Monday 30 January 2017

कविताः 'साहब' की छटपटाहट...


जब
दीवारों का लाल रंग
कारनामों के काले हो जाने पर
आँखों में उतर आता हो।
जब
अविरत और अबाध
बहने वाली हवाओं की,
गुब्बारे की सरहद में
बंधने की मजबूरी
संयम की सीमा
पार करने का सिग्नल देने लगे।
जब
सलाम करने वाले हाथों की दूरी
गिरेबां से कम होने का
भय महसूस होने लगता हो।
तब 'साहब' की छटपटाहट
का अक्स
उनके चेहरे पर नहीं,
उनकी आँखों में नहीं,
उनकी जुबां पर नहीं,
'चौराहे' से उठती किसी
आवाज़ के हश्र में
दिखायी पड़ता है।
सड़क पर ज़ारी
सन्नाटों को कायम रखने की कोशिश में
देखा जा सकता है।
'अधिकार' और 'कर्तव्य'
के शब्दों के शिल्प
से बनी हर बुलन्द 'शाब्दिक आवाज' के फ़टे
बिखरे पन्नों में देखा जा सकता है।
'मंचों' के आइनों पर
पत्थर फेंकते हाथों की
स्फूर्ति,तत्परता और बौखलाहट में देखा जा सकता है।
तब 'साहब' की छटपटाहट का अक्स
'सभाओं' में शहीद
'कविता' की हर एक पंक्ति
से जलती मशालों की
हर लपट से उठने वाली
रौशनी की
तीव्रता में देखा जा सकता है,
जिसमें जलकर राख हो ही जाती है
'साहब' की छटपटाहट भी,
और 'साहब' की औकात भी।
         --राघवेंद्र शुक्ल

Sunday 22 January 2017

कविताः जब जागता हूँ मैं


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जब जागता हूँ मैं,
तब चाहता हूँ मैं,
चलती रहे दुनिया,सभी प्राणी-
सड़क-गाड़ी-बसें-जन-जन,
सब भागते हों काम पर अपने
कभी भी जागृति की चिर गति में
हो न अवमन्दन।
जलती रहे बिजली के बल्बों में प्रकाशित श्वेत-पीली रौशनी।
और जिसके साथ चलती ही रहे हलचल
दुकानों पर निशा भर।
बनती रहे मिट्टी के चूल्हों पर
महकती चाय अदरक की सड़क के छोर पर।
चलता रहे सूरज दिवस भर,
रात को भी ना रुके।
इक दूसरे को देख हंसकर
कह पड़ें चन्दा-दिवाकर,
'आपका दिन हो शुभाकर'।
चाहता हूँ मैं,
कि सो जाए भले संसार,
पर ये चाहता हूँ मैं-
न सोये गति जगत की।
चाहता हूँ मैं कि बस मैं घूमता फिरता रहूँ
चौराह-सडकों-बाग़-खेतों और गलियों में शहर की,
चाय के ढाबों पे बैठूं,
चायवाले से भी ऐठूँ,
रोड के नुक्कड़ पे एटीएम के सम्मुख,
मेडिकल स्टोर के आगे बने पत्थर की उस कुर्सीनुमा
आसन पे गप्पे दोस्तों के साथ हाकूं।
और बतियाते हुए हर बार उसका,
हाथ से नमकीन का छीना हुआ हिस्सा,
बड़े ही गर्व से फाकूं।
चाहता हूँ मैं
न जल्दी हो तुम्हे घर लौटने की।
चाहता हूँ मैं,
न मुझको देर हो,
चाहता हूँ मैं,
न बातें छूट जाएँ यूं अधूरी,
रात भर जिनकी वजह से
हो न पाये नींद पूरी।
तब चाहता हूँ मैं,
न रुक जाएँ हमारी हसरतें,
सुनने की तुमको और अपनी भी सुनाने की।
तब चाहता हूँ मैं,
न सो जाएँ तुम्हारी हसरतें,
मेरे कहने पे 'ना-ना' करके भी वह गीत गाने की।
जिसकी वजह से सो न पाता मैं निशा भर,
और इसलिए,
जब जागता हूँ मैं,
तब चाहता हूँ मैं,
चलती रहे दुनिया...
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--राघवेंद्र शुक्ल

Saturday 21 January 2017

सामाजिक सत्ता के खिलाफ यही हमारा ‘वामपंथ’ है...


सवाल सिर्फ बैडमिंटन के खेल में मिली लगातार हार का नहीं है,सवाल सिर्फ एक भावनात्मक प्रतिस्पर्धा में अपने किसी दोस्त के जीतने और हमारे हारने का नहीं है,सवाल है कि किसी भी मनचाहे लक्ष्य के प्रति कितनी तन्मयता,कितना प्रयास,कितनी लगन और कितना जुनून आपके अंदर है।उस कार्य की साधना में आपकी सक्रियता किस स्तर की है।हर बार किस्मत को कोसकर और लोगों की सहानुभूति बटोरकर सिर्फ और सिर्फ दिल को तसल्ली मिल सकती है,मन को शांति मिल सकती है,हौसलों को धोखा मिल सकता है,मंजिल नहीं मिल सकती,दौड़ की आखिरी लाइन के पार का स्थायित्व,सुकून और आनंद नहीं मिल सकता।अच्छा लगता है,आपकी हार पर आपके कंधे पर हाथ रखकर कोई आपको दिलासा दे,आपके दुख को अपना समझ दो बूंद आंसू भी बहा दे औऱ आपके प्रयासों की सराहना करते हुए उन तमाम व्यवस्थाओं पर दोषारोपण कर दे जिसकी परिधि में आपके सारे दांव-पेंच,आपके सारे प्रयासों ने घुटने देक दिए हों।लेकिन उस वक्त की सच्चाई यही है कि आप हार चुके होते हैं,आप उस सकून और आनंद से वंचित हो चुके होते हैं जिसके साथ आता है गर्व करने का क्षण,शीश उठाकर चलने का अधिकार और जीवन में अब तक की हर असफलता,हर गलती का अनकहा जवाब!इसके अलावा कुछ भी सत्य नहीं होता,कुछ भी नहीं।आप हार चुके होते हैं अपने दोस्त से,आप हार चुके होते हैं अपने उस प्रतिस्पर्धी से जो अभी कुछ देर पहले आपके साथ चाय पी रहा था,और अब आपकी हार पर तमाम तंज कसते हुए हंस रहा है।अगर आप इस सच्चाई को स्वीकार करने में हिचकिचा रहे हैं,अगर आप उसके हर तंज पर उठने वाले आस-पास के ठहाकों को पचा ले रहे हैं,तो आई एम सॉरी,आप एक किसी ईंट उठाने जैसे काम को पूरा करने के भी लायक नहीं है।और अगर ये बातें आपके दिल पर नहीं लगती तो जम गया है आपका खून,और मर गए हैं उसमें पलने वाले जोश और जुनून के सारे आरबीसी और डब्ल्यूबीसी।

संसार अकेले लोगों का एक सार्वभौमिक समुच्चय’(universal set) है।आपके अपने कर्तव्यों की परिधि में कोई आपके साथ नहीं है।आप अकेले हैं।इसलिए जीवन में किसी के साथ की उम्मीद मत कीजिए क्योंकि ये उम्मीद आपके सारे हौसलों,आपके सारे उत्साह और यहां तक की आपके संपूर्ण अस्तित्व को तहस-नहस करने का आधार तैयार करती है।ये उम्मीद जीवन के मरूस्थल में सिर्फ एक मृग मरीचिका है,एक छलावा है,एक स्वर्ण-मृग है,जिस पर मोहित आपका हृदय आपके सपनों का सीता-हरण करवा सकता है।

यही व्यवस्था मिली है न  हमको और आपको विरासत के रूप में,थाती के रूप में,धरोहर के रूप में!और इसी व्यवस्था को जीना हमारी और आपकी मजबूरी है। दुनिया के सारे लक्ष्य,दुनिया की हर प्रतिस्पर्धा आपने नहीं बनाई,लेकिन आप चाहकर भी इनसे दूरी नहीं बना सकते।आपके दुनिया में आने से पहले ही आपके साथ एक अनौपचारिक लेकिन काफी हद तक व्यवहारिकता में औपचारिक अनुबंध किया जाता है।इसलिए आप पैदा ही परतंत्र होते हैं।

पूरा जीवन एक दौड़ है।दौड़िए! दौड़िए! और दौड़िए! प्रत्येक क्षण आपके पैरों की टाप लोगों को सुनाई देनी चाहिए।फलां आदमी फलां दूरी तक दौड़ गया,फलां आदमी तुम्हारी दौड़ पूरी करने नहीं देगा,फलां से आगे जाना है तुम्हें, ये वो सारे श्लोक हैं जो इस दौड़ रूपी महाभारत में आपको आपके श्रीकृष्ण लोग सिखाते फिरेंगे।हम भी कम थोड़े हैं,दौड़ते हैं,लगातार,इच्छा नहीं है फिर भी।आखिर दौड़ना जीवन का शाश्वत सत्य जो है।अपने सपने,अपने अरमान,अपनी इच्छाएं,अपनी खुशियां,अपनी भावनाएं सब कुचलते हुए हम दौड़ते हैं।और इस दौड़ में हम कभी-कभार आगे तो निकल जाते हैं,लेकिन इस भाग-दौड़ में पीछे रह जाती है जिंदगी।वो जिंदगी,जो सच में जिंदगी है।जो किसी उद्यान में खिले इक रंगीन सुरभित मृदुल पुष्प के समान ही खूबसूरत है,जिसमें किसी भागा-दौड़ी के कांटे नहीं होते।वही जिंदगी तो जिंदगी है।हमें वही जिंदगी तो जीनी है!

हमें नहीं पसंद है एक ऐसी जिंदगी जिसमें सांस लेने से ज्यादा जरूरी हो सांस लेने के लिए हवा पैदा करना।हमें नहीं पसंद है ऐसी जिंदगी जिसमें अपने एक अनिश्चित सुखद भविष्य के लिए अपने वर्तमान से सौदा करना पड़े।हमें नहीं पसंद है ऐसी जिंदगी जिसमें जिंदगी के लिए जिंदगी से दूर रहने की अपरिहार्यता हो जाए।हम अपनी व्यक्तिगत सत्ता के स्वयं सत्ताधीश हैं।और इस हैसियत से इन सारी व्यवस्थाओं को,इन सारे विधानों को सिरे से खारिज करते हैं।कोई भी स्थापित मान्यता,कोई भी स्थापित व्यवस्था जिसके निर्माण में हम शामिल नहीं थे,उसे स्वीकार करना हमारे अपने विधान,उसूल,सिद्धांतों के खिलाफ है।जो दोस्त हमारी जिंदगी की सांस हैं,जो परिवार हमारी जिंदगी का आधा हिस्सा है,जो हम हमारी जिंदगी का संपूर्ण अस्तित्व हैं उन पर सवाल उठाने वाली जिंदगी मृत्यु से भी बदतर है।जीवन जीने का हमारा अपना तरीका है,हमारी अपनी व्यवस्था है।हम तो उसी तरीके से जिएंगे।हमारी भावनाओं का,हमारे अरमानों का शोषण करने वाली प्रतिस्पर्धात्मक व्यवस्था की जनक इस सामाजिक सत्ता के खिलाफ यही हमारा वामपंथ है।
लाल सलाम!

नोट- ये 'काला-नीला' मेरे मस्तिष्क का अंतर्द्वंद है।वैचारिक उथल-पुथल को यथास्थिति लिखने के पीछे महज एक कारण है कि अब अपने आप से झूठ बोलना अपराध लगता है।इसलिए मन की वास्तविक स्थिति का चित्र खींचना पूरे लेख के संतुलित संपादन से ज्यादा महत्वपूर्ण लगा।


Wednesday 18 January 2017

कविताः रहना सदा ही 'हर्षिता'



'पथ' कोई भी ज़िन्दगी में
ना कठिन है,ना सरल है,
बस ज़रा विश्वास-साहस-धैर्य
इच्छाशक्ति को
मन के बगीचे में
लगाना-सींचना-मजबूत करना।
ले लिया जो फैसला तो
कोई कारण हो मगर
बढ़ते हुए अपने कदम
मत रोकना-मत थामना।
रहना सदा ही 'हर्षिता'
निज ज़िन्दगी के देश पर
'दिल' का स्वयं 'अभिषेक' कर।
कि दीप्त हो उठे 'मयंक'
यश को, 'प्रगति' को देखकर।
तू उड़ चला चल पर पसारे,
है पुकारे
नील नभ का नील 'आँचल'।
तू स्वयं के विश्व का
दिनकर बने, 'शशांक' भी।
'अंकित' करे अपनी कथा
इतिहास के परिधान पर।
खुद को,प्रथम,पहचानकर,
निज 'रुचि'-क्षमता जानकर।
विश्वास की 'ज्योति' जला,
बढ़ चल अभय हो राह पर।
सब मुश्किलें आसान हों,
जीवन में ‘परमानंद’ हो।
'करूणानिधि' की हो कृपा
सब हो सुखद,सब हो भला।
मुस्कान,चेहरे की हँसी,
बहती रहें जीवन में खुशियाँ।
प्रभु से हमारी प्रार्थना
जीवन की राहों में तुम्हारा
दुःख से,निराशा से कभी
डर से,हताशा से कभी-
भी हो ना पाये सामना।
इस गाँव की मिट्टी-हवा
सब खेत,घर के सामने
ऊँचे खड़े शीशम,
गुलाबों की कतारें,नीम-गुड़हल
और अमरूदों की श्रेणी,
बेल,तुलसी,रातरानी
छत के इक कोने का वो
छोटा सा देवस्थान
हैं चढ़ते जहां पर फूल-अक्षत
आज भी दादी के मुख से 
उच्चरित श्लोक,स्तुति,आरती के साथ।
पार्श्व से जाती सड़क
इस घर से उस प्राचीन घर तक,
है जहां अब भी सुरक्षित
तोतली बोली तुम्हारी
लड़खड़ा चलना तुम्हारा
पहला कदम,पहली हंसी
और पहला शब्द भी,
घुटनों से आंगन नाप लेना,
धूल-मिट्टी से सने
बचपन की सब यादें तुम्हारी।  
और हाँ!
'राप्ती' का तीर भी,
और 'राप्ती' का नीर भी।
कल-कल स्वरों में,
पुलक-हर्षित
गीत गा-गाकर तुम्हें,
इस जन्मदिन की-
दे रहा शुभकामना।
--राघवेंद्र शुक्ल


Tuesday 17 January 2017

आश्चर्य तो है...

आश्चर्य तो है,कि पत्रकारिता सीखने के हिन्दुस्तान के सबसे बड़े संस्थान से उसके एक छात्र को एक लेख लिखने पर सस्पेंड कर दिया।और उससे भी बड़ा आश्चर्य है कि सस्पेंशन के पक्ष में दिए जा रहे तर्कों से आईआईएमसी के मीडिया संस्थान होने की बजाय एक न्यूज़ चैनेल प्रमाणित करने की गंध ज्यादा आ रही है।
इन आश्चर्यों के बीच एक माँ ने बतौर 'माँ' नहीं,बतौर 'पाठक' अपने प्रिय 'पत्रकार' के सस्पेंशन पर पत्र लिखा है,डायरेक्टर जनरल के नाम।
उनका 'प्रिय पत्रकार' कोई बहुत बड़ा ख्यातिलब्ध पत्रकार नहीं है।वह पत्रकारिता का छात्र है,आईआईएमसी में।जिसको निलम्बित कर दिया गया उसके लेख लिखने के तरीके को आधार बनाकर। वो अपने ही संस्थान,जहाँ पहुँचने के लिए उसने कितनी ही रातों को नींद से 'इस्तीफ़ा' दिया होगा ताकि वो उस संस्थान में पहुँच सके जहाँ से लोगों की जागृति के लिए आवश्यक दांव पेंच सीख सके,आज उसके क्लास,लाइब्रेरी और हॉस्टल में नहीं आ सकता,तब तक जब तक डिसिप्लिनरी कमिटी उसे अपना पक्ष रखने के लिए न बुलाये।तब तक उसे उस क्लास से बाहर रहना पड़ेगा,जहां वह अपनी उन तथाकथित गलतियों को सुधारने की प्रक्रिया सीख सकता था,जो उसके निलंबन का आधार बनी,उस कैंपस में नहीं घुस सकता,जिसके किसी भूखण्ड पर घासों पर बैठकर वह 'बोलिये!' नाम की बहस श्रृंखला में तमाम ज्वलंत मुद्दों पर अपनी राय रखता था।
लेकिन साहब! इस छोटे से डिप्लोमा कोर्स में समय की कीमत तो आप भी समझते ही होंगे।अगर नहीं!तो जरा समझने की कोशिश कीजिये!
कब बनेगी आपकी डिसिप्लिनरी कमिटी?कब बुलाएँगे आप Rohin को अपना पक्ष रखने?कब करेंगे अपनी जांच कि क्या सही था क्या गलत?
संस्थान में संवादहीनता की दुहाई देने के अतिरिक्त आप इस विषय पर गम्भीर भी हैं कि नहीं!अगर हैं,तो आप एक बार संवाद कीजिये अपने उस छात्र से।पूछिए उससे वो सवाल,जिसका जवाब आपको अलग अलग मंचों पर खुद तैयार करके देना पड़ रहा है।
और हाँ,सिर्फ कविता मत सुनाइएगा आप! सच में 'मुक्ति' के 'बोध' को व्यवहार में लाने के उपाय बताइयेगा।आपसे हमें बहुत उम्मीदें थीं,हैं भी,और रहेंगी भी।

सस्पेंशन पुराण

अर्जुन:- हे केशव!ये 'स्क्रीनशॉट पत्रकारिता'* क्या होती है??
कृष्ण:- "छायाचित्रम् पोस्टस्य,आधारम् च निलम्बन:।
अस्या: पत्रकारिताया:,स्क्रीनशॉटम् जग मन्यते।।"1


अर्जुन:- हे सुरेश! Rohin Verma के सस्पेंशन का कारण क्या है??
कृष्ण:- "यथा बिडालः खिसियानी,नोचति स्तम्भार्जुनः!
तथा प्रशासनस्य कृति:,करोतु निलंबित रोहिनम्।2


अर्जुन:- हे स्वामी!'चाटुकारिता' की सबसे अच्छी खासियत क्या है?
श्रीकृष्ण:- हे विभिन्न 'उद्देश्यों' की पूर्ति हेतु जन्म लेने वाले अर्जुन!सुनो
"नैनं छिन्दति खुद्दारी,नैनं दहति लानत:।
चापलूस्या धर्मस्य तु,न च भेदति शर्म इव।"3
भावार्थ: चापलूसी या चाटुकारिता के धर्म को न 'खुद्दारी' छेद सकती है,न 'लानत' जला सकती है और न 'शर्म' ही उसका भेदन कर सकता है।


अर्जुन;- हे जनार्दन! सबसे खतरनाक क्या होता है??
श्रीकृष्ण:- हे अभिव्यक्ति की आज़ादी का भ्रम पाले हुए भारत! सुनो,
"न तु एटमवर्षार्जुन:,नैव भूकम्प भयानक:।
संप्रति 'बहुडेंजरभवति',लिख् केचित् ऑनलाइन:।"4
भावार्थ:- हे अर्जुन!न तो एटम बम की वर्षा भयानक होती है और न तो भूकम्प का आना ही खतरनाक होता है।आजकल सबसे खतरनाक होता है 'कुछ ऑनलाइन' लिख देना।??


अर्जुन:- हे माधव!मेरी इच्छा है कि मैं भी 'लेख' लिखूं।सामाजिक विसंगतियों पर 'आवाज' उठाऊं।किसी के साथ गलत हो रहा हो,तो उसके हक़ के लिए लड़ाई लड़ूं।आपका क्या मत है,रोहिण!
श्रीकृष्ण:- हा हा हा हा! हे सामाजिक/राजनीतिक विसंगतियों से कुपित लाल आँखों वाले मेरे प्रिय मित्र!
"मौनेवाधिकारस्ते,मा बोलेषु कदाचन।
भविष्यसित्वमपि'सस्पेंडम्',मा भू 'महानजर्नलिस्ट'।"5
भावार्थ:- मौन में ही तुम्हारा अधिकार है,बोलने में कदापि नहीं।बड़े पत्रकार' मत बनो,तुम भी 'सस्पेंड' हो जाओगे।


अर्जुन:- हे सुर में वंशी बजाने वाले!हे दही-माखनचोर!हे राजन्!जीवन के समर में अनेक पक्ष हैं।इन पक्षों में 'धर्म' कौन है?कृपया मार्गदर्शन करें,श्याम!
श्रीकृष्ण:- हे धन अर्जन से विरक्त और सदैव धर्म का दृढ़ता से पक्ष रखने वाले धनंजय! एक बात गाँठ बांध लो,
"धर्माधर्मानुचिन्तयेत्,ध्यानम् देहि धनञ्जय।
य: ददासित्वम् प्लेसमेंटम्,तस्मात्पक्षेवधर्मपक्ष।"6
भावार्थ:- हे धनञ्जय!धर्म और अधर्म के विषय में चिंतन करते हुए ये ध्यान देना कि जो तुम्हे 'प्लेसमेंट' दिलाये वही पक्ष 'धर्म' है।


अर्जुन:- हे श्रीकृष्ण! 'ऑनलाइन वॉर' के क्या नियम हैं?'फेसबुक'-'ट्विटर' आदि धर्मक्षेत्रों-कुरुक्षेत्रों में लड़ाइयां कैसे होती हैं?
श्रीकृष्ण:- हे पार्थ!
"श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम्,'लेखकाश्च' निलम्बन:।
अस्थावांल्लभते 'शेयर','कमेंटकाराश्च' ब्लॉकम्भवन्ति।।"7
भावार्थ:- 'श्रद्धावान' ज्ञान प्राप्त करते हैं,और 'लेख लिखने वाले' निलंबन।
'आस्थावानों' को अपने पोस्ट पर 'शेयर' मिलता है,और 'कमेंट' करने वाले लोग 'ब्लॉक' हो जाते हैं।



अर्जुन:- हे सत् चित् आनंद!हे शाश्वत सत्य,हे जीवन के वसंत!हे सरकार! इस महाभारत के युद्ध में सर्वाधिक विद्वान् अर्थात् 'पंडित' अर्थात् 'होशियार' कौन है?और उसका क्या विशेष कार्य है?
श्रीकृष्ण:- हे ज्ञानी! हे प्राणों से प्रिय सखा! इस महाभारत में 'सबसे होशियार' प्राणियों के सन्दर्भ में तुम्हे जो बताने जा रहा हूँ,उसे ध्यान से सुनो!
"यस्योपदेशायादर्शानाम्,क्रांत्योत्थानाय भाषणम्।
समयस्योपस्थितम् मौनं,साधति य: स पंडित:।8
निष्कासनात्भयभीतम्, परित्राणाय च नौकरीम्।
सर्वादर्शम् विस्मृत्वा,स अनुसरयन्ति तटस्थता:।।"9
भावार्थ:- "जिसका 'आदर्श' सिर्फ उपदेश देने के लिए और 'भाषण' क्रान्ति के उत्थान के लिए हो,जो समय पड़ने पर 'मौन' साध लेता हो,वही 'पंडित' अर्थात् विद्वान् अर्थात् होशियार है।
वह 'निष्कासन' से भयभीत और नौकरी की रक्षा के लिए सभी 'आदर्शों' को भूलकर 'तटस्थता' का अनुसरण करता है।"



अर्जुन:- हे भगवन्! सृजन अथवा गठन की प्रक्रिया कितनी धीमी गति से होती है!है न!
अच्छा प्रभु!संसार में सर्वाधिक समय किसके सृजन/गठन अथवा निर्माण में लगता है?
श्रीकृष्ण:- हे धनुर्धर!
"नाकाशस्य नभूमेश्च,सृजनेबहुदेरम्भवति।
पर गठिते समितेस्तुहि,व्यतीतन्ति युगे-युगे।"

भावार्थ:- "हे पार्थ!आकाश और भूमि के सृजन अर्थात् निर्माण में बहुत देर नहीं लगती,लेकिन (अनुशासन) समिति के गठन में ही कई कई युग बीत जाते हैं।"



अर्जुन:- हे भगवन्! आपको क्या लगता है!क्या होगा आज?
श्रीकृष्ण:- हे अर्जुन!
"यत्र तथ्यस्तर्काश्च,आधारे सत्यार्जुन।
तत्र न चिंताभवितव्यम्,विजयस्यप्रतितुमतिर्मम्।।"

भावार्थ:- हे अर्जुन! जहाँ तथ्य और तर्क सत्य के आधार पर हों,वहां विजय के प्रति चिंतित तो नहीं होना चाहिए,ऐसा मेरा मत है।



अर्जुन:- हे दीन दयाल!इस पूरे घटनाक्रम से हमें क्या शिक्षा लेनी चाहिए?अंतिम कमेँट दीजिये!
श्रीकृष्ण:- हे भारत!

" यदा यदा हि कलमस्य,ग्लानिर्भवतिस्वतंत्रता।
अभ्युत्थानम् दमनस्य,तदायुद्धायोत्तिष्ठत्वम्।

परित्राणाय सत्यस्य,सत्यवादिनस्य कदाचन।
युद्धेसदा सत्यमेव,जयते नानृतम् पार्थ।"

भावार्थ:- जब जब कलम के स्वतंत्रता की हानि होती है,और (उसके) दमन का उत्थान होता है,तब तब तुम युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।
हे पार्थ! सत्य की और सत्य बोलने वाले की रक्षा के लिए (लड़े गए इस) युद्ध में सदा सत्य की ही विजय होती है,झूठ की कभी नहीं।

Saturday 14 January 2017

कविताः आप क्या हैं,हुज़ूर!










हम नहीं,
सीने की बुझी आग वाले।
हम नहीं,
'समझौतों' से बुनी चादर
पाक-साफ़,बेदाग़ वाले।
हम नहीं,
कि जिनका शीश हो ज़ंज़ीर में जकड़ा हुआ,
मुड़ भी सके न सत्य के दीदार को भी।
हम नहीं,
कि पक चुके हों,
बात सुन सुनकर हमारे हक,हमारे आंसुओं की।
हम नहीं,
कि झुनझुनों की झन-झनक झनकार में खोकर
हमारे 'कल' पे फेंके
तीर की आहट न सुन पाएं।
हम नहीं,
कि मौसमों से कर लें सौदा,
और अपने खेत के गद्दार हों।
हम नहीं,
कि 'हार' की खातिर लगा दें दांव खुद्दारी,
पहनकर 'मौन' बनते 'शांति'-पैरोकार हों।
हम कि वो,
जो खून में रखते जुनूँ
सच बोलने का,
हम कि वो,
जो सांस में रखते हैं चिंगारी।
जो उठती है,
विचारों की रगड़ से खोपड़ी में।
हम कि वो,
जो खेत में बोते सवालों की फसल,
उगाते हल।
हम तो हैं
जो जब उठे हैं प्रश्न बनकर,
तब तब जुड़ा अध्याय है इतिहास में कोई नया।
हम तो वो हैं
जो सवालों के लिए यमराज को भी
कर चुके मजबूर।
तो,सोचिये
आप क्या हैं,
हुज़ूर!

--राघवेंद्र शुक्ल

Tuesday 3 January 2017

कविताः मेरा गुनाह क्या है?


सर पटकता हूँ मैं,
स्मृतियों के किताबों में,
अपना गुनाह ढूँढने की
कोशिश में।
मोम की तरह जलकर पिघलकर
बहता हूँ,तुम्हारा साथ पाने की
ख्वाहिश में।
कई दिन से,कई दिनों तक।
तुम्हारे हर बयान में सूँघता रहता हूँ,
मुझसे हुए किसी
अनजान अपराध का सुराग़।
पता है,
इस अपराध की सजा अगर मौत है,
तो भी कम है,
क्योंकि वह,तुम्हारे
मुझे देख
नज़रें फेर लेने से ज्यादा
तकलीफ नहीं दे सकती।
पर अब
थक गया हूँ,
जल जलकर,
आशाओं की भट्ठी में,
कि तुम फिर लौटोगे।
थक गया हूँ
सांसों की रफ़्तार और,
दिल की धड़कनों को थामते थामते।
मेरे अधरों की हंसी,
हमारी दोस्ती के बीच खड़े
एक अदृश्य पहाड़ से टकराकर,
हो जाती है चकनाचूर।
तुम्हारे बिन अकेलेपन का इक उड़नखटोला,
उदासी के वरद आकाश में
हमारे मन को ले जाता है
कहीं दूर।
और खोया सा,भटकता सा,
मैं फिरता हूँ इतस्तः।
मुझे इतना न भटकाओ,
बस इतना बताओ,
हमारी श्वेत मैत्री की चदरिया पर,
किसी संदेह सा चिपका हुआ
ये स्याह क्या है?
मना करता नहीं,रूठो!
तुम्हारा मन जभी हो,
मनाऊँगा! मगर ये तो बता दो,
मैं अभियुक्त हूँ जिसका,
मेरा वो गुनाह क्या है?
➖➖➖➖➖➖➖➖➖
-राघवेंद्र शुक्ल

Sunday 1 January 2017

अमरबेल बनना जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है..

‘हैप्पी न्यू इयर’ की शुभकामनाओं की बौछारों के बीच 21वीं सदी के 17 वें वर्ष का पहला दिन बीत गया।यानी कि 2017 भी अब एक दिन पुराना हो गया।हर साल नववर्ष हमें एक नयी शुरुआत करने के लिए एक लकीर खींचकर देता है,जहां से हम नयी ऊर्जा,नये संकल्प,नये विचार,नये तौर तरीकों के साथ जीवन यात्रा को सार्थक गति प्रदान करने की कोशिश करते हैं।पुराने साल को नम विदाई देकर हम कुछ रिजाल्यूशंस की लिस्ट बनाने बैठ जाते हैं जिनकी जमीन पर हमें नये साल को सफल,सार्थक और दिलचस्प बनाने का विश्वास होता है।पुरानी बुरी आदतों का संहार करने तथा नयी अच्छी आदतों का स्वयं में सृजन करने के संकल्पों का पर्व भी यही होता है।कुछ लोगों के संकल्प कुछ दिनों या घंटों की यात्रा करके ही धराशायी हो जाते हैं तो कुछ लोगों के दृढ़ निश्चयों की लिस्ट में से कुछ एक सरकारी योजनाओं के लिए केंद्र से ग्राम पंचायत को भेजे गए फंड की तरह साल के अंत तक अनुपालित हो ही जाते हैं।ऐसे लोग बधाई के पात्र होते हैं।

इस बार हम भी सोच रहे हैं कि थोड़े तो नए हो ही जाएं।वही बीस साल पुराना आचरण,व्यवहार,आदत जो भी कह लें,साल के अलावा सब कुछ पुराना ही तो है।अब नए राघवेंद्र शुक्ल की तलाश में हैं हम।एक नहीं अनेकों कमियां हैं हममें।सबका एक साथ तख्तापलट करना आसान नहीं है।बस थोड़ी अच्छी आदतें बहुमत में रहें,इतनी कोशिश करनी है।आखिर स्वस्थ लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना भी तो बहुत जरुरी है।इसलिए सोच लिया है,बदलेंगे,मगर इस साल सिर्फ एक आदत।वो आदत,जिसे इस समय बदला जाना सबसे ज्यादा जरूरी है।वो आदत,जो उन्नति के आशाओं पर एक घाव की तरह सड़ रही है।वो आदत,जिसकी वजह से मेरा सारा का सारा व्यक्तित्व एक तालाब की तरह शांत,स्थिर और निष्प्रभावी होता जा रहा है।आपके व्यक्तित्व के निर्माण के दौर का वातावरण आपके भविष्य की बुनियाद खड़ी करता है।

अगर यह बुनियाद कमजोर निकली तो आत्मविश्वास की छत के कभी भी भरभराकर ढहने का खतरा रहता है।मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ लगता है।सामने वाले को अपने से अधिक जिम्मेदार और योग्य समझने की आदत के अंधेरे में या फिर यूं कहें कि एक अनावश्यक स्वअनुशासन की छाया में उगा हुआ मेरा व्यक्तित्व कभी अपने आप से मुलाकात नहीं कर पाया,अपनी अहमियत नहीं समझी,अपनी कीमत नहीं जानी।

कहते हैं न! ‘बरगद के वृक्ष के नीचे कोई पौध उन्नत नहीं हो सकती।पौध को वृक्ष बनने के लिए आवश्यक है कि वह खुले आकाश में वातावरण के संघर्षों से आंख मिलाए,मौसम के दांव-पेंचों से दो-दो हाथ करे,धूप सहे,आंधियों का मुकाबला करे,बरसात में भीगे,सूरज से रोशनी मांगे,धरती से पानी और लवण खींचे,हवा से कार्बन डाई आक्साइड सोखे और प्रकृति में अपना अस्तित्व कायम रखने के हर तौर-तरीके अनुभव की किताब से सीखे।अमरबेल बनना जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है,और अमरबेल न बनने के लिए अंगारों की सैर करनी पड़ती है,जिम्मेदारियां उठानी पड़ती है,स्वतंत्र होना पड़ता है,निर्णय लेने पड़ते हैं,ठोकरें खानी पड़ती है,गिरना पड़ता है,उठना पड़ता है,सवाल उठते हैं,आलोचना होती है,हंसी उड़ती है,इन सबको सहन करना पड़ता है,और दृष्टि!....दृष्टि सदैव अंतरमन के गलियों में रखनी पड़ती है,जहां से निकलने वाले फरमान आपके अपने असली चरित्र और व्यक्तित्व का चित्र बनाते हैं।

अब तय तो कर लिया है कि अमरबेल नहीं बनना है।ये साल इसी युद्ध को समर्पित रहेगा।नए कैलेंडर का बदलता चेहरा मुझमें नए परिवर्तनों का साक्षी होगा,ऐसी इच्छा है,आशा है,विश्वास है और जरुरत भी।

नया साल वाकई नया हो,सुखमय हो,कीर्तिमय हो,समृद्धिमय हो और एक और बेहतरीन नया साल देने का आधार हो..

बनारसः वहीं और उसी तरह

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