Tuesday 16 May 2017

छूटते पदचिन्हों के साथ एक दौर इतिहास होता जा रहा है...

बेर सराय में मेरे ढाई ठिकाने रहे।पहला समर का आवास दूसरा अभिषेक का रूम और आधा स्वयं मेरा अपना कमरा।दिन भर आईआईएमसी से लेकर जेएनयू तक भटकते रहने के बाद रात में भी रंग-ए-महफ़िल सजता था।लगभग साल भर चली इस प्रक्रिया में एक दूसरे के बारे में बात करना,उसके उद्देश्यों के बारे में पूछना उसका इतिहास जानना,आने वाले दिनों के लिए क्या योजनाएं हैं,क्या करना चाहते हैं इन सभी चीजों से सम्बंधित बातें करना इन रतजगों का विषय हुआ करती थीं।तमाम तात्कालिक राजनैतिक और सामाजिक मुद्दे सुलझते थे।खूब बातें होती थीं।चूंकि हममें से अधिकांश लोग रचनाकार थे तो कभी कभार रात 2 बजे ही कवि सम्मेलन भी आयोजित हो जाया करता था।अनुराग भाई सर्वाधिक मांग वाले कवि थे।इसके बाद आर्य भारत की आग उगलती कविताएं सुनी जाती थीं।

आज हमने सारा सामान समेट लिया है।बेर सराय में रुकने की अब कोई सम्भावना नहीं है।यहां रुकने का अब कोई मतलब और अधिकार भी नहीं है।जीवन के सर्वाधिक अविस्मरणीय क्षणों का इतिहास समेटे इस शानदार वातावरण में रहने के कारण भी तो खत्म होते जा रहे हैं।कर्मभूमि भी अब नॉएडा सेक्टर 10 की दौड़ती भागती ज़िन्दगियों के बीचोबीच मिल गयी है।वहां कोई ठहराव नहीं होगा।वहाँ कहीं एकांत नहीं होगा,वहां बेर सराय की तरह स्वतंत्रता रात और दिन की समयसीमा से आज़ाद नहीं होगी।वहां रतजगे न हो पाएंगे शायद!वहां महफिलें न लग पाएंगी शायद।

ये सारी चीज़ें मन को दुखी कर रही हैं।छठवीं मन्ज़िल के रूम नम्बर 604 में लगने वाली महफ़िल सबसे ज्यादा याद आने वाली है।जीतू की चाय और शिकंजी शायद ही भूल पाएं और वो हमारे अपने संसद भवन की सीढ़ियां जिन पर बैठकर आईआईएमसी बैडमिंटन कोर्ट की थकान उतारा करते थे,जिन पर अपनी समस्त निराशाओं परेशानियों को बगल में बिठाकर उनसे बात करने की कोशिश करते थे वे सब अब पीछे छूट रही हैं।एक बार फिर से किसी रूम नम्बर 604 के कमरे में कवियों का जमघट हो,इसकी संभावना भी अब हमसे हाथ छुड़ा रही है।

वक़्त की धारा ने सब कुछ तितर-बितर कर दिया है।मातुल और विवेक नॉएडा में तो हैं लेकिन फिर भी दूर हैं।ये दूरी सिर्फ किलोमीटर में नहीं है अब,इस दूरी के साथ समय की विमा भी जुड़ गई है।अनुराग और अभिषेक फिलहाल तो यहीं हैं लेकिन आगे इनका भी ठिकाना वसंतकुंज हो जाय शायद।अमण चंडीगढ़ चला गया,अमन और गौरव का कोई भरोसा नहीं कहाँ रहे।हाँ,समरवा तो कहीं भी रहे,उससे दूरी महसूस नहीं होगी,उसका पीछा तो ज़िन्दगी भर नहीं छोड़ना है।

ये बेर सराय की जमघट थी।सबने अपने ठिकाने ढूंढ लिए और छोड़ दिया 2016-17 के कालखण्ड के उस बेर सराय को अकेला,जो हम सबकी हर महफ़िल का साझेदार हुआ करता था।सब कुछ अब  पीछे छूट रहा है।छूटते पदचिन्हों के साथ एक दौर इतिहास होता जा रहा है।भविष्य भी तो रोंआ गिराए ही हमारा स्वागत कर रहा है।

ख़ैर,अब इतने बड़े त्याग की बुनियाद पर कुछ अच्छा ही हो,यही उम्मीद है।सब खुश रहें,सब सफल होवें,सबका भला हो।

अलविदा बेर सराय
16/04/2017,मंगलवार,बेर सराय

~फेसबुक से

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