Sunday 16 April 2017

कविताः कभी गुलज़ार भी थे तुम

अभी पतझर से बिखरे हो कभी गुलज़ार भी थे तुम।

थे कितने खूबसूरत दिन,थी ख्वाबों से भरी रातें।
उदासी कुछ पलों की ही,हुआ मेहमान करती थी।
चमक उठता था चेहरा फिर,नयी आशा के उगते ही,
सजाकर कुछ नए ख़्वाबों के अक्षर,गीत गाते थे।
दबाकर हर जटिलता हर समय बस मुस्कुराते थे।
थी चर्चा हर भरी महफ़िल में मेरे मुस्कुराने की।
मेरे मुस्कान से अरियों के दिल में आग जलती थी,
हमारी हर हंसी से घर में मेरे दीप जलता था।
न कुछ पाया था जो खोने के डर से डर कभी जाता।
न कुछ खोया था,पा लेना जिसे मंजिल बना लेता।
मगर अब क्या हुआ!कि इस कदर हूँ हो गया खाली,
मैं नभ में देख सकता हूँ मगर क्यों जा नहीं सकता,
कहाँ किसने हैं बांधे पंख मेरे!जानता हूँ क्या!
नहीं है ज्ञात भी तो क्योंं नहीं मैं तोड़ता बंधन,
क्या जीवन भर यहीं अटका रहेगा यूं मेरा जीवन।
ऐ उजड़े वृक्ष से उजड़े दिलों वाले मेरी मानो,
ये पतझड़ है न खुद को टूटने देना ज़रा कुछ दिन।
यही कहता हूँ खुद से और फिर घुटता हूँ फिर-फिर मैं,
न जाने कौन सा है रोग कब किससे सही होगा।
ऐ मेरे दिल!मेरे दिल पर दया थोड़ी तो कर दो न!
ज़रा सा मान जाओ बात को और मुस्कुराओ न!

कभी तो तीरगी में दीप्ति के आसार भी थे तुम।
कभी तो बन्धनों की भूमि पर विस्तार भी थे तुम।
कभी तो मत्त धारा की नदी के धार भी थे तुम।
कभी तो फिर सृजन की आस के औजार भी थे तुम।
कभी सम्भावनाओं के जलधि-आकार भी थे तुम।
कभी तो खुद खुदी में इक अलग संसार भी थे तुम।
मगर अब किस पहेली में उलझ टूटे हुए से हो,
जो कितनी ही पहेली के पहेलीकार भी थे तुम।

अभी पतझर से बिखरे हो कभी गुलज़ार भी थे तुम।
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राघवेंद्र



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