Friday 28 April 2017

कविताः ज़िन्दगी जो है...

ज़िन्दगी जो है...

ज़िन्दगी जो है
मिलती नहीं आकाश से
चलती नहीं है 'वाद' से,
न धर्म से,न पंथ,न इतिहास से।
ज़िन्दगी के वास्ते तो
नाकों के छिद्रों से हवा
आनी-जानी चाहिए।
ज़िन्दगी के वास्ते नस-नस में
खाकी देह के
वह लाल पानी चाहिए।
ज़िन्दगी,
भूतल पे कोई
'क्रान्ति' से मिलती नहीं,
ज़िन्दगी
भूकम्प कर देने से भी
मिलती नहीं।
यह ज़िन्दगी तो हड्डियों के
आवरण में लाल मांसल
भूमि के नित कांपने का नाम है।
इसके सिवा इस ज़िन्दगी का कोई
मतलब ही नहीं है,
जब तलक साँसे हैं,खूँ हैं,
दिल धड़कता है किसी का,
तब तलक ज़िंदा है वो,
बस तब तलक वो आदमी है।
अन्यथा वह एक संख्या है
जो कल अखबार में
इक पृष्ठ के अंतिम सिरे की
आख़री कतार में
भूख से मृत व्यक्तियों को कर रही
होगी इंगित।
इसलिए इस वास्ते,
इस ज़िन्दगी के वास्ते
नारे नहीं,तारे नहीं,
वादा नहीं,दावा नहीं,
मूर्ति नहीं,मंदिर नहीं,
चादर नहीं,मस्जिद नहीं,
कैंडल नहीं,गिरिजा नहीं,
सरहद नहीं,
धर्म-मजहब-तीर्थ-फतवा
आदि आदि आदि आदि
भी नहीं,
इस ज़िन्दगी के वास्ते
दो बूँद पानी चाहिए
इस ज़िन्दगी के वास्ते
दो जून रोटी चाहिए।
यह चार दिन की ज़िंदगी
गर दे सके तो दीजिए!
या फिर यहां से यह तमाशा
बन्द कर उठ जाइये।
और संसद की कबर पर
इक कब्रगाह बनाइये।

©राघवेंद्र

Monday 17 April 2017

कविताः इक बार जी लेते

अकेलेपन का मंजर इस कदर है
भीड़ में भी,आजकल
है हो गया जीवन का मौसम
यूं कि बादल
हैं गरजते पर बरसते ही नहीं हैं
कभी लगता है यूं मुझको
कि जैसे दिल हथेली में
जकड़कर
नोचता कोई।
कि जैसे खून लावा बनके
बहता है रगों में।
कि जैसे थाम रखा हो
पलक ने सात सागर को
नयन में।
कि जैसे सात मरुतों के मिलन से
उठ रहा तूफ़ान कोई
सांस में बंधक बना हो,
वही अब मुक्त होना चाहता हो।
कि जैसे इस अँधेरी रात की कोई
सुबह होती ही न हो।
कि जैसे रात के पंजे में फंसकर
छटपटाती सी सुबह हो।
कि जैसे विश्व सारा
काटने को दौड़ता हमको।
सभी उल्लास,सभी परिहास
सभी निर्णय,सभी निश्चय
सभी आनन्द,रचना-छंद,
सारे हर्ष,पूरे वर्ष-
जीवन से रहे जाने कहाँ गायब।
कहीं भी चैन,दिल-मन-नैन,
ढूंढे पा नहीं सकते।
दिलों की भूमि वो रणभूमि
जिसको छोड़कर भी हम कहीं पर
जा नहीं सकते।
ठहर भी तो नहीं सकते,
न चल पाना ही वश में है।
ये दुनिया इस तरह थी गर,
या जीवन की परीक्षा इस कदर
होती है तो,
ये दुनिया और ये जीवन-
मेरे मौला,मेरे मालिक
मेरे ईश्वर, मेरे भगवान,
मुझसे छीन ही लेते।
कबर में ही सही,या फिर
चिताओं पर ही,पल भर तो
पुनः
वो दिन पुराने खुशनुमा,निश्चिन्त
ह्रदय की पीर से जो मुक्त थे
क्षण भर सही,दो पल सही
इक बार जी लेते।
इक बार जी लेते...
-राघवेंद्र

Sunday 16 April 2017

कविताः कभी गुलज़ार भी थे तुम

अभी पतझर से बिखरे हो कभी गुलज़ार भी थे तुम।

थे कितने खूबसूरत दिन,थी ख्वाबों से भरी रातें।
उदासी कुछ पलों की ही,हुआ मेहमान करती थी।
चमक उठता था चेहरा फिर,नयी आशा के उगते ही,
सजाकर कुछ नए ख़्वाबों के अक्षर,गीत गाते थे।
दबाकर हर जटिलता हर समय बस मुस्कुराते थे।
थी चर्चा हर भरी महफ़िल में मेरे मुस्कुराने की।
मेरे मुस्कान से अरियों के दिल में आग जलती थी,
हमारी हर हंसी से घर में मेरे दीप जलता था।
न कुछ पाया था जो खोने के डर से डर कभी जाता।
न कुछ खोया था,पा लेना जिसे मंजिल बना लेता।
मगर अब क्या हुआ!कि इस कदर हूँ हो गया खाली,
मैं नभ में देख सकता हूँ मगर क्यों जा नहीं सकता,
कहाँ किसने हैं बांधे पंख मेरे!जानता हूँ क्या!
नहीं है ज्ञात भी तो क्योंं नहीं मैं तोड़ता बंधन,
क्या जीवन भर यहीं अटका रहेगा यूं मेरा जीवन।
ऐ उजड़े वृक्ष से उजड़े दिलों वाले मेरी मानो,
ये पतझड़ है न खुद को टूटने देना ज़रा कुछ दिन।
यही कहता हूँ खुद से और फिर घुटता हूँ फिर-फिर मैं,
न जाने कौन सा है रोग कब किससे सही होगा।
ऐ मेरे दिल!मेरे दिल पर दया थोड़ी तो कर दो न!
ज़रा सा मान जाओ बात को और मुस्कुराओ न!

कभी तो तीरगी में दीप्ति के आसार भी थे तुम।
कभी तो बन्धनों की भूमि पर विस्तार भी थे तुम।
कभी तो मत्त धारा की नदी के धार भी थे तुम।
कभी तो फिर सृजन की आस के औजार भी थे तुम।
कभी सम्भावनाओं के जलधि-आकार भी थे तुम।
कभी तो खुद खुदी में इक अलग संसार भी थे तुम।
मगर अब किस पहेली में उलझ टूटे हुए से हो,
जो कितनी ही पहेली के पहेलीकार भी थे तुम।

अभी पतझर से बिखरे हो कभी गुलज़ार भी थे तुम।
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राघवेंद्र



‘हमारे पास अब खोने के लिए कुछ नहीं’

आधा सर और मूंछ मुंडवाया हुआ एक किसान
वो कभी सर के बाल मुँड़वाते हैं,कभी हथेली काटकर रक्ताभिषेक करते हैं।कभी पीएमओ जाकर नग्न होकर किसानों को बचाने की गुहार लगाते हैं तो कभी जंतर-मंतर पर साड़ी पहनकर विरोध प्रदर्शनों के इतिहास में नए किस्म के प्रदर्शन का अध्याय भी लिखते हैं।तमिलनाडु और दिल्ली के बीच की पांच राज्यों की दूरी तय करके तमिल किसान जंतर-मंतर पर अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करने सिर्फ इसलिए आ गए कि यहां से शायद देश की सर्वोच्च सत्ता के कान थोड़े नजदीक होंगे,शायद यहां से उनकी बात थोड़ी आसानी से सरकार को सुनाई दे जाए।प्रदर्शन करते लगभग एक महीने बीत गए।विपक्षी दलों के कुछ नेताओं,कुछ दक्षिण भारतीय सिनेमा के अभिनेताओं और कुछ क्षेत्रीय मीडिया चैनलों के कुछ रिपोर्टरों के अलावा सरकारी महकमें से जुड़े किसी भी अधिकारी,मंत्री,सांसद या विधायक को अब तक किसानों से मिलने तक के लिए फुर्सत नहीं मिल पायी है।
प्रधानमंत्री को प्रतीकात्मक रक्ताभिषेक करते किसान
दिल्ली का जंतर-मंतर लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रतिरोध और प्रदर्शन की संस्कृति के पावन तीर्थ जैसा बन गया है।2011 में भ्रष्ट शासन-व्यवस्था से आजिज आ चुके लोगों की एकजुटता और जनतंत्र में जन की शक्ति के परिणाम की गवाही देने वाले इसी जंतर-मंतर पर तमिलनाडु के त्रिचिरापल्ली से 61 साल की नाचम्मा भी आयीं हैं,जो पढ़ी-लिखी तो नहीं हैं,लेकिन संविधान में प्रदत्त अपने अधिकारों के लिए लड़ने के तरीकों को बखूबी समझती हैं।14 मार्च से शुरु हुए प्रदर्शन में पहले ही दिन से शामिल नाचम्मा के दो बेटे हैं,दोनों की शादी हो चुकी है।पोते-पोतियां भी हैं।खेत में फसल बोने के चक्कर में लिया गया कर्ज 3 लाख से सात लाख पहुंच चुका है।घर के सारे कीमती जेवर बिक चुके हैं।गले में पड़े एक धागे के गांठ वाले छोर की ओर दिखाते हुए नाचम्मा बताती हैं कि कर्ज चुकाने के चक्कर में सुहाग का प्रतीक मंगलसूत्र भी बिक गया है।अब उनके पास कर्ज चुकाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि वो अपने खेत बेच दें।खेत बेचकर कर्ज चुकाने के सवाल पर भावुक होकर वह बताती हैं कि वही उनकी आखिरी पूंजी है जिसे वह अगली पीढ़ी को सौंप कर जाएंगी।अगर खेत भी बिक गया तो उनके पास उनके बच्चों को देने के लिए कुछ न बचेगा।चंचल बचपन की दहलीज पर खड़े अपने नातियों को वहीं गांव की मिट्टी पर खेलते छोड़कर आयीं नाचम्मा की हैरान-परेशान और दुखी आंखें यह बताते हुए भर आती हैं कि वह घर तब तक नहीं लौट सकतीं जब तक वह कर्ज की समस्या का समाधान नहीं ढूंढ लेतीं।ऐसा करने को उनसे उनके बच्चों ने भी कहा है और उनकी अपनी भी मंशा यही है।यह पूछने पर कि यहां अगर कोई समाधान नहीं निकलता तो वह क्या करेंगी,उन्होने जो जवाब दिया वह उनकी पीड़ा और हताशा का चरमबिंदु था।उन्होने कहा कि वह यहां से खाली हाथ वापस लौटने की बजाय जहर खाकर अपनी जान दे देंगीं।कर्ज देने वाले बैंकों की भाषा भी गुण्डो की भाषा से ज्यादा अंतर नहीं रखती।नाचम्मा के अनुसार बैंक वालों ने कर्ज वसूलने के नाम पर उनसे बड़ी ही अभद्रता से बात की।बैंक वालों की क्रूर भाषा में उनसे अपनी बेटी बेचकर कर्ज चुकाने को कहा गया।बैंक ने यहां तक यह भी कहा कि कपड़े क्यों पहनते हो,खाना क्यों खाते हो।शायद उनकी नजर में इंसान का भूखा-नंगा रहना बैंकों के कर्ज से ज्यादा असामान्य घटना नहीं है।
54 साल के तमिल किसान सेल्वराज के साथ भी ऐसा ही कुछ है।2007 में ट्रैक्टर खरीदने को लेकर बैंक से लिए गए 6 लाख रुपए में से तीन साल में तीन लाख तक कर्ज चुका देने के बाद भी बैंक वालों से उन्हे गालियां और मार-पीट की धमकी सुनने को मिली।सेल्वराज बताते हैं कि सूखे की वजह से सारी फसल बरबाद हो गयी।गाय का दूध बेचकर किसी तरह से घर का खर्चा चलता है।लेकिन बैंक वालों के दबाव और कर्ज चुकाने का कोई और रास्ता न होने के कारण हमें यहां आकर सरकार से मदद मांगना पड़ रहा है
सेल्वराज
भारत में कुदरत की मार से परेशान किसानों के किस्से नए नहीं हैं।1990 में द हिंदू के ग्रामीण मामलों के पत्रकार पी.साईंनाथ ने किसानों के आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं की ओर ध्यान आकृष्ट कराया था।उसके बाद से किसानों के आत्महत्या की घटनाएं लगातार सुर्खियों का हिस्सा बनती रहीं।इनमें से ज्यादातर किसान खेती के लिए बैंकों से कर्ज लेते हैं और फिर मौसम की मार से फसल के बरबाद हो जाने पर कर्ज चुका पाने का कोई रास्ता न देख अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या जैसा बड़ा और आखिरी कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं।भारत में किसानों की आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में महाराष्ट्र,कर्नाटक,पंजाब,मध्य प्रदेश,उत्तर प्रदेश और अब तमिलनाडु शामिल हैं।कहा जाता है कि भारतीय कृषि इंद्रदेव की कृपा से संचालित होती है।कभी कम वर्षा तो कभी हद से अधिक वर्षा,कभी ओले तो कभी सूखा,भारतीय कृषि में प्रयोग आने वाले ये शब्द कभी-कभी हताश किसानों की जीवनलीला पर आत्महत्या की आखिरी मुहर लगा देते हैं।2001 और 2011 की जनगणना ने देश में किसानों की संख्या में भारी गिरावट होने का संकेत किया है।एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर महीने तकरीबन 70 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं।ताजा मसले को ही लें तो जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रहे तमिलनाडु के किसानों के नेता पी.अय्याकन्नू बताते हैं कि तमिलनाडु में पिछले चार महीनों में तकरीबन 400 किसान सूखे के कारण फसल बरबाद होने और बैंकों के कर्ज न चुका पाने के कारण मौत का रास्ता चुन चुके हैं।
प्रदर्शन के दौरान प्रतीकात्मक अर्थी निकालते किसान
कृषि उद्योग में मुनाफे की संभावना भाग्य भरोसे होती है।देश के लगभग 40 फीसदी किसान कृषि के अतिरिक्त कोई और विकल्प न होने के कारण खेती करते हैं।कृषि क्षेत्र में चुनौतियां बहुत हैं।फसलों की बुआई से लेकर कटाई तक और उसके बाद उसे बाजार तक पहुंचाने तक में किसान जिन स्थितियों से दो-चार होता है उसे वही समझ भी सकता है।फसलों को उसकी उचित कीमत मिल जाना भी किसानों की बड़ी चुनौतियों में से एक है।कुल मिलाकर खेती में मुनाफे की संभावना बहुत कम और नुकसान की उतनी ही ज्यादा होती है।2001 की जनगणना की रिपोर्ट बताती है कि इन्ही सारी समस्याओं से हारकर तकरीबन 70 लाख किसानों नें किसानी छोड़ दी।आज यह संख्या और बढ़ी ही है।एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले किसी देश में किसानों की गिरती संख्या उस देश के लिए भविष्य में भयंकर आर्थिक संकट की आहट है।यह समस्या इतनी बड़ी है कि इस समय देश की प्रशासनिक व्यवस्था की नीतियों में कृषि और कृषकों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।लेकिन यहां तो तसवीर ही कुछ अलग है।सत्ता से जुड़े लोगों का कृषि और कृषकों की समस्या में कोई दिलचस्पी नहीं है।शमशान-कब्रिस्तान-राष्ट्रवाद-गाय-हिंदू-मुस्लिम ये वो मामले हैं जिनमें न सिर्फ तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले नेता बल्कि सारा देश और सारा मीडिया अपना सर खपाने में लगा हुआ है।
प्रदर्शन के अगुआ पी.अय्याकन्नू
राजधानी की सड़कों पर आपको बहुत सारे हरे वृक्ष मिल जाएंगे,लेकिन जंतर-मंतर पर एक ऐसा भी हरा वृक्ष है जिस पर खाकी मिट्टी को फसलों के हरे परिधान से ढक देने वाले एक धरती पुत्र ने अपने जीवन की सारी विवशता,सारी दुविधा और सारी पीड़ा का शोकगीत लिख दिया था।किसानों की समस्या को लेकर आम आदमी पार्टी के एक प्रदर्शन में शामिल होने आए पंजाब के एक किसान ने जिस पेड़ की टहनियों से लटककर अपनी जान दे दी थी आज उसी हरे वृक्ष की छाया में जाती सड़कों के एक छोर पर हरे रंग का अधोवस्त्र पहने सर मुँडाए कुछ किसान राष्ट्रीयकृत बैंकों से लिए गए उनके कर्जे को माफ करने,सूखे की वजह से बरबाद फसलों का मुआवजा देने की मांग को लेकर महीने भर से प्रदर्शन कर रहे हैं।उनके साथ कुछ नरमुण्ड भी हैं जो तमिलनाडु में बीते दिनों आत्महत्या किए किसानों के बताए जा रहे हैं।ये केवल कुछ नरमुण्ड भर नहीं हैं,बल्कि ये उन किसानों की आगे की लड़ाई है जो उनकी मौत के बाद भी जारी है।बदलते विश्व में किसानों की सदियों से अपरिवर्तित समस्याओं के लिए ये उनका संघर्ष है जिससे वो कृषकों की नयी पीढ़ी की राह से दिक्कतों के कांटे कम करने के लिए कर रहे हैं।
मृत किसानों के कपाल

जंतर-मंतर पर किसानों ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है।पी.अय्याकन्नू अपना सब कुछ दांव पर लगाए किसी योद्धा की तरह कहते हैं कि हमारे पास अब खोने के लिए कुछ नहीं है,हम यहां से या तो अपनी समस्या का हल लेकर जाएंगे और फिर हल थामेंगे या फिर अगर यही स्थिति भविष्य में भी रही तो इन्ही समस्याओं की लड़ी जाने वाली लड़ाई के लिए नरमुण्डों की गिनती और बढ़ाकर जाएंगे।अब सरकार को यह तय करना है कि वह क्या चाहती है।एक देश जहां पर अरबों-खरबों का आईपीएल टूर्नामेंट खेला जाता हो,एक देश जिसके वातावरण में आजकल बुलेट ट्रेन के दौड़ाए जाने के सपने तैर रहे हों,एक देश जहां पर एक उद्योगपति के अरबों रुपयों के कर्ज माफ कर दिए जाते हों,एक देश जहां के एक दूसरे उद्योगपति के पास बैंक का कर्ज उतारने के लिए पैसे नहीं हों और वह हजारों करोड़ रुपए का ग्रांड प्री. रेसिंग टूर्नामेंट करवाता हो और 9 हजार करोड़ का कर्ज चुकाने की बजाय देश छोड़ देता हो,एक ऐसा देश जहां एक अंतर्राष्ट्रीय आयोजन कराने के लिए हजारों करोड़ रुपए पानी की तरह बहा दिए जाते हों उस देश में एक किसान महज 50 हजार रुपए का कर्ज न चुका पाने के कारण अपना जीवन खत्म कर लेता हो तो उस देश के लिए इससे बड़ी त्रासदी और कुछ नहीं हो सकती।अब इस समस्या और इसके समाधान पर गंभीर चिंतन करना न सिर्फ सत्ता का बल्कि समूचे राष्ट्र की चिंतनशील जनता का नैतिक-सामाजिक और राजनैतिक कर्तव्य है।स्मार्ट शहर के इस दौर में बेबस स्मार्ट गांव की संभावना जंतर-मंतर पर सेल्वराज के उस कथन को एक व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ कह जाती है कि हमें खाना चाहिए,खाना खेत से आएगा और खेतिहर किसान सड़क पर है।भूखा,विवश,हारा हुआ और अब तो नंगा भी।

Sunday 9 April 2017

कविताः मैंने देखा...

मैंने देखा,
चाँद को इस पार से उस पार जाते।
नभ में चमकता वृत्त जब पूरब दिशा में
आ गया था यात्रा आरम्भ करने।
जल-तरंगों सी धरा की हलचलों को
बर्फ सा नीरव-स्थिर-स्तम्भ करने।
आज ठाना था नहीं कर पायेगा यह
चाँद मेरी हलचलों को शांत-स्थिर।
आज सोचा है नहीं नींदों में हूँगा,
जागृति होगी मेरे कण-कण से ज़ाहिर।
कौन जाने जीत होगी हार या फिर,
कर्म है अधिकार बस, अपना यहाँ पर।
आज जगकर देखता हूँ वो जगह भी
है टूटता-बनता कोई सपना जहां पर।
सच कहूँ
नींद इन रातों के ही हैं जो हमारे
स्वप्न इन आँखों के सारे मार जाते।
आज उन स्वप्नों की रक्षा के लिए ही,
मैंने देखा,
चाँद को इस पार से उस पार जाते।।
--राघवेंद्र

Tuesday 4 April 2017

कविताः मौन हैं,मरे नहीं

तिमिर को दर्प हो गया,
जो उसने आँख खोल दी,
तो दीप-वीप,सूर्य-वूर्य
चाँद-वांद ढल गए।
कि फूल-वूल मिट गए
कि कोयलें दुबक गयीं,
कि रौशनी कुचल गयी।
सभी नगर,सभी डगर
कि गाँव,बाग़,द्वार,घर
ख़ुशी के सारे आसरे,
हंसी के सारे पैंतरे,
विशाल कृष्ण रात्रि-कण्ठ
खा गए-निगल गए।
तिमिर को दर्प हो गया
जो उसने आँख खोल दी,
तो रास्तों का बोलना,
तो ज़िन्दगी का डोलना,
तो जागृति का जागना,
तो कालरथ का भागना,
तो प्रश्न की प्रगल्भता,
तो सत्य की वाचालता,
घने तिमिर के कुण्ड में
पिघल-पिघल,पिघल-पिघल
अखण्ड मौन-शान्ति-भय
में ढल गए,बदल गए।
...मगर तभी मुंडेर पर,
तिमिर का वक्ष भेदकर,
चला था थाम ज्योति-कर,
वो अपनी आग बांटकर,
असंख्य दीप को जला
गरज उठा वितान में,
तिमिर! तुम्हारे भौंकने से,
डांटने से,छौंकने से,
सत्य तो टले नहीं।
ये शांति है तो भूलकर
ये भ्रान्ति पालना नहीं,
हम शांत हैं,डरे नहीं,
न युद्ध से परे कहीं,
न शस्त्र ही धरे कहीं।
इसीलिए ये जान ले,
या मैं कहूँ कि मान ले,
हमारी जीत-हौसले,
हमारी नीति-फैसले,
किसी भी भाग्य-साग्य के,
कभी भी आसरे नहीं।
कि मौन हार मान मत,
कि अपना शीश तान मत।
हम मौन हैं,डरे नहीं।
हम मौन हैं मरे नहीं।
हम मौन हैं...मरे नहीं।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖
--राघवेंद्र 

कविताः बारिश!



बारिश के बारे में हमने जिससे भी दस मिनट या उससे ज्यादा बात की होगी तो हमने उससे ये ज़रूर बताया होगा कि कैसे गाँव में रात को जब भी बारिश आती,तो मैं बाहर बरामदे में कुर्सी पर बैठ दोनों हथेलियां गालों पर रखे बारिश की बूंदों से भीगते अशोक,अमरुद,शीशम और यूके लिप्टस के पेड़ों को अपलक देखता रहता था।दोपहर की आग्नेय धूप में दिन भर झुलसी दुआर की मिट्टी पर जब ठंडी पानी की बूँद पड़ती तो एक शानदार सी खुशबू से पूरा मन-मस्तिष्क खिल उठता।मन करता पूरी रात बैठकर बारिश का सीधा प्रसारण देखता रहूँ।और कभी कभार ऐसा करता भी था।ठंडी हवाओं से सर्र सर्र का शोर करते हुए सारे पेड़,आकाश में चमकती बिजली और बरामदे तक छोटी-छोटी बूंदों के रूप में आती ठंडी बौछार...ये सब मिलकर जो दृश्य बनाती हैं न,अव्यक्त है,अवर्णनीय है,अलेखनीय है।
आज बेर सराय के अपने उस विशेष अड्डे पर,जहाँ हर शाम हमारी सड़क वाली संसद लगती है,वहां बैठकर मेरा उन्ही पुराने दृश्यों को पुनः महसूस करने का मन था।कुछ हद तक सब कुछ था भी यहां,सिवाय मिट्टी की उस बेहतरीन सुगन्ध के।रात के करीब डेढ़ बजे थे।बारिश की हल्की हल्की बूँदें ही पड़ रही थीं।मेरे पास किताब थी,जिसके भीगने के डर के कारण मैं कमरे पर लौट आया।बेर सराय के इस आशियाने के अपने 6 महीने के प्रवास के दौरान यह दूसरा मौका था जब हमने अपनी कुर्सी बाहर निकाली, और हाथ में राजेंद्र यादव की 'सारा आकाश' लेकर आकाश के अपना कोष लुटाने के दृश्य के अवलोकन में संलग्न हो गये।आज बारिश से हमारी मोहब्बत आकाशीय बिजली से लगने वाले डर पर पूरी तरह हावी रही।
आज की बारिश में मेरे सामने अशोक का पेड़ नहीं है,शीशम का पेड़ नहीं है,अमरुद का पेड़ नहीं है,तेज़ हवाओं से झूलते वृक्ष नहीं दिख रहे,आकाशीय बिजली की रौशनी से वृक्षों के धुले हुए भीगे पत्ते भी नहीं दिख रहे,लेकिन आकाश से मिलने वाले इस उपहार से बीते दिनों के वे सारे दृश्य स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं जिसके बारे में मैं तब बताने से बिल्कुल नहीं चूकता,जब भी मैं किसी से बारिश की खूबसूरती के बारे में बात कर रहा होता हूं और जो मेरे जीवन में अनुभूत सर्वाधिक खूबसूरत क्षणों में शुमार हैं।आज घर बारिश से भीगी उस रात के साथ बहुत याद आ रहा है।अगर आज रात भर बारिश होती,तो आज मैं रतजगे के पूरे मूड में था।

Sunday 2 April 2017

कविताः जलने दो पीर ह्रदय में...

जलने दो पीर ह्रदय में,
मचने दो मानस में हलचल।
आज नहीं लिखूंगा,
पीर छंद में,
उथल पुथल महसूस करूंगा
सीमायें,शक्ति,सामर्थ्य,तरीका,गहराई
नापूँगा उर की पीड़ा का।
नहीं कहूँगा,
तुमसे भी साथी!
कैसा विध्वंस मचा है
मन के आँगन।
शांति ध्वस्त,
आनंद पस्त,
क्या सूर्य अस्त!
आकाश इस तरह सुन्न हो गया,
भास उदासी के प्याले पी
टुन्न हो गया।
आज स्वयं से झूठ कहूँगा,
खुश तो हूँ,
हंसता तो हूँ,
दुःख क्या है!
कुछ भी तो नहीं।
हां,शायद वो कारण होगा,
या फिर वो वाला!
और फिर उसे कोसता,खुश होने का
असफल अभ्यास करूँगा!
लो,कविता तो लिख दी!
शायद झूठ बोलने की शुरुआत हो चुकी है आज।

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...