Sunday 8 March 2020

जैसे मरना ननिहाल जाना हो

यह अपने आप में कितना अविश्वसनीय है कि घर जाने पर माई नहीं मिलेंगी। वह नहीं होंगी। जितनी बार यह सोचता हूँ, उतनी बार अपने आपको दुनिया में थोड़ा और व्यर्थ पाता हूँ। इसलिए नहीं कि वही सब कुछ थीं इसलिए कि अपनी जो कुछ भी कीमत है सब उनकी स्नेहिल आँखों से ही प्रत्यावर्तित होती थी। उनकी दृष्टि में ही अपना सब द्रव्यमान था। उनके प्यार के गुरुत्वाकर्षण में ही अपना समस्त भार था। वह अब नहीं हैं और इसलिए यह व्यर्थता-बोध अगर आता है तो मैं इसे रोकना नहीं चाहता। चाहे मेरा जो भी अर्थ हो लेकिन माई की अनुपस्थिति से जो खास अर्थ दिवंगत हो गया है, लुप्त हो गया है, रिक्त हो गया है, उसे पुनर्स्थापित करना, भर पाना या प्राप्त करना भी अब वैसे ही असम्भव है जैसे दादी का वापस लौट आना।

अब 4 महीने से ज्यादा हो गए। जब वह घर पर होतीं तो उनसे कई बार फोन पर बात होती थी। कम ही बार क्योंकि उन्हें आवाज कम सुनाई देने लगी थी। वह बहुत अस्पष्ट होती थी। वैसे ही जैसे आँखें बूढ़ी हो जाएं तो सामने रखी चीज भी धुंधली दिखाई देती है। दादी को फोन पर धुंधली आवाजें सुनाई देती थीं। इसलिए हम उनसे कम ही बात कर पाते थे। बात करते हुए भी वह सवाल कम सुनने की कोशिश करतीं। श्रवणशक्ति साथ नहीं देती इसलिए वह खुद ही बिना पूछे सब हाल बता जातीं। आखिरी बार उनके निधन से 4 दिन पहले उनसे बात हुई, तब भी मैं ज्यादा कुछ नहीं बोल पाया था। माँ ने फोन लगाया था और जब उन्होंने तकरीबन रोते हुए माई से बात करने के लिए कहा तब मैं जैसे अचेत हो गया था। अभी दीवाली की छुट्टी से लौटा हूँ। अभी तो सब ठीक था।

माई से बात हुई तो उन्होंने हाल-चाल पूछे बिना ही कहा, 'बोखार उतरत नाई बा (बुखार नहीं उतर रहा है)। मैं रो पड़ा। 'क्या अब प्रस्थान का समय है?' मैंने मन में सोचा और फिर बड़ी देर तक मेरी सारी चेतना सिर्फ उस महिला पर केंद्रित हो गई, जिसका जीवन बहुत साधारण रहा लेकिन वह किसी असाधारण स्त्री की तरह अपने आत्मसम्मान और उजले हृदय के प्रकाश के विकिरण से अपनी अद्वितीयता और महानता की मौन घोषणा बनी रही। जिसने हमें अपार स्नेह दिया। शुद्ध-निश्छल प्यार। अपने जीवन के समस्त लक्ष्य-किरणों को समवेत कर प्रेम पर केंद्रित कर दिया और हम निरन्तर उससे जीवन पाते रहे।

माई से बुआ फोन पर नियमित बात करती थीं। हर छोटे-बड़े मसलों पर वह उनकी सलाहकार जैसी थीं। मुझे कई बार दोनों मां-बेटी से ज्यादा एक-दूसरे की सखियाँ लगीं। दादी से रोज बात करना बुआ की दिनचर्या का हिस्सा जैसा भी हो गया था। जैसे वह हर रोज सांस, भोजन और पानी की तरह अपनी माँ की आवाज से जीवन पाती हों। उनके भी जीवन का एक हिस्सा विदा हो गया। मुझे नहीं पता कि उनके जीवन की इस रिक्ति को अब वह कैसे संभाल रही होंगी। दादी के जाने के बाद उनका सामना करना भी बड़ी चुनौती थी।

दुनिया को लगता है कि बहुत वजन वाली चीजों का भार ढोना ही मुश्किल होता है। यह वही कह सकता है या कहता है जिसने रिक्तियों का भार नहीं झेला है। सबके जीवन में खालीपन होना अनिवार्य भी तो नहीं है। कुछ लोग ऐसे खालीपन के लिए तैयार रहते हैं। वह इसकी जगह पहले से ही भरना शुरू कर देते हैं। इससे मूल चीजें विस्थापित होने लगती हैं। दादी को बुआ या हम सब कभी विस्थापित नहीं कर पाए। वह वैसे ही बनी रहीं। अपने वात्सल्य के बूते। अपने प्रेम के सहारे हमेशा अपने हिस्से की जगह पर किसी मजबूत किले की तरह खड़ी रहीं। हम उन्हें कभी वहां से हटा नहीं पाए। घर में जाते ही दृष्टि जिसे सबसे पहले ढूंढती थी वह दादी होतीं। वह न दिखें तो लगता था कि अभी घर नहीं पहुंचे। अभी घर में नहीं प्रविष्ट हुए। या अभी घर की सुगंध नहीं आई। कई बार घर गए तो पता लगा कि वह अहाते में हैं। या फूलों की क्यारियों की सफाई में लगी हैं।

दो चीजें उन्हें खूब पसंद थीं। एक साफ-सफाई रखना और दूसरा लगातार कुछ न कुछ करते रहना। यह दोनों चीजें उनका अकेलापन दूर करती थीं। उनके नाती-नातिनियों के 'वनवास' के बाद। हम सबके घर से बाहर (इलाहाबाद, दिल्ली, लखनऊ) प्रवास को वह वनवास ही कहती थीं।

इधर कुछ सालों से उनकी आवाज अपनी लय में अनिरन्तरता लिए हुए थी। आशीर्वाद देतीं तो आवाज कांप रहे होते थे। कुछ शब्द ध्वनियों के साथ बाहर नहीं आते थे। वह कहीं गुम हो जाते लेकिन उनका सम्पूर्ण वैभव जस का तस रहता। वह कहीं गुम होने की हिम्मत नहीं करता।

दादी जब कहानियां सुनातीं, तब वह दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वक्ता होती थीं। दादी से हमने परियों की कहानियां नहीं सुनीं। पुराणों की कहानियां सुनी हैं। गर्मी की लंबी छुट्टियों में हम घर जाते थे। इस दौरान सारा परिवार छत पर सोता था। तुलसी जी के पौधे के इर्द-गिर्द एक छोटे से परिसर में दादी के देवताओं की छोटी-छोटी प्रतिमाएं थीं। वह रोज सुबह वहीं बैठकर पूजा करतीं और माला फेरती थीं।

रात के वक़्त उसी के नजदीक उनका बिस्तर लगता था। हम सभी उसी केंद्र के चारों ओर जगह बनाते। फिर कई तरह की पौराणिक कथाएं शुरू होती थीं। ये कथाएं मूलतः संस्कृत में लिखी गई हैं। गीताप्रेस ने इन्हें हिंदी में अनुवाद कराया है। ज्यादातर बुज़ुर्ग पाठकों को ध्यान में रखते हुए इनके अक्षरों को अपेक्षाकृत बड़ा रखा गया है। दादी इन्हीं किताबों से हिंदी में कहानियां पढ़ती थीं लेकिन जब इसे हमे सुनाना होता था, तब वह इसका भोजपुरी में अनुवाद कर लेती थीं। कई ऐसे शब्द, जिन्हें पढ़कर हम कभी न समझ पाते, वह उसे आसान शब्दों के इस्तेमाल से सरल बना देतीं। कहानी से कहानी निकलती। वह कुछ भी अपने पास नहीं रखना चाहतीं। सब दे देना चाहतीं थीं, जो कुछ भी उन्होंने जाना-समझा है। यह सम्पूर्ण क्रिया जब सम्पन्न हो जाती, तब उनके चेहरे पर एक अद्भुत चमक होती थी। एक अद्भुत मुस्कान, जो विकसित होकर एक लघु हंसी में परिणत हो जाती थी। फिर उनके कृष्ण-श्वेत दांत दीखते, जिनका यह स्वरूप उनकी सुर्ती खाने की आदत से बन गया था।

हां, सुर्ती वाली बात। दादी के पास हमेशा पॉलिथीन की एक पोटली होती थी। इसमें सुर्ती और एक चुनौटी होती थी। वह इसे कई बार कहीं रखकर भूल जातीं। फिर इधर-उधर ढूंढती। याद करने की कोशिश करतीं कि कहां बैठी थीं, और कहां-कहां गई थीं। तलाशने की मुद्रा में उन्हें देखते ही हम समझ जाते कि वह सुर्ती ढूंढ रही हैं। फिर हम भी लग जाते। अक्सर वह उनके आसपास ही कहीं होती थी लेकिन उनकी नजर उस पर नहीं पड़ती थी। ऐसे में जब हम उसे ढूंढकर उन्हें देते तो फिर उनके चेहरे पर वही मोहक मुस्कान तैर जाती जो थोड़ा सा आगे बढ़कर छोटी-सी खिलखिलाहट में तब्दील हो जाती थी। अब जब मैं यह लिख रहा हूँ, तब मेरी पूरी चेतना में वह मुस्कान और हंसी गूंज रही है लेकिन अब थोड़ा सा अंतर है। उसमें से अब आनन्द नदारद है। ऐसा लग रहा है कि यह हंसी आगे बढ़कर रुदन में बदल जाने वाली है। आखिर, दादी भी तो अपनी हंसी की इस असंभाव्यता पर शोक मना रही होंगी।

मुझे पता नहीं क्यों ऐसा ही लगता है कि वह जहां हैं खुश नहीं हैं। वह अपनी नई दुनिया के निजामों से वापस लौटने की ज़िद कर रही हैं। वह अपने नाती-नातिनियों की दुहाई दे रही हैं कि हम सब दुखी हैं उनकी अनुपस्थिति से इसलिए उन्हें वापस जाने दिया जाए। काश कि उनके ईश्वर का दिल पसीज जाता। वह उन्हें वापस लौटा देता। मैं इसीलिए भी अपना शोक और अपना दुःख कम नहीं होने देना चाहता कि और कुछ न सही, कम से कम उनके देवताओं को अपने इस नियम का अपराधबोध तो हो। मेरी पीड़ा उन्हें अपराधी बनाती रहे जो दुनिया में लोगों के जीवन-मरण और सुख-दुःख के ठेकेदार बने बैठे हैं। मैं जानता हूँ कि वह उस बुजुर्ग स्त्री को दोबारा हमारे पास नहीं भेजने वाले। मैं 'समझदार' भी तो हूँ। यह जानते हुए कि कोई वहां से वापस नहीं आता, मुझे शोक नहीं करना चाहिए लेकिन इतना कठोर हमसे नहीं हुआ जाता। यह उसीके वश की बात थी। माई के बस की बात थी। जिसकी तकलीफ देखकर जब सब लोग दुखी थे, रो रहे थे, तब वह खुद उन्हें दिलासा दे रही थी और डांटते हुए कह रही थी, "भक्क, मरही के न बा (भक्क, मरना ही तो है)।" जैसे मरना ननिहाल जाना हो।

Thursday 5 March 2020

नदीम अनवर की कविताः दंगे

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दंगों में सबसे ज्यादा खतरनाक क्या होता है?
दुकानों का लुट जाना, जल जाना?
या घरों का लुट जाना, जल जाना?
या बाजारों, गलियों, मोहल्लों की रौनक तबाह हो जाना?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

इनमें से कौन सी भीड़ सबसे ज्यादा खतरनाक होती है?
नारा-ए-तकबीर का कौल देने वाली,
या फिर जय श्री राम का उदघोष करने वाली?
टोपी-तलवार वाली या फिर तिलक-त्रिशूल वाली?
किस भीड़ का शोर दहला देता है दिलों को सबसे ज्यादा?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

इनमें से क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?
ईंट, पत्थर, दियासलाई, बंदूक से निकलने वाली गोली,
नंगी तलवार, चाकू, तेज़ाब, रॉड, लाठी, डंडा या फिर बेसबॉल-क्रिकेट का बल्ला?
दंगे में किसी को मारने के लिए कौन सा हथियार सबसे कारगर होता है?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?
मंदिर में रखी मूर्तियों को खंडित करना,
या मस्जिद की मीनार पर भगवा ध्वज लहरा देना?
मस्जिद या मंदिर... कहां लगी आग की लपटें सबसे ज्यादा डरावनी दिखती हैं?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

कौन सी मौत पैदा करती है दिलों में सबसे ज्यादा खौफ़?
चाकुओं से गोदकर, पत्थरों से कुचलकर या लाठी-डंडों से पीटकर?
गोली मारकर या फिर जिंदा जलाकर?
क्या दंगे में गला दबाकर भी मारा जा सकता है किसी को?
दंगाइयों के लिए मारने का बर्बर से बर्बर और पसंदीदा तरीका कौन सा है?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

खौफनाक मंजर कौन सा होता है?
आग की लपटों के बढ़ते कद के बीच जलते लोग या गरदनों से निकले गरम खून के फ़व्वारे?
या गंदे नालों में बहती लाशें जब काले-गंदे पानी को कर देती हैं लाल और बढ़ा देती है बदबू?
क्या है सबसे ज्यादा खौफ़नाक?

लाठी-डंडों से मार दिए गए आदमी की लाश पर डंडे बरसाते रहना,
या चाकुओं से गोदकर जिस्म में इतने सुराख़ कर देना कि गिनना मुश्किल हो जाए?
पत्थर मार-मारकर किसी का सिर कुचल देना या पेट से अंतड़ियां बाहर खींच लेना?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

पता है दंगे में सबसे ज्यादा खतरनाक क्या होता है?
सबसे ज्यादा खतरनाक होता है नफ़रत की आग में आने वाली नस्लों का झुलस जाना, जब दो कौम के लोगों के बीच खिंच जाती है लकीर.

जान बचाकर भागे लोगों का मोहल्लों में वापस नहीं लौटना और अपनों को खो देने वालों का बदले की आग में जलते रहना.

जब डर दिल में इतना गहरा उतर आए कि मोहल्ले में खेलते बच्चों का मचाया शोर, उठा दे दिमाग में सवाल कि कहीं फसाद शुरू तो नहीं हो गया?

जब चाय के खोखे पर लोग हंसी-ठिठोली भूलकर दूसरी कौम को देने लगे गालियां, वही होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

जब मोहल्लों में जोर आज़माइश, छिटपुट बदमाशी करने वाले लौंडे, बंद कर देते हैं अपनी शरारतें इस डर में कि कहीं ये दंगे में न बदल जाए, वह डर सबसे ज्यादा खतरनाक होता है.   

जब दिमाग में इस कदर डर बैठ जाए कि दो मजहब के लोगों के बीच हुई बाइक की टक्कर से भी दंगा भड़क सकता है, वही डर होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

दंगों की खबरों के बीच जब रात को सोते हुए गली में हुई चोरी की आहट सुनकर डर जाएं लोग और सोंचे कहीं दंगाई मोहल्ले में दाखिल तो नहीं हो गए, वह डर होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

हिंदुओं का हिंदू बस्तियों और मुसलमानों को मुसलमान बस्तियों में ही रहने का ख्याल आना, भरोसा नहीं कर पाना, शक करते रहना बहुत खतरनाक होता है.

जिसने दंगे में खो दिया किसी अपने को उसका आने वाले वक्त में किसी दंगे में दंगाई बन जाना होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

और जब दंगे में मारे गए दूसरी कौम के लोगों की मौत पर मातम की जगह हम महसूस करने लगते हैं गर्व, वो होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

दंगा तो कुछ दिन, कुछ घंटे, कुछ मिनट चलता है लेकिन असर आने वाली कई नस्लों तक रहता है, यही होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

तो बोल कफ़्फ़ारा क्या होगा? क्या होगा इसका प्रायश्चित ?

लेकिन नाउम्मीदी कुफ्र है...

इन्हीं दंगों में से निकलकर सामने आ जाती हैं कई कहानियां जिनसे बंध जाती है जीने की उम्मीद. उम्मीद की नहीं... अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है.

उम्मीद कायम रहती है... जब पगड़ी के लिए जान दे देने वाला सरदार जिंदर सिंह सिद्धू, अपनी पगड़ी को एक मुसलमान के सिर की दस्तार बना देता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब कोई संजीव कुमार किसी मुजीबुर रहमान की जान बचाने के लिए उसे अपने घर में पनाह दे देता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब चांदबाग के मुसलमान नौजवान एक मंदिर को बचाने के लिए उसकी ढाल बन जाते हैं. 

उम्मीद कायम रहती है... जब किसी मस्जिद की मीनार पर लगाए भगवा को कोई रवि वापस उतार लेता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब किसी जली हुई मज़ार के बाहर हाथ जोड़कर खड़ी हिंदू औरतें प्रार्थना करती हैं.

उम्मीद कायम रहती है... जब कोई प्रेमकांत भगेल अपने मुसलमान पड़ोसियों को आग से बचाने के लिए खुद आग में कूद जाता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब दंगे में अपनों को खो चुके लोग बदला नहीं इंसाफ मांगते हैं.

उम्मीद कायम रहती है... जब बढ़ती नफरतों के बीच कोई पुनीत किसी नदीम से पूछता है- तेरे घर वाले मेरे बारे में कुछ निगेटिव तो नहीं सोच रहे?

और उम्मीद बरकरार रहती है... जब नदीम जवाब देता है- अब्बू कह रहे थे कुछ होता है तो पुनीत के घर चले जाना.

और आखिर में सबसे ज्यादा उम्मीद उस प्रियांशी नाम की बच्ची से बंधती है... जो अपने पड़ोसी मुसलमान के घर छोड़कर चले जाने पर रोती है, सही से खाना नहीं खा पाती और उनके जल्द लौटने की दुआ मांगती है.

प्रियांशी से सबसे ज्यादा उम्मीद इसीलिए है क्योंकि वह आने वाली नस्ल की है और आने वाली नस्लें ऐसी हों तो उम्मीद कायम रहती हैं...

Monday 2 March 2020

जंगल में अमंगल

सांकेतिक तस्वीर

मध्य प्रदेश के देवास के जंगलों में 15-16 हट्टे-कट्टे बंदरों ने एक तकरीबन सूखते जल स्रोत पर कब्जा जमा लिया था। हम समझते थे कि मनुष्यों में ही कब्जा जमाने की प्रवृत्ति होती है लेकिन यह मनुष्यों के पूर्वजों में भी है। हो सकता है हमने उन्हीं से यह कला सीखी हो। तो देवास के बंदरों ने पानी के स्रोत पर कब्जा इसलिए जमाया था ताकि वह भीषण गर्मी में किसी और को वहां से पानी न पीने दें और उनके लिए पर्याप्त पानी बचा रहे।

उनकी इस कब्जा नीति की भेंट 15 बंदर चढ़ गए। लू और प्यास से उनकी मौत हो गई। ऐसे ही एक अन्य मामले में बंदरों की पानी को लेकर लड़ाई हुई तो एक दर्जन से ज्यादा बंदर आपस में ही लड़ मरे। दोनों ही मामले पिछले साल जून और उसके आसपास की तारीखों के हैं। जंगलों में जंगलवासियों की ये स्थिति है। जाहिर है ये घटनाएं बताती हैं कि प्राकृतिक संसाधनों के मूर्खतापूर्ण तरीके से इस्तेमाल से केवल मनुष्य प्रभावित नहीं हो रहे हैं बल्कि धरती पर रहने वाली अन्य प्रजातियों के अस्तित्व पर भी संकट आन पड़ा है।

सिर्फ इतना ही नहीं, एक और अजीबोगरीब मामला गिर के जंगल में सामने आया। एक शोध हुआ, जिसमें बताया गया कि शेरों के नन्हें शावकों में शिकार के कौशल की कमी दिखने लगी है।मतलब कि शिकार के लिए ही जाने जाने वाले शेरों की नई नस्लें शिकार करना भूल रही हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि पर्यटकों को शेर देखना होता है और शेरों को पर्यटन क्षेत्र में लाने के लिए वन विभाग की ओर से मांस के टुकड़े जंगल के टूरिज्म रीजन में रख दिए जाते हैं। इनके लिए शेर वहां आते हैं और लोग मनोरंजित होते हैं।

इस वजह से आसानी से मिले शिकार के आदी होते जा रहे नन्हें शावक शिकार की जरूरत नहीं समझ रहे। वह शिकारी होने की बजाय अब मुर्दाखोर अपमार्जक की तरह होते जा रहे हैं। वन्य जीवों के पर्यावास में मानवीय हस्तक्षेप से जानवरों की प्राकृतिक जीवनचर्या पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। हम अपनी समस्याएं तो नहीं ही सुलझा पा रहे हैं लेकिन अन्य सहचर प्राणियों-प्रजातियों की मुश्किलें बढ़ाते जा रहे हैं।

मध्य प्रदेश में बंदरों का आपसी युद्ध मनुष्यों के अनियोजित और गैर-इरादतन षड्यंत्र का फलीभूत संस्करण है। हो सकता है हम युद्ध न चाहते हों। मानवों-मानवों में भी। जानवरों-जानवरों में भी। वह भी प्राकृतिक संसाधनों के लिए। उन संसाधनों के लिए जिन पर सभी का बराबर अधिकार है लेकिन यह अब होने लगा है। अभी यह अंतर्प्रजातीय युद्ध है। मनुष्यों-मनुष्यों में हो रहा है। जानवरों-जानवरों में हो रहा है। आने वाले दिनों में इसके अंतरप्रजातीय युद्ध में बदलने की संभावना से इनकार कर सकते हैं क्या?

#वन्यजीवदिवस

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...