Friday 28 April 2017

कविताः ज़िन्दगी जो है...

ज़िन्दगी जो है...

ज़िन्दगी जो है
मिलती नहीं आकाश से
चलती नहीं है 'वाद' से,
न धर्म से,न पंथ,न इतिहास से।
ज़िन्दगी के वास्ते तो
नाकों के छिद्रों से हवा
आनी-जानी चाहिए।
ज़िन्दगी के वास्ते नस-नस में
खाकी देह के
वह लाल पानी चाहिए।
ज़िन्दगी,
भूतल पे कोई
'क्रान्ति' से मिलती नहीं,
ज़िन्दगी
भूकम्प कर देने से भी
मिलती नहीं।
यह ज़िन्दगी तो हड्डियों के
आवरण में लाल मांसल
भूमि के नित कांपने का नाम है।
इसके सिवा इस ज़िन्दगी का कोई
मतलब ही नहीं है,
जब तलक साँसे हैं,खूँ हैं,
दिल धड़कता है किसी का,
तब तलक ज़िंदा है वो,
बस तब तलक वो आदमी है।
अन्यथा वह एक संख्या है
जो कल अखबार में
इक पृष्ठ के अंतिम सिरे की
आख़री कतार में
भूख से मृत व्यक्तियों को कर रही
होगी इंगित।
इसलिए इस वास्ते,
इस ज़िन्दगी के वास्ते
नारे नहीं,तारे नहीं,
वादा नहीं,दावा नहीं,
मूर्ति नहीं,मंदिर नहीं,
चादर नहीं,मस्जिद नहीं,
कैंडल नहीं,गिरिजा नहीं,
सरहद नहीं,
धर्म-मजहब-तीर्थ-फतवा
आदि आदि आदि आदि
भी नहीं,
इस ज़िन्दगी के वास्ते
दो बूँद पानी चाहिए
इस ज़िन्दगी के वास्ते
दो जून रोटी चाहिए।
यह चार दिन की ज़िंदगी
गर दे सके तो दीजिए!
या फिर यहां से यह तमाशा
बन्द कर उठ जाइये।
और संसद की कबर पर
इक कब्रगाह बनाइये।

©राघवेंद्र

No comments:

Post a Comment

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...