Wednesday 31 October 2018

प्रधानमंत्री जी! देश बांटने की गतिविधियों के साथ 'एकता की मूर्ति' के फीते नहीं काटे जा सकते

हम अपने 'राष्ट्रवाद' को पूंजीपति होने से नहीं रोक पाए। हमारा राष्ट्रवाद अब 182 मीटर ऊँची प्रतिमा पर चढ़कर उन लोगों पर थूकेगा जो आज कहेंगे कि 3000 करोड़ रूपए की सरदार की मूर्ती बनाने से अच्छा था कि लाखों नर्मदा पुत्र किसानों के फसलों की सिंचाई की व्यवस्था कर दी जाती। उन्हें पानी उपलब्ध कराया गया होता। उनके खेतों में अगर हमारा शस्य श्यामल राष्ट्रवाद लहराता तो सरदार कितना खुश होते! सरदार का जब निधन हुआ था तब उनके खाते में महज़ 260 रुपए थे। अहमदाबाद में कहीं किराए पर कमरा लेकर वह रहते थे। सरदार से हम राष्ट्रीय सम्पत्तियों की अहमियत भी सीख नहीं पाए।

हमारी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा है किस चीज़ से? हंगर इंडेक्स में हम 103वें नम्बर पर हैं। इसे गम्भीर संकट के बतौर चिन्हित किया गया है। स्वास्थ्य के मामले में भी हम दुनिया में फिसड्डी ही हैं। शिक्षालयों की तो बात करना ही बेकार है। खुद को विश्वगुरू बताने के अलावा हमने शिक्षा के क्षेत्र में क्या काम किये हैं? लेकिन, फिर भी। हमने चुनौती स्वीकारी तो यह कि हम दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाकर दिखाएंगे। पता नहीं इससे महापुरुषों का सम्मान होता है या अपमान? लौह पुरुष सरदार पटेल की सबसे ऊंची प्रतिमा बनने पर लहालोट होने वालों से इतर भी भारत का एक ऐसा कोना है जहाँ से स्टेचू ऑफ़ यूनिटी देखें तो सरदार लज्जित दिखाई देंगे। प्रतिमा के लिए आस-पास के गांवों के लोगों की जमीन ली गई। उन्हें विस्थापित किया गया।

बताते हैं कि सरदार सरोवर बांध बनाने के लिए ही जिन लोगों को विस्थापित किया गया था वह लोग आज तक अपने मुआवजे की प्रतीक्षा में हैं। सरकार की घोषणा और फिर उसका क्रियान्वन, दो अलग चीजें हैं। सबको केवल घोषणाओं की मुनादी सुनाई जाती है। उसके क्रियान्वन की हकीकत जानने और बताने की जरूरत किसी को नहीं लगती। हम राष्ट्रवाद का पानी पी पीकर आलोचकों को कोसते हैं। बाकी, जो लोग भूखे-प्यासे, जमीन से महरूम हैं, उनसे पूछिए तो बताएंगे कि मूर्ति कितनी भव्य है और कितनी सुंदर है? मूर्तिस्थल के समीप रहने वाले आदिवासियों ने प्रधानमंत्री के नाम खुला खत लिखा था। उन्होंने लिखा था कि जब आप मूर्ति के लोकार्पण के लिए आएंगे तो हम आपका स्वागत नहीं करेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री को आदिवासियों के स्वागत की क्या पड़ी है? उनके स्वागत के लिए तो तमाम लोग तैयार और इंतजार में बैठे हैं।

सरदार को सरदार की उपाधि किसान पत्नियों ने दिया था। वह सबसे पहले किसान नेता ही थे। ऐसे में उनकी मूर्ति स्थापित होने से किसानों को सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए। लेकिन ऐसा है नहीं। किसान नाराज हैं। आदिवासी किसानों ने विरोध स्वरूप भूख हड़ताल की घोषणा की है। आदिवासियों के एक नेता ने कहा है कि हम मूर्तिस्थल पर विरोध के लिए जाएंगे लेकिन उम्मीद है कि हमें वहां घुसने नहीं दिया जाएगा। इसलिए, हमारे समुदाय के बच्चे, जवान, महिलाएं और बुजुर्ग विरोध स्वरूप उपवास रखेंगे। किसानों का यह भी कहना है कि सरदार की मूर्ति के चारों ओर जो पानी इकट्ठा किया गया है, अगर वही किसानों को मिल जाता तो उनकी फसल नहीं सूखती। लेकिन, यह सौंदर्य का मामला है। अंतरराष्ट्रीय ईगो का मामला है। हमने संसार की सबसे ऊंची मूर्ति स्थापित की है। कांग्रेस के नेता रहे सरदार पटेल की। उनके निधन के कई साल बाद उनका राजनैतिक नहीं बल्कि वैचारिक दल परिवर्तन कराने की कोशिश की जा रही है। भाजपा और मोदी के इस सरदार प्रेम के कई सारे कारण हैं।

मोदी का दावा है कि सरदार के साथ कांग्रेस ने न्याय नहीं किया। नेहरू परिवार को आगे बढ़ाने के चक्कर नें उन्होंने सरदार को कम महत्व दिया। कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के वर्चस्व के बारे में हर कोई जानता है। यह कुछ बिंदुओं पर आलोच्य भी है। इंदिरा गांधी के बाद का कांग्रेस देखें तो मोदी की बात पर आसानी से भरोसा किया जा सकता है। नेहरू परिवार के बरअक्स सरदार को कम याद किया गया है लेकिन उन्हें भुला दिया गया या फिर उनका अपमान कर दिया गया, इस बात पर न सिर्फ यकीन करना मुश्किल है बल्कि यह अल्पज्ञान और इतिहास के अज्ञान का उद्घोषक बयान ही ज्यादा लगता है। सभी को पता है कि बीजेपी या नरेंद्र मोदी सरदार के साथ हुए अन्याय से दुखी नहीं हैं। बार बार आरएसएस और बीजेपी नेताओं की स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी विरासत को लेकर उठने वाले सवाल से वह काफी समय से परेशान थी। उसे किसी ऐसे लोकप्रिय नेता की तलाश थी जिससे वह अपनी विरासत जोड़ सके और अपने आपको जिसका राजनैतिक न सही कम से कम वैचारिक वारिस सिद्ध कर सके।

आजादी के संग्राम के लोकप्रिय नेताओं में गांधी और सरदार आरएसएस के लिए विकल्प हो सकते थे। नेहरू प्रगतिशील तथा धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए जाने जाते थे। हिंदुत्व के प्रति उनका कोई नरम रुख नहीं था। गांधी शुद्ध आस्तिक थे। हिंदुत्व के तमाम प्रतीकों पर उनकी गहरी आस्था थी। लेकिन, वह आरएसएस या हिंदू महासभा के हिंदुत्व के कभी समर्थक नहीं रहे। उनका मानना था कि हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम दंगों को रोकने के लिए हिंदुओं को पूरी तरह से अहिंसा के साथ हो लेना चाहिए। इसके लिए अगर उन्हें मर मिटना पड़ता है तो भी मुसलमानों के अंदर सुरक्षा का विश्वास पैदा करने के लिए उन्हें ऐसा करना चाहिए।

संघ महात्मा गांधी के इस सिद्धांत से असहमत था। सरदार पटेल भी गांधीजी की इस विचारधारा के समर्थन में नहीं थे। यहीं बीजेपी को सरदार अपने वैचारिक गोत्र के लगते हैं। इसके अलावा सोमनाथ मंदिर के लिए वल्लभ भाई पटेल के प्रयास को भी दक्षिपंथी खेमा काफी सराहता रहा है। सिर्फ इतना ही नहीं, गांधी जी की हत्या के बाद जब कई जगहों पर हिंदू महासभा और आरएसएस के लोगों पर हमले बढ़ने लगे थे तब सरदार ने जिम्मेदार अधिकारियों को इसके लिए फटकार लगाई थी। इन सब चीजों की वजह से हिंदुत्व की तथाकथित झंडाबरदार आरएसएस और भाजपा के लोगों के मन में सरदार पटेल को लेकर सॉफ्ट कॉर्नर है। सरदार पटेल की मूर्ति भाजपा और मोदी द्वारा अपनी विरासत आजादी के एक बड़े नेता से जोड़ने की कवायद भर है। मोदी के सरदार प्रेम में पटेल का गुजराती और पाटीदार होना भी शामिल है। उन्हें लगता है कि गुजरात में प्रभावी वोटबैंक के रूप में मौजूद पाटीदार समूहों की नाराजगी आगामी चुनावों में इस मूर्ति अनावरण के साथ दूर हो जाएगी।

यह सच है कि स्टैच्यू ऑफ यूनिटी गहरे राजनीतिक मंथन का फल है। इसके पीछे केवल सरदार का कथित खोया सम्मान लौटाना ही उद्देश्य नहीं है। सरदार पटेल को लेकर कांग्रेस के गांधी परिवार के प्रति देश की जनता में घृणा भाव भरने की दुर्भावना की गंध भी भाजपा से आती दिखाई देती है। यह आजादी के अब तक के पढ़े गए इतिहास में भावनात्मक परिवर्तन लाने का अभियान है। सरदार की प्रतिमा से दिक्कत नहीं है। यह महापुरुषों को उनकी विचारधारा के प्रतीक के तौर पर स्थापित करने सबसे सुदृढ़ और प्रभावी विकल्पों में से एक है। लेकिन, हमें इसे स्थापित करने के योग्य पहले हो लेना चाहिए था। भारत जैसे देश के लिए 3हजार करोड़ रुपए बहुत मायने रखते हैं। और फिर सरदार स्वयं सादगी और किफायतशारी के प्रतीक पुरुष थे।

 ऐसे में उनकी प्रतिमा की स्थापना में इतनी धनराशि खर्च करना एक गरीब विकासशील देश के लिए फिजूलखर्ची से ज्यादा कुछ नहीं है। वो भी ऐसा देश जहाँ आज भी राजधानी इलाके में 3 बच्चे भूख से मर जाते हों। राष्ट्र की मूलभूत समस्याएं सुलझाकर और राष्ट्रवादी महापुरुषों के सपनो का भारत निर्मित कर भी हम उन्हें अंतरराष्ट्रीय सम्मान दिला सकते हैं। एक ओर पंथ-जाति में देश को बांटने की प्रक्रिया में मशगूल होकर दूसरी ओर एकता की मूर्ति के फीते नहीं काटे जा सकते। प्रधानमंत्री ने आज कहा कि हम महापुरुषों का सम्मान करते हैं तो हमारी आलोचना होती है। प्रधानमंत्री जी का सम्मान बहुत महंगा है। इसलिए, आलोचना से कैसे बचेंगे। वो अपनी जिम्मेदारियों से महापुरुषों को सम्मानित नहीं करते बल्कि उसके लिए विशेष भव्य आयोजन होते हैं। प्रचार होता है। लोगों को दर्शाया जाता है कि देखिये हम सम्मान कर रहे हैं। पहले वालों ने केवल अपमान किया। जैसे ये सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल का सम्मान न करते तो वे लोग सदैव अपमानित रहते। पता नहीं नैतिक दृष्टि से यह सम्मान ही है या परोक्ष अपमान। क्योंकि, आज तक देश में कोई सुभाष बोस और पटेल के अपमान की चर्चा नहीं करता था। प्रधानमंत्री की सवालिया ऊँगली केवल कांग्रेस पर नहीं उठी है। यह स्वतंत्रता संग्राम के बाद के हमारे पुरखों और इस देश की जनता पर भी उठायी गई है।

प्रधानमंत्री को सोचने की जरूरत है कि महापुरुषों का सम्मान कैसे करना है। किसी ने कहा है कि किसी भी महापुरुष की प्रतिमा स्थापित करना उसकी विचारधारा और सिद्धांतों की हत्या का बहाना ढूंढ लेना है। हम देश में गोरक्षा के नाम पर हो रही हत्याओं पर चुप रहेंगे। हम मॉब लिंचिंग पर चुप रहेंगे। मुम्बई और गुजरात से यूपी-बिहार के लोगों के साथ हिंसा कर खदेड़े जाने की घटना पर मौन साध लेंगे। हम अपने मंत्रियों को द्वेष फैलाने वाले बयानों पर कुछ नहीं कहेंगे। हम पूर्वोत्तर के लोगों के लिए दिल्ली रहने लायक न होने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देंगे। जातिगत हिंसा पर मुंह नहीं खोलेंगे। और फिर 3000 करोड़ की स्टेचू ऑफ़ यूनिटी बनाकर कहेंगे कि देश की एकता और अखंडता हमारी प्राथमिकता है। यह छलावा क्यों है? यह धोखा किसे है? यह झूठ आप किससे बोलते हैं?

देश के लोगों को यह सच्चाई भांपनी होगी। उन्हें सतर्क होना होगा। क्योंकि, राज्य का मूल अर्थ है। आपके अर्थ का सही इस्तेमाल नहीं होगा तो आपकी राजनीति बेपटरी हो जाएगी। आपका राज्य, आपका देश भ्रष्टाचार की ओर जाने लगेगा। इसलिए, जरुरी है कि वक़्त से साथ बदली देशभक्ति की परिभाषा को समझें। अपने महापुरुषों से प्यार करें। उनके विचारों का सम्मान करें लेकिन प्रतीकात्मक राष्ट्रवाद से बाहर आएं। राष्ट्र के लिए जिस तरह की लड़ाई हमारे हिस्से आई है उसके लिए जी जान से लड़ें। भ्रष्टाचार से लड़ें। गरीबी-भुखमरी से लड़ें। अशिक्षा से लड़ें। साम्प्रदायिकता से लड़ें। यही सच्ची देशभक्ति है। आज हमें देशभक्ति के नए प्रतीकों की जरूरत है। हमें देशभक्ति की नई परिभाषा चाहिए। हमें केवल महापुरुषों की मूर्तियां नहीं बनानी हैं। हमें नए महापुरुष भी तो चाहिए। वो भी जीवंत, सक्रिय और अमूर्त।

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...