Wednesday 8 December 2021

सबके कबीर

 

धर्म सार्वजनीन चीज है। सम्पूर्ण मनुष्यता और गैर-मनुष्य वस्तुओं के लिए प्रकृति का अनुशासन धर्म कहा जा सकता है। बीती कई सदियों में इस धर्म के अनुकूल चलने के लिए कई सारे पंथ बने। इन पंथों ने धर्म के असीम आकाश के नीचे परम्परा-कर्मकांड, संस्कृति, सभ्यता के छोटे-छोटे तंबू तान लिए। पत्थर की लकीर से लिखे उनके विधान में संशोधन की कोई गुंजाइश नहीं। पंथों ने सार्वजनीन धर्म को अपने छोटे-छोटे तंबुओं में कैद करने की कोशिश की तो कबीर आए।

कबीर ने धर्म को अपनी तरह से परिभाषित किया। पंथों के तमाम तंबुओं पर बिजली की तरह गिरे। इतने सच्चे, इतने प्रभावशाली कि सन्त शिरोमणि हो गए। मुसलमान बोलते कि ये तो हमारे पंथ के धर्म की व्याख्या हैं। हिन्दू कहते कि कबीर की बानी तो सनातन धर्म का ही व्याख्यान है। कबीर के जीवन का यह विवाद उनके संतत्व का प्रमाणपत्र है। वह इतने ज्यादा सार्वजनिक सन्त हैं कि कोई भी पंथ धर्म के अपने सिद्धांतों की व्याख्या उनमें देखने ही लगता है। वह वैसे ही सार्वजनीन हैं, जैसे धर्म।

किसी ने कहा कि कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम को एकजुट करने का काम किया। कबीर ने हिन्दू और मुस्लिम होने के तत्कालीन समाज के जितने भी मानक थे, उनको ऐसी बेरहमी के साथ तोड़ा कि सारे तंबू ढहने लगे। ऐसे में हिन्दू-मुस्लिम एकजुट तो हुए पर कबीर के साथ नहीं बल्कि उनके खिलाफ। ये उन तंबुओं के प्रभारी थे, जो आसमान की सार्वजनिक सत्ता का सच नहीं स्वीकारना चाहते थे। किसी मंजे हुए सेल्समैन की तरह अपने तंबू की उत्कृष्टता के लिए जमकर प्रचार करते और कबीर की निंदा करते लेकिन कबीर को कहां फ़र्क़ पड़ा। कबीरों को कहां फ़र्क़ पड़ता है। जो घर फूंक दे आपणा, उसको कौन किस बात से दबा सकता है।


कबीर इसीलिए प्रिय हैं कि वह संसार के गिने-चुने मौलिक मनुष्यों में से एक हैं। उनके जीवन का रास्ता किसी लीक से नहीं गुज़रा। वह सत्य पहचानने की अद्भुत आंख रखते थे।

"तू कहता कागद की लेखी।

मैं कहता आँखिन की देखी।"

मनुष्यों के इतिहास में कितने सारे लोग पैदा हुए। उनकी गिनती नहीं। कबीर गणनीय मनुष्य हैं, जिन्हें सच्ची मनुष्यता की परिभाषा में एक यूनिट के रूप में अध्यायित किया जाएगा।

मगहर में कबीर की मजार भी है। समाधि भी। दो सम्प्रदायों की कथित अधिकृत भाषाओं के ये दो शब्द दो भिन्न संस्कृतियों के प्रतीक हैं। कबीर दोनों के हैं। कबीर के मरने पर साम्प्रदायिक विवाद उनकी सार्वजनिकता का सबसे सशक्त प्रमाण है। सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम नहीं, बल्कि दुनिया के सभी पंथों को इस पर झगड़ पड़ना चाहिए कि कबीर उनके हैं। कबीर पर सब पंथों का दावा हो सकता है।

(मगहर में)

Monday 3 May 2021

चंदन प्रताप सिंह से आखिरी संवाद

 

हम शोक मना सकते हैं क्योंकि हम जीवित हैं। हम जब तक जीवित हैं तब तक हमें यह सुविधा प्राप्त है। जीवित न रहने के बाद शोक-अशोक कोई अर्थ नहीं रखते। चंदन प्रताप सिंह की बीमारी के बारे में पता था। ऐसा नहीं है कि यह आशंका नहीं थी कि उनके साथ यह अनहोनी हो सकती है लेकिन पता नहीं क्यों इतने सारे हादसों के बाद भी लगता था कि ऐसा एक झटके में तो नहीं होगा और अगर होने भी वाला होगा तो ऐसा होने नहीं दिया जाएगा। जाने क्यों और किस आधार पर यह विश्वास मन में था, जो अब अपनी बेकारी पर बिल्कुल अवाक हो गया है।

चंदन प्रताप सिंह, जिन्हें हम सीपी सिंह कहते थे, अपने कमरे में अकेले रहते थे, इस बात का पता था। मुझे यह भी पता था कि उन पर किसी मानवीय बीमारी का घातक हमला होगा तो संभालने वाला भी कोई नहीं होगा। उनके आसपास जो लोग थे, उनसे यह उम्मीद मैं नहीं कर सकता था। वह शायद इसलिए भी आशंकित रहते थे। उस दिन जब उनका फोन आया तो मुझे इसका थोड़ा संकेत मिल भी गया था। वह मदद चाहते थे। उनकी जिजीविषा का प्रमाण तो उनका यह अकेलेपन से ग्रस्त जीवन ही था, जो किसी भी रूप में मरण से कम तो न था।

परिवार का साथ नहीं, दोस्तों से संपर्क नहीं, सामाजिक जीवन के नाम पर जीवन प्लाजा के कुछ चाय वालों से रोज की परिहास भरी नोक-झोंक, ऑफिस में बॉस से तर्क-वितर्क और कुछ समय मुझे मीडिया में अपने शुरुआती और उत्थान के दिनों की कहानियां सुनाना, यही सब तो था जीवन में। उस जीवन में जो एक समय में अपनी संपूर्ण भव्यता देख चुका था। वह मशहूर टीवी पत्रकार एसपी सिंह (सुरेंद्र प्रताप सिंह) के दत्तक पुत्र थे। हालांकि, जब उन्होंने अपना परिचय मुझे दिया था, तब बताया था कि वह उनके बेटे हैं। काफी समय तक मैं उन्हें एसपी सिंह का बेटा ही मानता था। वैसे यह ज्यादा मतलब नहीं रखता कि वह एसपी सिंह के बेटे थे या नहीं। इतना ही पर्याप्त था कि वह चंदन प्रताप सिंह थे। गोमतीनगर के विराम खंड-5 के 276 नंबर वाले मकान की पहली मंजिल पर एक किराये के कमरे में अकेले रहने वाले पत्रकार।

इतने ज्यादा अकेले और एकांतिक कि अगर उस दिन विनीत कुमार की फेसबुक पोस्ट न दिखी होती तो हम शायद कई दिनों तक जान भी न पाते कि वह अब नहीं रहे। हम शायद उस आखिरी अनपढ़े वॉट्सऐप मेसेज के कभी न आने वाले जवाब का इंतजार करते रहते, जिसमें पूछा गया था- 'कैसी तबीयत है आपकी अब?' यह एक साधारण-सा सवाल था, जो एक मृतक से पूछा जाकर असाधारण और व्यर्थ हो गया था या शायद व्यंग्य हास्यास्पद भी। यह जब उनके पास पहुंचा तब वह इसका जवाब देने के लिए नहीं बचे थे। उनकी मृत देह शायद इस सवाल पर हंस भी रही होगी कि यह सवाल अब क्यों आया जबकि देह इस सवाल की सीमा से बाहर जा चुकी है? जिसके लिए यह हाल-चाल पूछा गया था वह अब इन एहतियातों से पार हो चुका था। निस्पंद शरीर उस अवस्था में था, जहां ठीक-अठीक होने की कोई भी मजबूरी नहीं थी।

चंदन जी चले गए थे। शांति से-दबे पांव। किसी को भी पता नहीं चला। उनके आसपास रहने वाले लोगों को भी नहीं। मुझे बताया गया कि जहां वह काम करते थे, उनके मालिक के बेटे उन्हें बुलाने के लिए आए थे। हमेशा की तरह उनके कमरे का दरवाजा खुला था। वह अपने कमरे में थे। पुकारे जाने पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। पुकारने वाले को लगा कि वह सो रहे हैं लेकिन नींद ही तो उन्हें न आती थी। देर रात सोते थे और तड़के उठ जाते थे। मैं अखबार मंगाता था और उसे सबसे पहले वह पढ़ते थे। फिर धीरे से मेरे कमरे के दरवाजे की कुंडी पर खोंस जाते थे।

एक विचित्र सी हताशा उनके चेहरे पर हमेशा होती थी। हम अक्सर पूछते कि दिल्ली से वापस क्यों लौट आए? बोलते कि अब मेरे लायक वहां माहौल नहीं रहा। मैं कहता कि फिर वापस जाएंगे? वह कहते कि यह सरकार चली जाए फिर वापस जाऊंगा और कुछ नया शुरू करूंगा। वह एक छोटे-से वेब पोर्टल पर काम करते थे। शायद उन्हें हर दिन का कुछ मेहनताना उनका मालिक दे देता था। वह शायद उनसे हर काम कराता। पानी लाने से लेकर, सब्जी खरीदवाने तक और चाय तक उन्हीं से मंगाई जाती थी। इन सबके साथ वह पोर्टल के लिए कंटेंट भी लिखते थे।

इनमें से ज्यादातर चीजें मैं बाहर से देखता था। मैं यह कभी नहीं समझ पाया कि स्वाभिमान का इतना पक्का आदमी आखिर इस तरह के चक्रव्यूह में क्यों फंस गया है? आखिर क्या मजबूरी है कि जिसने मीडिया की दुनिया में एक जमाने में निर्णायक भूमिका निभाई है और बड़े-बड़े मैनेजिंग डायरेक्टरों तक के धौंस को सहने से इनकार कर दिया है, वह एक छोटे से पोर्टल के मालिक के सामने ऐसा अकिंचन बना हुआ है? क्या यह जीवन की उस गहरी हताशा का परिणाम है, जिसकी न तो हम थाह ले पाए और न ही उसका सही कारण जान पाए। 

उनके गहरे तालाब के पानी की तरह ठहरे और विशाल हिमालय की जड़वत और जमी हुई बर्फ की तरह शांत चेहरे पर उसे देखा जरूर है। कई बार दोस्तों के बीच इसकी चर्चा भी की है। अपने चेहरे की इस मुर्दा शांति के साथ वह स्वयं पार्थिव हो गए। कुछ दिन पहले उन्होंने फोन करके बताया कि बंगाल चुनाव में उन्हें बीजेपी से और आप से टिकट मिल रहा है? उन्हें क्या करना चाहिए। उन्होंने ईमानदार प्रतिक्रिया की मांग की थी। मैं जानता था कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है। 

वह एक अजीब सी मानसिक स्थिति में थे। उस स्थिति को हम समझते थे। उसे मनोविज्ञान में जो भी नाम दिया जाए लेकिन उस दशा के उत्पन्न होने में मुझे कोई दोष दिखाई नहीं देता था। हालांकि, चुनाव लड़ना फिर भी कोई ऐसा निर्णय नहीं था, जिसके बारे में मुझसे राय-मशविरा की जाए लेकिन दुनिया से जाने का फैसला? इस पर मुझसे बात की जा सकती थी। जैसे उस दिन उन्होंने किया था- 'भइया बहुत मजबूरी में आपको फोन कर रहा हूं। मैं बीमार हूं और कोई हाल-चाल लेने नहीं आया।'

फोन पर जब उन्होंने यह बात कही तो मुझे एक पल के लिए कीड़ों-मकोड़ों की तरह बढ़ती मानवीय जनसंख्या पर एक जबर्दस्त गुस्सा आया कि धरती पर बढ़ती इस भीड़ का फायदा ही क्या है, जब इनका आत्मिक अंतरसंयोजन ही लुप्त होता जाता हो। शायद उन्हें भी यही गुस्सा रहा हो और इसीलिए वह बिना किसी को कुछ बताए ही चले गए जबकि वह एक आखिरी बार कोशिश कर सकते थे। मेरे पास एक बार और फोन कर सकते थे।

एक बार और कह सकते थे कि 'भइया, बहुत मजबूरी में आपको फोन कर रहा हूं। जान जाने का सवाल है। कुछ कीजिए नहीं तो मर जाऊंगा।' लोग सोशल मीडिया पर अनजाने लोगों के लिए जी-जान से जुटे हैं। यह तो ऐसे दौर की बात थी। मैं भी शायद आपको बचा ही लेता। हालांकि यह कहना भी एक गर्वोक्ति हो सकती है कि मैं उन्हें बचा सकता था। बचा नहीं सकता था, फिर भी उन्हें इतनी सहायता कर सकता था कि वह अपनी सांसों को संभाल पाएं। या सिर्फ इतना ही कि अरबों की मानवीय जनसंख्या वाली इस दुनिया से जब वह प्रस्थान करते तो उन्हें ऐसा तो नहीं लगता कि उन्हें विदा करने वाला कोई नहीं है। 

मैं असहाय और असमर्थ होते हुए भी आपकी मदद तो करता ही लेकिन आपने इस विकल्प को चुना ही नहीं। आपने जाना ही चुन लिया। बार-बार के अकिंचन बनने की प्रक्रिया से प्रस्थान ही उचित समझा। आप मेरी असंवेदनशीलता को भी छपटपटाने के लिए छोड़ गए। आपने एक भयानक-सी ठोकर मारी है। इससे मन में डर बैठ गया है। डर यह की अनिश्चितता से भरी दुनिया में पल भर का भी भरोसा नहीं है। यहां कभी भी कुछ भी हो सकता है। यहां हर समय गंभीर रहना है, सतर्क रहना है। जागृत रहना है। एक-दूसरे को थामे रहना है। नहीं तो फिर पीछे सिर्फ अफसोस छूट जाएगा और एक टीस कि जीवन की एक उपयोगिता तो व्यर्थ ही व्यर्थ मर गई।

यह ठोकर बहुत बड़ी है। मैं आपका चेहरा नहीं भूल पा रहा हूं। मैं आपकी आवाज भी नहीं भूल पा रहा हूं। आप जो कहते थे, "बहुत दिन बाद कोई मिला है, जिससे लंबी बात की जा सकती है।" आप जो सुझाते थे, "फलां को पढ़ना, फलां चीजें देखना। फलां पत्रिका में फलां चीज छपी है, उसे जरूर देखना। मैं यह स्वीकार करता हूं कि मुझे इस बात से थोड़ी चिढ़ होती थी लेकिन आपका अभिभावक की तरह मुझ पर निगरानी रखना, भोजन-पानी-साफ-सफाई और किसी भी तरह की मदद के लिए तत्पर रहना, ये सब एक बड़े शहर के अकेलेपन में मुझे थोड़ा-सा सुरक्षित महसूस कराने में बहुत काम आते थे।

मैं यह भी नहीं भूल पा रहा हूं बल्कि नहीं भूल पा रहा था, जब आप जीवित थे तब भी, कि लखनऊ छोड़ते वक्त आप मेरे कमरे में आए और सामान पैक करते मुझे देखकर बोले, "यार राघवेंद्र मत जाओ। यहीं रुको। मैं तुम्हारे लिए खाना बनाऊंगा। कमरा भी साफ कर दूंगा।' ये सारे शब्द अब कान में गूंजते हैं। तब हंसी आती थी। अब इस सेंटेंस से उस शून्यता की थाह नापने की कोशिश करता हूं, जो उनके जीवन में हर दिन और भारी होता जाता था। 

उस आदमी को खो देने की तकलीफ की थाह लगाना आसान नहीं है, जो आपके हर छोटे-बड़े कदम पर समाधान नहीं तो साहस बनकर जरूर खड़ा रहे। आपके बारे में लिखते-लिखते मैं बार-बार आपसे मुखातिब-सा होता जा रहा हूं। जैसे यह लिखना आपसे आखिरी बातचीत हो। अब आखिरी बातचीत के लिए यही एक माध्यम रह भी तो गया है।

मैं ऐसा अनुमान लगाता हूं कि आप अकेलेपन की सबसे आखिरी स्तर पर थे। वहां से आगे जाने पर अकेलापन हमेशा के लिए खत्म हो जाता है। ऐसे स्तर पर होकर भी आपमें जिजीविषा थी। इस नहीं ढोए जा सकने वाले शून्य के साथ भी जीते जाना आपकी जिजीविषा का ही प्रमाण था। 

अब मैं सोचता हूं लखनऊ के बारे में तो सबसे पहले आपका चेहरा सामने आता है। याद आता है कि कैसे लखनऊ के नीरस अकेलेपन में कई बार मेरा अकेलापन आपके अकेलेपन के पास बैठकर अपनी मायूसी कुछ देर के लिए भूल ही जाता था। अब अगर लखनऊ लौटना हुआ तो मैं अपने अकेलेपन में आपकी अनुपस्थिति से यह सवाल जरूर करूंगा कि बताइए, एक झिलमिलाते दीपक की तरह आप मेरे जीवन में क्या संदेश लेकर प्रविष्ट हुए थे? और ऐसे अचानक बुझ क्यों गए?

Wednesday 28 April 2021

बलिदान पर गर्व ठीक, उठते सवालों पर शर्म है कि नहीं?


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक बुजुर्ग कार्यकर्ता इन दिनों सोशल मीडिया पर जबर्दस्त चर्चा बटोर रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि वह कोरोना संक्रमित थे और उन्होंने किसी युवा मरीज के लिए अस्पताल के बेड की कुर्बानी दे दी, जिसके तीन दिन बाद उनकी मौत हो गई। बताया गया है कि कोरोना से आरएसएस कार्यकर्ता की जान गई है। पहले यह पूरी कहानी जान लेते हैं।

हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स और अन्य कई वेब पोर्टलों में महाराष्ट्र के नागपुर के नारायण दाभडकर की कहानी छपी है। दाभडकर दरअसल कोरोना से पीड़ित थे। मौजूदा परिस्थिति में जब अस्पतालों में बेड के लिए मारामारी चल रही है, तब ऐसे समय में भी दाभडकर के परिवार ने जैसे-तैसे नागपुर के एक अस्पताल में उनके लिए एक बेड का इंतजाम कराया। दावा है कि जब 85 साल के दाभडकर को अस्पताल में भर्ती कराया जा रहा था, उसी समय एक महिला अपने पति को भर्ती कराने के लिए रोती-बिलखती अस्पताल में दाखिल हुई।

महिला के पति की हालत देखकर दाभडकर ने डॉक्टर से कहा, 'मेरी उम्र 85 साल पार हो गई है। काफी कुछ देख चुका हूं। अपना जीवन भी जी चुका हूं। बेड की आवश्यकता मुझसे अधिक इस महिला के पति को है। उस शख्स के बच्चों को अपने पिता की आवश्यकता है। अगर उस स्त्री का पति मर गया तो बच्चे अनाथ हो जायेंगे, इसलिए मेरा कर्तव्य है कि मैं उस व्यक्ति के प्राण बचाऊं।' इसके बाद उन्हें परिजन घर वापस लेकर गए और होम आइसोलेशन में ही उनका इलाज चलने लगा। फिर खबर आई कि इस घटना के तीन दिन बाद ही दाभडकर की मौत हो गई।

दाभडकर की मौत का जिम्मेदार कौन?

इस पूरे मामले में एक बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि दाभडकर का त्याग वास्तव में असाधारण है। जैसा उन्होंने किया और जैसी करुणा दिखाई, वैसा करना हिम्मत और उच्च मानवता की बात है। इसके लिए वह निश्चित रूप से सम्मान के पात्र हैं। ऐसे में उन पर गर्व करना पूरे समाज का अधिकार है और जरूरत पड़ने पर उनका अनुसरण भी गलत नहीं है। सोशल मीडिया से लेकर तमाम प्लैटफॉर्म्स पर दाभडकर के इस त्याग पर लोगों ने अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया दी है।

कुछ लोगों ने इस घटना को लेकर सिस्टम पर सवाल खड़े किए हैं लेकिन ज्यादातर लोगों के लिए यह गर्व का विषय है। बहुत से लोगों ने इसे समाज के लिए एक मिसाल बताया है। हालांकि, इसे मिसाल कहना एक नागरिक के तौर पर मैं बेहद खतरनाक मानता हूं। इसलिए भी कि मैं अपने परिवार के किसी भी बुजुर्ग को इस तरह का त्याग करते नहीं देख सकता। यह मेरा स्वार्थ माना जाता है तो माना जाए। मैं ऐसी किसी भी घटना को सामाजिक मिसाल मानने पर सवाल उठाना चाहता हूं। यह दाभडकर के लिए व्यक्तिगत तौर पर सर्वोच्च बलिदान है लेकिन एक समाज, देश और व्यवस्था के लिए शर्म की बात के अलावा कुछ भी नहीं है।

शिवराज सिंह का ट्वीट 'बेशर्मी' का ढिंढोरा

हैरानी तब और बढ़ जाती है जब शासन और प्रशासनिक पदों पर बैठे लोग भी इस पर गर्व करने लगते हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने दाभडकर के निधन पर ट्वीट किया। उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा, ''दूसरे व्यक्ति की प्राण रक्षा करते हुए श्री नारायण जी तीन दिनों में इस संसार से विदा हो गये। समाज और राष्ट्र के सच्चे सेवक ही ऐसा त्याग कर सकते हैं, आपके पवित्र सेवा भाव को प्रणाम! आप समाज के लिए प्रेरणास्रोत हैं। दिव्यात्मा को विनम्र श्रद्धांजलि। ॐ शांति!' 


किसी भी देश-प्रदेश की लोकतांत्रिक सरकार इस तरह के मामलों में ऐसी प्रतिक्रिया दे तो वहां के नागरिकों को इससे डरना चाहिए। शासन-प्रशासन के लिए तो यह सीधे तौर पर शर्म और डूब मरने की बात है। क्या वह ये कहना चाहते हैं कि हमारे देश का हर बुजुर्ग नागरिक अपने प्राणों का बलिदान करने को तैयार रहे क्योंकि वह अस्पतालों में पर्याप्त मात्रा में बेड नहीं बढ़ा रहे हैं? या क्या वह ये कहना चाहते हैं कि हर बुजुर्ग शख्स जो कथित तौर पर अपनी जिंदगी जी चुका है, उसे युवा पीढ़ी के लिए अपनी जान बचाने के अवसरों को कुर्बान कर देना चाहिए?

क्या वह पर्याप्त विकल्पों का इंतजाम नहीं कर सकते जहां युवा और बुजुर्ग दोनों को इलाज सुलभ हो। उन्हें किसी एक को चुनने के लिए विवश न होना पड़े? आखिर, देश में हर किसी के पास जीवन का अधिकार है और इस अधिकार की रक्षा करना ही सरकारों का काम है। यह संवैधानिक है लेकिन समस्या ये है कि संवैधानिक पदों पर बैठने वाले लोग ही इस भावना से पूरी तरह विपन्न हैं। हरिशंकर परसाई की एक पंक्ति इसी संदर्भ में खूब चर्चा में है, जिसमें वह कहते हैं, 'शर्म करने की चीज अगर गर्व करने का विषय बन जाए तो समझना चाहिए कि लोकतंत्र ठीक तरह से चल रहा है।' यह इस पूरे मामले को समझाने के लिए कितनी सशक्त पंक्ति है। 

जनता की क्या जिम्मेदारी?

लोकतंत्र में दावा और वादा शब्द का जितना दुरुपयोग हुआ है, उतना किसी चीज का नहीं हुआ। अगर शासक के तौर पर आपसे जिम्मेदारियां नहीं संभल रहीं तो आपको कुर्सी क्यों नहीं छोड़ देनी चाहिए? आपको क्या अधिकार है (नैतिक या संवैधानिक ही) कि आप लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करें क्योंकि आपकी बुद्धि और आपका विवेक अपने पद की जिम्मेदारियों का भार नहीं उठा सकता? नेता तो खैर स्वभाव से ही धूर्त, मक्कार, झूठे, क्रूर और बेईमान होते जा रहे हैं। इन सबमें जनता की क्या जिम्मेदारी है?

क्या जनता को नेता की बातों को इतनी सरलता से लेकर उनकी ही धारा में बह जाना चाहिए? किसी शायर ने कहा है, 'रहनुमाओं की अदाओं पर फिदा है दुनिया/ इस बहकती हुई दुनिया को संभालों यारों।' नेता एक जुमले उछालते हैं और सभी उसके इर्द-गिर्द ही सिमट जाते हैं। क्या दाभडकर जी के बलिदान पर गर्व करके हमें यह भूल जाना चाहिए कि दाभडकर और उस युवा व्यक्ति दोनों की जान बचाना और उन्हें आरोग्य देना हमारी सरकार की जिम्मेदारी थी? क्या यह भी भूल जाना चाहिए कि दोनों में से किसी एक की जान को बचाने का विकल्प देने वाला यह सिस्टम अपने नाकारेपन को छिपाने के लिए आपको गर्व का झुनझना पकड़ा रहा है, जिसे हम बड़े जोर-शोर से बजाकर अपनी मूर्खता का ऐलान भी कर रहे हैं?

सत्यानंद निरूपम ने 28 अप्रैल 2021 को इस मसले पर लिखी अपनी एक फेसबुक पोस्ट में कहा कि अगर हम आलोचना न करके इस गौरवगान के सुर में सुर मिला रहे हैं तो हम स्टेट को यह छूट दे रहे हैं कि वह अपनी सुविधा से काम करे, नागरिक आपस में सलट लेंगे। निरूपम ने कहा, 'जैसा कि एक मुख्यमंत्री स्वयं लिख रहे हैं कि ऐसा करने के बाद (दाभडकर) "तीन दिनों में इस संसार से विदा हो गए", यानी अगले 3 दिनों तक स्टेट उस वृद्ध को अस्पताल में एक बेड इस आश्वस्ति के साथ नहीं दे सका कि नौजवानों की रक्षा तो हम कर ही रहे हैं। आप जैसे वृद्धों की भी हमें परवाह है। आपके लिए भी बेड है।'

यह सच में विचार करने की बात है कि अगर दाभोडकर ने नौजवान के लिए बेड छोड़ा भी तो अस्पताल प्रशासन क्या कर रहा था? क्या उसने उन्हें ऐसा करने से रोका नहीं? अगर परिस्थिति की मांग को देखते हुए मान भी लिया जाए कि तत्काल में युवा व्यक्ति को बेड की जरूरत ज्यादा थी, तब भी क्या तीन दिन में अस्पताल या सिस्टम या सरकार उस दयालु वृद्ध के लिए एक बेड का इंतजाम नहीं कर सकी? क्या अपने वृद्धों के साथ ऐसा करना हमारा संस्कार है? क्या हमें उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है? क्या यह उसी संस्कृति में घटित हो रहा है, जहां कहा जाता है कि वृद्धों की सेवा करने से आयु, विद्या, यश और बल बढ़ता है। (अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः/ चत्वारि तस्य वर्द्धंते, आयुर्विद्या यशोबलम्) यह तो उस बुजुर्ग के त्याग का भी अपमान हुआ। उस संगठन को भी क्या कहा जाए, जिसके लिए दाभडकर के जीवन से ज्यादा उनके बलिदान को अपने सांगठनिक अभिमान को पुष्ट करने और उसकी प्रतिष्ठा का साज करने में इस्तेमाल की अधिक जल्दी थी। इतना बड़ा संगठन सरकार की नाक में दम कर सकता था कि क्यों ऐसी परिस्थिति बनने दी गई कि एक बुजुर्ग को एक युवा की जान बचाने के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगानी पड़ी?

गर्व करने वाले भी 'आंशिक हत्यारे'

कुल मिलाकर, इस मामले में जिसे हम गर्व कह रहे हैं, वह हमारे सिस्टम (कथित मीडिया के गलियारों में आजकल सरकारों को सिस्टम कहने का रिवाज है) के गाल पर तमाचा है। हम जिसे त्याग कह रहे हैं, वह हमारे बुजुर्गों के प्राणों की लापरवाह और फिजूल खर्ची है। हर जीवन बराबर का कीमती है। कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसने अपना पूरा जीवन जी लिया है या नहीं जी लिया है? दाभडकर की करुणा सम्माननीय है। उनका त्याग आदरणीय है लेकिन उनके त्याग पर गर्व करते हुए अगर हम सरकार से सवाल नहीं करते हैं कि मेरे बुजुर्ग की जान आप क्यों नहीं बचा सके? तो हम परोक्ष तौर पर एक बुजुर्ग नागरिक या देश के असंख्य बुजुर्ग नागरिकों के जीवन का अपमान कर रहे हैं। अगर हम इसे (पत्रकार या किसी भी संदेशकर्ता के तौर पर) केवल गर्व के रूप में प्रचारित करते हैं तो हम एक निर्दयी, पाषाणहृदय, संवेदनहीन और आंशिक हत्यारों में तब्दील हो चुके हैं या होते जा रहे हैं।

Wednesday 31 March 2021

बहस पर थोड़ी बहस


बहस-मुबाहिसा मानव समाज से बहुत गहरे जुड़े हैं। मानव संस्कृति और संचार में अटूट संबंध है। इंसान संचार करता है तो बहस भी करता है। अंग्रेजी के कम्युनिकेशन को हिंदी में साधारीकरण कहा गया। विद्वानों ने बताया कि यह शब्द ही अंग्रेजी के कॉमन, कम्युनिस, कम्युनिकेशन को तकरीबन-तकरीबन अभिव्यक्त कर पाता है। यह सही भी है। हमारे संचार का प्रमुख उद्देश्य एक कॉमन ग्राउंड ही खोजना तो है, जहां पर हम सहमत हों। जहां पर हम विभिन्न धरातलों से उतर-चढ़कर एक साथ खड़े हो सकते हैं। किसी भी विषयवस्तु का सही अर्थ निर्धारण कर सकते हैं। 

आज के समय में संचार का यह स्वरूप सिर्फ परिभाषाओं की बात हो गई है। यह सिर्फ सिद्धांत की बात है। व्यवहारिकता में इसका स्वरूप बहुत ज्यादा भिन्न है। व्यवहारिकता में मानव समाज का किसी पर प्रभुत्व स्थापित करने का आदिम चरित्र संचार को न सिर्फ प्रभावित करता है बल्कि साधारीकरण का विशिष्टीकरण कर एकतरफा, पक्षपातपूर्ण और अन्यायपूर्ण समाधान सामने रखता है।

क्यों जरूरी है वाद-विवाद?

यह ऐसा दौर है, जब विमर्श या बहस को लेकर लोगों के मन में कोई सकारात्मक या अच्छी भावना नहीं है। लोग इससे बचते नजर आते हैं। एक समय में मैं इसके खिलाफ था कि बहस-विमर्शों से भागना नहीं चाहिए। उनसे आमना-सामना करना चाहिए। इससे न सिर्फ ज्ञान की बढ़त होती है बल्कि विचारों के आदान-प्रदान से कोई न्यायपूर्ण और सर्वमान्य बात निकलकर सामने आती है। कोई भी किसी भी विषय पर संपूर्ण जानकारी नहीं रखता है। 

बहसों से यह संभावना होती है कि सूचनाओं, जानकारियों के आदान-प्रदान से ज्ञान की दिशा में प्रगति का मार्ग खुले। हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'अनामदास का पोथा' में रैक्व आख्यान के संदर्भ में इससे जुड़ी एक महत्वपूर्ण बात कही गई है। रैक्व के पास निजी साधना की बदौलत काफी ज्ञान है लेकिन उसका सामाजिक संपर्क शून्य है। संचार की अनुपस्थिति के कारण वह अपने ज्ञान को ही अंतिम सत्य मानने लगता है। फिर उसे शुभा मिलती है और उसे लगता है कि वह कुछ नहीं जानता बल्कि जो कुछ भी जानती है वह शुभा जानती है। 

विचारों का परिष्कार

रैक्व अपने गुरू से मिलते हैं। उनका यह कहना होता है कि रैक्व को ज्ञान तो पर्याप्त है लेकिन अन्य विद्वानों की संगत से, विचार-विमर्श करके, बहस करके, उन्होंने अपने ज्ञान का कसौटी पर परीक्षण नहीं किया है। उसे कसौटी पर नहीं कसा है। अगर वह ऐसा कर पाते, तो उनका ज्ञान किसी परिष्कृत रत्न की तरह होता, जो अभी एक अनगढ़ रत्न के रूप में है। कहने का अर्थ यह है कि सामाजिक या फिर व्यक्तिगत (या फिर आत्मिक ही) संवाद से ज्ञान का परिष्कार होता है। उसमें न सिर्फ शुद्धता आती है बल्कि वह ज्यादा प्रामाणिक  और साधारणीकरण की ओर बढ़ता जाता है। बहस-विमर्श इसलिए भी जरूरी होते हैं। 

बहसों में उग्रता

मौजूदा समय के विमर्शों को देखें तो अंतरवैयक्तिक संचार में भी (व्यक्ति-व्यक्ति के संचार में भी) एकतरफा यानी कि वन-वे कम्युनिकेशन के दृश्य दिखते हैं। द्विपक्षीय बहस में प्रभुता की यह भावना और उग्रता संचार की भाषा में 'नॉइज़' या फिर शोर ही है, जो किसी भी संदेश को न तो ठीक तरह से संप्रेषित कर पाती है और न ही बहस को किसी सर्वमान्य निष्कर्ष पर ही पहुंचने देती है। मेरे व्यक्तिगत अनुभव ने भी इस वक्त में बहसों से बचने की वकालत की है, जबकि मेरा पहले ऐसा मानना नहीं था। 

हो सकता है कि अपनी बात रखने का मेरा कौशल इतना बढ़िया न हो और इसलिए ही मैं बहस-विमर्श के खिलाफ ये बातें कह रहा हूं। लेकिन, इसके इतर भी किसी विषय पर बहस के दौरान जो मैंने महसूस किया है, वह मेरी धारणा को मजबूती देती है। (एक बात यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरा जो भी विरोध है, वह बहस की मौजूदा खास तरीके की शैली के खिलाफ है। मैं बहस-विमर्श और संवाद की सनातन प्रक्रिया का विरोध न तो कर रहा हूं और न ही करना चाहता हूं। बहस एक संवेदनापूर्ण ज्ञानी और स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज के लिए बेहद आवश्यक चीज होती है।)

मौजूदा बहस-विमर्श की नकारात्मक बातें

मौजूदा समय में बहसों के मंच के रूप में विभिन्न प्रकार की डिबेट प्रतियोगिताओं, टीवी चैनलों के कार्यक्रमों या संसद-विधानसभाओं की कार्यवाही को देखा जा सकता है। इनमें बहस का जो सबसे विद्रूप पर्यावरण दिखता है, वह टीवी चैनलों की डिबेटों में दिखता है। संसद की कार्यवाही के दौरान बहसों में अभी सभ्यता देखी जा सकती है और उसका कारण सदन की कार्यवाही के लिए पहले से स्थापित नियम-कायदे हैं। 

हालांकि, वहां पर बहस भी किसी मुद्दे पर फैसले को प्रभावित करने में हमेशा सफल नहीं होता। वहां बहसों से इतर बहुमत की राजनीति है, जो अंत में किसी प्रभुत्वशाली न्यायाधीश की तरह तय कर देती है कि क्या सही है और क्या गलत? इसके बाद बहस की सारी प्रक्रिया बेमानी हो जाती है। हाल ही में भारतीय संसद में कृषि कानूनों को पास कराने को लेकर राज्यसभा में जो स्थिति बनी, वह इस बात को काफी हद तक समझा देती है।

टीवी चैनलों के डिबेट

टीवी चैनलों के डिबेटों को लोगों ने अब खारिज करना शुरू कर दिया है। इसका कारण है कि वहां अलग-अलग 'पेंडुलमी' राजनीतिक विचारधाराओं के लोगों के बीच युद्ध जैसे माहौल के बावजूद कोई सार्थक निष्कर्ष निकलकर सामने नहीं आता। एक कारण यह भी है कि उस बहस का उद्देश्य शुद्ध रूप से व्यावसायिक है, जिसमें इस तरह के निष्कर्षों का महत्व भी स्वीकार नहीं किया जाता। लिहाजा, वहां ज्यादा से ज्यादा शोर को प्राथमिकता दी जाती है और संचार के विद्यार्थी जानते हैं कि किसी भी संवाद में शोर सिर्फ बाधा है, जिसका काम संदेशों को सही तरीके से रिसीवर तक नहीं पहुंचने देना होता है।


डिबेट प्रतियोगिताएं बहस की ठीक संस्कृति का पालन करती दिखती हैं लेकिन वह किसी निर्णायक भूमिका के रूप में एकदम से अप्रभावी होती हैं। उनका किसी भी परिवर्तन में कोई योगदान नहीं होता बल्कि वह एक अकादमिक कौशल विकसति करने का महज साधन भर हैं। इसमें लोगों को तार्किक अभिव्यक्ति और चिंतन-मंथन की प्रक्रिया को सीखने का अवसर दिया जा सकता है, इससे कोई क्रांति या कोई ठोस प्रभावी निष्कर्ष नहीं लाया जा सकता।

सोशल मीडिया का संवाद

बहस का जो तीसरा और आधुनिक मंच है, वह है सोशल मीडिया। सोशल मीडिया पर कई तरह के प्लैटफॉर्म हैं, जहां पर किसी भी विषय को लेकर वाद-विवाद किया जा सकता है। यहां फीडबैक देने की व्यवस्था है। टू-वे कम्युनिकेशन का भी विकल्प है लेकिन यहां भी प्रत्युत्तर या कहें कि प्रतिवाद के मौके बेहद नियंत्रित और सीमित हैं। फेसबुक-ट्विटर पर कोई भी किसी भी मुद्दे पर अपनी राय रख सकता है लेकिन अगर उस पर असहमति आती है तो कहने वाला इस असहमति का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं है। वह असहमति जताने वाले को 'ट्रोल' कर सकता है, ब्लॉक कर सकता है, या फिर कोई जवाब नहीं देने का भी फैसला कर सकता है। हालांकि, फिर भी यहां स्वस्थ बहस की काफी संभावना है।

यूट्यूब पर भी बहस का एक स्वस्थ वातावरण बनाया जा सकता है लेकिन यहां भी फीडबैक या प्रतिक्रिया के लिए स्वतंत्रता बहुत अधिक नहीं है। बढ़ती बेरोजगारी के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेडियो कार्यक्रम 'मन की बात' को कई यूजर्स ने डिसलाइक कर अपना विरोध जताने की कोशिश की थी। बाद में कार्यक्रम के आधिकारिक चैनल ने यह विकल्प ही बंद कर दिया। इस प्रकार से हम देखते हैं कि यहां भी एकतरफा संचार का ही बोलबाला है। 

संचार में रिसीवर का गायब होना

आधुनिक बहसों खासतौर पर समाज में पृथक-पृथक समूहों के बीच या व्यक्ति-व्यक्ति के बीच या टीवी चैनलों पर बहसों की सबसे बड़ी समस्या ये है कि यहां से 'रिसीवर' गायब है। आमतौर पर संचार की प्रक्रिया तीन बिंदुओं से संपन्न होती है। एक सोर्स, जिससे संदेश प्रेषित किया जाता है। एक मैसेज जो भेजा जाता है और एक रिसीवर, जो कि संदेशों को सुनता है। यह प्रक्रिया दोनों ओर से होती है। यानी कि प्रेषक प्रापक भी होता है और फिर प्रापक प्रेषक भी हो जाता है। यह टू-वे कम्युनिकेशन की व्यवस्था है, जो किसी विषय पर किसी निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए की जाती है। या कह लें कि साधारीकरण की ओर ले जाती है। लोकतंत्र की नींव में इस प्रकार के संवादों और विमर्शों का महत्व है। 

मौजूदा समय के ज्यादातर बहसों में रिसीवर अनुपस्थित है और हर कोई ही स्पीकर यानी कि सोर्स यानी कि प्रेषक बना हुआ है। सबसे पास बोलने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन सुनने के लिए बिल्कुल भी धैर्य नहीं है। सुनना भी ऐसा नहीं कि सिर्फ कान की स्वर-तंत्रिया फड़फड़ाकर रह जाएं और हमने सुने हुए को अपने चिंतन-मंथन की फैक्ट्री में डाला ही नहीं।

स्क्रिप्टेड वन-वे कम्युनिकेशन

आजकल के संवाद की यह सबसे बड़ी समस्या है, जो समाज में सबसे निचले स्तर से लेकर राजनीति के सबसे ऊंचे स्तर पर बैठे लोगों तक में आसानी से देखा-महसूस किया जा सकता है। संवाद के नाम पर स्क्रिप्टेड कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। एकतरफा संवाद के प्रोग्राम तय किए जाते हैं। लोग केवल बोलना चाहते हैं। श्रोता अगर कोई है तो सिर्फ इसलिए कि वह या तो कमजोर है या फिर मजबूर। राजनीतिक कारणों के अलावा अन्य विषयों पर भी सुने न जाने के कई अभिशाप हमारे समाज में आए दिन सामने भी आते रहते हैं। 

संचार के अलग-अलग माध्यमों (फेसबुक, ट्विटर इत्यादि) पर बहसों की हालत देखकर मैंने तय किया था कि बहसों में हिस्सा न लेने की कोशिश करना है। हालांकि, यह सोच मूल तौर पर लोकतांत्रिक नागरिक के अनुकूल नहीं माना जा सकता लेकिन निजी मानसिक स्वास्थ्य और शांति की आशा में यह फैसला लिया गया। लेकिन अगर आप समाज में रहते हैं तो आप इससे बचकर नहीं रह सकते। 

केवल सुनने का नुकसान

एक बार मैं किसी विषय पर 'बहस में फंस गया' था। चूंकि मैं संचार के सिद्धांतों को जानता हूं और मैं उस खास विषय पर किसी निष्कर्ष पर भी पहुंचना चाहता था, इसलिए मैंने सोचा कि सामने वाले को सुनना जरूरी है और फिर उसके आधार पर जवाब दिया जाएगा। काफी देर की बहस के बाद मुझे लगा कि यह फैसला गलत था। कारण कि इस तरह की बहसों में अब सुने जाने वाले लोगों की कोई जगह नहीं है। मैं सुन रहा था तो सामने वाले की बात ही खत्म नहीं होती थी। उसे लगा कि सामने वाला सुन रहा है तो इसका मतलब कि उसके पास कोई ठोस तर्क नहीं बचा।

बहसः जंग का मैदान

इस मानसिकता के कई कारण हैं। एक तो आजकल की बहसों को जीत-हार के सांचों में ढालकर देखा जाने लगा है। दूसरा, लोगों अपने वाद को जस्टिफाई करने और अपने फ्रेम ऑफ रिफरेंस को अंतिम सत्य मानकर उसका आवरण सामने वाले पर चढ़ाने की कोशिश के लिए बहस करते हैं। वह किसी एक मान्य निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहते। ज्ञान या जानकारी इन बहसों का उद्देश्य नहीं रहा बल्कि अपनी स्थापित धारणाओं, पूर्वाग्रहों और अपने समर्थन की विचारधाराओं का प्रभाव छोड़ देने का दुराग्रह इन संवादों का केंद्रीय उद्देश्य बन गया है। इसके अलावा अधकचरा जानकारियों को सत्यापित करने की कोशिश की जाती है। उसे इज्जत का सवाल बना लिया जाता है।

बहस के दौरान धैर्य और सहनशीलता की कमी भी एक प्रकार की बाधा की भूमिका निभाती है। अगर आप किसी को सुनने की शक्ति नहीं दिखाते या इसकी कोशिश भी नहीं करते तो यह एक प्रकार से आपकी अधिनायकवादी मानसिकता को उजागर करती है। बहस को लेकर मैं अपना अनुभव बता रहा था, जिसमें मैंने यह फैसला किया कि किसी भी राजनीतिक या किसी भी प्रकार के मुद्दे पर किसी से भी बहस करने लगने से बचना है। 

मैं जिससे बहस कर रहा था, मैं उसकी एक भी बात से सहमत नहीं था क्योंकि उनके विचारों का सोर्स बहुत अस्पष्ट और अनुमान पर आधारित था। फिर भी मुझे लगा कि इसे सुनना चाहिए। बहसों में आपको कई चीजें अनुमान के आधार पर कहनी पड़ती हैं। अकादमिक सिद्धांतों और सामाजिक बहसों में यही अंतर है। बहसों में आप भावनात्मक हो सकते हैं, अकादमिक जानकारियों या सिद्धांतों के शिल्प में इनकी कोई जगह नहीं होती।

हमने उस बहस में सामने वाले के विचारों को सुनने का फैसला किया। थोड़ी देर बाद यह समझ में आया कि मेरा विपक्षी इसे एक युद्ध की तरह ले रहा है और उसे लग रहा है कि मैं उसे सुन रहा हूं तो इसका मतलब है कि मेरे पास उसके तर्क(?) को काटने के लिए कुछ भी नहीं है और उसने मुझे लाजवाब कर दिया है। मुझे जब इसका भान हुआ तो मैंने अपनी बात कहनी शुरू की। इस पर उसकी आवाज बुलंद हो गई। जैसे वह मेरी आवाज को कुचल देना चाहता हो। 

इस तरह की बहस में अगर आप सुनने का फैसला करते हैं तो आपको असीम धैर्य रखना ही होगा। हो सकता है कि इन बहसों में आपको अपनी बात भी न रखनी पड़े। इससे फायदा इतना हो सकता है कि आप सिर्फ एक विचार बना सकते हैं कि उस विशेष विषय पर और क्या-क्या सोचा जा रहा है। आप अपने विरोधी को सुनने लगेंगे तो वह सिर्फ आपको सुनाता जाएगा। आपको बोलने ही नहीं देगा। आप इंतजार करते रह जाएंगे और फिर थोड़ी देर बाद ही सामने वाला अपनी जीत की घोषणा कर देगा और आप अपने तमाम तर्कों और विचारों के साथ उसके सामने सरेंडर को विवश हो जाएंगे।

मानसिक विभाजन का युग

यह एक प्रकार के बहस की बात है। इसी तरह के कई और भी डिबेट के विषय हैं, जिस पर संवाद की कोई गुंजाइश नहीं बचती। कट्टरपंथी विचारकों के साथ आपको अक्सर ऐसा अनुभव होगा। लोग अपनी धारणाओं से बाहर नहीं आना चाहते। अगर कोई लाना चाहता है तो उसका पुरजोर विरोध करते हैं। इसका नुकसान ये है कि इन सबमें सत्य और असत्य के बीच की रेखा मिटती जा रही है। दोनों एक-दूसरे में मिलकर खिचड़ी होते जा रहे हैं। हर किसी का पक्ष सत्य लगता है और हर किसी का पक्ष असत्य भी लगता है। 

ऐसा लगता है कि विश्व के भौगोलिक विभाजन के बाद आने वाली सदियों में मानसिक विभाजन के साथ एक ही देश में कई प्रकार के वैचारिक राष्ट्र बन जाएंगे। और राष्ट्रवाद में तो किसी भी प्रकार के तर्क-बहस आदि का सख्त निषेध होता ही है। मानव सभ्यता में कई स्तरों का यह विभाजन दुनिया की जाने कौन सी सूरत बनाएगा? 

Tuesday 23 March 2021

व्यंग्यः 'कड़ी निंदा' कितनी कड़ी होती है?


हम उस युग में हैं जिसमें निंदा एक मुख्य प्रतिभा है। हर किसी में यह प्रतिभा होनी वैसे ही ज़रूरी है, जैसे शरीर में मल का बनते रहना। किसी में भी अगर निंदा भाव नहीं है तो वह आदमी स्वस्थ तो नहीं ही माना जा सकता। निर्णय क्षमता के वैयक्तिक गुणों के अवसान के इस दौर में निंदा क्षमता बौद्धिकता और सार्थक परिवर्तनों के लिए ज्यादा आवश्यक है। यह ज़रूरी नहीं कि फैसला लेने में किसी प्रकार की बौद्धिकता या विवेक का सहारा लिया गया हो लेकिन यह बेहद ज़रूरी है कि व्यक्ति अपना समस्त विवेक, बुद्धि और ज्ञान निंदा करने में लगाए।

सरकार की किसी लोकप्रिय नीति की निंदा करने वाले एक सज्जन से मैंने पूछ लिया कि अगर आप सरकार होते तो इस नीति को कैसे लागू करते? वह बोले, 'मैंने कभी किसी नीति के निर्माण को लेकर सोचा ही नहीं है। मेरा अभ्यास ही नहीं है कि मैं कोई नया फैसला या नीति सृजित करूं। हां, यह ज़रूर है कि अगर कोई फैसला ले लिया गया है, या कोई नीति बनाई जा चुकी है तो मैं उसमें यह बता सकता हूँ कि कहां पर ऐसा नहीं होना चाहिए था और कहां पर ऐसा होना चाहिए था। हम स्वतन्त्र रूप से कोई फैसला जारी नहीं करते बल्कि फैसलों में तोड़-फोड़ कर उसे दुरुस्त करने का खूब हुनर रखते हैं।' ऐसे फैसला-मिस्त्री के 'पुनर्निर्माणक' विचार सुनने के बाद ही मुझे ख्याल आया कि आधुनिक युग कितना ज्यादा आधुनिक हो गया है।

यह ऐसा युग है कि समाज अब निंदा के लिए फैसले या नीतियों के बनने का इंतज़ार भी नहीं करना चाहता। कई बार तो निंदाएं पहले आती हैं और फैसले बाद में लिए जाते हैं। ऐसा भी हुआ कि निंदा से प्रेरित होकर फैसले ले लिए गए। एक ज़माना था जब कहा जाता था कि कोई भी फैसला सोच-विचार कर लेना चाहिए। अब कम से कम फैसलों के बारे में तो ऐसा नहीं कहा जाता है। जिस तरह से निंदा फैसलों के लिए प्रेरणा बनती जा रही है, वैसी हालत में आने वाले दिनों में समझदार लोग यह नसीहत देते पाए जाएंगे कि कोई भी निंदा सोच-समझकर करनी चाहिए। यह निंदात्मक क्रिया का स्वर्ण काल होगा और निर्णयात्मक क्रिया का कोयला काल।

त्वरित प्रतिक्रिया के इस दौर में निंदा साहित्य लिखे-लिखाए रखे गए हैं। 'यह संस्कृति के खिलाफ है', 'यह मानवता के खिलाफ है', 'यह राष्ट्र के खिलाफ है', 'यह लोकतंत्र के खिलाफ है', जैसे वाक्यांशों को लोगों ने अपनी बुद्धि के पत्थर पर खुदवा रक्खे हैं। दिलचस्प ये है कि 'लोकतंत्र के खिलाफ है' कहने के लिए यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं है कि आप लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विश्वास रखते हों। गांधी के पुतले को गोली मारने वाले लोग राजघाट पर फूल बेचते हुए शांति-अहिंसा को राष्ट्र के खिलाफ बता सकते हैं। कभी-कभी लगता है कि संविधान में वर्णित 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उतनी नहीं है जितनी की निंदा की स्वतंत्रता है। कोई भी, किसी की भी, कभी भी, किसी बात पर भी, किसी भाषा में भी, (किसी मुंह से भी) निंदा कर सकता है।

निंदा के तीर आलोचना के खोल में इधर से उधर, उधर से इधर खूब तैर रहे हैं। वे एक दूसरे को काटते नहीं हैं। टीवी में देखा होगा कि इधर से अर्जुन ने तीर चलाया। उधर से कर्ण ने। दोनों तीर एक-दूसरे से लड़कर खत्म हो गए। निंदा के तीर ऐसे नहीं चलते। वे कभी एक दूसरे के बगल से निकल जाते हैं। कभी ऊपर-नीचे से लेकिन कभी एक दूसरे को काटते नहीं हैं क्योंकि काटना इनका उद्देश्य होता भी नहीं है। इन तीरों की शक्ल कभी-कभी कुछ ऐसी समान होती है कि समझ ही नहीं  आता कि इसे अर्जुन ने छोड़ा है या कर्ण ने। 

निंदा के अश्वत्थामा

निंदा के तीरों का कुरुक्षेत्र बहुत विशाल है। कोई जयद्रथ की भाषा में निंदक है तो कोई शिखंडी बना हुआ है। फिर अश्वत्थामा जैसा दुख लिए भी लोग घूम रहे हैं कि योग्य तो सबसे ज्यादा मैं था। फिर भी सेनापति क्यों नहीं बना। ऐसे लोग अपने स्वामियों को प्रसन्न रखने के लिए अबोध बच्चों का शीश काटने से भी बिल्कुल गुरेज़ नहीं करते। बल्कि इनके दुर्योधन तक बाद में इनके जघन्य कर्मों पर पश्चात्ताप करते प्राण त्याग देते हैं। निंदा का ऐसा अश्वत्थामा अपने माथे से समालोचना की मणि निकालकर सदैव-सदैव के लिए जीवित रहने को अभिशप्त है।

निंदा का साहित्य

कभी कभी लगता है कि हिंदी लिटरेचर के हिंदी 'साहित्य' नामकरण के समय विद्वानों ने इसकी निंदा धनी प्रवृत्ति को विशेष ध्यान में रखा होगा। सबके सहित निंदा का यह विशेष गुण ही तो है जिससे इस छोटी सी विशाल दुनिया में हलचल बनी रहती है। कई लेखक अपनी लेखन प्रतिभा का 80 प्रतिशत इस्तेमाल निंदा साहित्य लिखने में करते हैं। कई इस निंदा की निंदा लिखने में करते हैं। कुछ हैं जो यह कहने में खर्च हो जाते हैं कि जिताना समय लेखक निंदा लिखने में खर्च कर रहा है, उतना समय किसी रचनात्मक काम को देता तो साहित्य को कुछ नया प्राप्त होता। 

यहीं से निंदा के सहोदर 'आलोचना' की उत्पत्ति हुई मानी जा सकती है। हर किसी का लोचन दूसरे पर है कि वह कोई कालजयी कृति लिखे। इससे दो बातें होनी है। या तो वह उस कालजयी कृति की निंदा कर गुट सापेक्षता की दुनिया में तहलका मचा सकता है या फिर वह इस कृति का गुणगान कर 'यह हिंदी साहित्य की अनुपम कृति है' जैसे कोटेशन का सृजन कर सकता है जिसे आने वाले समय में आलोचक अपने-अपने लेखों में दर्ज करेंगे।

निंदा का धर्मयुद्ध

निंदा के इस धर्मयुद्ध में आप विदुर या फिर बलराम बनकर निकल नहीं सकते। आप जंगल में चले जाएं और शांति से रचना कर्म करते रहें, निंदा के युद्ध में आप घसीट लाए जाएंगे। इस दुनिया में तो लोग यह भी कहते हैं कि जिस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा रही है, वह भी एक प्रकार से निंदित ही किया जा रहा है। 

एक सज्जन बड़े मुखर होकर श्री एबीसीडी की निंदा कर रहे थे। हमने पूछा कि आप उनकी किस नीति में तोड़-फोड़ करना चाह रहे हैं। वह बोले, नीति में नहीं, मैं तो उसके शरीर में तोड़ फोड़ करना चाहता हूँ। बताइये, यह भी भला क्या बात हुई कि आप ऐसे वस्त्र पहने, जो हमारे संस्कृति और संस्कारों की जीन्स फाड़ दे। हमारे मोहल्ले में कोई ऐसा कुसंस्कारी नहीं है। यह अलग किस्म की निंदा थी। वस्त्र पहनने के लिए कोई न तो फैसला लेता है और न ही नीति बनाता है लेकिन हमारा निन्दाजीवी मन पत्थरों में से भी घास की तरह उगने की प्रतिभा से सम्पन्न है। 

निंदा रूपी कड़क चाय

बहुत समय से एक बात अज्ञात रही। या फिर किसी की कल्पना वहां तक पहुंची ही नहीं कि निंदा की उपमा चाय से दे सके। अगर पहुंची भी होगी तो लोकतांत्रिक देश की तमाम 'ईमानदार' और 'अन्तरात्मायुक्त' संस्थाओं के भय से यह उपमा देने से वह बचता होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि निंदा की उपमा चाय से देने पर 'चायवाले' का अर्थ बदल जाता है। यह किसी मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर मार देने और अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने तथा 'आ बैल मुझे मार' जैसे प्राचीन मुहावरों के अलावा किसी और ज्यादा खतरनाक आत्मघाती कृत्य जैसा माना जाए तो ग़लत नहीं है। यह निंदा ऐसी है जैसे 'आ पुलिस गिरफ्तार कर' या 'अपने घर पर सीबीआई मारना' या 'ईडी के छत्ते में हाथ डालना' आदि।

चाय रूपी निंदा को कड़क भी बनाया जा सकता है, यह इसकी खासियत है। इसके लिए सिर्फ उंगलियों को खास तरह से फेरते हुए सिर्फ इतना कहना होगा कि 'मैं फलां की कड़े शब्दों  में निंदा करता हूँ।' हालांकि, ये 'कड़े शब्द' हिंदी के किस शब्दकोश में पाए जाते हैं इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया है। क्या ऐसे शब्द होते भी हैं? इस पर भी संदेह है। सरस्वती नदी की तरह विलुप्त 'ऐसे शब्द' कोई खोजने भी नहीं जाता और मान लेता है कि ज़रूर वो काफी कड़े होते होंगे, तभी तो उनको उस खास सेंटेंस में फिट नहीं होते। 

कड़ी निंदा का कड़ापन

फिर भी एक बड़ा सवाल तो है कि ये शब्द कितने कड़े होते होंगे। क्या इसकी प्रतियोगिता 'प्रचारमंत्री' के 56 इंच सीने के भीतर छोटे से हृदय से हो सकेगी। या यह उतनी कड़ी होगी, जितनी दिल्ली में दिसम्बर-जनवरी में ठंड पड़ती है। लेकिन अगर यह उतनी कड़ी नहीं है, जितनी कि दिसम्बर-जनवरी की ठंड में भी तंबू ताने ट्रैक्टर वाले लोगों के हौसले और इरादे हैं, तो यह किस काम की है।

निंदक नियरे देखिए

'निंदक नियरे राखिये' लिखने वाले कबीरदास को पता नहीं था कि उनके जमाने की तरह हमेशा और हर युग में निंदक दूर-दूर नहीं होंगे। निंदकों के जनसंख्या विस्फोट ने इस दोहे को लोगों की निजी फैसले से ज्यादा निजी मजबूरी बना दिया है। यह अपने आप ही अनायास चरितार्थ हो गया है। अब किसी को 'निंदक नियरे' राखने के बारे में सोचना ही नहीं है। इस ज़माने में वह सदैव ही आपके आसपास होते हैं। 'आंगन-कुटी छवाने' के बारे में क्या ही कहा जाए। 

अगर वर्गीकरण के संबंध में ऐसा कहा जाए कि भले लोगों के इस संसार में आदमी या तो निंदक है या निंदनीय तो मेरे ख्याल से इसे गलत नहीं कहा जा सकता। निंदा के लिए खास योग्यता की आवश्यकता न होना ही निंदकों की उर्वरता का सबसे बड़ा कारण है। अगर किसी को निंदा भी करनी नहीं आती, तो उसका ज़िंदा होना ही संदिग्ध है।

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...