Tuesday 23 May 2017

कविताः जीवन आजकल

थके हारे,
तीसरी मंजिल से जब नीचे उतरते हैं,
तब काटती है भागती दुनिया।
यही मन चाहता है,
अंस पर लटका ये काला बैग लेकर
सतत
चलता रहूँ निर्लक्ष्य होकर,
कदम हाथी के जैसे मन्द हों,
ज़रूरत-कामना-दायित्व के बाज़ार मन में
हमेशा के लिए ही बन्द हों।
जो ठहरूं तो,
न सम्मुख हो कभी मेरे,
कहीं से भी कभी से भी,
मुझे पहचानने वाला।
मेरे मन का उलझता तार रख दूं मैं
किनारे कुछ समय।
निरन्तर गति,
अनन्तर राह,
छोटे डग
न कोई चाह।
न कोई यति
कि ऐसी गति
नियति में हो तो मिल जाए।
मेरी बिलकुल भी इच्छा ही नहीं होती
कि ऑफिस के
बड़े ही भव्य बिल्डिंग से
निकलते राह से चलता चला जाऊं
जहाँ कुछ दूर है वो घर,
कि जिसमें है वो कमरा एक बिस्तर
एक तकिया, एक टीवी, एक पँखा
एक एसी से सजा,
जहाँ पकता रहा होगा
कभी खाना,
मगर अब पक रहा हूँ मैं।

Monday 22 May 2017

पत्रकारीय संगठन की निष्ठा सत्य के प्रति है न कि राष्ट्र के

लोकप्रिय पत्रिका यंग मीडिया के अक्टूबर 2016 के अंक में 1983 के फॉकलैंड वार के दौर का एक उद्धरण छपा हुआ था। इस युद्ध के दौरान रिपोर्टिंग करते हुए बीबीसी बार- बार इंग्लैंड की सेना को हमारी सेना लिखने की बजाय ब्रिटिश सेना या इंग्लैंड की सेना लिखता था। बीबीसी की इस बात से ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री काफी नाराज हुए थे। उनकी नाराजगी पर बीबीसी के महानिदेशक(डीजी) जॉन ब्रिड ने जो जवाब दिया था वो पत्रकारिता के विद्यार्थियों और गुरुओं को रट लेना चाहिए। ब्रिड ने अपने ही देश के प्रधानमंत्री को जवाब देते हुए कहा था कि पत्रकारीय संगठन राजनैतिक सत्ता का एक्सटेंशन नहीं है। उनकी निष्ठा राष्ट्र या राज्य के प्रति नहीं बल्कि सत्य के प्रति है। पत्रकारिता से जब-जब सत्ता इस तरह की नाराजगी का प्रश्न उठाएगी तब तब बीबीसी का यह महनिदेशक इसी जवाब के साथ हमेशा कोट किया जाएगा। अपने संस्थान के महानिदेशक से भी हम किसी ऐसे कोटेशन की उम्मीद इसलिए भी कर रहे थे क्योंकि आईआईएमसी के शुरुआती दौर की एक कक्षा में मुस्कुराते हुए जब संस्थान के महानिदेशक हमारी क्लास में आए थे और निष्पक्ष तथा वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता पर जो लेक्चर दिया था उसने कुछ पल के लिए हम लोगों को यकीन दिला ही दिया था कि संस्थान भी सही हाथ में है और बतौर संस्थान के छात्र, हम भी सही हाथ में हैं। 

जॉन ब्रिड का जिक्र करना आज इसलिए भी जरुरी हो गया था क्योंकि बीते 20 मई को पत्रकारिता के भारत के सबसे बड़े संस्थान में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय पत्रकारिता विषयक सेमिनार यज्ञरुपी बोनस के साथ आयोजित किया गया था। हमारे महानिदेशक देवऋषि नारद को आदि पत्रकार मानते हैं। मतलब भारत में पत्रकारिता के इतिहास की आदि सीमा अनंतकालीन हो गई। 1983 में जॉन ब्रिड ने पत्रकारिता को राष्ट्रनिष्ठ से सत्यनिष्ठ बना दिया और पत्रकारिता का इतना पुराना इतिहास लिए भारत अब भी वर्तमान में राष्ट्रीय पत्रकारिता के विमर्श पर अटका हुआ है। हम उन्नति कर रहे हैं या अवनति यह मेरी समझ से बाहर की  बात होती जा रही है।

40 से 50 श्रोताओं के साथ संस्थान के अंदर चल रहे राष्ट्रीय पत्रकारिता पर विमर्श के विरोध में तकरीबन इतने ही लोग संस्थान के गेट नंबर दो से नारे लगा रहे थे कल्लूरी गो बैक, आदिवासियों का हत्यारा कल्लूरी वापस जाओ, केजी सुरेश मुर्दाबाद, तानाशाही नहीं चलेगी वगैरह वगैरह। विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों में कुछ संस्थान के वर्तमान छात्र थे, कुछ पूर्व छात्र, कुछ पत्रकार और कुछ पड़ोसी विश्वविद्यालय के छात्र थे। विरोधियों का विरोध कई बातों को लेकर था। पहला ये कि एक सरकारी संस्थान में यज्ञ जैसे धार्मिक अनुष्ठान क्यों हो रहे हैं? दूसरा ये कि बलात्कार, फर्जी मुठभेड़, मानवाधिकार हनन जैसे गंभीर मामलों का अपराधी कल्लूरी को संस्थान में बतौर वक्ता क्यों बुलाया गया? तीसरा संस्थान के वर्तमान छात्र जिनके पास 31 मई 2017 तक वैध रहने वाला संस्थान का पहचान-पत्र है, उन्हे अंदर सेमिनार को अटेंड करने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही है?


यज्ञ को लेकर संस्थान के डीजी का रुख एकदम साफ था। उनका कहना था कि उन्हे धर्मनिरपेक्षता का पाठ न पढ़ाया जाए। जिन्हे इस अनुष्ठान की वजह से धर्मनिरपेक्षता खतरे में दिखती है उन्हे यह मालूम होना चाहिए कि हमने देश में सभी धर्मों को समाहित किया है। दो बातें, यहां पता नहीं हमने से इनका मतलब केजी सुरेश था या फिर कुछ और। दूसरा इनके बयान सुनने के बाद धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा पर मुझे नए सिरे से सोचना पड़ेगा। सरकारी संस्थान में यज्ञ  के साथ साथ नमाज, सिखों और इसाइयों के भी धार्मिक अनुष्ठान करने की अनुमति होना धर्मनिरपेक्षता है या फिर इनमें से किसी को भी अनुमति न मिलना धर्म निरपेक्षता है?

छात्रों का कहना है कि उन्हे यज्ञ से कोई दिक्कत नहीं है। संस्थान में होली और लोहिड़ी जैसे कार्यक्रम इसी साल मनाए गए। उनका कोई विरोध नहीं हुआ क्योंकि वो व्यक्तिगत आयोजन थे। इस आयोजन में तो संस्थान यानी कि स्टेट सीधे-सीधे शामिल है। एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में यह न सिर्फ गैरकानूनी है बल्कि नैतिक आधार पर भी सही नहीं है। इस बाबत संस्थान के कुछ वर्तमान छात्र डीजी से मिलने उनके कार्यालय में गए। उनका फोन बाहर रखवा लिया गया। छात्रों के सवालों पर डीजी का मूड गड़बड़ हो गया। पूरे साल संस्थान को अपनी राजनीति से अस्थिर रखने वाले डीजी साहब ने छात्रों से कहा कि तुम लोग नेता बन रहे हो। सुनने में यह भी आया कि उन्होने तैश में आकर यह तक कह दिया कि हां मैं संघी हूं। हालांकि एक छात्र के इसे कैमरे पर बोलने को कहने पर उन्होने अपने बयान से मुकरना ही ठीक समझा।

बस्तर के विवादित आईजी कल्लूरी के पास पत्रकारों पर- वकीलों पर हमले , पत्रकारों की गिरफ्तारियां, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर मुकदमें सहित अनेक आरोपों के साथ साथ 2006 में भारत सरकार द्वारा दिया गया वीरता के लिए पुलिस मेडल भी है। इसके अलावा इंटरनेट पर कल्लूरी के विषय में पढ़ते वक्त उन पर लगा एक और गंभीर आरोप दिख गया कि उन्होने रमेश नगेशिया नामक कथित माओवादी को समर्पण के नाम पर थाने में बुलाकर उसका एनकाउंटर कर दिया। यह आरोप तो कल्लूरी को फिल्मों में दिखाए जाने वाले खतरनाक खलनायकों के रुप में चित्रित करती है जो फर्जी मूठभेड़ में माहिर होते हैं और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहलाते हैं। कल्लूरी समर्थकों का कहना है कि उन पर आरोप साबित नहीं हुए हैं इसलिए जब तक कि आरोप साबित न हो जाएं कल्लूरी निर्दोष हैं और वह सेमिनार में बोलने की योग्यता रखते हैं।

सोशल मीडिया से चला यज्ञ और कल्लूरी का विरोध जमीन पर भी उतरा लेकिन न तो यज्ञ रुका और न कल्लूरी की जबान। अरुणा आसफ अली मार्ग पर आईआईएमसी के गेट नंबर दो के सामने तमाम प्रदर्शनकारी तख्ती लेकर कल्लूरी के वापस जाने संबंधी नारे लगा रहे थे।अंदर संस्थान के महानिदेशक अपने ही संस्थान के छात्रों को असुर सिद्ध कर रहे थे। यज्ञ रोकने वाले मूर्खों को हिंदुओं का सेक्यूलरिज्म याद दिलाते हुए केजी ने कहा कि भारत में केरल में चर्च बनाने के लिए सबसे पहले जमीन हिंदू राजाओं ने दी थी। उन्होने उन्ही के अनुसार आदि पत्रकार नारद से पत्रकारिता सीखने की सलाह दी जो दैत्यों और देवों दोनो से मिलते थे। अब इसमें उन्होनें कल्लूरी साहब को कौन सी कैटेगरी में रखा वही जाने।

वंचित आदिवासियों के उत्पीड़न और यहां तक कि उनकी हत्या का आरोप झेल रहे कल्लूरी को वंचितों से ही जुड़े विषय पर अपना विचार रखना था। उनकी गणित के अनुसार बस्तर के 40 लाख लोगों में से महज 5 लोग उनके विरोधी हैं। उनका कहना शायद ठीक हो अगर वो यह कहना भूल गए हों कि महज 5 लोग बचे हैंपुलिस और नक्सलियों के बीच आदिवासी पिस रहे हैंजैसे गंभीर मुद्दों पर बोलने के अलावा उन्होने पति-पत्नी पर बहुत सारे जोक्स भी सुनाए। इस पूरे मसले पर पत्रकारिता की नई पौध किस तरह से आमने सामने थी और उनकी आज की प्रतिक्रियाएं भविष्य में पत्रकारिता कैसी तस्वीर बनाएंगी इसकी झलक सोशल मीडिया पर उनके पोस्ट्स जरुर दे देते हैं।

विरोधियों को जवाब देते हुए संस्थान के वर्तमान छात्र राघवेंद्र सैनी लिखते हैं कि मार्क्स और मैकाले के पुत्रों से मुकाबला हो रहा है। इसके साथ वह आईआईएमसी 20 मई  का हैशटैग भी लगाते हैं। संस्थान के डीजी केजी सुरेश को चुनौती देते हुए अंकित सिंह लिखते हैं कि डीजी साहब घबराइए नहीं,आपके अश्वमेध का घोड़ा आपके ही छात्र रोकेंगे। दीपांकर पटेल लिखते हैं भारत के सबसे बड़े पत्रकारिता संस्थान आईआईएमसी में सरकारी विचारधारा का शंख बज चुका है। जश्न मनाइए आप गूंगे हो रहे हैं।

इस पूरे प्रकरण में खिंची रेखाओं ने तीन पालों का निर्माण किया था। एक उनका था जो कार्यक्रम के समर्थन में थे। दूसरे वे जो विरोध में थे। तीसरे वो थे जिन्हे इस मसले से कोई लेना देना नहीं था। केजी सुरेश ने संस्थान में आने के बाद से कई ऐसे कार्यक्रम आयोजित करवाए थे जिनसे छात्रों को काफी फायदा हुआ। एक छात्रवत्सल डीजी के तौर पर उनकी प्रतिष्ठा संस्थान में थी। लेकिन एक विशेष विचारधारा के प्रति उनका झुकाव और उनका अभिमान उनके सारे सकारात्मक पक्षों को तहस-नहस कर देता है। संस्थान के पांच छात्रों को उन्होने सिर्फ इसलिए नोटिस थमा दिया था कि उन्होने सोशल मीडिया पर उसी संस्थान के ऐसे शिक्षक के समर्थन में पोस्ट लिख दी थी जिन्हे बिना कारण बताए या नोटिस दिए संस्थान से सस्पेंड कर दिया गया था। चर्चा थी कि सस्पेंड होने वाले अध्यापक नरेन सिंह राव वामपंथी गलियारे की विचारधारा मानते थे। सिर्फ इतना ही नहीं हमारे ही एक सहपाठी रोहिन वर्मा को डीजी साहब ने इसलिए सस्पेंड कर दिया कि उन्होने सोशल मीडिया पर अपने एक आलेख में संस्थान को गोबर लिख दिया था। एक अंग्रेजी न्यूज वेबसाइट के लिए लिखे अपने लेख में रोहिन ने संस्थान से बिना नोटिस सस्पेंड नरेन सिंह का जिक्र कर दिया था। यह बात भी डीजी साहब को नागवार गुजरी। संस्पेंड करने के ये कारण खुद डीजी साहब ने क्लास में आकर लगभग सफाई देते हुए बताया था। ये वो सारी घटनाएं हैं जिन्होने यह लगातार सिद्ध किया है कि संस्थान के महानिदेशक उन विचारधाराओं को बर्दाश्त करना अब तक नहीं सीख पाए हैं जो उनके पक्ष से इतर होती हैं जबकि पत्रकारिता के प्रोफेशन में उन्होने तीन दशक से ज्यादा समय बिताया है।

राष्ट्रीय पत्रकारिता पर सेमिनार के समर्थकों नें संस्थान में यज्ञ के विरोध को यज्ञ के विरोध के रुप में प्रचारित करके मामले को सांप्रदायिक बनाने की भरपूर कोशिश की है। सेमिनार के शीर्षक से तो यही संदेश मिलता है कि पत्रकारिता के विस्तृत अस्तित्व को राष्ट्रीयता के पगहे से बांधकर उसके पर कुतरने का अभियान शुरु हो चुका है। अब जो इसके विरोध में हैं उनके राष्ट्रद्रोह का सर्टिफिकेट तो तैयार ही है। यह नए किस्म की पत्रकारिता का केवल नाम नया है। इस पर काम तो बहुत पहले से ही शुरु है।


पत्रकारिता जब अपनी- अपनी राष्ट्रीयता तलाश लेगी और उसकी निष्ठा सीमाओं के खूंटे से बंध जाएगी ऐसे में सत्यनिष्ठा, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता जैसे पत्रकारीय कर्तव्य सिर्फ पत्रकारिता की किताबों के कंटेंट बनकर रह जाएंगे। सामाजिक सरोकार, वंचित-शोषित वर्ग अपनी आवाज खोकर गूंगा हो जाएगा। सत्ता का अहंकार और मुखर हो जाएगा। ऐसे में जंतर-मंतर पर सिर मुंड़वाकर विरोध करने वाले किसानों से सोनू निगम के सिर मुंड़वाने की खबर ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगी। ऐसे में सहारनपुर की घटना से कपिल मिश्रा का खुलासा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगा। ऐसे में माननीयों से सवाल करने से उनका गुणगान ज्यादा अहमियत रखने लगेगा। इन सारी बातों से कोई अनभिज्ञ नहीं है लेकिन इन बातों पर कोई गंभीर भी नहीं है। इन सवालों को केवल विमर्श से उतारकर इनके जिम्मेदारों के चौखट तक पहुंचाना होगा और जरुरत पड़े तो उनके गिरेबान तक भी। पत्रकारिता की सार्थकता तभी है और जरुरत भी। 

सभी फोटो साभारः नरेन सिंह

Sunday 21 May 2017

कविताः ये साज़िश है किसकी











बाहर आकाश ने अपने झरने खोल दिए थे,
मिट्टी से ठठोल करते हुए,
बाहर गायों के झुण्ड ने पेड़ के नीचे जगह ढूंढ ली थी,
ताकि उनके सफ़ेद और चितकबरे बाल भीगकर
उन्हें ठंड की ठिठुरन न प्रदान करें।
बाहर चिड़ियों ने कुछ पत्तों की ओट में
खुद को छिपा लिया था,
बाहर फुटपाथ वाली चाची के बरसाती के छत से
चू रहा था बरसात का पानी।
बाहर ईंट-पत्थरों के पेड़ों की काया
नहा रही थी खुले आसमान के नीचे।
बाहर गिट्टी की नीली सड़कों पर बारिश की बूँदें
बजा रही थीं अद्भुत संगीत।
बाहर ठंडे पानी से नहाई हवाओं ने हुड़दंग मचाया हुआ था।
बाहर अशोक के हरे पत्ते और हरे,
शीशम की भूरी डाल काली
हो गयी थी,
और दुआर की मिट्टी
ने अपने इत्र का भंडार खोल दिया था।
बाहर खेत भीग रहे थे,
खलिहान भीग रहे थे,
और मुझे बारिश से बचाया हुआ था सात मंजिल की एक बिल्डिंग ने।
उसकी बौछारों से सुरक्षित रखा था कांच के पर्दों नें,
और उसकी एक बूँद तक देखने से वंचित रखा था
उन पर्दों के अपारदर्शी कपड़ों ने।
बाहर बारिश ने बड़ी देर तक पुकारा मुझे,
बाहर बारिश ने बड़ी देर तक मेरा इंतज़ार किया,
और भीतर
मुझे इसकी भनक भी नहीं।
मैं पूछता हूँ
ये साज़िश है किसकी,
आख़िर
ये किसका षड्यंत्र है।
ये मेरी और उसकी मोहब्बत है
या हिंदुस्तान का लोकतंत्र है!
-राघवेंद्र

Photo Courtesy: Internet

Saturday 20 May 2017

असुर केवल यज्ञ रोकते नहीं थे जनाब!

pic courtesy: Naren Singh Rao's Facebook Wall
ठीक है! जीत गये आप लोग। आसुरी शक्तियां आपको हरा नहीं पायीं। 'प्रतिष्ठित ब्रांड' आईआईएमसी में यज्ञ संपन्न हो गया। लेकिन निवेदन है आपसे कि जीत के जश्न से समय निकालकर एक बार विरोध के आवाज की गलियों में झांककर सुनिएगा ज़रूर कि विरोध के सेंटेंस में यज्ञ का विरोध था कि यज्ञ के पीछे की 'मंशा' पर।

असुर केवल यज्ञ रोकते नहीं थे जनाब!असुर यज्ञ करते भी थे। सुर-असुर के यज्ञों के प्रयोजन में अंतर होता था और इसीलिए आवश्यकतानुसार दोनों के अनुचित यज्ञों को रोकने का काम उस दौर के जागरूक लोगों की जिम्मेदारी थी। ग़लत यज्ञ का साथ देने वाले भी असुर ही होते हैं।

सोचिए ज़रा! मेघनाद के यज्ञ को हनुमान ने न रोका होता, बलि का यज्ञ बामन ने सम्पूर्ण हो जाने दिया होता, परीक्षित के यज्ञ को देवताओं ने अनुनय विनय से बन्द न कराया होता तो मानव सभ्यता और धरातलीय संतुलन के इतिहास का भूगोल कैसा होता! यज्ञ के पीछे की मंशा यज्ञ की पवित्रता-अपवित्रता को निर्धारित करती है और यह भी कि उसे रोकने वाला सुर है या असुर।

आज के दौर में हिंदुस्तान का संविधान ही सर्वोपरि धर्मग्रन्थ है जिस पर आधारित है 125 करोड़ इंसानों की ज़िन्दगी। इसकी सारी नीतियां, इसके सारे नियम,इसके सारे प्रावधान इस युग के देवताओं के लिए कर्म और कर्तव्य के आदेशपत्र हैं। इसके खिलाफ जाने वाला ठीक उसी तरह से असुर है जैसे विधि के बनाये सारे विधानों को चुनौती देने वाला रावण और हिरण्यकश्यप।

संविधान स्टेट को पंथनिरपेक्ष कहता है। स्टेट किसी भी ऐसे काम में इन्वॉल्व नहीं हो सकता जो किसी धर्मविशेष का प्रतिनिधि हो। व्यक्तिगत स्तर पर इसकी पूरी स्वतंत्रता है। कृष्ण गोपाल सुरेश आईआईएमसी नहीं हैं इसलिए आईआईएमसी व्यक्तिगत नहीं है। आईआईएमसी हिंदुस्तान के असंख्य बहुपंथी जनता के करों के ईंधन से चलने वाला एक सरकारी संस्थान है। इसलिए डीजी के जी सुरेश सरकारी मुलाज़िम हैं।अगर वो संविधान के खिलाफ इसलिए जाने की हिम्मत दिखा रहे हैं कि उन्हीं के संस्थान के कुछ प्रह्लादों ने उनकी स्तुति गाने से इंकार कर दिया था तो वो माने चाहे न माने के जी सुरेश हिरण्यकश्यप हैं।

वो एक बात और गाँठ लें आज मंच से जिस संस्कृति की दुहाई देकर खिलखिलाते हुए उन्होंने बाहर विरोध कर रहे लोगों को असुर घोषित किया है न उसी संस्कृति के इतिहास के पन्ने-पन्ने पर लिखा है कि अनीति और अहंकार किसी का नहीं रहता। बाकी जिन लोगों का फेसबुक whatsapp कल्लूरी और आईआईएमसी में यज्ञ को लेकर चुप्पी साधे था और आज प्रोटेस्ट करने वालों पर तंज कसने के लिए खुला है वो खुद
डिसाइड करें कि वो क्या हैं।

Thursday 18 May 2017

कविताः धैर्य तुम डटे रहो

धैर्य तुम डटे रहो।
झुको नहीं,रुको नहीं,
फटो नहीं,हटो नहीं,
कटो नहीं,बंटो नहीं।
ये हार एक भार है,
फ़टे हुए जगह जगह
भाग्य-बोरियों में जो
रखी हुई है,रिस रही।
ये घात है बड़ी शिला
जो धार से रगड़-रगड़
के घिस रही है पिस रही।
तुम्हारी ज़िन्दगी गुज़र
न जाए जब तलक,यही
कहो, यही रटे रहो।
कि धैर्य तुम डटे रहो।

झुके न शीश,गिर पड़े
किसी के काँध पर कभी,
रुके न पाँव तब तलक
बेकार हो,बेजार हो
जो गिर पड़े बिखर पड़े
सफर में टूट कर कभी।
थके न आँख, स्वप्न से
न सूख जाए जब तलक
नसों में खून बूँद बूँद
आंख अश्रु बूँद बूँद
रोम स्वेद बूँद बूँद।
रौशनी जले सदा नयन में,
तब तलक,ज़रा,दिए की
आस के, कि जब
तलक न जल उठे चिता।
लीक से सदैव ही,
जो है बनी घिसे पिटे
थके-वके से पाँव से,
जो है निकल रही किसी
अमरलता के गाँव से,
छँटे रहो, कटे रहो।
कि धैर्य तुम डटे रहो।

भूख मार क्या सकोगे,
बुझते दीप हो स्वयं तो,
चाँद को,नक्षत्र को,
कि सूर्य को कि जुगनुओं को,
फूंक मार क्या सकोगे।
सांस ही जो रोक लो,
जो धड़कनों को रोक लो,
जो जा रही हैं थामने को
अपनी यात्रा अभी।
जानता है कौन,पार
हो तुम्हारे,कोई जीत,
जानता है कौन,पार
हो तुम्हारे,वीपरीत।
कोई तो है,कहीं तो है
अमूल्य रत्न,गर्भ में
समय के,जिसके आखिरी
हो जीर्ण-शीर्ण मानचित्र।
इसलिए ही तुम रहो,
भले सड़े हुए रहो,
या फिर कि तुम फ़टे रहो।
कि धैर्य...
तुम डटे रहो।।
कि धैर्य तुम डटे रहो।।
-राघवेंद्र

Tuesday 16 May 2017

छूटते पदचिन्हों के साथ एक दौर इतिहास होता जा रहा है...

बेर सराय में मेरे ढाई ठिकाने रहे।पहला समर का आवास दूसरा अभिषेक का रूम और आधा स्वयं मेरा अपना कमरा।दिन भर आईआईएमसी से लेकर जेएनयू तक भटकते रहने के बाद रात में भी रंग-ए-महफ़िल सजता था।लगभग साल भर चली इस प्रक्रिया में एक दूसरे के बारे में बात करना,उसके उद्देश्यों के बारे में पूछना उसका इतिहास जानना,आने वाले दिनों के लिए क्या योजनाएं हैं,क्या करना चाहते हैं इन सभी चीजों से सम्बंधित बातें करना इन रतजगों का विषय हुआ करती थीं।तमाम तात्कालिक राजनैतिक और सामाजिक मुद्दे सुलझते थे।खूब बातें होती थीं।चूंकि हममें से अधिकांश लोग रचनाकार थे तो कभी कभार रात 2 बजे ही कवि सम्मेलन भी आयोजित हो जाया करता था।अनुराग भाई सर्वाधिक मांग वाले कवि थे।इसके बाद आर्य भारत की आग उगलती कविताएं सुनी जाती थीं।

आज हमने सारा सामान समेट लिया है।बेर सराय में रुकने की अब कोई सम्भावना नहीं है।यहां रुकने का अब कोई मतलब और अधिकार भी नहीं है।जीवन के सर्वाधिक अविस्मरणीय क्षणों का इतिहास समेटे इस शानदार वातावरण में रहने के कारण भी तो खत्म होते जा रहे हैं।कर्मभूमि भी अब नॉएडा सेक्टर 10 की दौड़ती भागती ज़िन्दगियों के बीचोबीच मिल गयी है।वहां कोई ठहराव नहीं होगा।वहाँ कहीं एकांत नहीं होगा,वहां बेर सराय की तरह स्वतंत्रता रात और दिन की समयसीमा से आज़ाद नहीं होगी।वहां रतजगे न हो पाएंगे शायद!वहां महफिलें न लग पाएंगी शायद।

ये सारी चीज़ें मन को दुखी कर रही हैं।छठवीं मन्ज़िल के रूम नम्बर 604 में लगने वाली महफ़िल सबसे ज्यादा याद आने वाली है।जीतू की चाय और शिकंजी शायद ही भूल पाएं और वो हमारे अपने संसद भवन की सीढ़ियां जिन पर बैठकर आईआईएमसी बैडमिंटन कोर्ट की थकान उतारा करते थे,जिन पर अपनी समस्त निराशाओं परेशानियों को बगल में बिठाकर उनसे बात करने की कोशिश करते थे वे सब अब पीछे छूट रही हैं।एक बार फिर से किसी रूम नम्बर 604 के कमरे में कवियों का जमघट हो,इसकी संभावना भी अब हमसे हाथ छुड़ा रही है।

वक़्त की धारा ने सब कुछ तितर-बितर कर दिया है।मातुल और विवेक नॉएडा में तो हैं लेकिन फिर भी दूर हैं।ये दूरी सिर्फ किलोमीटर में नहीं है अब,इस दूरी के साथ समय की विमा भी जुड़ गई है।अनुराग और अभिषेक फिलहाल तो यहीं हैं लेकिन आगे इनका भी ठिकाना वसंतकुंज हो जाय शायद।अमण चंडीगढ़ चला गया,अमन और गौरव का कोई भरोसा नहीं कहाँ रहे।हाँ,समरवा तो कहीं भी रहे,उससे दूरी महसूस नहीं होगी,उसका पीछा तो ज़िन्दगी भर नहीं छोड़ना है।

ये बेर सराय की जमघट थी।सबने अपने ठिकाने ढूंढ लिए और छोड़ दिया 2016-17 के कालखण्ड के उस बेर सराय को अकेला,जो हम सबकी हर महफ़िल का साझेदार हुआ करता था।सब कुछ अब  पीछे छूट रहा है।छूटते पदचिन्हों के साथ एक दौर इतिहास होता जा रहा है।भविष्य भी तो रोंआ गिराए ही हमारा स्वागत कर रहा है।

ख़ैर,अब इतने बड़े त्याग की बुनियाद पर कुछ अच्छा ही हो,यही उम्मीद है।सब खुश रहें,सब सफल होवें,सबका भला हो।

अलविदा बेर सराय
16/04/2017,मंगलवार,बेर सराय

~फेसबुक से

Thursday 11 May 2017

हमारी सल्तनत के पाये हिल रहे हैं





मुझे उसे ये समझाने में हज़ारों बरस लग गए कि 'डायन' का कोई पुल्लिंग नहीं होता जबकि 'देवी' का पुल्लिंग 'देवता' होता है।

मुझे उसे समझाने में हज़ारों साल लग गए कि 'कुलटा' का कोई पुल्लिंग नहीं होता जबकि 'सुशीला' का 'सुशील' होता है।

मुझे उसे समझाने में हज़ारों साल लग गए कि 'वेश्या' का कोई पुल्लिंग नहीं होता जबकि 'माँ' का पुल्लिंग 'बाप' होता है।

वो पागल थी।समझ में तो नहीं आया लेकिन मान लेती थी चुप चाप।

लेकिन अब... अब वो हमारे बनाए शब्दकोशों के भूगोल पर इतिहास से सवाल करने का विज्ञान सीख रही है।जिसके बाद या तो वो डायन, कुलटा और वैश्या का पुल्लिंग शब्द ढूंढ लेगी या फिर वो पन्ने फाड़ देगी जिसकी भूमि पर इन शब्दों के कैक्टस उगे हैं।

हमारी सल्तनत के पाये हिल रहे हैं।किसी 'बरगद' की जड़ें गहरी फ़ैल रही हैं।

Tuesday 9 May 2017

सच में अब गाण्डीव पकड़ना ही पड़ेगा!

ऑफिस तो अच्छा था।इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग के तीसरे फ्लोर पर है जनसत्ता एडिटोरियल का ऑफिस।बड़ा सा हॉल है,जिसमे अलग-अलग चैम्बर हैं,अलग-अलग डेस्क हैं।कोई कार्नर इंडियन एक्सप्रेस का है,कोई फाइनेंसियल एक्सप्रेस का,कोई जनसत्ता का तो कोई इंडियन एक्सप्रेस वुमन पोर्टल का।सब लोग अपने-अपने सिस्टम पर न्यूज़ इकट्ठा करने में लगे हुए हैं।मेरी ईमेल आई डी पर 3-4 लिंक्स आये थे।अंग्रेजी में थे,उनका हिन्दीकरण करके स्टोरी बनानी थी।
पहले दिन करीब 5 न्यूज़ स्टोरी ही बन पाई हमसे।काम कुछ यूं है कि बस पहले ही दिन मन ऊब गया है।लगता है हमसे न हो पायेगा अब कुछ।पहले कुछ घण्टे तो ऐसा लग रहा था जैसे क्लास में हों और क्लास वर्क मिला हुआ है,उसे ही करने की कोशिश कर रहे हैं।लेकिन यह क्लास तो थी नहीं।यह तो ऑफिस था।यहां सबकुछ हमारी मर्ज़ी से तो होना नहीं था।एक अदृश्य बन्धन था,जिससे बंधे हुए थे।ऊपर से एक सीनियर भाई साहब ने और मस्ती-वस्ती प्रतिबंधित कर रखा था।उनका कहना था जब तक इंटर्नशिप है,मेहनत करो,खाली मत बैठो।एक बार परमानेंट होने के बाद चाहे जो करो।
बड़ी मुश्किल थी।आदत छूट गयी है लगातार मेहनत करते रहने की,खाली न बैठने की।कैसे होगा ये सब!
क्लास रूम बहुत याद आ रहा था।एक दिन पुरानी ज़िन्दगी बिछड़ी हुयी महसूस हो रही थी।लग रहा था कितनी जल्दी बड़े हो गए।आज तक बड़े होने का एहसास नहीं था।बड़ा लड़का हूँ परिवार का,लेकिन कोई ज़िम्मेदारियों का भार नहीं था।स्वच्छन्द था,मनमौजी।अब लग रहा है जैसे इस पर बड़ा प्रहार होने वाला है।कल तक उत्साहित थे,आशान्वित थे।आज डरे हुए हैं,आशंकित हैं।क्या सच में जीवन में कर्मों का संग्राम छिड़ गया है,क्या सच में अब गाण्डीव पकड़ना ही पड़ेगा!क्या सच में...लड़ना ही पड़ेगा।😞😒

Sunday 7 May 2017

कर्मक्षेत्रे:नयी पारी

एक नए अनुभव की दहलीज़ पर कदम है आज!नयी पारी भी कह सकते हैं।स्मृतियां आज उन सारे दिनों की तस्वीरों पर रौशनी डाल रही हैं,जब जब आज ही की परिणति को लक्ष्य बनाकर हमारे निर्माण को धार दिया जा रहा था।शिक्षा का सम्पूर्ण उद्देश्य एक अच्छी नौकरी की संभावना की सीमा पार नहीं कर पाता था।
नौकरी तो है नहीं यह,कुछ उसी जैसा है।अब अच्छी है या बुरी है,नहीं पता!अलग-अलग मापदंडों के अलग-अलग फैसले हैं।
अब हर रोज़ ऑफिस जाना होगा।यहां शायद बहाने नहीं चलेंगे।10 बजे का मतलब 10 बजे होगा।अभी तक तो खासकर हमारे लिए 10 बजे मतलब 10 बजे तो बिलकुल नहीं होता था,वह कभी 11 बजे होता,कभी 12 बजे होता तो कभी कभी मूड ठीक-ठाक रहता तो 9 बजे हो जाता।लेकिन अब ऐसा नहीं है।अब 'बॉसवाद' का अनुगामी बनना ही पड़ेगा।अब तक भले किसी भी 'वाद' के विवाद में न पड़े हों,अब तो पड़ना ही पड़ेगा।
पहला अनुभव होगा,जब किसी की स्टाइल शीट हमारे अपने हर अंदाज़ को संचालित करेगी,हो सकता है ऐसा न भी हो,लेकिन लोगों का तो यही मानना है।ख़ैर जो भी हो,जाकर ही तो पता लगेगा कि क्या होना है।
इलाहबाद में था,तब भइया टाइम्स ऑफ़ इंडिया मंगाते थे।हमारी ज़िद थी कि हम पढ़ेंगे तो हिंदी अख़बार, अंग्रेजी तो बिलकुल नहीं।इसलिए हम कॉलेज जाते वक्त 'जनसत्ता' खरीद लेते थे।कई लोगों का सुझाव भी था कि जनसत्ता का एडिटोरियल जरूर पढ़ना चाहिए,इसलिए भी जनसत्ता ख़ास थी।अच्छा!हर जगह मिलता भी नहीं था।यूनिवर्सिटी रोड,abvp कार्यालय के नीचे मिल जाता,वहीं ले लेते थे।तब सोचा भी नहीं था कि आज जो अखबार इतनी शिद्दत से खरीद पढ़ रहे हैं,एक दिन उसी अखबार का कार्यालय अपना ऑफिस होगा।
अच्छा!लोग भी कह रहे हैं।जितने लोगों ने हमको थोड़ा-बहुत(जितना हम लिखते हैं)पढ़ा है,वो यही कहते हैं कि तुम्हारा लेखन था भी जनसत्ता लायक।अब ये तारीफ होती थी या कुछ और,पता नहीं।रोहिन का भी कहना था कि 'जनसत्ता तुम्हारी हिंदी बचा लेगा।'जनसत्ता की जो हिंदी है वो थोड़ी सी क्लिष्ट साहित्यिक हिंदी है।इसलिए भी उसकी भाषा थोड़ी विशिष्ट है,अलग है।एक मानक के तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में उसकी प्रतिष्ठा है।'जनसत्ता की हिंदी' एक मानक है,विशिष्ट है,अलग है।अगर ऐसा नहीं होता तो लल्लनटॉप ऑनलाइन के इंटरव्यू में शताक्षी की लिखी हिंदी पर टिप्पणी करते हुए सौरभ द्विवेदी ये न कहते कि 'तुम्हारी हिंदी तो जनसत्ता टाइप है।'और फिर उन तीन चयनित लोगों में शामिल भी कर लेते जिन्हें फाइनल इंटरव्यू देना है।
भाषा जो भी हो,जनसत्ता प्रतिष्ठित है एक ऐसे पत्रकारीय विकल्प के रूप में जिसमें वस्तुनिष्ठता,निष्पक्षता,विश्वसनीयता और पत्रकारिता अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में है।एक ब्रांड भी है,इसलिए मेरे अपने दोस्तों की नज़र में मैं सही जगह पर हूँ।
अब वहां जाकर मुझे क्या करना है,नहीं मालूम।टंकण करना है,अनुवाद करना है,न्यूज़ लिखना है,आर्टिकल लिखना है,रिपोर्टिंग करनी है!!पता नहीं।लेकिन कल इंडियन एक्सप्रेस अपार्टमेंट की इस बिल्डिंग में पाँव रखते ही सामाजिक सरोकार,सामाजिक मुद्दे और सारा समाज मेरे प्रति अपना नजरिया बदल देंगे।उस ऊँची बिल्डिंग के किसी कमरे की किसी कुर्सी पर बैठकर हम जो भी करें, सड़क को,गली को,मोहल्ले को,जिले को,प्रदेश को,देश को मुझसे 'कलम से क्रांति' करने की उम्मीद तो जरूरे होगी।देखना होगा कि इस उम्मीद की ज़िन्दगी के लिए अवसर के कितने ख़ुराक़ मुझे नसीब होते हैं।
आदमी जब बुज़ुर्गीयत की ओर बढ़ता है तो उसको नसीहत मिलती है कि 'उमर हो गयी,अब भगवद्गीता का पाठ करो।'जब कोई काम नहीं तब गीता पढ़ो ताकि मोक्ष हो जाए।ज्ञान-कर्म-संन्यास योग की शिक्षा का अनुपम संग्रह यह ग्रन्थ जीवन के उस किनारे पर पढ़ना जब ज्ञान-कर्म का दौर रुखसत हो चुका हो,सही नहीं लगता।गीता पढ़ने का सही समय तब है जब आप जीवन के समरांगण में उतर रहे हों।इसकी सही जरूरत तभी है।इसलिए आज यू ट्यूब पर आधा घण्टा कृष्णरूपी नितीश भारद्वाज से गीता सुने हैं।जो चीजें समझ आयी उन्हें साझा कर रहे हैं।
कृष्ण कहते हैं कि 'सत्पुरुष अपने अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करते।कर्म करने के अधिकारी मनुष्यों को कर्म के फल में आसक्त नहीं होना चाहिए।यदि आप विजय से मोहित नहीं होते हैं तो पराजय से घबराएंगे भी नहीं।और वैसे भी बाणों के संधान पर आपका अधिकार हो सकता है,आपकी एकाग्रता-ध्यान पर आपका अधिकार हो सकता है लेकिन उस मृग पर आपका कोई अधिकार नहीं जिस पर आप बाणों का संधान किये हुए हैं।इसलिए कर्मफल की इच्छा मत रखिये।कर्मफल की इच्छा व्यक्ति के गले में बंधा वो पत्थर है जो उसे उसके तहों से उठने नहीं देती।वो व्यक्ति को समाज से काटकर अलग कर देती है और उसे व्यक्तिगत लाभ और व्यक्तिगत हानि के दलदल में धकेल देती है।'
कृष्ण बताते हैं कि 'व्यक्तिगत लाभ से पाप की गली निकलती है।समाज आपसे नहीं है,आप समाज से हैं।इसलिए आप लोकसंग्रह और लोककल्याण को ही अपना प्रथम कर्तव्य मानिए,क्योंकि जो समाज के लिए कल्याणकारी होगा वही आपके लिए कल्याणकारी होगा।'
हालाँकि ये श्रीकृष्ण द्वापर में अर्जुन को संबोधित करते हुए कह रहे हैं।आज के समय में यह कितना प्रासंगिक है,कह नहीं सकते।लेकिन फिलहाल कर्तव्यों और कर्मों के इस दौर में अच्छे-बुरे की पहचान के लिए इससे बेहतर मानक और कोई उपलब्ध भी तो  नहीं है।इसलिए इसे मानना सिर्फ मजबूरी नहीं,सिर्फ ज़रुरत नहीं बल्कि एक प्रयोग एक प्रैक्टिकल भी है जो इस दृष्टान्त को या तो पुष्ट करेगा या फिर नष्ट करेगा।

ख़ैर!नयी पारी है,नये अनुभव होंगे।उत्सुकता,उत्साह और उम्मीद चरम पर हैं।
बाकी आशीर्वाद आप सबका!!

Friday 5 May 2017

इस देश की छटपटाहट को महसूस करिये…

हमारे कैंपस यानी कि आईआईएमसी के कैंपस के ऊपर से जाता हुआ हवाई जहाज ज़मीन से थोड़ी नज़दीकी रखता है।इसलिए थोड़ा नज़दीक से हम देख पाते हैं उसको।आवाज भी तेज़ होती है।
हवाई जहाज के अपने पंख तो होते हैं,लेकिन उनकी अपनी उड़ान नहीं होती।उसको ईंधन देना पड़ता है उड़ने के लिए।एक पायलट होता है जो उसको दिशा देता है,संचालित करता है।
हवाई जहाज खुले आकाश में उड़ता है लेकिन वो ये कभी नहीं कह सकता कि वो इतना आज़ाद है जैसे कि एक छोटी सी चिड़िया।
चिड़ियों का चहचहाना लोगों को नींद से जगाता है,हवाई जहाज की गुर्राहट लोगों की नींद खराब करती है।
हवाई जहाज में (कम से कम अभी तक तो)चप्पल वाले लोग नहीं बैठ सकते।
हवाई जहाज का मालिक पायलट नहीं होता,मतलब पायलट जैसे चाहे जहाँ चाहे वहां उसे उड़ा नहीं सकता।

हवाई जहाज की जगह आज की 'आज़ाद' मीडिया को रखिये और हवाई जहाजों की गिरफ्त में फंसी हवाओं में इस देश की छटपटाहट को महसूस करिये…


'वर्ल्ड फ्री प्रेस डे'

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...