Tuesday 29 December 2020

बुद्ध का 'अकथ' निर्वाण



निर्वाण ऐसे प्रयाण का नाम है जिसमें चीजें जहां से आईं, वहीं विलीन हो गई हैं। जैसे बूंद सागर में, ज्योति अनंत में और आत्मा कथित तौर पर परमात्मा में। यह वापस लौटना भी नहीं है। प्रत्यागम नहीं है, उत्तरागम है। चलते-चलते एक यात्रा पूर्ण चक्र में वहीं समाहित हो जाए, जहां से शुरू हुई। दिया जलते-जलते अचानक बुझ जाए। अज्ञात से आती है ज्योति और अज्ञात में ही विलीन हो जाती है। निर्वाण यही है। मनुष्य जीवन एक विराट अनंत का हिस्सा है। 

सिद्धार्थ मृत्यु के भय का इलाज ढूंढने घर से भागे और जब गौतम बुद्ध हो गए तो मृत्यु के सामने इतिहास के समस्त धर्म संस्थापकों में सबसे ज्यादा निर्भीक होकर सामने आए। अपने निर्वाण का दिन निर्धारित कर लिया। सदियों पहले किसी बैसाख की पूर्णिमा से बुद्ध कुशीनारा में ऐसे ही चिर ध्यानस्थ लेटे हुए हैं। ऐसा लगता है कि ध्यान की ऐसी गहराई में उतर गए हैं कि शरीर का सारा भौतिक चैतन्य किसी गहरे तालाब की तरह शांत हो गया है। वैज्ञानिक अध्यात्म के इस महान नेता की सदेह अंतिम लीला का यह पाषाणवत् दृश्य दुःखी नहीं करता बल्कि निर्वाण-लब्ध अरिहंत के सामने आशादीप के प्रकाश में गहरे अंतर का दिव्य आनन्द मुस्कान बनकर फूट पड़ना चाहता है।

अच्छा, निर्वाण का यह तो अनुमानित अर्थ है। बौद्ध धर्म दर्शन में जाएंगे तो इसकी व्याख्या मिलेगी। असल में बुध्द ने तो निर्वाण का अर्थ ही नहीं बताना चाहा है। वह तो अप्प दीप होने के प्रेरक थे। दुनिया के सभी धर्मों ने निष्कर्ष को महत्ता दी है। जीसस, पैगम्बर से लेकर कृष्ण तक ने कहा कि आत्मा के लिए परमात्मा की शरण ही श्रेष्ठ प्राप्य है। सभी पंथों में तो परमात्मा की बकायदा परिभाषा भी है। बुद्ध ने इस परिभाषा के स्थान पर एक रिक्ति छोड़ दी है। यह रिक्ति दरअसल बुद्धत्व की ही रिक्ति है, जो गेरुआ चोंगा पहनने से तो नहीं ही भरने वाली है।


बौद्ध धर्म वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का पंथ है। वैज्ञानिक यूं कि यहां परमात्मा कोई मानवीकृत ईश्वर जैसा विश्व संचालक नहीं बल्कि एक व्यवस्था, बल या चेतना है, जिससे संसार चल रहा है। जिसमें चीजें जनम रही हैं और फिर मृत हो रही हैं। यहां नष्ट कुछ नहीं हो रहा है। सब ट्रांसफॉर्म हो रहा है। अनंत से कहीं से ज्योति आती है। फूंक मारने पर वह गायब हो जाती है। कहां जाती है? समाप्त नहीं हो जाती। जिस अज्ञात से आती है, उसी अज्ञात में लय होना ही उसकी नियति है। यही व्यापार ही तो संसार है। इन सबकी जो केंद्रीय संचालक ताकत है, वहीं तक तो पहुंचना वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का उद्देश्य है। 

बुद्ध शायद वहां तक पहुंचे थे। ऐसा भी हो सकता है कि बुद्ध के बाद भी कई लोग वहां तक पहुंचे हों लेकिन बुद्धत्व उस पहुंच का अनुभव बता देने का निषेध करता है। वह उसे अन-बताया छोड़ देता है कि लोग स्वयं वहां पहुंचने की कोशिश करें। स्वतः अनुभूति से तय करें कि वह क्या है? उन्होंने उसे कोई नाम नहीं देना चाहा। बाद में उसे शून्य से संबोधित किया कि कुछ शून्य सा है, जहां अगर जाना है तो अपना दीपक खुद होना पड़ेगा। यही धम्म भी है। यहां तक पहुंचने के लिए गुरु के सहारे को भी गैर-जरूरी बताया गया है। कहते हैं कि गुरु परम्परा से 'अंधविश्वास' जन्मता है। अर्थात इस परम्परा में बिना अनुभव-ज्ञान के निष्कर्ष को मान लेने की बाध्यता-सी होती है, जिससे कुछ खास हासिल नहीं होना है। 

बुद्ध के धर्म में इसीलिए एकांत का महत्व है। एकांत, मौन और ध्यान। एकांत अनुभूति-ज्ञान के मार्ग की आवश्यक शर्त है। मौन एकांत के लिए आवश्यक है, ताकि वाणी के सेतु-भंजन से एकांत घटित हो सके। ध्यान से मौन और एकांत का अभ्यास हासिल किया जा सकता है। यह सब ही निर्वाण के मार्ग हैं। यह सब ही बुद्धत्व के मार्ग हैं। परम् संतोष का मार्ग, परमानंद का मार्ग, जहां पहुंचने वालों ने बताया है कि वहां पहुंचकर कुछ भी पाना शेष नहीं रहता।

(29 दिसंबर 2020 (मंगलवार) को कुशीनगर की यात्रा के बाद)

Saturday 14 November 2020

जुगनू कथाः उजालों से बढ़ता अंधेरा


अंधकार पर विजय पाने के पर्व के रूप में दिवाली को प्रचारित तो किया गया लेकिन यह विजय-पराजय का पर्व नहीं है, ऐसा मेरा मानना है। दशहरा को एक बार के लिए मान सकते हैं कि रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद राम के जीत के जश्न के रूप में त्रेता से लेकर आज तक यह पर्व मनाया जाता है लेकिन दीपावली तो 'प्रत्यावर्तन' का पर्व है। पुनरागमन का पर्व है। राम लंका से अयोध्या लौटते हैं। वह एक युद्ध जीतकर आ रहे हैं लेकिन अयोध्या में दीप इसलिए नहीं जलाए गए कि उन्होंने रावण को पराजित किया है।

अयोध्या में दीप जलाया जा रहा है कि राम वापस आ रहे हैं। 14 साल पहले राजाज्ञा हुई थी कि राम वनवास भोगेंगे। अयोध्या की प्रजा के जीवन में अंधकार छा गया था। प्रजा ने राम को भगवान का अंश तो मान ही लिया था। भगवान की जीत पर संदेह की तो कोई बात ही नहीं रह जाती। तो जिस चीज की संभावना पर संदेह ही नहीं था, उसके होने पर जश्न कैसा? अवध की प्रजा ने तो अवधेश की वापसी की राह में घी के दीपक जलाए थे कि विछोह के अंधकार से मिलन के प्रकाश की ओर ले जाने वाला राम अयोध्या वापस आ रहा है।

दिवाली को अंधेरे पर जीत के तौर पर न जाने कब से प्रचारित किया जाने लगा। ऐसा इसलिए भी होगा कि हम जीवन को युद्ध की शकल में देखने के आदी होते जा रहे हैं। सेनापति है, हथियार हैं, हथियार बनाने वाले हैं और लोग.. लोगों को बताया जा रहा है कि किसके खिलाफ युद्ध लड़ना है। अंधेरा इन सबमें एक पक्ष हो गया है, जिसे खत्म कर देना ही विकल्प मान लिया गया है लेकिन हमारे शास्त्रों से लेकर प्राकृतिक नियमों के संकेत-निहितार्थों तक में अंधेरा हमारा दुश्मन नहीं है। वह हमारी प्रकृति का हिस्सा है।

अंधेरे के आध्यात्मिक अर्थों से बाहर आएं और उसके भौतिक स्वरूपों की ही बात करें तो धरती पर न जाने कितनी ही प्रजातियां हैं, जिनके जीवित रहने के लिए अंधेरा अनुकूल वातावरण है। चमगादड़ और उल्लू तो हमारे प्राकृतिक साहचर्य में ही आते हैं और जुगनू को कैसे भूल सकते हैं?

कुदरती टॉर्च की गुम होती रोशनी

यह अच्छा है कि हम उस दौर में पैदा हुए जहां हमने जुगनू को अपनी आंखों से देखा है। यह जादुई सी दिखने वाली कुदरती लालटेन (जैसा कि 'डाउन टू अर्थ' पत्रिका में उसे कहा गया है) अगर सिर्फ किताबों में पढ़ी गई होती और चित्रों में देखी गई होती तो इस पर भरोसा करना मुश्किल होता कि कोई ऐसा भी जीव होता है, जिसके बदन पर लाइटें जलती हैं और उससे गर्मी नहीं निकलती है। मतलब कि यह प्रकाशित तो होती है लेकिन बहुत ही शीतलता के साथ। उसके पंख भी होते हैं और अमावस की रात में किसी पौधे के इर्द-गिर्द झींगुरों की झंकार से तालमेल करते हुए झिम-झिम जब उनका कोई समूह नृत्य करता दिखाई देता है तो लगता है कि इस कुदरती झालर के आगे दुनिया भर की और सजावटों का क्या ही सौंदर्य है?

पर्यावरण पर लिखने वाली पत्रिका 'डान टू अर्थ' में जुगनू पर एक चिंताजनक लेख आया है। इसे पढ़ते हुए ध्यान आया कि तकरीबन 7 महीने से गांव में रहने के बावजूद मुझे इस बार जुगनू नहीं दिखे जबकि गांव में बचपन की सारी स्मृतियों में जुगनू की जगमगाहट का एक बड़ा हिस्सा है। हम उसे 'भक्जोन्ही' कहते थे। 'जोन्ही' तो हम आसमान के तारों को कहते थे और हमारे अपने बाल-शोध के मुताबिक, भक्जोन्ही भी आसमान की वही जोन्ही है जो चलते-चलते धरती पर आ गई है और अब वापस जाने का रास्ता भी भूल गई है।

कई बार उसे पकड़ने की भी कोशिश की कि जान सकें यह लाइट आखिर जलती कहां है। कई बार वह शरीर से टकरा जाए तो जल जाने का नाटक भी हमने खूब किया है। हमको लगता था कि उसके पेट पर यह जो लाइट जलती है, वह छू देंगे तो जल जाएंगे। लेकिन यह सब बात तो सरासर झूठ निकली। अब पता चला है कि यह 'ठंडा बल्ब' तो जुगनू की पेट का एक हिस्सा है। उसका अंग है। जुगनू जो ऑक्सिजन ग्रहण करता है, उसे अपने शरीर में बनने वाले लूसीफेरिन नाम के तत्व से मिला देता है। इसी से यह जादुई रोशनी बनती है।

ऐसे विचित्र जीव के साथ धरती पर रहना, उन्हें देखना अद्भुत है। कई अन्य दुर्लभ और अद्भुत जीवों के साथ ही जुगनू भी अस्तित्व के संकट के दायरे में आ गए हैं। हर साल शोध सामने आते हैं और बताते हैं कि दुनिया भर से जुगनू लगातार खत्म हो रहे हैं। प्राकृतिक टॉर्च बुझ रही है। शोधकर्ताओं ने ऐसा होने का तीन कारण बताया है। पहला तो खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग है, जो कई अन्य लाभदायक कीटों की पूरी नस्ल पर बड़ा संकट बनकर सामने आया है।

दूसरा, तेजी से होते शहरीकरण और जंगल तथा बाग-बगीचों के घटते क्षेत्रफल के कारण उनका पर्यावास सिकुड़ रहा है और जो तीसरा कारण है, वह दीपावली मनाने के हमारे तरीकों और अपने जीवन में अंधेरे के खिलाफ छेड़ गए युद्धमय आचरणों से जुड़ा है। पर्यावरणविद इसे प्रकाश प्रदूषण कहते हैं।

प्रकाश प्रदूषण क्या है?

प्रदूषण किसी भी तंत्र या व्यवस्था को उसकी गुंजाइश से ज्यादा खींचने या उसमें अनुपयुक्त, अनियंत्रित और अनियमित अतिक्रमण के नतीजे का नाम है। हवा की जहरीली गैसों की सहन करने की क्षमता से ज्यादा गैसें जब हमने छोड़ना शुरू किया तो हवा दूषित हुई। पानी के साथ भी हमने ऐसा किया। दुनिया की शांति में जरूरत से ज्यादा शोर मिला दिया तो ध्वनि प्रदूषण जन्मा। वैसे ही अंधेरे के खिलाफ प्रकाश के विस्फोट ने प्रकाश प्रदूषण को पैदा किया है।

वैज्ञानिकों ने कहा कि आकाश में कृत्रिम रोशनी की वजह से जो चमक-दमक दिखती है, वह प्रकाश प्रदूषण है। यह वायु या फिर जल प्रदूषण से कम खतरनाक नहीं है। मानव मनोविज्ञान और दृष्टि क्षमता पर इसका नकारात्मक असर तो है ही, साथ ही यह कई वन्य तथा अन्य ऐसे प्राणियों के अस्तित्व पर संकट पैदा कर देता है, अंधेरा जिनके पर्यावास के काफी अनुकूल होता है। कीड़ों-मकोड़ों की प्रजनन क्षमता पर असर पड़ने की बात भी एक्सपर्ट बताते हैं।

इतना ही नहीं, पेड़-पौधों के विकास में अंधेरे का महत्वपूर्ण योगदान होता है। बताया जाता है कि बीज के फूलने की प्रक्रिया में भी अंधेरा जरूरी होता है। रात के वक्त में ज्यादा रोशनी की वजह से हमारे आसपास रहने वाली चिड़ियां, मेंढक, झींगुर, तमाम कीड़े-मकोंड़ों का बायोलॉजिकल क्लॉक भी गड़बड़ हो जाता है। इससे उनका पूरा जीवन प्रभावित होता है। इन सबमें सबसे ज्यादा नुकसान हमने जुगनू का किया है।

जुगनूओं के शरीर पर जलने वाला प्रकाश उनकी प्रजनन प्रक्रिया का हिस्सा है। विशेषज्ञ बताते हैं कि उनकी चमक का पैटर्न अपने साथी को तलाशने का संकेत होता है लेकिन उजाले की बाढ़ में जुगून का जीवन बहता जा रहा है। ज्यादा रोशनी में वे अपना रास्ता भटक जाते हैं। अंधे हो जाते हैं। अप्रत्यक्ष तौर पर उनका जैविक चक्र भी प्रभावित होता है। प्रकाश प्रदूषण के बाद जुगनू के लिए कीटनाशक भी बड़ा खतरा हैं। जुगनू अपने जीवन का ज्यादा हिस्सा पानी या जमीन के नीचे बिताते हैं। यहां उन्हें कीटनाशकों की वजह से खतरे का सामना करना पड़ता है।

जुगनू एक जरूरी कारण है कि हम अपने आधुनिकता पर पुनर्विचार करें। दीवाली जैसे पर्व के नाम पर घरों को चकमक लाइटों से सजाते वक्त सोचें कि हम मानवेतर जीवों के जीवन में कितना नकारात्मक और गैर-जरूरी अतिक्रमण कर रहे हैं। दीवाली दीपों का पर्व है। मिट्टी के दीये जलाने की इस प्रथा के पीछे वैज्ञानिक तर्क भी हैं। पटाखों-झालरों इत्यादि का इस्तेमाल दीपावली की मूल भावना के खिलाफ है।

दीवाली शांति का पर्व है। अमावस की रात में अद्भुत नीरवता होती है। उसमें दीपों के प्रकाश का साथ सूचना और संचार के विस्फोट के युग में बेचैन और श्रांत मानव मन के लिए एक औषधीय सम्मेल है। इसमें पटाखों का विस्फोट किसी भी तरह से जश्न का प्रतीक नहीं है। यह पर्यावरण के खिलाफ है, हमारी परंपरा के खिलाफ है। त्योहार की मूल भावना के खिलाफ है। झालरों और तेज प्रकाश वाले बल्बों का इस्तेमाल भी दीपावली को ठीक परिभाषित नहीं करते। यह हमारे सहचर जीवों के लिए भी तो हानिकारक हैं।

दीपावली पर मिट्टी के दीए जलाना बेहतर है। घर की लाइटों को इस दिन विश्राम दिया जा सकता है। केवल दीये जलाए जा सकते हैं। वापस लौटने के इस पर्व पर हम अपनी परंपराओं के मूल लक्ष्यों की ओर लौट सकते हैं। दीपावली के अलावा अन्य दिनों में भी प्रकाश यंत्रों का नियंत्रित और आवश्यक इस्तेमाल सुनिश्चित करके जुगनू समेत कई जीवों के जीवन को आसान बनाने में भी अपना योगदान दे सकते हैं। 

प्रकाश पर्व है तो प्रकाश के प्राकृतिक प्रतिनिधियों के संरक्षण के बारे में चर्चा भी जरूरी है। उजाला हमारे लिए बेहद जरूरी है लेकिन केवल उजाला ही जरूरी नहीं और धरती केवल हमारी नहीं है। सारे मसले केवल हमसे संबंधित नहीं हो सकते। वेदसूक्ति है, 'संगच्छध्वं', जिसका मतलब है कि साथ चलें। अब समय है कि अपने इस 'साथ' में धरती के अन्य मानवेतर पुत्रों को भी शामिल करें। दीपावली की शुभकामनाएं इस अपील के साथ कि हम यह ध्यान रखें कि अंधेरा दुश्मन नहीं है, संगी है। प्रकाश का मतलब अंधेरे को नष्ट कर देना नहीं है।  

Friday 6 November 2020

प्रेमः मैं नहीं तू


मीनाक्षी नटराजन जी ने 'ब्रह्म क्या है', सवाल का जवाब देते हुए एक कथा के हवाले से किसी को बताया कि यह परिभाषाओं की सीमा से बाहर है। इसके लिए शास्त्रों में लिखा गया है कि नेति-नेति मतलब कि ब्रह्म का विस्तार ऐसा है कि सिर्फ यही कहा जा सकता है कि यह-यह ब्रह्म नहीं है। बाकी सब ब्रह्म है। प्रेम भी वैसा ही है। ब्रह्मस्वरूप, जिसकी कोई सीमा नहीं है। जिसको परिभाषाओं में नहीं बांध सकते। प्रेम एक आदर्श स्थिति है, जिस तक पहुंचने के लिए चार सोपान हैं, ज्ञान, भक्ति, करुणा और फिर प्रेम।

यह चारों सोपान एक क्रम में घटित होते हैं, जिसकी चरमावस्था प्रेम पर जाकर प्राप्त होती है। प्रेम जब होता है तो मैं यानी कि अहम् समाप्त हो जाता है। तमाम सूफियों, कवियों और दार्शनिकों ने भी प्रेम को ऐसा ही कहा है। चाहे वह ईश्वर से प्रेम हो, गुरू से हो या किसी अन्य से। प्रेम की पहला घटना यही होती है कि मैं भाव खत्म हो जाता है और तू ही तू दिखने लगता है। जब प्रेम होता है तो संसार की सभी चीजें अच्छी लगने लगती हैं। सब सुंदर लगने लगता है। प्रेम से आनंद उपजता है। प्रणय से जीवन में विनय फूलता है।

प्रेम प्राप्ति की ओर नहीं जाता

प्रेम का मार्ग प्राप्ति की ओर नहीं जाता। प्रेम सर्वथा प्राप्तियों से मुक्त है। इसीलिए प्रेम मुक्त करता है बांधता नहीं है। यहां पाने की अभिलाषा खत्म हो जाती है। जिससे हम प्रेम करते हैं, उसे भी पाने की इच्छा नहीं आती। हम उसे खुश देखकर खुश हो जाते हैं। उसे दुखी देखकर दुखी हो जाते हैं लेकिन उस पर कोई अधिकार भाव नहीं चाहते। जहां अधिकार भावना है, वहां प्रेम नहीं है। किसी को प्राप्त करने की अभिलाषा नियंत्रण रखने को प्रेरित करती है लेकिन प्रेम में ऐसा नहीं होता।

मोह में होता है। मोह प्रेम का देहरूप है। प्रेम मनुष्यता का तात्विक विषय है। जैसे शरीर का तत्व आत्मा है। देह आवरण है। वैसे ही प्रेम का आवरण मोह है। मोह में लगाव है, लेकिन तकलीफ भी है। मोह भी अंधा होता है और प्रेम में भी अंधा होना कहा गया है। मोह का अंधा होना काला अंधकार है। जिसमें कुछ भी नहीं दिखता। जिसमें तकलीफ और क्रूरता जन्म ले सकती है लेकिन प्रेम का अंधा होना प्रकाश के किसी स्रोत का अनावरित हो जाना है। यह ऐसा है जैसे कि जब आप एक सत्य को जान लेते हैं तो सब कुछ का रहस्य खुल जाता है और अब तक का सब जाना हुआ झूठ हो जाता है। प्रेम में होना ऐसा ही होना है। सब कुछ मिल जाता है। सारी दुनिया ही अपनी लगने लगती है और इस सब कुछ के पा लेने की प्रक्रिया में सब कुछ छूट जाता है। 

मतलब कि जब आप सारी दुनिया को पा लेते हैं तो आपकी सारी दुनिया आपको छोड़नी पड़ती है। इसीलिए प्रेम ऐसा प्रकाश जिसमें सत्य को सही तरीके से जान लिया गया है और बाकी के सारे कथित सत्य झूठ हो जाते हैं या उन्हें छोड़ देना पड़ता है। अंधा प्रेम यानी कि ब्लाइंड लव में नजरअंदाज का भाव नहीं है। इसमें सिर्फ आत्म को नजरअंदाज हो जाना पड़ता है। क्योंकि आत्महंता होने के बाद ही प्रेम का विकास होता है। मैं नहीं तू ही का भाव ही प्रेम है। 

प्रेम के बारे में एक कथा मीनाक्षी जी सुनाती हैं कि कल्पना करें कि नदी में कोई डूब रहा है। उसे तैरना न आता हो और आप तैरना जानते हों। ऐसी अवस्था में आप जाहिर तौर पर उसे बचाने के लिए नदी में उतरेंगे। रेस्क्यू के दौरान ऐसा हो सकता है कि डूबने वाला डर के मारे या अपनी जान बचाने की कोशिश में आपको नोचे-खरोटे, आपको खींचे। हो सकता है कि आप भी डूबे-डूबे हो  जाएं लेकिन फिर भी आप उसे छोड़ते नहीं। आप उसे बचाने की कोशिश में लगे रहे हैं। यह जो उसे बचा लेने का भाव है, वही प्रेम है। वहीं प्रेम घटित होता है।

मोह से मुक्ति कैसे?

मोह से मुक्ति और प्रेम के सृजन को लेकर पूछे गए सवाल में मीनाक्षी जी ने बताया कि मोह को संज्ञान में लेना ही उससे मुक्ति का पहला चरण है। पहले हम यह जान लें कि जो अनुभूति हम जी रहे हैं वह मोह है। मोह को आसानी से पहचाना जा सकता है। जिसमें भी ऐसा लगे कि जिस चीज को हम चाहते हैं, वह हमारा हो जाए। हमारे नियंत्रण में हो जाए। वह हमारे हिसाब से संचालित हो, वह मोह का एक रूप है। अगर हम ऐसा सोचने लगें कि हम जिससे प्रेम करते हैं, वह हमारे बारे में कैसी धारणा रखता है। अगर उसके अंदर हमारे लिए प्रेमभाव नहीं है या है भी तो वैसा नहीं है, जैसा हम चाहते हैं, तो ऐसी अवस्था प्रेम की नहीं हो सकती। वह मोह है।

किसी चीज से हम बाहर न आना चाहें, उसे पकड़कर रखें, यह भावना भी मोह है। विदेहराज के बारे में कहा जाता है कि वह मोह से मुक्त होते हैं। इसीलिए उन्हें वि-देह कहा जाता है। किसी ऋषि से उसके एक शिष्य ने मोह के बारे में सवाल किया तो उन्होंने उसे विदेहराज के पास भेज दिया। शिष्य थोड़ा परेशान तो हुआ कि एक राजा मोह के बारे में क्या जानता होगा। वे तो मोह में फंसे रहने के लिए ही कुख्यात होते हैं, लेकिन गुर्वादेश से प्रेरित शिष्य विदेहराज के पास पहुंचा।

विदेहराज ने उसका सवाल सुना और उसे अपने साथ भ्रमण पर ले गए। आशंकित ऋषि-शिष्य उनके साथ चल पड़ा। तभी विदेह में बाढ़ की घटना हुई और राजा लोगों की मदद में जुट गए। कुछ देर बाद उन्होंने ऋषि-शिष्य से भी लोगों की मदद करने को कहा। इस पर वह राजा से बोला, 'मेरा कमंडल छूट गया है, मैं उसे लेकर आता हूं।' इस पर विदेहराज ने कहा कि यही मोह है। हम अगर कोई चीज न छोड़ना चाहें, उसे पकड़कर रखना चाहें, उसी को मोह कहा जाता है।

आसक्ति के रूप

अपने कर्मफलता के प्रति आसक्ति भी मोह है। जैसे, एक कथा और मीनाक्षी ने सुनाई कि बुद्ध अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे। रास्ते में किसी तालाब या नदी में एक कीड़ा डूबता दिखाई दिया। बुद्ध ने उस कीड़े को बचाने के लिए एक पत्ता रख दिया, जिस पर चढ़कर उस कीड़े की जान बची। इसके बाद उनके शिष्यों ने हैरत से बुद्ध से पूछा कि आप तो इन सबसे मुक्ति की बात करते हैं, संन्यास की बात करते हैं। फिर आपनकी इस कीड़े के प्रति आसक्ति क्यों हुई? बुद्ध ने अपने शिष्यों को जवाब दिया, आसक्ति मुझे नहीं तुम्हें है। मैं उसे वहीं छोड़ आया लेकिन तुम उसे अपने मन में अब भी लिए फिर रहे हो। कर्मफल से अनासक्ति की ऐसी ही किसी भावना ने 'नेकी कर कुएं में डाल' की कहावत का सृजन किया होगा।

प्रेम स्वतंत्र करता है

प्रेम ऐसी सभी भावनाओं से स्वतंत्र कर देता है। हम जिससे प्रेम करते हैं, उसका साथ होना पसंद तो आने लगता है। उसे देखते ही आंखें चमक तो उठती हैं लेकिन ऐसा भाव नहीं आता कि ऐसा ही वह भी हमारे लिए महसूस करे या हम उसके चले जाने पर दुखी अनुभव करें। जब ऐसा प्रेम होता है, तब कहीं घृणा भी नहीं रह जाती। तब क्रोध नहीं आता। संसार की सारी चीजों से प्रेम हो जाता है। प्रेम होने का यही लक्षण है। जबकि मोह में लालसाएं और इच्छाएं दुख देती हैं। मोह के साथ तृष्णा आती है। बुद्ध ने इसी तृष्णा के बारे में कहा कि यह सभी दुखों का मूल कारण है। 

प्रेम का सबसे सुंदर उदाहरण कृष्ण का राधा से प्रेम है। कृष्ण या राधा ने कभी एक-दूसरे की चाह नहीं की लेकिन प्रेम खूब किया। उद्धव ने जब प्रेम के विषय में श्रीकृष्ण से प्रश्न किया तो उन्होंने उन्हें वृंदावन भेज दिया। राधा और गोपियों के पास अपना एक पत्र थमाकर उद्धव को भेज दिया। उद्धव जब वहां पहुंचे और राधा से कृष्ण के पत्र के बारे में बताया तो राधा ने वह पत्र फाड़ दिया। उन्होंने कहा कि कृष्ण को राधा से बातचीत के लिए किसी जरिए की आवश्यकता कैसे हो सकती है? वह दोनों प्रेम में एकाकार हो गए हैं। अपने आपसे बातकर अपने प्रिय या प्रियतमा से बात की जा सकती है। बाद में उद्धव ने जब उस पत्र को खोला तो वह कोरी चिट्ठी निकली। बिना शब्दों के कृष्ण ने राधा से बात की। इसीलिए कहते हैं कि प्रेम की कोई भाषा भी नहीं होती। 


(प्रस्तुत साक्षात्कार मीनाक्षी नटराजन जी के साथ एक डिजिटल संवाद पर आधारित है)

Saturday 31 October 2020

शरदः 'अनासक्त' सौंदर्य


अक्टूबर को लोगों ने उदास महीना कहा। हरसिंगार के फूलने के महीने को ऐसी संज्ञा देने का मन तो नहीं करता लेकिन अगर किसी की भी अनुभूति में अक्टूबर का महीना उदास है तो उसे सीधे-सीधे खारिज कर देना बड़ी क्रूरत होगी। ऐसी धारणाओं को खारिज किए बिना भी मैं यह कह सकता हूं कि अक्टूबर नवजीवन का महीना है। अक्टूबर में ही तो शरद आता है। शरद वही जिसकी पूर्णिमा में आकाश अमृत बरसाता है। शरद की चांदनी को अज्ञेय ने अंजुरी में भरकर पीने के लिए कहा है। शरद चांदनी बरसी, अंजुरी भरकर पी लो।

शरद वही है जिसके बारे में कहा गया, 'जीवेम शरदः शतम्'.. मतलब कि सौ शरद जीओ। यह नहीं कहा गया कि सौ वसंत जीओ.. वसंत के लिए कहते हैं कि जीवन के इतने बसंत बीत गए। बसंत बीतने का बोध है और शरद संभावना का। शरद और वसंत में यही अंतर है। एक शीत के आगमन की भूमिका है और दूसरा शीत के प्रस्थान की। एक के सम्मुख दीवाली है और दूसरे के सम्मुख होली। शरद श्रेष्ठ है या नहीं इसकी घोषणा नहीं की जा सकती लेकिन शरद जो है, वह कोई और नहीं है।

वैसे, अक्टूबर कोई महीना नहीं है। यह एक ऋतु है। जैसे शरद एक ऋतु है। उत्तर भारत में अक्टूबर एक फीलिंग है, अनुभूति है। कुहरे और धुंध से भरा आसमान और उसकी अद्भुत गंध। वातावरण में लगातार घुलती जाती नीरवता। बरसात की उमस भरी गर्मी से राहत देते सबको भाती है लेकिन इसी में जब हरसिंगार फूलने लगते हैं तो भावनात्मक जमीन पर जीने वाले लोगों के हृदय भी खिल उठते हैं। इसी में धान काटा जाता है। नई फसल घर आती है। किसान परिवार में इसके बाद उदासी नहीं होती। इसके बाद वहां जीवन फूलने लगता है।

मानस में शरद के श्वेत प्राधान्य को राम ने अलग ही उपमा दी है। सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाने के बाद राम लखन के साथ वर्षाकाल बीतने का इंतज़ार करने चले जाते हैं। प्लान है कि वर्षा बीतते ही सुग्रीव की बानर सेना सीता की खोज में फैल जाएगी। सीता से मिलन की प्रतीक्षा में राम को वर्षाकाल एक पूरा जीवन की तरह दिखने लगता है। इसीलिए ही जब शरद आता है तो लखन से कहते हैं, 'जनु बरखा कृत प्रगट बुढ़ाई।' कास ऐसे फूल गए हैं कि लगता है वर्षा ऋतु ने अपना बुढ़ापा प्रगट कर लिया है। अब एक उम्र की तरह खड़ी प्रतीक्षा का अवसान होने वाला है। ऐसा शरद राम के लिए भी तो विशेष है, कि इसमें सीता से मिलन का संयोग बनने वाला है।

अक्टूबर डैन के उस एक सवाल की तलाश की तरह भी है कि शिउली ने उसके बारे में यह क्यों पूछा कि 'वेयर इज़ डैन?' यह सवाल जिसमें पता नहीं कोई हल्की-सी खुशी है या एक विराट दुख और उदासी। यह शिउली के जीवन की तरह कभी तो खाली-खाली सा और क्षणभंगुर लगता है लेकिन डैन के सवाल की बेचैन उदासी भी इसी मौसम में महसूस होती-सी है। 

अक्टूबर हरसिंगार की ऋतु है, जो रात में फूलता है। रात और फूलने का सम्बंध अपने आप में एक रूहानी संयोग है। संसार के नियमों के विपरीत। रात तो विश्राम का पहर है। इसमें नवीन आरम्भ अपने-आप में एक विरोधाभासी मेल है। अंधेरे की सभा में शेफालिका के श्वेत फूल न सिर्फ खिलते हैं बल्कि महकते भी हैं और जीवन से ऐसी अनासक्ति की मुरझा जाने तक पौधों से लिप्त रहने की कोई इच्छा नहीं रखते। डाली से टूटते हैं और अपने ही वृक्ष की छाया से दूर जाकर बिखर जाते हैं। अक्टूबर सौंदर्य के इस अनासक्त भाव के लिए भी तो विशेष है।

(शिउली और डैन शुजीत सरकार की बहुचर्चित फ़िल्म 'अक्टूबर' के किरदार हैं)

Friday 14 August 2020

जन-गण-मन की आज़ादी


आज़ादी इज़ आल अबाउट आप कितना मनुष्य रह पाते हैं। मनुष्य रह पाने का मतलब यह कि मनुष्यता के आकाश में कितना उड़ पा रहे हैं। कहीं आपके पर तो नहीं कुतरे जा रहे है। पिंजरा धीरे-धीरे छोटा तो नहीं होता जा रहा है। पंखों की करवट भर की जगह से निश्चिंत हो जाने वाले लोग एक दिन अपनी स्वतंत्रता खो ही देते हैं। हमसे कहा जाता है कि हमने गुलामी देखी नहीं, सो स्वतंत्रता की कीमत भी क्या जान पाएंगे। स्वतंत्रता एक ऐसी चीज़ है, जिसकी कीमत महसूस करने के लिए ग़ुलामी ही की ज़रूरत नहीं। यह जन्मसिद्ध मानवीय अधिकार है। सो इसमें जब भी कतरब्योंत होगी, हम वैसे ही महसूस करने लगेंगे, जैसे सांस कम होने पर घुटन महसूस करने लगते हैं। अगर हम परिस्थितियों से समझौता न करें तो स्वतंत्रता की लड़ाई हमे हर पल लड़नी पड़े।

हर क्षण आज़ादी का संग्राम है। पराधीनता धीरे-धीरे ही आती है। ऐसी प्रक्रिया में अस्वतंत्रता की परिस्थिति बनती है। भ्रम बनाने वाले कई पहलू हैं। भौगोलिक रूप से हम संप्रभु हैं। सांस्कृतिक रूप से पहले से ज्यादा स्वतंत्र तो हैं ही। सामाजिक रूप से भी कथित स्वतंत्रता है। आर्थिक आज़ादी भी कही ही जाती है। पारिवारिक स्तर भी स्वतंत्रता की बात अब जोर पकड़ रही है। यह सब कहने की बाते हैं। इसको ऐसे देखें कि भौगोलिक स्वतंत्रता माने भूगोल से हम बंधे हुए रहने को आज़ाद हैं। सांस्कृतिक स्वतंत्रता भी अराजक तरीके से परतंत्रता का एक हंटर लिए दिखती है। स्वतंत्रता तो स्वतन्त्रताओं को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति है। जिस आज़ादी की मनः-योजनाओं में औपनिवेशिक गुणधर्म हों, वह कैसी आज़ादी? वह तो पराधीनता का ही एक अन्य रूप है।

सामाजिक आज़ादी का तो कहना ही क्या! यहां एक श्रृंखला है ग़ुलामों की। समाज के विभाजन में कैसा विषम विभाजन है, यह किसी से क्या छिपा है। जातीय श्रेष्ठता का बोध अलग-अलग स्तरों पर साम्राज्यवादी सोच का आश्रयस्थल बना हुआ है। ऐसे में कोई स्वतंत्रता का पक्षधर कैसे हो सकता है। क्या आज़ाद होना आज़ादी की पक्षधरता से भी आज़ादी है। आर्थिक स्वतंत्रता का तो न ही पूछिये। अर्थ एक नए किस्म का साम्राज्य है और हम सब तेजी से इसके उपनिवेश बनते जा रहे हैं। यह सारे संसार की कहानी है। यह केवल हिंदुस्तान की बात ही नहीं। वर्ग का अंतराल खाई में बदलता चला जा रहा है। हमारी स्वतंत्रता के बरअक्स एक और बड़ी भव्य स्वतंत्रता है। यह भव्य स्वतन्त्रता हमें एक अलग तरह की ग़ुलामी की ओर धकेलती है। उधर आज़ादी नहीं होती।

इस माहौल में.. लगातार नीरस बनते मानव जीवन में जहां कथित अच्छे-अच्छों की जीवन प्रत्याशाएँ सबसे लड़ाकू उम्र में दम तोड़ दे रही हैं, स्वतन्त्रता पर बात करना ज़रूरी है। स्वतंत्रता वह नहीं जिसमें 'यह देश है वीर जवानों का' का मिथ्या अभिमान और कर्कश नाद हो बल्कि स्वतंत्रता वह जिसमें जीवन का आकाश थोड़ा और खुले। स्वछंद हवाओं से पाला पड़े। दिशाओं का विस्तार अनन्त हो और वह दिखे। क्योंकि स्वतंत्रता कभी किसी देश से सम्बंधित नहीं होती। स्वतंत्रता कभी भी संसार के मूल तत्वों का मौलिक विषय है। यह जीवन से जुड़ा है। जन-गण-मन से जुड़ा है। अधिनायक से नहीं। 

एक और 15 अगस्त मुबारक!

Thursday 21 May 2020

राज-अभिनेता और उनके सड़ालू समीक्षक

ठीक है कि भारतीय राजनीति उद्योग में अच्छे ऐक्टर नहीं पाए जाते लेकिन इसमें सारा दोष उन्हीं का नहीं है। बात जब मूल्यांकन की आएगी तो समीक्षा की ज़रूरत होगी। समीक्षा के लिए समीक्षक चाहिए होंगे। उस पर भी समीक्षक का टेस्ट उच्चकोटि का होना चाहिए होगा। हमारे यहां अभिनेता स्वाद की जिस कसौटी पर महानायक ठहरा दिए जाते हैं उसे देखकर तमाम अंतरराष्ट्रीय नेता अपने समीक्षकों की उन्नत स्वादप्रियता को कोस सकते हैं और हमारे राज-अभिनेताओं के भाग्य से ईर्ष्या भी कर सकते हैं। 

अब सवाल बड़ा यह है कि भारतीय राजनीति उद्योग में ऐसे घटिया राज-अभिनेताओं के लिए समीक्षक की वाहियातता ज्यादा जिम्मेदार है या राज अभिनेताओं का घटिया अभिनय? वैसे हैं तो दोनों एक दूसरे के पूरक। पहले अंडा या मुर्गी के तर्ज़ पर यह सवाल भी अनुत्तरेय ही रहेगा कि समीक्षक पहले घटिया टेस्ट वाले हुए या राज-अभिनेताओं की सड़ी-गली ऐक्टिंग देख-देखकर उनकी स्वाद की कसौटी निम्नकोटि की हो गई। क्या है कि दोनों की पारस्परिक अन्तरविभागीय प्रतिद्वंदिता ऐसी सघन है कि वर्गीकरण अत्यंत मुश्किल है।

ऐसा है कि राज-ऐक्टरों की ऐक्टिंग को थोड़ा बहुत पचाया जा सकता है लेकिन उस पर हमेशा लहालोट रहने का अर्थ है कि मामला कुछ ज्यादा ही सड़ा हुआ है। ऐसे में सुधी और स्वस्थ जन आंख भले खुली रखें लेकिन नाक पर ज़रूर मास्क लगा लें क्योंकि भला-बुरा देखते रहने से मोतियाबिंद होने की संभावना पर प्रभाव तो नही पड़ता लेकिन कुछ ऐसा-वैसा सड़ा-गला सूंघ लिया तो जानलेवा स्तर पर बीमार ज़रूर हो जाएंगे। या हो सकता है कि सड़ालू (श्रद्धालु नहीं) लोगों के सम्पर्क में रहते रहते आपके अपने आम सड़ालू हो जाएं। आप भी जब अपनी कसौटी परखें तो वह अपने आप में अलग तरीके का वाहियातपन दिखाने लगे। 

कहना ये है कि तमाम संकटों के बीच अपनी शुद्धता और अ-सड़ालुता को बचाकर रखना एक अलग तरह की अनिवार्य चुनौती है। इसलिए भी कि जब कभी वक़्त आए तो कम से कम किसी की तो स्वादग्रंथि ऐसी हो जो यह परीक्षण कर सके कि भारतीय राजनीति उद्योग में अभिनेताओं की ऐक्टिंग आला दर्जे की सड़ी हुई है और उसके समीक्षकों की बुद्धि तो स्वयं दुर्गन्धमादन पर्वत है। 

अच्छा.. अब किसको-किसको ऐसा लगता है कि भारत में राजनीति एक उद्योग नहीं है और इस उद्योग में राज अभिनेता नहीं हैं और ये राज अभिनेता ऐक्टिंग नहीं करते और ये ऐक्टिंग घटिया किस्म की घटिया नहीं होती और उससे भी घटिया मानकों पर समीक्षित नहीं होती?? अगर आपको ऐसा लगता है तो आप निर्मल बाबा(-माई) के स्तर के दिव्य दृष्टि वाले अति आशावादी प्राणी और भावुक हैं और कोई समस्या नहीं है।

Wednesday 22 April 2020

पुत्रोऽहं पृथिव्या


कोरोना वायरस को लेकर लागू लॉकडाउन को एक महीना होने वाला है। लोग घरों के अंदर कैद हैं और दुनिया की तमाम औद्योगिक, सार्वजनिक धार्मिक-सामाजिक गतिविधियां स्थगित हैं। इस बीच पर्यावरण के गलियारों से सुकूनदेह खबरें आ रही हैं। दिल्ली जैसे अति प्रदूषित शहर की हवाओं की स्वच्छता ने पर्यावरण के पक्ष में लड़ने वालों के लिए अपनी दलीलों में बढ़ाने लायक एक महत्वपूर्ण आधार सौंप दिया है।

सिर्फ दिल्ली ही क्यों, दुनिया के बड़े शहरों में भी सार्वजनिक यातायात, सड़कों पर दौड़ने वाली धुंए भरी गाड़ियों की अनुपस्थिति से जो वातावरण वापस लौटा है, उसे दखने के बाद लोगों से पर्यावरण को लेकर गंभीरता दिखाने जैसी आशा की जा सकती है। भारत में जैसी खबर सामने आई, उसमें गंगा-यमुना जैसी नदियों के पानी में काफी समय बाद निर्मलता के दर्शन हुए। फैक्ट्रियों के बंद होने के अलावा, नदियों में धार्मिक या अन्य स्नान के बंद होने को भी इसकी वजह माना जा रहा है। वहीं, सड़क पर न के बराबर दौड़ती गाड़ियों से हवा ऐसी स्वच्छ हुई कि पंछियो का कलरव बढ़ गया।

मिट्टी की सूरत बदली
दिल्ली जैसे शहर में रात में तारों के दर्शन किए गए और कई ऐसी चिड़ियां की चहचहाहट सुनी गई जो काफी समय से दिल्ली का रास्ता भूल चुकी थीं। पॉलिथीन का इस्तेमाल कम होने के बाद से मिट्टी की सूरत और सीरत भी बेहद कम मात्रा में ही सही पर बदली है।

यह वातावरण में बहुत मामूली बदलाव के बाद का नजारा है। हम प्राकृतिक वातावरण के अतिक्रमण में किस स्तर तक पहुंच गए थे, लॉकडाउन में बैठे-बैठे इसका अंदाजा लगा सकते हैं। यह एक दर्शन है, जिसे समझकर हम अपने भविष्य के बारे में कुछ अहम फैसले ले सकते हैं। हम यह भी सोच सकते हैं कि हर साल मानव सभ्यता को चुनौती देती इन आपदाओं का क्या संकेत है और यह हमसे क्या कहना चाहती हैं?



प्राकृतिक रिमाइंडर
अगर कह लें कि ताजी आपदा कोविड-19 एक प्राकृतिक रिमाइंडर है जो हमें याद दिलाने की कोशिश कर रहा है कि कैसी धरती तुम्हें सौंपी गई थी और तुमने उसका क्या हाल कर दिया तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यह एक बड़ी कीमत है, जिसके जवाब में कई दशकों का सबसे स्वच्छ वातावरण हमारे सामने है। हम एक साथ स्याह और श्वेत दोनों के गवाह हैं। एक ओर कोरोना से मानवजाति भयभीत है तो वहीं मानवीय हस्तक्षेप की अनुपस्थिति से प्रकृति के अन्य अवयव आनंद मना रहे हैं। किसी का दुख दूसरे का आनंद तभी बनता है जब दोनों के बीच एक प्रतिकूल रिश्ता हो। शत्रुता भी कह सकते हैं। सोचिए.. हमारे कथित विकास की कोशिशों ने धरती के अपने ही सहचरों को शत्रु क्यों बना लिया?



शायद इसलिए, क्योंकि हमने समावेशी विकास का विकल्प नहीं चुना। हमने विकास के उपभोक्ताओं में केवल मनुष्यों को रखा। बाकी जंतुओं को हम एडजस्ट करते रहे। उनका इस्तेमाल करते रहे। नदी, पहाड़, जंगल जैसे तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देने वाले अवयवों के साथ हमने एकतरफा युद्ध तो छेड़ा ही, इसके अलावा जो तत्काल प्रतिक्रिया देने की क्षमता रखते हैं ऐसे प्राणियों पर हमने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया है। उन्हें नियंत्रित किया, कैद किया। उनका इस्तेमाल अपने हिसाब से किया और उनकी हत्या भी की है। समझदार और समर्थ होते मनुष्यों में उदारता होनी चाहिए। उनका हृदय बड़ा होना चाहिए। उनमें करुणा होनी चाहिए। उन्हें स्वयंभू ईश्वर नहीं हो जाना चाहिए। विनाश का तांडव नहीं करना चाहिए। उन्हें संहारक या विध्वंसक नहीं, समायोजक, संरक्षक और सर्जक होना चाहिए।

लेकिन हमने किया क्या? विकास को उद्देश्य बनाकर किए गए अभी तक के अपने प्रयासों में हमने एक प्राकृतिक विश्व पर कृत्रिम विश्व का आवरण चढ़ाने की कोशिश की है। आशय यह कि प्रकृति जो हमसे पहले से वर्तमान है और जो हमारे बाद भी रहेगी, उस पर विजय प्राप्त कर लें। जहां, चीजें अपने हिसाब से होंगी और मूल रूप से कुछ ज्यादा भयावह किस्म की बेहतर होंगी। विकास और सुविधाओं के बारे में सोचना पूर्णतः ग़लत नहीं है लेकिन यह भी तो ध्यान रखा जाना चाहिए था कि मानवीय नियंत्रण प्राकृतिक नियंत्रण के साथ तादात्म्य बिठा पाए।



प्रकृति का संचालन
मानव के नियंत्रण की चीजों में इक्वलिटी को लेकर हमेशा से सन्देह रहा है। इसमें हम अपना स्वार्थ और अपना पूर्वाग्रह नहीं छोड़ सकते। वहीं प्रकृति एक सिस्टम है। वहां कोई मालिक नहीं है जो 'बादशाह' कि तरह चीजों के संचालन में हस्तक्षेप कर रहा हो। प्रकृति का स्वार्थ उसके वैविध्य के हित में निहित है। वह सहअस्तित्व के सिद्धांत से चलती आई है। जिसमें सबकी सत्ता महत्वपूर्ण है। जिसमें सबका ध्यान रखना होता है। मर्यादित तरीके से चीजों के उपभोग का अलिखित नियम है लेकिन हम तो लिखे हुए को पढ़ना नहीं चाहते तो अलिखित चीजों पर क्या ही ध्यान देंगे।



मर्यादाओं की सीमाएं लांघना ही मानवों की दुर्दशा का कारण बनता जा रहा है। हम जिस वैश्विक संकट के बीच इस साल पृथ्वी दिवस से साक्षात्कार कर रहे हैं, वह शायद प्रकृति प्रदत्त एक अवसर है। जिसमें हम तमाम सम्भावित खतरों के एक सैंपल को भी महसूस कर रहे हैं। इसके साथ अगर हम पृथ्वी के लिए कोई फैसला लेंगे तो शायद कुछ बेहतर घट सके। प्यास के संकट में फंसा अगर जलनीति तय करे तो वह कभी नदियों, तालाबों और झरनों को लेकर क्रूर नहीं हो पाएगा। पृथ्वी हमारा घर है। पृथ्वी के समस्त जीवित-अजीवित अवयव हमारे परिवार का हिस्सा हैं। हम इसके साथ जो भी बर्ताव करेंगे, उससे परिवार का हर सदस्य प्रभावित होगा।

सर्वयोग्या वसुंधरा
इस परिवार में हम एक सशक्त, बुद्धिमान और सक्षम सदस्य के रूप में जाने जाते हैं। हम परिवार में ज्येष्ठ भी नहीं हैं। बस कुछ भी कर पाने की क्षमता से संपन्न हैं और तमाम आयामों में निरंतर विकासशील हैं। ऐसे में उन्नति की प्रक्रिया में हमें अपनी उन आदिम आदतों को छोड़कर आगे बढ़ना होगा जहां 'वीरभोग्या वसुंधरा' जैसी उक्तियों की महत्ता है। पृथ्वी पर जीवन के सुचारू संचालन के लिए यह ज़रूरी है। इसके लिए अब 'सर्वयोग्या वसुंधरा' के दृष्टिकोण पर काम करना होगा। ऐसी वसुंधरा जो सबके योग्य हो। भोग की मानसिकता से बाहर निकलते हुए योग की ओर जाना होगा।



जिनको हमने परिवार से तकरीबन निष्कासित किया है, उन्हें परिवार से योगने (जोड़ने) के अभियान पर काम करना होगा। सबके योग्य और सबक भोग्य वसुंधरा बनानी होगी। यह हमारी जिम्मेदारी है, जिसे स्वतः संज्ञान लेना होगा। यहीं से असत् से सत् का मार्ग मिलेगा। मृत्यु से अमृत की राह दिखेगी। यह पृथ्वी हमारी माता है और हम उसके पुत्र हैं। (माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः) .. पृथ्वी हमें (मानवजाति को) चिरंजीव होने का आशीर्वाद दे उसके लिए ज़रूरी है कि हम उसे प्रसन्न रखें। कैसे? लॉकडाउन में बैठकर कुछ दिन यही सोच लीजिए।

(सभी तस्वीरें natgeotravel से)

Sunday 8 March 2020

जैसे मरना ननिहाल जाना हो

यह अपने आप में कितना अविश्वसनीय है कि घर जाने पर माई नहीं मिलेंगी। वह नहीं होंगी। जितनी बार यह सोचता हूँ, उतनी बार अपने आपको दुनिया में थोड़ा और व्यर्थ पाता हूँ। इसलिए नहीं कि वही सब कुछ थीं इसलिए कि अपनी जो कुछ भी कीमत है सब उनकी स्नेहिल आँखों से ही प्रत्यावर्तित होती थी। उनकी दृष्टि में ही अपना सब द्रव्यमान था। उनके प्यार के गुरुत्वाकर्षण में ही अपना समस्त भार था। वह अब नहीं हैं और इसलिए यह व्यर्थता-बोध अगर आता है तो मैं इसे रोकना नहीं चाहता। चाहे मेरा जो भी अर्थ हो लेकिन माई की अनुपस्थिति से जो खास अर्थ दिवंगत हो गया है, लुप्त हो गया है, रिक्त हो गया है, उसे पुनर्स्थापित करना, भर पाना या प्राप्त करना भी अब वैसे ही असम्भव है जैसे दादी का वापस लौट आना।

अब 4 महीने से ज्यादा हो गए। जब वह घर पर होतीं तो उनसे कई बार फोन पर बात होती थी। कम ही बार क्योंकि उन्हें आवाज कम सुनाई देने लगी थी। वह बहुत अस्पष्ट होती थी। वैसे ही जैसे आँखें बूढ़ी हो जाएं तो सामने रखी चीज भी धुंधली दिखाई देती है। दादी को फोन पर धुंधली आवाजें सुनाई देती थीं। इसलिए हम उनसे कम ही बात कर पाते थे। बात करते हुए भी वह सवाल कम सुनने की कोशिश करतीं। श्रवणशक्ति साथ नहीं देती इसलिए वह खुद ही बिना पूछे सब हाल बता जातीं। आखिरी बार उनके निधन से 4 दिन पहले उनसे बात हुई, तब भी मैं ज्यादा कुछ नहीं बोल पाया था। माँ ने फोन लगाया था और जब उन्होंने तकरीबन रोते हुए माई से बात करने के लिए कहा तब मैं जैसे अचेत हो गया था। अभी दीवाली की छुट्टी से लौटा हूँ। अभी तो सब ठीक था।

माई से बात हुई तो उन्होंने हाल-चाल पूछे बिना ही कहा, 'बोखार उतरत नाई बा (बुखार नहीं उतर रहा है)। मैं रो पड़ा। 'क्या अब प्रस्थान का समय है?' मैंने मन में सोचा और फिर बड़ी देर तक मेरी सारी चेतना सिर्फ उस महिला पर केंद्रित हो गई, जिसका जीवन बहुत साधारण रहा लेकिन वह किसी असाधारण स्त्री की तरह अपने आत्मसम्मान और उजले हृदय के प्रकाश के विकिरण से अपनी अद्वितीयता और महानता की मौन घोषणा बनी रही। जिसने हमें अपार स्नेह दिया। शुद्ध-निश्छल प्यार। अपने जीवन के समस्त लक्ष्य-किरणों को समवेत कर प्रेम पर केंद्रित कर दिया और हम निरन्तर उससे जीवन पाते रहे।

माई से बुआ फोन पर नियमित बात करती थीं। हर छोटे-बड़े मसलों पर वह उनकी सलाहकार जैसी थीं। मुझे कई बार दोनों मां-बेटी से ज्यादा एक-दूसरे की सखियाँ लगीं। दादी से रोज बात करना बुआ की दिनचर्या का हिस्सा जैसा भी हो गया था। जैसे वह हर रोज सांस, भोजन और पानी की तरह अपनी माँ की आवाज से जीवन पाती हों। उनके भी जीवन का एक हिस्सा विदा हो गया। मुझे नहीं पता कि उनके जीवन की इस रिक्ति को अब वह कैसे संभाल रही होंगी। दादी के जाने के बाद उनका सामना करना भी बड़ी चुनौती थी।

दुनिया को लगता है कि बहुत वजन वाली चीजों का भार ढोना ही मुश्किल होता है। यह वही कह सकता है या कहता है जिसने रिक्तियों का भार नहीं झेला है। सबके जीवन में खालीपन होना अनिवार्य भी तो नहीं है। कुछ लोग ऐसे खालीपन के लिए तैयार रहते हैं। वह इसकी जगह पहले से ही भरना शुरू कर देते हैं। इससे मूल चीजें विस्थापित होने लगती हैं। दादी को बुआ या हम सब कभी विस्थापित नहीं कर पाए। वह वैसे ही बनी रहीं। अपने वात्सल्य के बूते। अपने प्रेम के सहारे हमेशा अपने हिस्से की जगह पर किसी मजबूत किले की तरह खड़ी रहीं। हम उन्हें कभी वहां से हटा नहीं पाए। घर में जाते ही दृष्टि जिसे सबसे पहले ढूंढती थी वह दादी होतीं। वह न दिखें तो लगता था कि अभी घर नहीं पहुंचे। अभी घर में नहीं प्रविष्ट हुए। या अभी घर की सुगंध नहीं आई। कई बार घर गए तो पता लगा कि वह अहाते में हैं। या फूलों की क्यारियों की सफाई में लगी हैं।

दो चीजें उन्हें खूब पसंद थीं। एक साफ-सफाई रखना और दूसरा लगातार कुछ न कुछ करते रहना। यह दोनों चीजें उनका अकेलापन दूर करती थीं। उनके नाती-नातिनियों के 'वनवास' के बाद। हम सबके घर से बाहर (इलाहाबाद, दिल्ली, लखनऊ) प्रवास को वह वनवास ही कहती थीं।

इधर कुछ सालों से उनकी आवाज अपनी लय में अनिरन्तरता लिए हुए थी। आशीर्वाद देतीं तो आवाज कांप रहे होते थे। कुछ शब्द ध्वनियों के साथ बाहर नहीं आते थे। वह कहीं गुम हो जाते लेकिन उनका सम्पूर्ण वैभव जस का तस रहता। वह कहीं गुम होने की हिम्मत नहीं करता।

दादी जब कहानियां सुनातीं, तब वह दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वक्ता होती थीं। दादी से हमने परियों की कहानियां नहीं सुनीं। पुराणों की कहानियां सुनी हैं। गर्मी की लंबी छुट्टियों में हम घर जाते थे। इस दौरान सारा परिवार छत पर सोता था। तुलसी जी के पौधे के इर्द-गिर्द एक छोटे से परिसर में दादी के देवताओं की छोटी-छोटी प्रतिमाएं थीं। वह रोज सुबह वहीं बैठकर पूजा करतीं और माला फेरती थीं।

रात के वक़्त उसी के नजदीक उनका बिस्तर लगता था। हम सभी उसी केंद्र के चारों ओर जगह बनाते। फिर कई तरह की पौराणिक कथाएं शुरू होती थीं। ये कथाएं मूलतः संस्कृत में लिखी गई हैं। गीताप्रेस ने इन्हें हिंदी में अनुवाद कराया है। ज्यादातर बुज़ुर्ग पाठकों को ध्यान में रखते हुए इनके अक्षरों को अपेक्षाकृत बड़ा रखा गया है। दादी इन्हीं किताबों से हिंदी में कहानियां पढ़ती थीं लेकिन जब इसे हमे सुनाना होता था, तब वह इसका भोजपुरी में अनुवाद कर लेती थीं। कई ऐसे शब्द, जिन्हें पढ़कर हम कभी न समझ पाते, वह उसे आसान शब्दों के इस्तेमाल से सरल बना देतीं। कहानी से कहानी निकलती। वह कुछ भी अपने पास नहीं रखना चाहतीं। सब दे देना चाहतीं थीं, जो कुछ भी उन्होंने जाना-समझा है। यह सम्पूर्ण क्रिया जब सम्पन्न हो जाती, तब उनके चेहरे पर एक अद्भुत चमक होती थी। एक अद्भुत मुस्कान, जो विकसित होकर एक लघु हंसी में परिणत हो जाती थी। फिर उनके कृष्ण-श्वेत दांत दीखते, जिनका यह स्वरूप उनकी सुर्ती खाने की आदत से बन गया था।

हां, सुर्ती वाली बात। दादी के पास हमेशा पॉलिथीन की एक पोटली होती थी। इसमें सुर्ती और एक चुनौटी होती थी। वह इसे कई बार कहीं रखकर भूल जातीं। फिर इधर-उधर ढूंढती। याद करने की कोशिश करतीं कि कहां बैठी थीं, और कहां-कहां गई थीं। तलाशने की मुद्रा में उन्हें देखते ही हम समझ जाते कि वह सुर्ती ढूंढ रही हैं। फिर हम भी लग जाते। अक्सर वह उनके आसपास ही कहीं होती थी लेकिन उनकी नजर उस पर नहीं पड़ती थी। ऐसे में जब हम उसे ढूंढकर उन्हें देते तो फिर उनके चेहरे पर वही मोहक मुस्कान तैर जाती जो थोड़ा सा आगे बढ़कर छोटी-सी खिलखिलाहट में तब्दील हो जाती थी। अब जब मैं यह लिख रहा हूँ, तब मेरी पूरी चेतना में वह मुस्कान और हंसी गूंज रही है लेकिन अब थोड़ा सा अंतर है। उसमें से अब आनन्द नदारद है। ऐसा लग रहा है कि यह हंसी आगे बढ़कर रुदन में बदल जाने वाली है। आखिर, दादी भी तो अपनी हंसी की इस असंभाव्यता पर शोक मना रही होंगी।

मुझे पता नहीं क्यों ऐसा ही लगता है कि वह जहां हैं खुश नहीं हैं। वह अपनी नई दुनिया के निजामों से वापस लौटने की ज़िद कर रही हैं। वह अपने नाती-नातिनियों की दुहाई दे रही हैं कि हम सब दुखी हैं उनकी अनुपस्थिति से इसलिए उन्हें वापस जाने दिया जाए। काश कि उनके ईश्वर का दिल पसीज जाता। वह उन्हें वापस लौटा देता। मैं इसीलिए भी अपना शोक और अपना दुःख कम नहीं होने देना चाहता कि और कुछ न सही, कम से कम उनके देवताओं को अपने इस नियम का अपराधबोध तो हो। मेरी पीड़ा उन्हें अपराधी बनाती रहे जो दुनिया में लोगों के जीवन-मरण और सुख-दुःख के ठेकेदार बने बैठे हैं। मैं जानता हूँ कि वह उस बुजुर्ग स्त्री को दोबारा हमारे पास नहीं भेजने वाले। मैं 'समझदार' भी तो हूँ। यह जानते हुए कि कोई वहां से वापस नहीं आता, मुझे शोक नहीं करना चाहिए लेकिन इतना कठोर हमसे नहीं हुआ जाता। यह उसीके वश की बात थी। माई के बस की बात थी। जिसकी तकलीफ देखकर जब सब लोग दुखी थे, रो रहे थे, तब वह खुद उन्हें दिलासा दे रही थी और डांटते हुए कह रही थी, "भक्क, मरही के न बा (भक्क, मरना ही तो है)।" जैसे मरना ननिहाल जाना हो।

Thursday 5 March 2020

नदीम अनवर की कविताः दंगे

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दंगों में सबसे ज्यादा खतरनाक क्या होता है?
दुकानों का लुट जाना, जल जाना?
या घरों का लुट जाना, जल जाना?
या बाजारों, गलियों, मोहल्लों की रौनक तबाह हो जाना?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

इनमें से कौन सी भीड़ सबसे ज्यादा खतरनाक होती है?
नारा-ए-तकबीर का कौल देने वाली,
या फिर जय श्री राम का उदघोष करने वाली?
टोपी-तलवार वाली या फिर तिलक-त्रिशूल वाली?
किस भीड़ का शोर दहला देता है दिलों को सबसे ज्यादा?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

इनमें से क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?
ईंट, पत्थर, दियासलाई, बंदूक से निकलने वाली गोली,
नंगी तलवार, चाकू, तेज़ाब, रॉड, लाठी, डंडा या फिर बेसबॉल-क्रिकेट का बल्ला?
दंगे में किसी को मारने के लिए कौन सा हथियार सबसे कारगर होता है?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?
मंदिर में रखी मूर्तियों को खंडित करना,
या मस्जिद की मीनार पर भगवा ध्वज लहरा देना?
मस्जिद या मंदिर... कहां लगी आग की लपटें सबसे ज्यादा डरावनी दिखती हैं?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

कौन सी मौत पैदा करती है दिलों में सबसे ज्यादा खौफ़?
चाकुओं से गोदकर, पत्थरों से कुचलकर या लाठी-डंडों से पीटकर?
गोली मारकर या फिर जिंदा जलाकर?
क्या दंगे में गला दबाकर भी मारा जा सकता है किसी को?
दंगाइयों के लिए मारने का बर्बर से बर्बर और पसंदीदा तरीका कौन सा है?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

खौफनाक मंजर कौन सा होता है?
आग की लपटों के बढ़ते कद के बीच जलते लोग या गरदनों से निकले गरम खून के फ़व्वारे?
या गंदे नालों में बहती लाशें जब काले-गंदे पानी को कर देती हैं लाल और बढ़ा देती है बदबू?
क्या है सबसे ज्यादा खौफ़नाक?

लाठी-डंडों से मार दिए गए आदमी की लाश पर डंडे बरसाते रहना,
या चाकुओं से गोदकर जिस्म में इतने सुराख़ कर देना कि गिनना मुश्किल हो जाए?
पत्थर मार-मारकर किसी का सिर कुचल देना या पेट से अंतड़ियां बाहर खींच लेना?
क्या होता है सबसे ज्यादा खतरनाक?

पता है दंगे में सबसे ज्यादा खतरनाक क्या होता है?
सबसे ज्यादा खतरनाक होता है नफ़रत की आग में आने वाली नस्लों का झुलस जाना, जब दो कौम के लोगों के बीच खिंच जाती है लकीर.

जान बचाकर भागे लोगों का मोहल्लों में वापस नहीं लौटना और अपनों को खो देने वालों का बदले की आग में जलते रहना.

जब डर दिल में इतना गहरा उतर आए कि मोहल्ले में खेलते बच्चों का मचाया शोर, उठा दे दिमाग में सवाल कि कहीं फसाद शुरू तो नहीं हो गया?

जब चाय के खोखे पर लोग हंसी-ठिठोली भूलकर दूसरी कौम को देने लगे गालियां, वही होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

जब मोहल्लों में जोर आज़माइश, छिटपुट बदमाशी करने वाले लौंडे, बंद कर देते हैं अपनी शरारतें इस डर में कि कहीं ये दंगे में न बदल जाए, वह डर सबसे ज्यादा खतरनाक होता है.   

जब दिमाग में इस कदर डर बैठ जाए कि दो मजहब के लोगों के बीच हुई बाइक की टक्कर से भी दंगा भड़क सकता है, वही डर होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

दंगों की खबरों के बीच जब रात को सोते हुए गली में हुई चोरी की आहट सुनकर डर जाएं लोग और सोंचे कहीं दंगाई मोहल्ले में दाखिल तो नहीं हो गए, वह डर होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

हिंदुओं का हिंदू बस्तियों और मुसलमानों को मुसलमान बस्तियों में ही रहने का ख्याल आना, भरोसा नहीं कर पाना, शक करते रहना बहुत खतरनाक होता है.

जिसने दंगे में खो दिया किसी अपने को उसका आने वाले वक्त में किसी दंगे में दंगाई बन जाना होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

और जब दंगे में मारे गए दूसरी कौम के लोगों की मौत पर मातम की जगह हम महसूस करने लगते हैं गर्व, वो होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

दंगा तो कुछ दिन, कुछ घंटे, कुछ मिनट चलता है लेकिन असर आने वाली कई नस्लों तक रहता है, यही होता है सबसे ज्यादा खतरनाक.

तो बोल कफ़्फ़ारा क्या होगा? क्या होगा इसका प्रायश्चित ?

लेकिन नाउम्मीदी कुफ्र है...

इन्हीं दंगों में से निकलकर सामने आ जाती हैं कई कहानियां जिनसे बंध जाती है जीने की उम्मीद. उम्मीद की नहीं... अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है.

उम्मीद कायम रहती है... जब पगड़ी के लिए जान दे देने वाला सरदार जिंदर सिंह सिद्धू, अपनी पगड़ी को एक मुसलमान के सिर की दस्तार बना देता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब कोई संजीव कुमार किसी मुजीबुर रहमान की जान बचाने के लिए उसे अपने घर में पनाह दे देता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब चांदबाग के मुसलमान नौजवान एक मंदिर को बचाने के लिए उसकी ढाल बन जाते हैं. 

उम्मीद कायम रहती है... जब किसी मस्जिद की मीनार पर लगाए भगवा को कोई रवि वापस उतार लेता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब किसी जली हुई मज़ार के बाहर हाथ जोड़कर खड़ी हिंदू औरतें प्रार्थना करती हैं.

उम्मीद कायम रहती है... जब कोई प्रेमकांत भगेल अपने मुसलमान पड़ोसियों को आग से बचाने के लिए खुद आग में कूद जाता है.

उम्मीद कायम रहती है... जब दंगे में अपनों को खो चुके लोग बदला नहीं इंसाफ मांगते हैं.

उम्मीद कायम रहती है... जब बढ़ती नफरतों के बीच कोई पुनीत किसी नदीम से पूछता है- तेरे घर वाले मेरे बारे में कुछ निगेटिव तो नहीं सोच रहे?

और उम्मीद बरकरार रहती है... जब नदीम जवाब देता है- अब्बू कह रहे थे कुछ होता है तो पुनीत के घर चले जाना.

और आखिर में सबसे ज्यादा उम्मीद उस प्रियांशी नाम की बच्ची से बंधती है... जो अपने पड़ोसी मुसलमान के घर छोड़कर चले जाने पर रोती है, सही से खाना नहीं खा पाती और उनके जल्द लौटने की दुआ मांगती है.

प्रियांशी से सबसे ज्यादा उम्मीद इसीलिए है क्योंकि वह आने वाली नस्ल की है और आने वाली नस्लें ऐसी हों तो उम्मीद कायम रहती हैं...

Monday 2 March 2020

जंगल में अमंगल

सांकेतिक तस्वीर

मध्य प्रदेश के देवास के जंगलों में 15-16 हट्टे-कट्टे बंदरों ने एक तकरीबन सूखते जल स्रोत पर कब्जा जमा लिया था। हम समझते थे कि मनुष्यों में ही कब्जा जमाने की प्रवृत्ति होती है लेकिन यह मनुष्यों के पूर्वजों में भी है। हो सकता है हमने उन्हीं से यह कला सीखी हो। तो देवास के बंदरों ने पानी के स्रोत पर कब्जा इसलिए जमाया था ताकि वह भीषण गर्मी में किसी और को वहां से पानी न पीने दें और उनके लिए पर्याप्त पानी बचा रहे।

उनकी इस कब्जा नीति की भेंट 15 बंदर चढ़ गए। लू और प्यास से उनकी मौत हो गई। ऐसे ही एक अन्य मामले में बंदरों की पानी को लेकर लड़ाई हुई तो एक दर्जन से ज्यादा बंदर आपस में ही लड़ मरे। दोनों ही मामले पिछले साल जून और उसके आसपास की तारीखों के हैं। जंगलों में जंगलवासियों की ये स्थिति है। जाहिर है ये घटनाएं बताती हैं कि प्राकृतिक संसाधनों के मूर्खतापूर्ण तरीके से इस्तेमाल से केवल मनुष्य प्रभावित नहीं हो रहे हैं बल्कि धरती पर रहने वाली अन्य प्रजातियों के अस्तित्व पर भी संकट आन पड़ा है।

सिर्फ इतना ही नहीं, एक और अजीबोगरीब मामला गिर के जंगल में सामने आया। एक शोध हुआ, जिसमें बताया गया कि शेरों के नन्हें शावकों में शिकार के कौशल की कमी दिखने लगी है।मतलब कि शिकार के लिए ही जाने जाने वाले शेरों की नई नस्लें शिकार करना भूल रही हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि पर्यटकों को शेर देखना होता है और शेरों को पर्यटन क्षेत्र में लाने के लिए वन विभाग की ओर से मांस के टुकड़े जंगल के टूरिज्म रीजन में रख दिए जाते हैं। इनके लिए शेर वहां आते हैं और लोग मनोरंजित होते हैं।

इस वजह से आसानी से मिले शिकार के आदी होते जा रहे नन्हें शावक शिकार की जरूरत नहीं समझ रहे। वह शिकारी होने की बजाय अब मुर्दाखोर अपमार्जक की तरह होते जा रहे हैं। वन्य जीवों के पर्यावास में मानवीय हस्तक्षेप से जानवरों की प्राकृतिक जीवनचर्या पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। हम अपनी समस्याएं तो नहीं ही सुलझा पा रहे हैं लेकिन अन्य सहचर प्राणियों-प्रजातियों की मुश्किलें बढ़ाते जा रहे हैं।

मध्य प्रदेश में बंदरों का आपसी युद्ध मनुष्यों के अनियोजित और गैर-इरादतन षड्यंत्र का फलीभूत संस्करण है। हो सकता है हम युद्ध न चाहते हों। मानवों-मानवों में भी। जानवरों-जानवरों में भी। वह भी प्राकृतिक संसाधनों के लिए। उन संसाधनों के लिए जिन पर सभी का बराबर अधिकार है लेकिन यह अब होने लगा है। अभी यह अंतर्प्रजातीय युद्ध है। मनुष्यों-मनुष्यों में हो रहा है। जानवरों-जानवरों में हो रहा है। आने वाले दिनों में इसके अंतरप्रजातीय युद्ध में बदलने की संभावना से इनकार कर सकते हैं क्या?

#वन्यजीवदिवस

Tuesday 11 February 2020

कल्पना में अनहद स्वतंत्रता

निर्मल वर्मा मुझे उदासी के माहौल में ज्यादा समझ आते हैं। कुलदीप नैयर की किताब खत्म हुई तो निर्मल को पढ़ना था लेकिन आज शुरू नहीं किया। कई पत्रिकाएं भी ले आए थे। उन्हें भी नहीं पढ़ा गया। कारण सबका एक है। आज हृदय पर उदासी का चश्मा नहीं लगा पाए। अपनी उदासी कुछ देर के लिए कहीं चली गई है। शायद, कल लौट आए, तब पढ़ेंगे। उसके लौट आने का पक्का विश्वास है क्योंकि वही तो है जो कभी कोई वादा नहीं करती मगर लौट आती है अपने आप। जैसे मेरे हृदय के अलावा उसका कहीं घर न हो।

अपनी उदासी से अक्सर मुझे अपनी गइया याद आ जाती है। हमारे घर की गाय, जिसके साथ की बचपन की कई यादें हैं। खेतों में जब फसलें नहीं होती थीं तब बाबा उसे सुबह चरने के लिए छोड़ देते थे। पगहा खुलते ही वह तेजी से भागती। खेतों में दूर तक चरने के बाद वह शाम को अपने आप घर भी लौट आती। ऐसा भी हुआ कई बार कि वह वापस नहीं आई। दो दिन बीतते। तीन दिन बीतते। फिर अचानक एक सांझ वह फिर लौट आती। जैसे, उसे पता हो कि उसका ठिकाना यही है। उसका घर यही है। कई बार नहीं आती तो उसे ढूंढने के लिए जाना पड़ता। पगहा लेकर हम गांव के प्रांतरों में घूमते। वह हमें देखते ही भागने लगती। हम उसके पीछे दौड़ते। वह हमसे तेज भाग सकती थी लेकिन कुछ देर बाद जैसे उसे अपराधबोध हो जाता हो और वह रुक जाती। फिर हम पगहा उसके गले में डाल देते और उसे घर वापस ले आते।

गइया को तब मैं जब भी देखता था थोड़ा-सा द्रवित हो जाता था। मेरी नज़र उसके आंसुओं पर जाकर टिक जाती थी। आंसू होते थे या नहीं, मुझे इसकी जानकारी नहीं है लेकिन उस श्वेतकाय की आंखों के कोरों पर एक दाग था। जिसे हम आंसू का दाग ही मानते थे। हमें लगता था कि जब हम सब सो जाते हैं तब वह अंधेरे में अकेले बैठकर रोती है। उसका दर्द क्या है, यह पता नहीं है लेकिन ऐसा लगता था कि कुछ तो है जिससे वह दुखी रहती है। जिसकी वजह से वह रात के अंधेरे में अकेले बैठकर रोती भी है।

गइया को देखकर लगता कि सांझ की तरह उसके जीवन में कैसी उदासी पसरी हुई है। उसकी भौहें ऐसी लगतीं जैसे वह निराश हो लेकिन कुछ बेहतर होने की आशा को भी छोड़ न पा रही हो। मैंने सिर्फ अनुमान लगाया कि उसके जीवन का दुख उसकी पराधीनता भी हो सकती है। वह दिन भर पगहे से तो बंधी रहती है। मड़ई के प्रतिकूल वातावरण में एक खूंटे के इर्द-गिर्द जीना उसकी विवशता है। उसके पास दुखी होने के पर्याप्त कारण हैं क्योंकि वह स्वतंत्र उतनी ही है जितना उसका स्वामी उसे स्वतंत्रता की इजाजत देता है।

बोनसाई बना दी गई स्वछंदतात्मक चेतना
मैं अक्सर यह सोचता था कि वह चरने के लिए छोड़े जाने के बाद वापस क्यों आ जाती थी? उसके पास भाग जाने का अवसर होता था। बाबा को भी कभी डर नहीं लगा कि वह जाएगी तो वापस नहीं आएगी। क्या वह दिन भर के भरपेट भोजन के बाद और थोड़ी-सी स्वतंत्रता का भी स्वाद चख लेने के बाद पगहे से बांधे जाने की वेदना भूल जाती थी? अपने उदास अन्तःस्थल से क्या वह सर्वथा निरपेक्ष हो जाती थी? या फिर बोनसाई बना दी गई उसकी स्वछंदतात्मक चेतना उसे भयभीत कर देती थी, जिससे बचने के लिए उसे वापसी के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझता था।

भाग क्यों नहीं जाती?
मुझे कई बार लगा कि अगर वह मेरी भाषा समझती तो उसके कान में धीरे से जाकर कह देता कि क्यों लौट आती है, पागल? स्वतंत्र होना दो जून के भूसे-चोकर की नियमित व्यवस्था के आश्वासन से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ और सुंदर है। इसे क्यों नहीं समझती! पगहा छूट जाने के बाद यह धरती वहां तक तेरी है जहां तक तू अपने चार पैरों से जा सकती है। अपनी अनहद हद को पहचानती क्यों नहीं? मैं तुझे बता रहा हूँ, तेरे इस मालिक ने तेरी स्वतंत्रता को प्रशिक्षित कर दिया है। तेरी प्रशिक्षित आज़ादी बार-बार गांव के सीमांत चारागाह से वापस लौट आती है। वह फिर-फिर ग़ुलाम हो जाती है। यह बार-बार की ग़ुलामी से आज़ाद क्यों नहीं हो जाती। तू भाग क्यों नहीं जाती?

लेकिन, हमारे बीच सम्प्रेषण के लिए भाषायी व्यवधान हमेशा ही बना रहा। फिर, एक दिन गइया ने एक बछरू को जन्म दिया। प्यारा- सा बछरू अपनी मां के पास अचेत पड़ा था। सोया हुआ। लालिमायुक्त मस्तक। श्वेतार्द्र शरीर। बग़ल में सद्यप्रसूता मां भी अचेत। बछरू का नाम हमने 'मिन्टन' रखा। मिन्टन का जाने क्या अर्थ होता है लेकिन उसका नाम यही था। पैदा होने के कुछ ही घंटों बाद उसने धमाचौकड़ी मचाना शुरू कर दिया। पूरा दुआर नाप लिया। दुआर से बाहर भी चला गया।


तंत्र-भंग की संभावना
एक पल को लगा कि यह नवजात, नव गोवंश, नई प्रजाति, उदास-मजबूर गइया की नई पीढ़ी अपने समुदाय की अधीनता के सारे तंत्रों को तोड़ देगा। वह अपनी मां की तरह न तो रुकेगा और न वापस ही आएगा। बंधन इसकी प्रवृत्ति के प्रतिकूल की चीज होगी और वह भाग जाएगा। वह अपनी माँ की तरह पगहे से बंधने की बेवकूफी नहीं करेगा।

मैं खुश हो रहा था और उसकी उछलकूद का आनंद ले रहा था। साथ ही इंतज़ार भी कर रहा था कि वह अपनी प्रजाति-अपनी गायता की स्वतंत्रता के बोन्साईत्व को ध्वस्त कर दे और बंधन की ओर कभी न लौट आने के लिए भाग जाए। फिर एक दिन पता चला कि बछरू भाग गया। बाबा के आदेश पर हम सभी भाई उसे ढूंढने खेतों की ओर चले गए। खूब ढूंढा लेकिन वह नहीं मिला। इस बीच गइया दुआर पर लगातार उसे पुकारती रही। उसकी भाषा में सिर्फ एक ध्वनि थी। उसी ध्वनि में अलग-अलग भाव होते थे।

उसकी भौहें और चढ़ गईं। आंखें गीली हो गईं। उसकी रोजाना के रम्भाने की ध्वनि आज थोड़ी-सी द्रवित थी। वह अपने नवजात को पुकार रही थी। मैंने उसकी एकध्वन्यात्मक भाषा के उस अकेले वाक्य में चिंता के कई सेंटेंस सुने। उसकी उस चिंता में हमारे खिलाफ भी रोष था कि हमने उसके अभी जन्मे बच्चे का ख्याल क्यों नहीं रखा।

गइया की आवाज़ दूर तक हमारे पीछे-पीछे आई। हम उसी के दबाव में मिन्टन को ढूंढते रहे लेकिन वह कहीं नहीं मिला। कुछ देर बाद गाय की पुकार भी बंद हो गई और शाम भी होने लगी। हम निराश घर की ओर लौटने लगे। गोधूलि की वेला थी। चरने के लिए छोड़ी गईं गांव की सभी गाएं अपनी मड़ई की ओर लौटने लगीं। चरवाहे लाठी हाथ में लिए अपनी भैसों को हांककर घर ले जाने लगे। धीरे-धीरे माहौल में शीतल नीरवता छाने लगी। अंधियार होने लगा। दादी अपनी जपमाली लेकर छत पर चली गईं। बाबा अपना बिस्तर ठीक करने लगे।

बोनसाईत्मक स्वतंत्रता में वापसी
तभी हम घर पहुंचे तो देखा कि मिन्टन अपनी मां के पास आंखे बंद किए बैठा है। मैं ठहरकर उन्हें देखने लगा। बहुत देर तक देखता रहा। मन में आया कि यह क्या दृश्य है? इसे किस तरह से देखा जाए। ममता का गुरुत्वाकर्षण, जिसके ईर्द-गिर्द बंधित होकर अंतरिक्ष की समस्त स्वतंत्रता को चक्कर लगाना ही पड़ता है। अभी तो मैं गाय की नस्ल की इस नई पीढ़ी की सम्भावनाओं को लेकर कैसा आशान्वित था। यह आशा भी बहुत दूर नहीं चल पाई। वह भी लौट आई। अपने बोनसाईत्मक स्वतंत्रता में। मिन्टन भी।

कुछ दिन बाद से मिन्टन के लिए नया पगहा आ गया। वह एक अलग खूंटे में बांधा जाने लगा ताकि अपनी मां का दूध न पी सके। गृहस्वामी का परिवार भी तो गइया के दूध का अधिकारी था। सारा दूध मिन्टन के ही पी जाने पर मनाही थी। आह! एक तो पराधीनता। वह भी सशर्त। मिन्टन के आने के बाद गइया में एक परिवर्तन आया कि वह अब कभी घर का रास्ता नहीं भूलती। आखिर वह मां है। अपने बच्चे को किसी और के भरोसे नहीं छोड़ सकती थी। वह दिन में चरने जाती और शाम ढलने से पहले लौट आती। यह उसकी परतंत्रता का नया संस्करण था और इस परतंत्रता का कोई विरोध न था। इसमें उदासी का स्वरूप एक संतोष में बदल जाता है। एक संतोष, जो ममता, स्नेह और जिम्मेदारी के संयोजन से बनती है और यह तो विश्वविदित है कि संतोष कभी भी स्वतंत्रता के खिलाफ ही होता है।

उदासी की तानाशाही
आत्मावलोकन करें तो पाएंगे कि एक अंतहीन उदासी का आना-जाना हमारे जीवन में भी है। इस उदासी में जो असंतोष है उससे हम मुक्ति की ओर नहीं जाना चाहते। हम संकुचित होते जाना चाहते हैं, संतोषित होते जाना चाहते हैं। हम जब उदासी के परिसर में होते हैं तो वह हमारे ऊपर किसी तानाशाह की तरह होती है। हम वही करने लगते हैं जो वह चाहती है। आप सोचिए तो पाएंगे कि उदासी के माहौल में आप ऐसी ही चीजें देखना-पढ़ना-सुनना चाहने लगते हैं, जो उसी के मिजाज की हो। इसीलिए, डॉक्टरों ने कहा कि उदास महसूस कर रहे हो तो हंसी-खुशी वाली चीजें देखो। उदासी से बाहर आने का यही तरीका है। उन्हें उदासी से कोई दुश्मनी नहीं है बल्कि वह आपको उदासी का दास बनने की अवस्था में फंसने से बचाने की कोशिश करते हैं।

निर्मल वर्मा इसीलिए उदासी के वक्त ज्यादा समझ आते हैं क्योंकि उनके साहित्य में किसी उदासमना के अनुकूल भरपूर बातें मिलेंगी। वह कई बार इस स्थिति से निकलने के बारे में भी बात करते हैं लेकिन यह बात समझने के लिए आपको उस स्थिति में होना भी तो पड़ेगा। अपने एक उपन्यास में वह लिखते हैं, 'इस दुनिया में कितनी दुनियाएँ ख़ाली पड़ी रहती हैं, जबकि लोग ग़लत जगह पर रहकर सारी ज़िंदगी गँवा देते हैं।'

गइया की दुनिया की कितनी जगहें सच में खाली थीं लेकिन वह उन जगहों को देख नहीं सकती थी क्योंकि स्वतंत्रता की उसकी कल्पना में पगहे से छूट जाना और गांव के अंतिम छोर के खेत तक घास चर आने से ज्यादा कुछ नहीं था। हमारी स्वतंत्रता का परिसर गइया से थोड़ा ज्यादा है इसलिए हमारे लिए पगहे से बंधी वह करुणा की पात्र बन जाती है जबकि हम खुद भी किसी दूसरे तरह के पगहे से बंधे हैं।

जीवन की गइया-गति
हम ठीक से देखें तो अपने जीवन की गइया-गति को भी ढूंढ सकते हैं। स्वतंत्रता की जो कल्पना हमारे मन में है, जिसको हम छूना चाहते हैं, जहां से लौटकर हम उसके सुंदर स्वप्नों के आनन्द में खो जाते हैं, क्या वह बस उतनी सी ही है? क्या हम अपने पगहे की पीड़ा को भूलकर बार-बार अवसरों की पुकार से मुंह नहीं मोड़ लेते और लौट नहीं आते उस मड़ई की ओर जहां जीवन के सुचारु संचालन की बेहतर व्यवस्थाएं हैं लेकिन आज़ादी नहीं है? पगहा है, खूंटा है, सांझ जैसी पसरी उदासी है और आंखों के नीचे आंसुओं के दाग!

मुझे ऐसा लगता है कि आज़ादी अभी भी कुछ वो है जिससे हमारी कल्पना का भी सम्पर्क नहीं है और कोई तो है जो इस चीज को देख रहा है लेकिन वह भी संप्रेषण के भाषायी व्यवधान के आगे विवश है। वह भी हमारे पास आकर हमारे कान में यह रहस्य नहीं बता सकता कि तुम्हारी आजादी तुम्हारे आकलन, तुम्हारी कल्पना से कहीं बड़ी है। जैसे ही पगहा छूटे, भाग जाओ और कभी वापस न आओ क्योंकि स्वतंत्रता दो जून के भूसे-चोकर की नियमित व्यवस्था के आश्वासन से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ और सुंदर है।

Wednesday 22 January 2020

लखनऊ के 'शाहीन बाग' में

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स्मार्टफोन नहीं था, सो फोटो नहीं ले पाए। यह फोटो ट्विटर से साभार

"मुझको जालिम का तरफदार नहीं लिख सकते।
कम से कम वो मुझे लाचार नहीं लिख सकते।।
जान हथेली पर लिए बोल रहा हूँ जो सच।
उसको इस देश के अखबार नहीं लिख सकते।"

राजधानी लखनऊ के हुसैनाबाद इलाके के घंटाघर कैंपस में रस्सियों से घेरे गए परिसर में सैकड़ों महिलाएं नागरिकता संशोधन ऐक्ट के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थीं और उसके बगल में एक छोटे से परिसर में एक दादाजी और उनके साथ आफताब आलम बैठे थे। ऊपर जो शेर लिखा गया है, आलम वही दादाजी को सुना रहे थे, जब मैं उनके पास रुक गया और वहीं जमीन पर उनके साथ बैठ गया। दादाजी मेरी ओर देखकर मुस्कुराए और पूछा कि क्या मैं प्रोटेस्ट में हिस्सा लेने आया हूं। मैंने कहा, यही मान लीजिए और यह कहते हुए मैंने मेरी ओर बढ़ाए उनके हाथ को अपने हाथों में थाम लिया।

मैंने दोनों से बातचीत शुरू करने के लिए मजाकिया लहजे में सवाल किया, 'आप लोग अलग से प्रोटेस्ट कर रहे हैं क्या?' दोनों हंसने लगे। फिर दादाजी बोले, हां, ऐसा ही समझ लो। प्रदर्शनस्थल पर हमे तो जाने नहीं देंगे। पता नहीं कौन-सी धारा लगाकर ये पुलिसवाले जेल में डाल दें, इसलिए हम यहीं बाहर बैठे हैं। आलम ने बताया कि उन्होंने चाचा को यहां बैठे देखा तो वह भी उनके पास आकर बैठ गए। दोनों काफी देर से बातें कर रहे होंगे। उनकी बातचीत में शामिल होते हुए मैंने कहा कि काफी लोग जुट गए हैं तो मेरी बात काटकर आलम बोले, अरे अभी तो और भीड़ होगी।

रात के 8-9 बजे के बाद संख्या दोगुनी के लगभग होने का दावा करते हुए आलम बोले, 'कई महिलाएं ऐसी हैं जो काम पर जाती हैं। वह अभी नहीं आ पाई हैं। कुछ ऐसी हैं जो वापस चली गई हैं और घर में बच्चों और परिवार के लिए खाना बनाकर वापस लौटेंगी।' उन्होंने ही बताया कि रात के 8-9 बजे के बाद यहां हर धर्म के लोग दिखेंगे। आलम बोले, 'अभी सिर्फ मुस्लिम महिलाएं ही दिख रही हैं। रात होने तक यहां काफी मात्रा में गैर-मुस्लिम लोग भी जुटेंगे।' वह आगे बोले, 'यह लड़ाई केवल मुसलमानों की थोड़ी है। अभी मुस्लिमों की बारी है। इसके बाद ये लोग (केंद्र सरकार) दलितों पर टूटेंगे और फिर धीरे-धीरे सबका नंबर आएगा। यह किसी को नहीं छोड़ेंगे। बचेंगे तो सिर्फ उनके अंधभक्त।'

मीडिया पर गुस्सा
यह सब बोलते हुए आलम काफी उग्र हो गए। थोड़ी देर चुप्पी रही और फिर दादाजी हमारी ओर मुखातिब हुए और बोले, 'बेटा, मोहम्डन हो?' मैं कुछ देर शांत रहा फिर बोला, 'मेरा नाम राघवेंद्र है।' दादाजी आलम की ओर देखकर खुशी से मुस्कुराए और बोले कि देखो, 'जो गलत है उसके खिलाफ सब लोग आएंगे।' मुझे अब जाकर अंदाजा हुआ था कि आलम के अलावा दादाजी भी मुसलमान हैं। मैंने उनसे पूछा कि आप रोज यहां आते हैं। वह बोले, 'हां। मैं यहां बैठता हूं और मेरी बहू वहां ( प्रदर्शनस्थल की ओर इशारा करते हुए)।' उन्होंने बताया कि वह कल भी यहां आई थी और आज भी आई है। मुझसे मेरे काम के बारे में पूछा गया तो मैंने कहा, 'पत्रकार हूं।' इस पर दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और उनकी आवाज में थोड़ा और तेज आ गया।

आलम बोले, 'आप हम लोगों की बात छापेंगे?' हमने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा कि अगर हमें छापना होगा तो हम उसके साथ वैसा नहीं करेंगे जैसा आप अभी मीडिया को लेकर सोच-बोल रहे थे। आलम जैसे फट पड़े। बोले, 'मीडिया पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मीडिया को नरेंद्र मोदी ने खरीद लिया है। सब उन्हीं की बातें फैला रहे हैं। जी न्यूज-आज तक, हर जगह हमारे आंदोलन को बदनाम किया जा रहा है।' उनकी इस बात पर दादाजी ने हामी भरी तो मुझे वहीं की एक घटना याद आ गई। मैंने उन्हें भी सुनाया।

'मैं घास हूं'
जहां महिलाएं प्रदर्शन कर रही हैं, उसी बाड़े में तीन लोग वीलचेयर पर बैठे थे। इनमें दो पुरुष और एक महिला शामिल थी। महिला ने अपने हाथ में एक पोस्टर लिया था, जिस पर लिखा था, 'मैं घास हूं, आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा।' उसके नीचे लिखा था, 'पाश'। मैंने उनके पास जाकर पूछा कि आपने पाश की कविता लिखी है तो आप पाश को जानती होंगी। वह मुस्कुराने लगीं और अपने बगल में बैठे मोहम्मद (नाम पूछा था लेकिन याद नहीं रहा, इसलिए काल्पनिक) की ओर इशारा कर बोलीं, 'इन्होंने इस पोस्टर को बनाया है और वह मेरे पति हैं।' इतने में मोहम्मद बोल पड़े कि हां अच्छी तरह से जानता हूं पाश को।

मैंने पूछा कि आपको साहित्य में रूचि है? वह जवाब देते कि वहां एक युवती आई और उसने मुझसे पूछा कि आप मीडिया से हैं? उसके गले में वॉलंटियर का कार्ड टंगा था। मैं वहां रिपोर्टिंग के लिए नहीं गया था लेकिन वहां थोड़ी देर रुकने के लिए मेरा मीडियावाला होना जरूरी था, ,सो मैंने कह दिया कि हां, नवभारत टाइम्स से हूं। फिर युवती वहां से चली गई। अब जब मैं मोहम्मद से मुखातिब हुआ तो वह मीडिया को लेकर काफी उग्र थे। बोले कि मीडिया वाले हमको बदनाम करना चाहते हैं। मैंने जानना चाहा कि क्या हुआ तो वह बगल में वीलचेयर पर बैठे दिव्यांग सज्जन की ओर इशारा करते हुए बोले कि यह भाई साहब कुछ देर पहले उनके पास यह पूछने के लिए आए थे कि जिस बैटरी वाले वीलचेयर पर उनकी पत्नी बैठी हैं, वह कहां और कितने में मिलता है?

मोहम्मद ने बताया कि इतने में एक टीवी रिपोर्टर वहां आया और दिव्यांग शख्स से पूछने लगा कि आप किसलिए प्रोटेस्ट कर रहे हैं और आप सीएए के बारे में क्या जानते हैं? उन्होंने जब इस पर जानकारी न होने की बात बताई तो रिपोर्टर ने उन पर लांछन लगाना शुरू कर दिया। उसने कहा कि इन लोगों को पैसे देकर प्रोटेस्ट के लिए लाया गया है। इन्हें यह भी नहीं पता कि यह जिसके लिए प्रोटेस्ट कर रहे हैं वह क्या है? मोहम्मद यह बताते हुए काफी क्रोधित हो गए। उन्होंने बताया कि इसके बाद वह लगभग चिल्लाते हुए रिपोर्टर से बोले कि जो भी जानना चाहते हो, हमसे पूछो। हम बताएंगे। इस पर भी वह रिपोर्टर बिना सवाल पूछे वहां से चला गया।

क्रोधित मोहम्मद बोले कि वह अब मीडिया वालों पर बिल्कुल भरोसा नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि वह अब किसी मीडिया वाले को इंटरव्यू नहीं देंगे। चार दिन से कई मीडियाकर्मियों ने उनका इंटरव्यू लिया लेकिन वह उन्हें कहीं पर भी दिखा नहीं। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि केवल रवीश कुमार अगर उनसे बात करना चाहेंगे तब वह उनसे बात करेंगे क्योंकि वह निष्पक्ष हैं। यह घटना सुनकर आलम मीडिया पर और क्रोधित हो गए और मुझे बाकी मीडिया से (न जाने क्यों) अलगाते हुए बोले कि लोग केवल आंदोलन को बदनाम करना चाहते हैं।

'चोर' पुलिस
आलम पुलिस के रवैये से भी दुखी थे। वह बोले कि पुलिस चोरों जैसा बर्ताव कर रही है। परसो, उसने रात में प्रदर्शनस्थल पर जल रहे अलाव पर पानी डाल दिया। महिलाओं का कंबल छीनकर ले भागे। सुनने में आया कि पास के सुलभ शौचालय में ताला भी लगवा दिया। उन्होंने कहा कि पुलिस बिल्कुल गुंडो जैसा बर्ताव कर रही है। बीते दिनों के प्रदर्शन की याद दिलाते हुए आलम बोले कि योगीजी ने कहा कि पुलिस ने गोली नहीं चलाई जबकि विडियो में साफ दिखा कि पुलिस ने गोली चलाई। दादाजी ने मुझसे पूछा कि क्या लगता है कि इन सबका क्या हासिल होगा?

मैंने उनसे कहा कि अभी तो सरकार अपने फैसले पर अड़ी हुई है। कल (मंगलवार को) अमित शाह ने लखनऊ में ही कहा था कि चाहे जितना विरोध हो वह कानून को वापस नहीं लेंगे। इस पर आलम बिफर उठे। बोले, 'कैसे नहीं लेंगे वापस। उन्हें वापस लेना पड़ेगा। इतने लोग विरोध कर रहे हैं।' आलम बोले, 'अमित शाह-नरेंद्र मोदी झूठे हैं।' नरेंद्र मोदी पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री को भी नहीं पता है कि वह देश में एनआरसी लागू करने की योजना बना रहे हैं? आखिर, बिना उनसे पूछे यह योजना कैसे बन सकती थी? ये लोग केवल मुसलमानों को निशाना बना रहे हैं।

लंबी बातचीत के बाद मैं वहां से जाने को हुआ तो दादाजी ने मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया और बोले कि आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। मैंने भी 'मुझे भी' कहकर वहां से विदा ली। आगे बढ़ने पर रैमॉन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय चरखा कातते दिखे। सफेद कुर्ता-पायजामे में संदीप चरखे पर सूत कात रहे थे और उन्हें कुछ मीडिया वालों ने घेर रखा था। वह केंद्र सरकार के बारे में बोल रहे थे और केंद्र सरकार के रवैये की तुलना अंग्रेजी सरकार से कर रहे थे। संदीप ने कहा कि बीजेपी सरकार के लोग अंग्रेजी हुकूमत की तरह बर्ताव इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आजादी के आंदोलन में इनकी कोई भूमिका नहीं थी।

पांडेय सीएए को लेकर बोले कि अमित शाह ने बहुमत के बल पर नागरिकता संशोधन कानून भले ही संसद से पास करा लिया लेकिन उन्हें यह भी ध्यान देना चाहिए कि उन्हें केवल 37 फीसदी वोट ही मिले हैं जबकि लोकतंत्र 100 प्रतिशत लोगों को साथ लेकर चलने का नाम है। इतने व्यापक विरोध के बाद भी सीएए पर अपने रुख पर अडिग शाह की उन्होंने जमकर आलोचना की। प्रदर्शनस्थल को लगातार स्थानीय और बाहरी लोगों ने भी घेर रखा था। सब अपने-अपने हिसाब से इस ज्वलंत मुद्दे पर बात कर रहे थे।

विरोध की काली नदी
कुछ देर वहां रहने के बाद मैं प्रदर्शन परिसर से बाहर निकल आया। महिलाओं के बीच वालंटियर खाने-पीने के सामान बांटने लगे थे। लड़कियां लगातार छोटे माइक्रोफोन पर लोगों से बैठने की अपील कर रही थीं। इस दौरान बुर्का पहने प्रदर्शनकारी महिलाएं विरोध की काली नदी की तरह लग रही थीं। जिनमें छोटे-छोटे समूहों के तीन-चार टापू भी थे।

कई लड़कियों ने हाथ में तिरंगा थाम रखा था। कई ने हाथ में तख्तियां ले रखी थीं, जिस पर सांप्रदायिक सद्भावना और सर्वधर्म बंधुत्व के संदेश लिखे थे, जिस पर संविधान की प्रस्तावना लिखी थी, जिस पर संविधान का चित्र बना था, जिस पर लिखा था, 'तानाशाह आएंगे-जाएंगे लेकिन हम कागज नहीं दिखाएंगे।' सामने सबसे आगे, मंच के नजदीक, परिसर के सबसे अंतिम छोर पर और दाहिने छोर पर भी कुछ महिलाओं का हुजूम था, जो लगातार नारेबाजी कर रहा था।

मैं वापस गोमतीनगर की ओर लौट रहा था और पीछे किसी बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह गगनचुंबी नारों का अवरोही स्वर मुझे विदाई दे रहा था। चारों तरफ जेएनयू गूंज रहा था। मेरे कानों में अब भी वे स्वर वैसे ही बज रहे हैं। लड़कियों का-महिलाओं का सम्मिलित स्वरः 'हमें चाहिए आजादी', 'हम लेके रहेंगे आजादी', 'है हक हमारा आजादी', 'लाठी बरसा लो', (आजादी) 'तुम डंडे मारो (आजादी)' 'हम नहीं हटेंगे (आजादी)' हम लेके रहेंगे...

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...