Tuesday 22 January 2019

आत्मलेखन: संवादशून्यता की ओर


जब आप बिलकुल अमहत्वपूर्ण होते हैं तो बहुत खाली रह सकते हैं। आपके रहने या न रहने से संसार का बहुत कुछ बदल नहीं जाता। आपके नाराज होने या खुश होने की कोई कीमत नहीं रह जाती। आप अपनी ही ज़िन्दगी के दोयम दर्जे के नागरिक होते हैं। आप अपने दोस्तों के दोयम दर्जे की दोस्ती होते हैं। आप अपने चाहने वालों के लिए दोयम दर्जे के चाहने वाले होते हैं। आप अपने परिवार के लिए दोयम दर्जे के सदस्य होते हैं। मतलब यह कि आप किसी की भी प्राथमिकताओं में नहीं होते। कोई भी आपके बर्ताव को समझने की कोशिश को समय की बर्बादी समझता है। आपके निराश होने को, दुखी होने को, खुश होने को या और भी किसी असामान्य हरकत को समझने में थोड़ी भी दिलचस्पी नहीं लेता।

ऐसा जीवन भार लगता है। अपने आप पर भी और अगर एक मिनट के लिए अपने आप से बाहर निकलकर संसार बनकर अपने आपको देखा जाए तो संसार के लिए भी। केवल भार। निरुद्देश्य जीवन। अज्ञात राहें। विचलित मन। क्षतिग्रस्त योजनाएं और पहाड़ सी सामने खड़ी उम्र। जीवन में सदैव दो पक्ष होते हैं सामाजिक रूप से। पहला उन लोगों का जिन्हें आप अपने आसपास देखना चाहते हैं। उनसे संपर्क में रहना चाहते हैं। उनसे बात करना चाहते हैं। दूसरा उन लोगों का जिनके जीवन में आप स्वयं ऐसी लिस्ट में हों। अपनी वर्तमान अवस्था को देखता हूँ तो दो दृष्टियों से देखा जीवन दिखाई देता है। एक वह दृष्टि है जहाँ से देखने पर लगता है कि जिन लोगों से साथ की उम्मीद करता था वह सभी मुझे अकेला छोड़कर चले गए हैं। दूसरी दृष्टि ऐसी है जिसमें मैं उन तमाम लोगों से पीछा छुड़ाकर भाग आया हूँ जो मुझे अकेला नहीं छोड़ना चाहते। दोनों ही स्थितियों की परिणति में मेरा अकेलापन है। दोनों एक ही श्रृंखला के हिस्से ऐसे हो जाते हैं कि बीच में अग्रोन्मुख गतिशील मैं हूँ, मेरे आगे पहली दृष्टि वाले लोग और मेरे पीछे दूसरी दृष्टि वाले।

यह अकेलापन भारी है। मेरे जीवन से संवाद निरंतर शून्य की ओर बढ़ते जा रहे हैं। मेरी संवादशैली व्यवहारिक न होकर पुस्तकीय होती जा रही है। मैं लोगों से ज्यादा किताबों से बातें करने लगा हूँ। किताबों के किरदारों से भी। उनमें अपने आप को ढूंढता हूँ। उनकी तरह सोचता हूँ। उनकी तरह बोलता हूँ। उनकी ही तरह सुनता भी हूँ। हर दुखी, संतप्त और अकेला किरदार मुझे अपने जैसा लगता है। बिल्कुल उस जैसा हो जाने की कवायद में मैं यह बिलकुल भूल जाता हूँ कि उनमें से ज्यादातर कल्पना की जमीन से पैदा होते हैं। व्यवहारिक जीवन में उनसे केवल उपहास उपजता है। शायद मेरा उपहास ही होता हो और मुझे इसकी जानकारी न हो।

एक वक्त पर ऐसा लगता था कि लिखना आ गया है तो सारे दुखों को झेला जा सकता है। यह भ्रम भी था कि हम लेखक लोग अपने दुखों को लिखकर हल्के हो जाते हैं और सबसे बड़ा यह कि हमारे दुःख ही हमें लिखना सिखा रहे हैं। यह सब छलावा है। बहाने हैं कि मन बहल जाए। एक वक्त तक बहलता भी है लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। जीवन इतना महत्वशून्य लगता है कि अगर अभी प्राण निकल जाएं तो संसार के किसी भी हिस्से को कोई बहुत बड़ा नुकसान उठाते हुए नहीं देखता हूँ। श्रेष्ठताओं को पूजने वाले इस संसार में अयोग्यताओं के झुके शीश के साथ जीना स्वाभिमान को चुनौती की तरह लगता है। ऐसा लगता है कि अभी से वास्कोडिगामा या कोलम्बस की तरह किसी और दुनिया की खोज में निकल जाएं जहाँ हम जैसे लोगों को भी सम्मानित ढंग से देखा जाता हो। जहाँ हम निरीह नहीं। जहाँ हम अपराधी नहीं। जहाँ हम अयोग्य नहीं लेकिन श्रेष्ठ भी नहीं। जहाँ जीने की शर्त केवल आपका होना हो। जहाँ आप रहें वही बहुत हो। आपके अंदर किसी गुणवत्ता की, श्रेष्ठता की या किसी महान कौशल की बढ़ोतरी करने की कोई जरुरत नहीं हो।

निराशा कोई रहस्य नहीं है। अपराध भी नहीं और कमजोरी तो बिलकुल नहीं। यह परिस्थिति है। परिस्थिति वह जो यह बताती है कि कितने लोगों की आत्मा में आपकी आत्मा का हिस्सा है। कितने लोग आपकी नसों की गर्मी महसूस करते हैं। कितने लोग हैं जिन्हें आपके पलकों की झपकन और सीने की उथल पुथल के स्वर सुनाई देते हैं। निराशाओं की तीव्रता आपने करीबियों की संख्या के व्युत्क्रम अनुपाती होती है। निराश होने के बाद भी ज़िन्दगी जी जा सकती है। मुझे अकेलापन झेलते हुए अब तक़रीबन 10 साल होने को आए होंगे। परिवार से ऊब होने के बाद से ही दोस्तों में मन बांटने का रास्ता खोजा। दोस्त लेकिन दोस्त ही होते हैं। उनकी अपनी सीमाएं हैं। उन्हें यह नहीं पता होता कि उनसे दोस्ती की उम्मीद में आप परिवार से उम्मीदों के हिस्से की भी उम्मीद कर रहे होते हैं। वह दोस्ती निभाते हैं और आपकी उम्मीदें दोस्ती से कहीं ज्यादा की होती हैं।

विराग बहुत ही कम उम्र में मन में घर कर गया है। समाज से नाता तोड़ लेने का मन करता है। सभी परम्पराएं, रीति रिवाज, जीवन पद्धतियां। सब कुछ छोड़ देने का मन होता है। लगता है जैसे जीवन देने वाले मुझे सभी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दें। पता नहीं इसके परिणाम मिलेंगे या सत्परिणाम या दुष्परिणाम। कोई समझाता भी तो नहीं। डर लगता है कि कहीं कोई आकर मेरी अभिलाषा को अपराध न घोषित कर दे। मुझे अक्सर ऐसे किसी अज्ञात शख्स की चीखती आवाज़ सुनाई देती है और डरा सहमा मैं। डरा सहमा इसलिए कि नहीं पता क्यों अक्सर कुछ साबित करते वक़्त दलीलें मेरा साथ छोड़कर चली जाती हैं। मुझे यही डर होता है कि अगर मैं अपने आपको निरपराध सिध्द न कर पाया तो! यह मानसिक उथल-पुथल अब जीने में समस्याएं पैदा कर रहा है।

बनारसः वहीं और उसी तरह

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