Tuesday 4 April 2017

कविताः बारिश!



बारिश के बारे में हमने जिससे भी दस मिनट या उससे ज्यादा बात की होगी तो हमने उससे ये ज़रूर बताया होगा कि कैसे गाँव में रात को जब भी बारिश आती,तो मैं बाहर बरामदे में कुर्सी पर बैठ दोनों हथेलियां गालों पर रखे बारिश की बूंदों से भीगते अशोक,अमरुद,शीशम और यूके लिप्टस के पेड़ों को अपलक देखता रहता था।दोपहर की आग्नेय धूप में दिन भर झुलसी दुआर की मिट्टी पर जब ठंडी पानी की बूँद पड़ती तो एक शानदार सी खुशबू से पूरा मन-मस्तिष्क खिल उठता।मन करता पूरी रात बैठकर बारिश का सीधा प्रसारण देखता रहूँ।और कभी कभार ऐसा करता भी था।ठंडी हवाओं से सर्र सर्र का शोर करते हुए सारे पेड़,आकाश में चमकती बिजली और बरामदे तक छोटी-छोटी बूंदों के रूप में आती ठंडी बौछार...ये सब मिलकर जो दृश्य बनाती हैं न,अव्यक्त है,अवर्णनीय है,अलेखनीय है।
आज बेर सराय के अपने उस विशेष अड्डे पर,जहाँ हर शाम हमारी सड़क वाली संसद लगती है,वहां बैठकर मेरा उन्ही पुराने दृश्यों को पुनः महसूस करने का मन था।कुछ हद तक सब कुछ था भी यहां,सिवाय मिट्टी की उस बेहतरीन सुगन्ध के।रात के करीब डेढ़ बजे थे।बारिश की हल्की हल्की बूँदें ही पड़ रही थीं।मेरे पास किताब थी,जिसके भीगने के डर के कारण मैं कमरे पर लौट आया।बेर सराय के इस आशियाने के अपने 6 महीने के प्रवास के दौरान यह दूसरा मौका था जब हमने अपनी कुर्सी बाहर निकाली, और हाथ में राजेंद्र यादव की 'सारा आकाश' लेकर आकाश के अपना कोष लुटाने के दृश्य के अवलोकन में संलग्न हो गये।आज बारिश से हमारी मोहब्बत आकाशीय बिजली से लगने वाले डर पर पूरी तरह हावी रही।
आज की बारिश में मेरे सामने अशोक का पेड़ नहीं है,शीशम का पेड़ नहीं है,अमरुद का पेड़ नहीं है,तेज़ हवाओं से झूलते वृक्ष नहीं दिख रहे,आकाशीय बिजली की रौशनी से वृक्षों के धुले हुए भीगे पत्ते भी नहीं दिख रहे,लेकिन आकाश से मिलने वाले इस उपहार से बीते दिनों के वे सारे दृश्य स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं जिसके बारे में मैं तब बताने से बिल्कुल नहीं चूकता,जब भी मैं किसी से बारिश की खूबसूरती के बारे में बात कर रहा होता हूं और जो मेरे जीवन में अनुभूत सर्वाधिक खूबसूरत क्षणों में शुमार हैं।आज घर बारिश से भीगी उस रात के साथ बहुत याद आ रहा है।अगर आज रात भर बारिश होती,तो आज मैं रतजगे के पूरे मूड में था।

No comments:

Post a Comment

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...