Tuesday 17 January 2017

आश्चर्य तो है...

आश्चर्य तो है,कि पत्रकारिता सीखने के हिन्दुस्तान के सबसे बड़े संस्थान से उसके एक छात्र को एक लेख लिखने पर सस्पेंड कर दिया।और उससे भी बड़ा आश्चर्य है कि सस्पेंशन के पक्ष में दिए जा रहे तर्कों से आईआईएमसी के मीडिया संस्थान होने की बजाय एक न्यूज़ चैनेल प्रमाणित करने की गंध ज्यादा आ रही है।
इन आश्चर्यों के बीच एक माँ ने बतौर 'माँ' नहीं,बतौर 'पाठक' अपने प्रिय 'पत्रकार' के सस्पेंशन पर पत्र लिखा है,डायरेक्टर जनरल के नाम।
उनका 'प्रिय पत्रकार' कोई बहुत बड़ा ख्यातिलब्ध पत्रकार नहीं है।वह पत्रकारिता का छात्र है,आईआईएमसी में।जिसको निलम्बित कर दिया गया उसके लेख लिखने के तरीके को आधार बनाकर। वो अपने ही संस्थान,जहाँ पहुँचने के लिए उसने कितनी ही रातों को नींद से 'इस्तीफ़ा' दिया होगा ताकि वो उस संस्थान में पहुँच सके जहाँ से लोगों की जागृति के लिए आवश्यक दांव पेंच सीख सके,आज उसके क्लास,लाइब्रेरी और हॉस्टल में नहीं आ सकता,तब तक जब तक डिसिप्लिनरी कमिटी उसे अपना पक्ष रखने के लिए न बुलाये।तब तक उसे उस क्लास से बाहर रहना पड़ेगा,जहां वह अपनी उन तथाकथित गलतियों को सुधारने की प्रक्रिया सीख सकता था,जो उसके निलंबन का आधार बनी,उस कैंपस में नहीं घुस सकता,जिसके किसी भूखण्ड पर घासों पर बैठकर वह 'बोलिये!' नाम की बहस श्रृंखला में तमाम ज्वलंत मुद्दों पर अपनी राय रखता था।
लेकिन साहब! इस छोटे से डिप्लोमा कोर्स में समय की कीमत तो आप भी समझते ही होंगे।अगर नहीं!तो जरा समझने की कोशिश कीजिये!
कब बनेगी आपकी डिसिप्लिनरी कमिटी?कब बुलाएँगे आप Rohin को अपना पक्ष रखने?कब करेंगे अपनी जांच कि क्या सही था क्या गलत?
संस्थान में संवादहीनता की दुहाई देने के अतिरिक्त आप इस विषय पर गम्भीर भी हैं कि नहीं!अगर हैं,तो आप एक बार संवाद कीजिये अपने उस छात्र से।पूछिए उससे वो सवाल,जिसका जवाब आपको अलग अलग मंचों पर खुद तैयार करके देना पड़ रहा है।
और हाँ,सिर्फ कविता मत सुनाइएगा आप! सच में 'मुक्ति' के 'बोध' को व्यवहार में लाने के उपाय बताइयेगा।आपसे हमें बहुत उम्मीदें थीं,हैं भी,और रहेंगी भी।

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