने वाले पत्रकार।

इतने ज्यादा अकेले और एकांतिक कि अगर उस दिन विनीत कुमार की फेसबुक पोस्ट न दिखी होती तो हम शायद कई दिनों तक जान भी न पाते कि वह अब नहीं रहे। हम शायद उस आखिरी अनपढ़े वॉट्सऐप मेसेज के कभी न आने वाले जवाब का इंतजार करते रहते, जिसमें पूछा गया था- 'कैसी तबीयत है आपकी अब?' यह एक साधारण-सा सवाल था, जो एक मृतक से पूछा जाकर असाधारण और व्यर्थ हो गया था या शायद व्यंग्य हास्यास्पद भी। यह जब उनके पास पहुंचा तब वह इसका जवाब देने के लिए नहीं बचे थे। उनकी मृत देह शायद इस सवाल पर हंस भी रही होगी कि यह सवाल अब क्यों आया जबकि देह इस सवाल की सीमा से बाहर जा चुकी है? जिसके लिए यह हाल-चाल पूछा गया था वह अब इन एहतियातों से पार हो चुका था। निस्पंद शरीर उस अवस्था में था, जहां ठीक-अठीक होने की कोई भी मजबूरी नहीं थी।

चंदन जी चले गए थे। शांति से-दबे पांव। किसी को भी पता नहीं चला। उनके आसपास रहने वाले लोगों को भी नहीं। मुझे बताया गया कि जहां वह काम करते थे, उनके मालिक के बेटे उन्हें बुलाने के लिए आए थे। हमेशा की तरह उनके कमरे का दरवाजा खुला था। वह अपने कमरे में थे। पुकारे जाने पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। पुकारने वाले को लगा कि वह सो रहे हैं लेकिन नींद ही तो उन्हें न आती थी। देर रात सोते थे और तड़के उठ जाते थे। मैं अखबार मंगाता था और उसे सबसे पहले वह पढ़ते थे। फिर धीरे से मेरे कमरे के दरवाजे की कुंडी पर खोंस जाते थे।

एक विचित्र सी हताशा उनके चेहरे पर हमेशा होती थी। हम अक्सर पूछते कि दिल्ली से वापस क्यों लौट आए? बोलते कि अब मेरे लायक वहां माहौल नहीं रहा। मैं कहता कि फिर वापस जाएंगे? वह कहते कि यह सरकार चली जाए फिर वापस जाऊंगा और कुछ नया शुरू करूंगा। वह एक छोटे-से वेब पोर्टल पर काम करते थे। शायद उन्हें हर दिन का कुछ मेहनताना उनका मालिक दे देता था। वह शायद उनसे हर काम कराता। पानी लाने से लेकर, सब्जी खरीदवाने तक और चाय तक उन्हीं से मंगाई जाती थी। इन सबके साथ वह पोर्टल के लिए कंटेंट भी लिखते थे।

इनमें से ज्यादातर चीजें मैं बाहर से देखता था। मैं यह कभी नहीं समझ पाया कि स्वाभिमान का इतना पक्का आदमी आखिर इस तरह के चक्रव्यूह में क्यों फंस गया है? आखिर क्या मजबूरी है कि जिसने मीडिया की दुनिया में एक जमाने में निर्णायक भूमिका निभाई है और बड़े-बड़े मैनेजिंग डायरेक्टरों तक के धौंस को सहने से इनकार कर दिया है, वह एक छोटे से पोर्टल के मालिक के सामने ऐसा अकिंचन बना हुआ है? क्या यह जीवन की उस गहरी हताशा का परिणाम है, जिसकी न तो हम थाह ले पाए और न ही उसका सही कारण जान पाए। 

उनके गहरे तालाब के पानी की तरह ठहरे और विशाल हिमालय की जड़वत और जमी हुई बर्फ की तरह शांत चेहरे पर उसे देखा जरूर है। कई बार दोस्तों के बीच इसकी चर्चा भी की है। अपने चेहरे की इस मुर्दा शांति के साथ वह स्वयं पार्थिव हो गए। कुछ दिन पहले उन्होंने फोन करके बताया कि बंगाल चुनाव में उन्हें बीजेपी से और आप से टिकट मिल रहा है? उन्हें क्या करना चाहिए। उन्होंने ईमानदार प्रतिक्रिया की मांग की थी। मैं जानता था कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है। 

वह एक अजीब सी मानसिक स्थिति में थे। उस स्थिति को हम समझते थे। उसे मनोविज्ञान में जो भी नाम दिया जाए लेकिन उस दशा के उत्पन्न होने में मुझे कोई दोष दिखाई नहीं देता था। हालांकि, चुनाव लड़ना फिर भी कोई ऐसा निर्णय नहीं था, जिसके बारे में मुझसे राय-मशविरा की जाए लेकिन दुनिया से जाने का फैसला? इस पर मुझसे बात की जा सकती थी। जैसे उस दिन उन्होंने किया था- 'भइया बहुत मजबूरी में आपको फोन कर रहा हूं। मैं बीमार हूं और कोई हाल-चाल लेने नहीं आया।'

फोन पर जब उन्होंने यह बात कही तो मुझे एक पल के लिए कीड़ों-मकोड़ों की तरह बढ़ती मानवीय जनसंख्या पर एक जबर्दस्त गुस्सा आया कि धरती पर बढ़ती इस भीड़ का फायदा ही क्या है, जब इनका आत्मिक अंतरसंयोजन ही लुप्त होता जाता हो। शायद उन्हें भी यही गुस्सा रहा हो और इसीलिए वह बिना किसी को कुछ बताए ही चले गए जबकि वह एक आखिरी बार कोशिश कर सकते थे। मेरे पास एक बार और फोन कर सकते थे।

एक बार और कह सकते थे कि 'भइया, बहुत मजबूरी में आपको फोन कर रहा हूं। जान जाने का सवाल है। कुछ कीजिए नहीं तो मर जाऊंगा।' लोग सोशल मीडिया पर अनजाने लोगों के लिए जी-जान से जुटे हैं। यह तो ऐसे दौर की बात थी। मैं भी शायद आपको बचा ही लेता। हालांकि यह कहना भी एक गर्वोक्ति हो सकती है कि मैं उन्हें बचा सकता था। बचा नहीं सकता था, फिर भी उन्हें इतनी सहायता कर सकता था कि वह अपनी सांसों को संभाल पाएं। या सिर्फ इतना ही कि अरबों की मानवीय जनसंख्या वाली इस दुनिया से जब वह प्रस्थान करते तो उन्हें ऐसा तो नहीं लगता कि उन्हें विदा करने वाला कोई नहीं है। 

मैं असहाय और असमर्थ होते हुए भी आपकी मदद तो करता ही लेकिन आपने इस विकल्प को चुना ही नहीं। आपने जाना ही चुन लिया। बार-बार के अकिंचन बनने की प्रक्रिया से प्रस्थान ही उचित समझा। आप मेरी असंवेदनशीलता को भी छपटपटाने के लिए छोड़ गए। आपने एक भयानक-सी ठोकर मारी है। इससे मन में डर बैठ गया है। डर यह की अनिश्चितता से भरी दुनिया में पल भर का भी भरोसा नहीं है। यहां कभी भी कुछ भी हो सकता है। यहां हर समय गंभीर रहना है, सतर्क रहना है। जागृत रहना है। एक-दूसरे को थामे रहना है। नहीं तो फिर पीछे सिर्फ अफसोस छूट जाएगा और एक टीस कि जीवन की एक उपयोगिता तो व्यर्थ ही व्यर्थ मर गई।

यह ठोकर बहुत बड़ी है। मैं आपका चेहरा नहीं भूल पा रहा हूं। मैं आपकी आवाज भी नहीं भूल पा रहा हूं। आप जो कहते थे, "बहुत दिन बाद कोई मिला है, जिससे लंबी बात की जा सकती है।" आप जो सुझाते थे, "फलां को पढ़ना, फलां चीजें देखना। फलां पत्रिका में फलां चीज छपी है, उसे जरूर देखना। मैं यह स्वीकार करता हूं कि मुझे इस बात से थोड़ी चिढ़ होती थी लेकिन आपका अभिभावक की तरह मुझ पर निगरानी रखना, भोजन-पानी-साफ-सफाई और किसी भी तरह की मदद के लिए तत्पर रहना, ये सब एक बड़े शहर के अकेलेपन में मुझे थोड़ा-सा सुरक्षित महसूस कराने में बहुत काम आते थे।

मैं यह भी नहीं भूल पा रहा हूं बल्कि नहीं भूल पा रहा था, जब आप जीवित थे तब भी, कि लखनऊ छोड़ते वक्त आप मेरे कमरे में आए और सामान पैक करते मुझे देखकर बोले, "यार राघवेंद्र मत जाओ। यहीं रुको। मैं तुम्हारे लिए खाना बनाऊंगा। कमरा भी साफ कर दूंगा।' ये सारे शब्द अब कान में गूंजते हैं। तब हंसी आती थी। अब इस सेंटेंस से उस शून्यता की थाह नापने की कोशिश करता हूं, जो उनके जीवन में हर दिन और भारी होता जाता था। 

उस आदमी को खो देने की तकलीफ की थाह लगाना आसान नहीं है, जो आपके हर छोटे-बड़े कदम पर समाधान नहीं तो साहस बनकर जरूर खड़ा रहे। आपके बारे में लिखते-लिखते मैं बार-बार आपसे मुखातिब-सा होता जा रहा हूं। जैसे यह लिखना आपसे आखिरी बातचीत हो। अब आखिरी बातचीत के लिए यही एक माध्यम रह भी तो गया है।

मैं ऐसा अनुमान लगाता हूं कि आप अकेलेपन की सबसे आखिरी स्तर पर थे। वहां से आगे जाने पर अकेलापन हमेशा के लिए खत्म हो जाता है। ऐसे स्तर पर होकर भी आपमें जिजीविषा थी। इस नहीं ढोए जा सकने वाले शून्य के साथ भी जीते जाना आपकी जिजीविषा का ही प्रमाण था। 

अब मैं सोचता हूं लखनऊ के बारे में तो सबसे पहले आपका चेहरा सामने आता है। याद आता है कि कैसे लखनऊ के नीरस अकेलेपन में कई बार मेरा अकेलापन आपके अकेलेपन के पास बैठकर अपनी मायूसी कुछ देर के लिए भूल ही जाता था। अब अगर लखनऊ लौटना हुआ तो मैं अपने अकेलेपन में आपकी अनुपस्थिति से यह सवाल जरूर करूंगा कि बताइए, एक झिलमिलाते दीपक की तरह आप मेरे जीवन में क्या संदेश लेकर प्रविष्ट हुए थे? और ऐसे अचानक बुझ क्यों गए?

बनारसः वहीं और उसी तरह

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