Saturday 14 January 2017

कविताः आप क्या हैं,हुज़ूर!










हम नहीं,
सीने की बुझी आग वाले।
हम नहीं,
'समझौतों' से बुनी चादर
पाक-साफ़,बेदाग़ वाले।
हम नहीं,
कि जिनका शीश हो ज़ंज़ीर में जकड़ा हुआ,
मुड़ भी सके न सत्य के दीदार को भी।
हम नहीं,
कि पक चुके हों,
बात सुन सुनकर हमारे हक,हमारे आंसुओं की।
हम नहीं,
कि झुनझुनों की झन-झनक झनकार में खोकर
हमारे 'कल' पे फेंके
तीर की आहट न सुन पाएं।
हम नहीं,
कि मौसमों से कर लें सौदा,
और अपने खेत के गद्दार हों।
हम नहीं,
कि 'हार' की खातिर लगा दें दांव खुद्दारी,
पहनकर 'मौन' बनते 'शांति'-पैरोकार हों।
हम कि वो,
जो खून में रखते जुनूँ
सच बोलने का,
हम कि वो,
जो सांस में रखते हैं चिंगारी।
जो उठती है,
विचारों की रगड़ से खोपड़ी में।
हम कि वो,
जो खेत में बोते सवालों की फसल,
उगाते हल।
हम तो हैं
जो जब उठे हैं प्रश्न बनकर,
तब तब जुड़ा अध्याय है इतिहास में कोई नया।
हम तो वो हैं
जो सवालों के लिए यमराज को भी
कर चुके मजबूर।
तो,सोचिये
आप क्या हैं,
हुज़ूर!

--राघवेंद्र शुक्ल

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