Sunday 2 April 2017

कविताः जलने दो पीर ह्रदय में...

जलने दो पीर ह्रदय में,
मचने दो मानस में हलचल।
आज नहीं लिखूंगा,
पीर छंद में,
उथल पुथल महसूस करूंगा
सीमायें,शक्ति,सामर्थ्य,तरीका,गहराई
नापूँगा उर की पीड़ा का।
नहीं कहूँगा,
तुमसे भी साथी!
कैसा विध्वंस मचा है
मन के आँगन।
शांति ध्वस्त,
आनंद पस्त,
क्या सूर्य अस्त!
आकाश इस तरह सुन्न हो गया,
भास उदासी के प्याले पी
टुन्न हो गया।
आज स्वयं से झूठ कहूँगा,
खुश तो हूँ,
हंसता तो हूँ,
दुःख क्या है!
कुछ भी तो नहीं।
हां,शायद वो कारण होगा,
या फिर वो वाला!
और फिर उसे कोसता,खुश होने का
असफल अभ्यास करूँगा!
लो,कविता तो लिख दी!
शायद झूठ बोलने की शुरुआत हो चुकी है आज।

No comments:

Post a Comment

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...