Friday 23 June 2017

उसे न कहना पड़े कि उसका जीवन एक भयानक दुर्घटना है

पिछले कुछ सालों में देश में दलित-विमर्श कुछ एक अप्रिय घटनाओं का दामन थामें देश की मीडिया की दहलीज तक पहुंचा था और अब तो यह राष्ट्रीय बहस का प्रमुख केंद्र इसलिए बन गया है क्योंकि गणतंत्र के सबसे बड़े सिंहासन के लिए होने वाली लड़ाई में आमने-सामने की सेना का नायक इसी समुदाय से सम्बन्ध रखता है। राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए की ओर से भाजपा अध्यक्ष के रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा 'दलित उम्मीदवार' को रेखांकित करते हुए करने के बाद विपक्ष खेमे में माकूल जवाब देने को लेकर मची हलचल ने जो परिणाम दिया है, उसने इस लड़ाई को पूर्व निश्चित परिणाम को प्रभावित किये बिना भी रोचक बना दिया है। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार यूपीए समर्थित राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार हैं। बिहार से हैं और दलित भी हैं। मीरा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और देश के उप प्रधानमंत्री रहे बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं और बिहार के सासाराम से दो बार सांसद भी रह चुकी हैं। सत्ता पक्ष से डैमेज कंट्रोल के तहत उतारे गये उम्मीदवार रामनाथ कोविंद से मुकाबले के लिए उन्हें मैदान में उतारा गया है। 'दलित उत्थान' और 'दलित समर्थक' होने का राष्ट्रव्यापी सन्देश-शंखनाद करने वाले सत्ता पक्ष का दलितों को लेकर क्या रवैया अब तक रहा है, राष्ट्र को इस पर भी थोड़ा बहुत गौर अवश्य करना चाहिए।

आंध्र प्रदेश के हैदराबाद विश्वविद्यालय में कुछ मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे 5 छात्रों का एबीवीपी के छात्रों से हाथापाई होने के बाद केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने इस घटना के बाबत तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिखकर इस मामले पर कार्रवाई करने का निवेदन किया जिसके बाद विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर ने 5 छात्रों को हॉस्टल से ससपेंड कर दिया और उनकी फ़ेलोशिप भी बन्द कर दी। इसके विरोध में पांचों छात्रों ने विश्वविद्यालय के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। घटना राष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियों में तब आई जब उन पांच छात्रों में से एक छात्र रोहित वेमुला ने एक खत लिखकर आत्महत्या कर ली। वेमुला दलित समुदाय से ताल्लुक रखते थे जिसके कारण विपक्ष ने इस मुद्दे पर सरकर को घेरने की भरपूर कोशिश की।

कुछ दिनों बाद प्रधानमंत्री के मॉडल स्टेट गुजरात के ऊना से एक हैरान कर देने वाली घटना की खबर आयी। इस घटना का जो वीडियो सामने आया था वो काफी भयानक था। मृत गाय के चमड़े उतारने को लेकर कुछ तथाकथित गौरक्षकों के दलित समुदाय के कुछ लोगों को बड़ी बेरहमी से पीटते हुए दृश्यों वाली इस वीडियो ने सरकारी 'दलित प्रेम' के आडम्बर की पोल खोलकर रख दी। गोरक्षा के नाम पर दलितों के साथ हुए इस अत्याचार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करते हुए कई लोगों ने आत्महत्या तक करने की कोशिश की थी ताकि सरकार के बाहर कानों तक अपनी पीड़ा पहुंचा सकें। इस घटना के बाद सरकार निशाने पर तो आई, लेकिन विपक्ष का निशाना हर बार की तरह इस बार भी चूक गया। प्रधानमंत्री ने अलबत्ता एक सभा में बोलते हुए गर्जना की थी कि मेरे दलित भाइयों को मारना बन्द करो, और अगर वार करना ही है तो मुझ पर वार करो। हालाँकि उनकी इस बात को उनके समर्थकों ने इतनी गम्भीरता से नहीं लिया।

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्ती को लगाने को लेकर हुए विवाद में कई दलित प्रदर्शनकारियों पर गम्भीर धाराओं में मुकदमें दायर किये गए। जिसके विरोध में भीम सेना नाम के संगठन के लोग अपने नेता चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में दिल्ली के जंतर मंतर पर लामबंद हुए। आज़ाद बाद में गिरफ्तार कर लिए गए। दलितों की तथाकथित महाहितैषी सरकार ने मामले को गम्भीरता से लेने की ज़रूरत नहीं समझी। अखबारों और न्यूज़ वेबसाइटों ने ऐसे कई मसले छोटे छोटे कॉलमों के माध्यम से प्रकाशित किया लेकिन इन मसलों में दलितों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ काम करना भारतीय राजनीति में दलित प्रेम, दलित उत्थान, दलित समर्थन की परिभाषाओं में नहीं आता। दलितों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के लिए सरकार को किसी दलित नेता को ढूंढना पड़ता है जिसे वो राष्ट्रपति बनाकर उन सभी लोगों का मुंह बंद कर सके जो उपर्युक्त घटना को लेकर सरकार को घेरने की फ़िराक़ में हों।

विपक्ष ने इस मामले में हालाँकि बहुत देर कर दी। मोदी सरकार के आने के बाद विपक्ष जितना लाचार हो गया है शायद ही भारतीय राजनीति में आज से पहले गैर-सत्तापक्ष कभी इतना बेचारा रहा हो। कांग्रेस विपक्ष का अगुआ होकर एकजुटता की पहल कर सकती थी और सत्ता के खिलाफ एक ऐसा सर्वमान्य उम्मीदवार उतारकर विपक्ष की शक्ति का आभास सरकार को करवा सकती थी लेकिन वो ऐसा कर पाने में हर बार की तरह असफल रही और इस दीवार में फिर से सेंध लग गयी। हर बार ऐसा देखने को मिलता है कि विपक्षी पार्टियां जब भी एक छत के नीचे आने का प्रयास करती हैं किसी न किसी राजनेता का राजनीतिक स्वाभिमान या फिर उसकी राजनैतिक महत्वकांक्षा पूरे मंसूबे को तहस-नहस कर देती है। इस बार भी वही हुआ। जो नितीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने के सबसे ज्यादा योग्य माने जा रहे थे उन्होंने सबसे पहले पाला बदल लिया और तभी जब विपक्ष ने अपना उम्मीदवार तक नहीं उतारा था, उनहोंने एनडीए उम्मीदवार कोविंद के समर्थन की घोषणा कर दी। काफी दिन सोचने के बाद कांग्रेस ने पूर्व लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार को कोविंद के खिलाफ उतरने का फैसला किया। एक योग्य उम्मीदवार होने के बावजूद भी उनकी हार तो लगभग तय है, लेकिन उनकी उम्मीदवारी ने राजनैतिक खेमे के कई बयानवीरों को शायद असमंजस में डाल दिया है। विपक्षी हलकों में कुछ समय तक भारत में हरित क्रांति के नायक एमएस स्वामीनाथन को उम्मीदवार बनाये जाने को लेकर अटकलें थीं जो शायद सरकार के उम्मीदवार के लिए बेहतर चुनौती के रूप में उभरकर आते। सत्ता पक्ष के दलित कार्ड के मुकाबले में किसानी से सम्बंधित व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने से विपक्ष को कम से कम मनोवैज्ञानिक बढ़त तो मिल ही जाती।

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कोविंद का नाम प्रस्तावित करते हुए दलित हितैषी होने के दम्भ से भरे जा रहे थे और अपने चयन पर इतराते हुए उनकी पार्टी की सरकार के कार्यकाल में दलित उत्पीड़न के मामले को नज़रअंदाज़ करने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी। कोविंद के दलित होने के कारण विपक्ष खुलकर इसका विरोध करने से भी डर रहा था कि कहीं तीन साल से 'गद्दार' 'राष्ट्रद्रोही' की उपाधि पाते पाते कहीं दलित विरोधी होने का तमगा भी न मिल जाए। केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के उस बयान को याद करिये जिसमें उन्होंने कहा था कि जो कोई भी कोविंद का समर्थन नहीं करता वो दलित विरोधी है। मैं इंतज़ार कर रहा हूँ कि कोई रिपोर्टर पासवान जी से पूछे कि अब आप क्या करेंगे? कोविंद को वोट देकर महिला कम दलित विरोधी होना मंजूर करेंगे या फिर कोविंद के खिलाफ वोट देकर सरकार विरोधी होना। यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए ताकि अगली बार जब ये लोग इस तरह के बयान दें और राष्ट्रपति पद की योग्यता के पावन प्रावधानों में जातिवाद की मिलावट करें तो उन्हें ये सवाल याद आ जाएं।

राजनीति अब प्रतीकों का इस्तेमाल कर अपने काले कारनामें सफ़ेद करने का मंत्र जान चुकी है। उसके लिए गाँव के दक्खिन में बसने वाले रामधारी हरिजन की समस्याओं का समाधान, ऊना में गाय की खाल उतारने को लेकर पीटेे गये रमेश की पीठ पर कोड़ों की चोट का मरहम, हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला के जीवन की कीमत महज किसी दलित को राष्ट्रपति बना भर देने से मिल जाता है। इसी से वो दलितों की हितैषी बन जाती है। इन सारे मसलों पर वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश उर्मिल की यह टिप्पणी गौर करने लायक है जिसमें वो कहते हैं, "वो हर चुनाव मे जाति-धर्म का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करेंगे पर जातिवादी नहीं कहलाएंगे। हर चुनाव में सबसे ज्यादा पैसा खर्चेगे पर इस धरती के सबसे ईमानदार माने जायेंगे।  क्योंकि उनके पास कारपोरेट है, मीडिया है, सारा विधि-विधान है, तमाम एजेंसियां हैं, ब्रह्म और बाबा हैं! क्या है, जो उनके पास नहीं है!" खैर, सरकार के लिए भले ही किसी दलित को राष्ट्रपति बना देना दलित उत्थान का मापदंड हो लेकिन यह देश दलितों के उस दौर का मुन्तज़िर है जब किसी रोहित वेमुला को अपना आखिरी पत्र न लिखना पड़े जिसमें उसे कहना पड़े कि उसका जीवन एक भयानक दुर्घटना है।

Sunday 18 June 2017

खेल को खेल रहने दीजिए

खेल-कला-साहित्य-सिनेमा, आधुनिक विश्व की ये संस्कृतियां वैश्विक एकात्म्य की आखिरी उम्मीद हैं। खेल भावना पर सीमाजनित राष्ट्रवाद थोपकर इस आशा की हत्या का प्रयास सफल होने देना है या नहीं, यह हमें और आपको सोचना है।

भारत-पाकिस्तान से जब भी क्रिकेट मैच की बारी आती है, पूरा देश एक विचित्र प्रतिद्वंदिता में लग जाता है जिसमें नफरत की गंध साफ़ महसूस की जा सकती है। न्यूज़ स्टूडियोज़ जंग के मैदान बन जाते हैं। बुलेटिन के नाम डराने लगते हैं। एंकर की भाषा यूं होती है कि उसे इस त्रिभुजाकार देश की सीमाओं से बाहर ही नहीं जाने देना चाहिए। जनभावना अनावश्यक रूप से कुछ लोगों के बयान और उनकी भाषाओं को एक तीखापन दे जाती हैं। तनाव, आशंका और डर सारे देश को अपने पंजे में जकड़ लेता है, और फिर यहीं मर जाती है, खेल की मूल भावना, खेल का मुख्य उद्देश्य, खेल की मूल प्रकृति।

अपने देश से हर कोई मोहब्बत करता है। मोहब्बत कभी अलगाव का कारण नहीं बनती। अगर ऐसा होता है तो वो मोहब्बत नहीं, वो जबर्दस्ती का एक नाटक है, जो दिल से नहीं दिमाग से उपजता है। मैदान पर जब अलग अलग रंगों की जर्सी पहने अलग अलग देश की टीमें उतरती हैं तो वो दो देश नहीं होतीं, वो सिर्फ दो टीमें होती हैं। हर कोई अच्छी चीजों को पसंद करने का आदी होता है। जो भी टीम अच्छा खेले उसका समर्थन, उससे मोहब्बत करना, यही तो खेल-संस्कृति है। खेल कोई जंग नहीं है। यह उन कुछ उन्मादी लोगों की कुंठा की वजह से युद्धजन्य तनाव और भय के वातावरण में बदल जाती है जिन्हें इसे भुनाकर अपनी दुकान चलानी होती है।

इसलिए बचकर रहिएगा। खेल कोई भी हो, जीतेगा वही, जो अच्छा खेलेगा। कौन किसका बाप है, कौन किसका नाती, ये चीजें खेल का परिणाम निर्धारित नहीं करतीं। इंडियन क्रिकेट टीम के आधे से अधिक खिलाडियों की प्रदर्शन दर दुनिया भर के क्रिकेट खिलाड़ियों में सबसे बेहतर थीं, लेकिन आज पाकिस्तानी खिलाडियों के समर्पित और कसे हुए प्रदर्शन के आगे सभी बेकार साबित हुए। इसमें भारतीय टीम की कोई गलती नहीं कि वो गालियाँ सुनें। खेल है, बाज़ी कभी भी पलट सकती है। कोई भी अजेय तो नहीं है। जिसने अच्छा खेला, उसकी प्रसंशा के बीच अहंकार या नफरत तो नहीं ही आनी चाहिए।

बैट या फिर हॉकी पकड़ने वाले ख़िलाड़ी गर्दन नहीं काटते। वो बस खेलना जानते हैं। जो खिलाडी होते हैं उन्हें हार-जीत से खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि खेल-प्रशिक्षण की प्रक्रिया में हार को स्वीकार कर उससे सीखने का एक महत्वपूर्ण अध्याय होता है। इसलिए हार न तो प्रतिष्ठा पर प्रहार है और न ही जीत सदैव सम्राट रहने का चिर आश्वासन है। अनिश्चितताएं एक रोमांचक खेल की महत्वपूर्ण आवश्यकता हैं। मायने रखने वाली बात ये है कि किसी हार से आप कुछ सीखते हैं या फिर टूटते हैं।

ऐसे दौर में जब धार्मिकता का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो चुका हो, सामाजिकता का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो चुका हो तब खेल को राजनैतिक कुचक्र से बचकर रखना न सिर्फ खिलाडियों के लिए बल्कि खेलप्रेमियों के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। हर चीज़ अपने नियत स्थान पर ही अच्छी लगतीं हैं। खेल को खेल रहने दीजिए। उसमें राजनीति मिलाकर उसका स्वरुप मत बिगाड़िये। नफरत जितनी हो सके कम करना है, मोहब्बत जितना हो सके बढ़ाना है। मोहब्बत बढ़ाने का जतन करिए, नफरत के परिणाम तो हमने कई बार देखे और भुगते हैं ही।

Thursday 15 June 2017

लोकतंत्र में अगर आपको अपनी खुद की विचारधारा से डर लगने लगे तो समझ जाइए कि लोकतंत्र वेंटीलेटर पर है

सरकारी स्वायत्त संस्थान केवल नाम भर के स्वायत्त होते हैं। सरकार बदलते ही उनके पदों पर सरकार की भक्ति और गुणगान गाने वालों के कूल्हे टिक जाते हैं। इसके लिए उनके पास उस पद की योग्यता के नाम पर कुछ सालों की चाटुकारिता की डिग्री भर होना अनिवार्य है, बाकी नियमों को ताक पर रखकर कैसे उन्हें उनकी औकात से बड़ा पद देना है ये सब सरकार को तय करना होता है। इस देश में सरकार बदलने की पहचान पता करने का यह भी बड़ा नायाब तरीका है कि उसके किसी संस्थान में चल रही विचारधारा की हवा का श्रोत पता कर लो, वहीं रहनुमा की कुर्सी और उस पर बैठा हुआ सत्ताधिपति आपको मिल जाएगा। पिछले कुछ सालों से कई शिक्षण संस्थानों में ऐसी छीछालेदर मची हुई है कि देश के इतिहास ने सरस्वती के साधनास्थलों पर इतनी थू-थू आज से पहले कभी नहीं देखी होगी। कई संस्थानों के उच्च पदों पर चाटुकार अयोग्यों को प्रतिष्ठित करने का मसला हो या प्रतिरोधी विचारधारा के विद्यार्थियों को देशद्रोही बनाने का अभियान देश के प्रबुद्ध और विचारशील तबके में अब एक प्रकार का भय पैदा कर रहे हैं। वो भय जो कि एक स्वतंत्र संप्रभु लोकतांत्रिक राष्ट्र की लोकतांत्रिकता के स्वास्थ्य के लिए घातक है।
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मार्च 2016 में दूरदर्शन न्यूज के तत्कालीन वरिष्ठ सलाहकार संपादक श्री केजी सुरेश को देश के सबसे बड़े मीडिया संस्थान का महानिदेशक नियुक्त किया जाता है, जिस प्रस्ताव का कैबिनेट सचिवालय यह कहकर विरोध करता है कि केजी में एडमिनिस्ट्रेटिव एक्सपीरियंस यानी कि प्रशासनिक अनुभव की कमी है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। उसने अगर विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के वेबसाइट एडिटर और उसके मुखपत्र के संपादक केजी सुरेश का चयन मीडिया के सबसे बड़े संस्थान के सबसे बड़े पद के लिए कर लिया है तो उसे कोई नियम कायदे ऐसा करने से नहीं रोक सकते हैं। एक स्वायत्तशासी संस्थान की इतनी बड़ी मजबूरी आपने कहां देखी होगी जहां वह कहने को स्वतंत्र है लेकिन असल में ऐसा बिल्कुल नहीं है। संस्थान के इस सबसे बड़े पद के लिए जो योग्यता निर्धारित है वह कहती है कि एक गैर सरकारी उम्मीदवार जिसके पास कम से कम 25 साल का जर्नलिस्टिक अनुभव हो, फिल्म के क्षेत्र में, मीडिया एकेडमिक्स में कोई प्रशासनिक अनुभव हो, किसी राष्ट्रीय यूनिवर्सिटी में या फिर किसी प्रोफेशनल संस्थान में काम करने का एक्सपीरियंस हो ऐसा व्यक्ति ही इस प्रतिष्ठित संस्था का सर्वोच्च पदस्थ अधिकारी हो सकता है। इस पद पर नियुक्ति के लिए जिम्मेदार संस्था ने जब सूचना प्रसारण मंत्रालय से केजी के प्रशासनिक अनुभव संबंधी दस्तावेज मांगे तब मंत्रालय ने उन्हें केजी के एडमिनिस्ट्रेटिव एक्सपीरियंस की बजाय एडमिनिस्ट्रेटिव स्किल्स के प्रमाण-पत्र सौंप दिये थे। सारे दांव-पेंच लगाकर किसी तरह से कृष्ण गोपाल सुरेश भारतीय जनसंचार संस्थान के डायरेक्टर जनरल बना दिए गए।

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केजी सुरेश, महानिदेशक, आईआईएमसी
एक अनुभवहीन प्रशासक का सबसे पहला शिकार प्रतिरोध की आवाजों का वो चेहरा होता है जिससे उसको अपनी कुर्सी के पाए हिलते दिखाई देने लगते हैं। आईआईएमसी इससे अछूता नहीं रहा। केजी शासन में साल भर उनकी प्रशासनिक अपरिपक्वता का ढोल बजता रहा। शुरुआत कहां से हुई ठीक-ठीक नहीं बता सकते लेकिन पहली सरगर्मी तब बढ़ी थी जब संस्थान के कुछ कर्मचारियों को उनके कांट्रेक्ट के पूरा होने पर काम से बेदखल कर दिया गया। केजी शायद पहली बार तभी निशाने पर आए थे। हालांकि बाद में उन्होंने सारे बेदखल कर्मचारियों को पुनः बहाल करके अपने पहले प्रतिरोध पर जीत हासिल कर ही ली थी। दिसंबर में पहले सेमेस्टर की परीक्षा के समापन के बाद लगभग संस्थान के सभी छात्र छुट्टी होने के कारण घर निकल गए थे। ऐसे समय में संस्थान के एसोसिएट प्रोफेसर नरेन सिंह राव बिना कारण बताए सस्पेंड कर दिए गए। मामला सबज्यूडिस है। सोशल मीडिया पर रेडियो एंड टीवी विभाग के कई छात्र नरेन सिंह के समर्थन में खुलकर लिखने लगे। इंद्रदेव को अपना आसन हिलता दिखने लगा तो पांच छात्रों को चिन्हित किया गया। आरटीवी विभाग के अभिक देब, वैभव पलनीटकर, अंकित सिंह, सचिन शेखर और साकेत आनंद को कॉलेज प्रशासन ने नोटिस भेजकर तलब किया। मामला चेतावनी भर देकर रफा-दफा कर दिया गया।

कुछ दिन बाद अंग्रेजी न्यूज वेबसाइट न्यूज लांड्री पर संस्थान के ही हिंदी पत्रकारिता के छात्र रोहिन वर्मा का आईआईएमसी में केजी के प्रशासनिक फैसलों पर एक आलोचनात्मक लेख प्रकाशित हुआ। लेख में रोहिन ने सबज्यूडिस नरेन सिंह वाले मामले पर सवाल उठा दिए। इससे पहले भी रोहिन सोशल मीडिया पर लगातार संस्थान के बारे में आलोचनात्मक लहजे में कुछ न कुछ लिखते रहते थे। खुन्नस खाए प्रशासन नें उनके फेसबुक प्रोफाइल से फोटो आदि निकालकर उनका सस्पेंशन लेटर तैयार किया। रोहिन वर्मा लेख लिखने की वजह से सस्पेंड हो गए। फरवरी के आसपास जी मीडिया के मालिक सुभाष चंद्रा का मशहूर शो द सुभाष चंद्रा शो के एक एपिसोड के लिए आईआईएमसी के ऑडिटोरियम को वेन्यू के तौर पर निश्चित किया गया। छात्रों के पुरजोर के विरोध के बाद पहले तो कार्यक्रम टला फिर रद्द ही कर दिया गया। द्वितीय सेमेस्टर परीक्षाओं के बाद जब सभी छात्र परीक्षा देकर संस्थान से रुखसत हो चुके थे तब संस्थान में यज्ञ सहित राष्ट्रीय पत्रकारिता पर सेमिनार आयोजित किया गया। विवादित आईजी कल्लूरी को बतौर वक्ता आमंत्रित किया गया। समूचा मीडिया जगत राष्ट्रीय पत्रकारिता की उत्पत्ति को लेकर थोड़ा सा आशंकित था। विरोध हुआ, लेकिन कार्यक्रम निर्विघ्न संपन्न हुआ। लगातार विरोधियों के निशाने पर रहे केजी सुरेश अपने आकाओं के विचारधाराओं को आईआईएमसी की पुरातन स्वतंत्र अभिव्यक्ति वाली संस्कृति पर प्रतिस्थापित करने से पीछे नहीं हट रहे थे।
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शाश्वती गोस्वामी, पूर्व विभागाध्यक्ष, आरटीवी विभाग, आईआईएमसी 

अनुमान के मुताबिक नंबर उन सबका लगना था जो भी केजी विचारधारा के साथ नहीं था। जिन लोगों की लिस्ट इस अंदेशे के साथ बनाई जा रही थी उनमें शाश्वती गोस्वामी का नाम तो था ही। किसी भी तरह की गलत गतिविधियों के प्रति सबसे असहिष्णु शिक्षकों में शाश्वती शामिल थीं। अपने छात्रों को सही के लिए सदैव आवाज उठाने को प्रेरित करने वाली शाश्वती 2008 से भारतीय जनसंचार संस्थान का हिस्सा हैं और तभी से उन्हें संस्थान में रहने के लिए एक क्वार्टर की व्यवस्था की गई है। बीते एक जून को शाश्वती को अपना क्वार्टर खाली करने को कहा गया जिसमें वो अपने बच्चे के साथ पिछले 9 सालों से रह रही थीं। उसके क्वार्टर खाली करने के फरमान के कुछ ही दिन बाद उन्हें संस्थान के रेडियो एंड टेलीविजन डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष पद से भी हटा दिया गया। कारण क्या है, अभी किसी को नहीं पता। आरटीवी विभाग की अध्यक्षता अब स्वयं केजी सुरेश सम्हालेंगे। आम छात्रों में या जिसे जनरल पब्लिक डोमेन कहते हैं, उनमें चर्चा है कि विभाग में प्रवेश प्रक्रिया पर अपना नियंत्रण रखने के उद्देश्य से केजी ने ऐसा कदम उठाया है। इस बार के आरटीवी के छात्रों ने पूरे साल उनके नाक में दम कर रखा था, शायद इसलिए इस बार प्रवेश में अपने मुताबिक अभ्यर्थियों को प्रवेश दिलाने के उद्देश्य से उन्होंने अतिरिक्त पदभार के तौर पर आरटीवी विभाग को हथिया लिया है। ऐसा संस्थान के निवर्तमान छात्रों का कहना है। संस्थान के एक छात्र (उनसे अनुमति नहीं ली है, सो नाम नहीं लेंगे) कहते हैं कि केजी को लगता है कि विभाग के कुछ छात्रों को शाश्वती संस्थान के खिलाफ प्रोवोक करती रहीं जिससे वो लगातार प्रशासन के विरोध में कुछ न कुछ गतिविधियों को अंजाम देते रहे। उनका यह भी कहना है कि शाश्वती नॉर्थ-ईस्ट कम्युनिटी से संबंध रखती थीं, केजी जिसके प्रति अच्छी भावना नहीं रखते। इन्हीं सारी बातों के आधार पर उन्होंने शाश्वती को कैंपस और विभागाध्यक्ष के ऑफिस के बाहर का रास्ता दिखाया है।

सच्चाई क्या है, अब शायद इससे दिलचस्पी खत्म होती जा रही है। लगातार ऐसे लोगों को टार्गेट करना जो संस्थान के स्वयंभू सुर से अलग सुर रखते हों, इस धारणा को और पुष्ट करता जा रहा है संस्थान में एक साजिश के तहत विशेष विचारधारा और उसकी मान्यताओं का जबर्दस्ती प्रतिस्थापन का महाअभियान चल रहा है। संस्थान की अनेक मनमानियों पर इन शिक्षकों की चुप्पी भी अब इनके बचाव में काम नहीं आ रही है। सभी को डर है कि अगला नंबर किसका होगा। लोकतंत्र में अगर आपको अपनी खुद की विचारधारा से डर लगने लगे तो समझ जाइए कि लोकतंत्र वेंटीलेटर पर है। मुझे अब समझ आ रहा कि मुस्कुराहटों से भी डरना चाहिए क्योंकि मुस्कुराहट की कीमत पर कोई आपके लिए आंसुओं का इंतज़ाम कर रहा होता है। संस्थान में आने के बाद केजी साहब की मुस्कानें मनोहर लगती थीं, फिर धीरे-धीरे वही मुस्कान अमनोहर लगने लगीं, मतलब अमच-चैन हरने वालीं। संस्थान के चप्पे-चप्पे पर कैमरे लग गए। लाइब्रेरी में आज किसी के भी घुसने पर पाबंदी लग गई। साल भर तमाम तरह के फरमान सुनाई देते रहे।

हालांकि हमें इन सबसे क्या लेना-देना था। हमारी कक्षाएं नियमित चलती थीं, तमाम ज्ञानवर्धक कार्यक्रम होते रहते थे, हमारे लिए संस्थान में विशेष मनोचिकित्सक भी तैनात थे। सारी सुविधाएं तो थीं, हमें क्या प्रशासन के आंतरिक मामलों के चक्कर में पड़ना। जैसा कि हमारे ही अनेक सहपाठी बड़े शान से कहते हैं। वो तो यहां तक कहते हैं, शाश्वती को हटा दिया तो क्या हुआ, रोहिन को सस्पेंड कर दिया तो क्या हुआ, नरेन सिंह को निकाल दिया तो क्या हुआ, कोई और आएगा। हमें भी ऐसा ही सोचकर चुप-चाप किसी पीआर कंपनी को ज्वाइन कर अपने जीवन की समस्त चापलूसी की कला का सदुपयोग करना चाहिए, लेकिन ये सवाल दिखने में जितने सरल हैं उससे कहीं ज्यादा भयानक हैं। कभी इनके अलग-अलग परिणामों के तार पकड़कर जाएं तो अंतिम परिणाम पर आपकी रुह कांप जाएगी। इन सवालियों के लिए तथा इस तरह की घटना को देखकर चुप्पी साधकर अपने आपको सुरक्षित समझने वालों के लिए कोई भी ओपिनियन, कोई भी सलाह या कोई भी निवेदन देने की शायद मेरी कोई औकात नहीं है, बस उन्हें मैं लेख के अंत में नवाज देवबंदी साहब के इस शेर के साथ छोड़ जाना चाहता हूं जिसे वो समझ पाएं तो बेहतर है, उनके लिए भी, हमारे लिए भी, संस्थान के लिए भी और हिंदुस्तान के लिए भी कि-
जलते घर को देखने वालों फूस का छप्पर आपका है।
आग के पीछे तेज हवा है आगे मुकद्दर आपका है।
उसके क़त्ल पर मैं चुप था तो मेरा नंबर अब आया,
मेरे क़त्ल पर आप भी चुप हैं, अगला नंबर आपका है।             

Tuesday 13 June 2017

इस डायरी में समूचा 'मैं' लिपिबद्ध हूँ…

पॉजिटिविटी की अजीब सी लहर उठ रही है मन में आज। लग रहा है जैसे कोई बिछड़ा मौसम लौट आया हो। बहुत दिनों बाद आज डायरी खोली अपनी। दिल्ली आने के बाद जैसे नाता ही टूट गया था इससे, नहीं तो जब भी कोई नई कविता पूरी होती, तुरन्त वह डायरी में लिखी जाती थी। ऐसा करने के बाद मन में जो विजय, संतुष्टि और आनंद का भाव आता था न, कि बस अब क्या ही कहें।

आज फिर कई दिनों बाद मेरे पास  रेड,ब्लू,ग्रीन और ब्लैक पेन एक साथ दिखाई दिए। इन्हीं से मैं अपनी डायरी पर शब्द उकेरता हूँ। हर पैराग्राफ नई कलम से। रंगीन अक्षरों से सजी डायरी देखने में अच्छी लगती है। आज फिर मैंने कोशिश की कि जो कविताएं इधर लिखी गयी हैं, उन्हें डायरी पर अंकित कर ही दूं। मगर हाथ और कलम शायद एक दुसरे से रूठे हुए हैं। कई दिन भी तो हो गए हाथों में कलम थामें।

इन एक सालों के दरमियान अगर दो बार परीक्षाएं न देनी होतीं तो शायद साल भर इनसे कोई वास्ता न रहता। अब तो लिखने के सारे काम या तो मोबाइल के कीपैड से होता है या फिर लैपटॉप के। वक़्त के साथ पत्रकारिता के केवल संसाधन ही नहीं बदले हैं, बल्कि अब तो उनके नाम और उनकी परिभाषाओं तक के बदलने की नौबत आ गयी है। कई दिनों से टंकण पत्रकारिता की चर्चा इसी परिवर्तन की आहट है।

खैर, पत्रकारिता विमर्श लिखने का आज बिलकुल मूड नहीं है। आज तो मैं बस सूंघ रहा हूँ अपनी डायरी पर लिखे उन शब्दों को, जिनमें उस कविता के हर एहसास और उसके जन्म के वातावरण की खुशबू छिपी हुई है। आज तो बस देख रहा हूँ लाल , काले नीले अक्षर जिनमें उस दौर की स्मृतियाँ कैद हैं, और उस अक्षर के आस पास की सारी घटनाएं बयां कर रही हैं। आज तो बस मैं सुन रहा हूँ अपनी बीते दिनों की पीड़ा, ख़ुशी, आनंद, दुविधा, समाधान के स्वर उन शब्दों में, जिनको एक दिन तरतीब से एक छंद में ढालकर मैंने अपने इतिहास के निर्माण के लिए ईंटे तैयार की थीं।

इस डायरी को देखकर मुझे अजीब सी ख़ुशी मिलती है, क्योंकि इस डायरी में समूचा 'मैं' लिपिबद्ध हूँ। एक स्वच्छन्द 'मैं' लिपि'बद्ध' हूँ।

स्वाभिमान

नॉएडा सेक्टर 20, एक मंदिर के ठीक सामने एक छोटा सा पार्क है। बगल में एक कॉलोनी है, तो साफ़ है कि कॉलोनी वालों के लिए ही ये छोटी सी जगह निश्चित की गयी होगी। दिन भर रूम में अकेले पड़े रहकर बोर होने के बाद पाँव अनायास ही इस ओर बढ़े चले आए। आया तो मंदिर देखकर था, लेकिन मंदिर में गया ही नहीं।यहीं आकर बैठा हूँ शाम से। जब बात करने के लिए कोई न हो तो आस पास की हलचल से ही वार्तालाप करना मजबूरी हो जाती है।

यहाँ उस हलचल के नाम पर सिर्फ दो कोनें गुलज़ार हैं। मेरे सामने एक वृत्त की शक्ल में तकरीबन 6-7 लोग ताश खेल रहे हैं, बड़े ही शांतिपूर्ण ढंग से। मेरे पीछे तकरीबन 15-16 बच्चे एक छोटा सा हेलीकॉप्टर उड़ा रहे हैं। उनमें दो किसी संपन्न परिवार के बच्चे हैं। ये हेलीकॉप्टर उन्हीं का है। बाकी उस हेलीकॉप्टर के उड़ने पर उसके नीचे खड़े होकर उसे मुंह बाए देख रहे हैं। बच्चों के परिवार की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा उनके वस्त्र और उनके आचरण और उनकी भाषा भी देखकर साफ़ तौर पर लगाया जा सकता है।

एक के हाथ में रिमोट है, दूसरे का हाथ हेलिपैड बना हुआ है, हेलीकॉप्टर बार बार वहीं से उड़ान भर रहा है। नीचे बाकी के सभी बच्चे कौतूहल से उड़ते हेलीकॉप्टर को देख रहे हैं, खुश हो रहे हैं, उनमें एक वह बच्चा भी शामिल है जिसने चलने की कला शायद 1 महीने पहले ही सीखी होगी, मतलब ढाई या तीन साल का रहा होगा। जाने क्या उम्मीद है उन्हें, हेलीकॉप्टर की तरह आकाश छूने की या फिर हेलीकॉप्टर को एक बार छू लेने की। वैसे उनके मन में हीन भावना भी हो सकती है कि मेरे पास भी यह होना चाहिए। शायद आज उनके घर में रोटी और सब्जी के साथ होने वाले डिनर में इस बात पर विमर्श भी हो, जो उनके पिता की ऊंची और तीखी आवाज से खत्म भी हो जाए।

जो भी हो, लेकिन बच्चों ने भरपूर आनंद लिया। उन दो हेलीकॉप्टर के मालिकों के अलावा भी सारे बच्चों ने। उनमें एक नीली बनियान पहने हुए जो बच्चा था, वह शायद हेलीकॉप्टर को लेकर काफी उत्साहित था। उसके नीचे काफी उछल रहा था, बार बार हेलीकॉप्टर को
ही छूने की कोशिश करता हुआ। फिर अचानक हेलीकॉप्टर मालिक बच्चे ने जो स्वास्थ्य में भी उसका तीन गुना था, उसने उसे डाँट दिया - "बार बार हाथ क्यों लगाता है।" फिर क्या था, नीली बनियान वाले बच्चे ने इस खेल से कुछ भुनभुनाते हुए स्वतः विदाई ले ली।

स्वाभिमान, आत्मप्रतिष्ठा, खुद्दारी- ये भौतिक सुविधाओं या केवल संपन्नता के वातावरण में नहीं फलती फूलती हैं, ये इंसान के लहू की आग में पकती हैं, जिससे इंसान की इंसानियत, व्यक्ति का व्यक्तित्व सोने जैसा दमकता है।

Saturday 3 June 2017

' हम भी मीडिया से हैं'

उपलब्धियों में 'भ्रष्टाचार' की मिलावट तो आजकल आम बात है। देश के सबसे निचले स्तर का 'बहसबाज बुद्धिजीवी' भी इस बात पर बरगद-पीपल के पेड़ों के नीचे बहस करता आपको मिल जाएगा। ऐसे में कई दशकों बाद मीडिया उसी बहस को 'प्राइम टाइम' पर अब ला रही है, तो अब मुझे सोचने दीजिये कि बुद्धिजीविता की लेवलिंग लिस्ट में भारतीय मीडिया को मैं किस केटेगरी में रखूं। गणेश से सवाल करना उतना ही आसान था जितना उन सवालों का जवाब देना उसके लिए कठिन था। उसे गिरफ्तार करवाना भी उतना ही आसान था जितना कठिन था उसका यह बता पाना कि वह समस्तीपुर में कहां रहता था।

मीडिया को किस बात के लिए बधाई दूं! लगभग पढ़ाई छोड़ चुकने बाद 'सम्मानजनक' नौकरी आशा में उसके लिए आवश्यक डिग्री को पिछले दरवाजे से हासिल करने की कोशिश करने वाले उस छात्र के 'मानमर्दन' के लिए! इसके लिए तो नहीं है बधाई मेरे पास। हाँ, राजनेताओं की नज़र में इंसान की पूंछ की तरह बेकार छात्र समुदाय के भविष्य के साथ जुआ खेलने वाले उन उच्च स्तरीय 'अंक व्यापारियों' की गिरेबान खींचते आपका कोई रिपोर्टर दिखना छोड़िए, सुनने में भी आ जाय तो मेरा नतमस्तक शीश और आपका चैनल।

गणेश से पूछे गए सवालों के अलावा और भी हज़ारों सवाल हैं जो उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के सरकारी स्कूलों के वृक्षों के नीचे पड़ी कुर्सियों पर पड़े गुरुजनों के खर्राटों से उठती हैं। जो बिना डेस्क बेंच के चलने वाली क्लासों के सन्नाटों से उठती हैं। जो 10 गाँवों के बीच स्थित एक इंटर कॉलेज में ठूंसने की स्थिति तक की छात्रों की संख्या के कोलाहल से उठती हैं। जो धड़ाधड़ 5 कमरों वाले फ़र्ज़ी स्कूलों के इंटर कॉलेज की मान्यता के आदेशपत्रों से उठती हैं। जो शिक्षा के अवैध व्यापार को मौन मंजूरी देने वाली सियासी चुप्पी से उठती हैं। इन सवालों के लिए भी तो 'सबसे पहले हमारे चैनल पर' वाली प्रतिस्पर्धा रखिए। किस माहौल में छात्र गणेश और रूबी बन रहे हैं और क्यों बन रहे हैं, यह सवाल भी तो चैनल के स्क्रॉल पर लिखिए।
सवालों को लेकर यह भेदभाव क्यों है जनाब!

और सुनिए! मैं आपसे यह नहीं कहूंगा कि मेहनत करिए, और गणेश जैसे सॉफ्ट टारगेट को पकड़ने की बजाय उन धनपशुओं को पकड़िये जिनके लिए पैसा-रूपया इस देश के भविष्य की बर्बादी को भी इनका धर्म बना देता है। मैं आपसे ये भी नहीं कहूंगा कि क्षेत्रीय शिक्षा बोर्डों की 'अस्मिता' और उनके 'विश्वास' के साथ खिलवाड़ करना बंद कीजिए। इसलिए भी कि यह आप लोगों से होने वाला भी नहीं है।

आप लोगों से कहना बस इतना है कि टीआरपी और एक्सक्लुसिव खबरों के चलते 'मीडिया' की मूल आवश्यकता को मरने तो मत दीजिए। उसकी 'ताकत' के 'विश्वास' को आम जनता की ताकत बनाने की बजाय उसके लिए मनोरंजन की विषयवस्तु तो मत बनाइए। 'ब्रेकिंग न्यूज़' की पट्टी और प्राइम टाइम की प्रतिष्ठा का वजन थोड़ा तो बढ़ा दीजिए साहब, जिससे आम जनमानस का विश्वास नहीं, भ्रष्टाचारियों का तख़्त हिल सके,उनका ताज गिर सके। बस,इतना कर लीजिये, तो हम भी थोड़ा शीश उठाकर लोगों से कह पाएं कि ' हम भी मीडिया से हैं।'

Friday 2 June 2017

द्रविड़नाडुः यह अलगाववाद की नई आहट है

नई सरकार अब तीन साल पुरानी हो चुकी है। हाल ही में तीन साल पूरे होने का जश्न देश के अलग-अलग हिस्सों में मनाया गया। इस सरकार के आने के बाद से कुछ एक मुद्दे ऐसे हैं जो बार-बार मीडिया से लेकर संसद और सड़क तक अनावश्यक रुप से उछल कूद रहे हैं। इन सबके दुष्परिणाम की आशंका तो थी ही लेकिन इस आशंका के गर्भ में इस तरह की जटिल समस्या फन काढ़े प्रकट होगी, इसका अंदाजा भी किसी को नहीं था। लोगों के खान-पान और उनके सांस्कृतिक मामलों पर लगातार बढ़ रहे हस्तक्षेप से भयातुर होकर दक्षिण भारतीय गलियारे के एक खेमें ने एक बार फिर से अपने अलग देश द्रविड़नाडु की चर्चा छेड़ दी है। गैर-ब्राह्मणवादी विचारधारा की बुनियाद पर खड़े एक दक्षिण भारतीय संगठन ने जिस ‘द्रविड़नाडु’ की मांग दशकों पहले की थी, आज फिर वही शब्द सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा है। लोगों का कहना है कि अगर सरकार उन पर ब्राह्मणवादी संस्कृति थोपना चाहती है तो बेहतर होगा कि हमें स्वतंत्र कर दे। समुंदर किनारे से अलगाववाद की यह नई आहट है।

दरअसल ‘द्रविड़नाडु’ शब्द आजादी से पहले के वातावरण की उपज है। बात 1916 की है जब टीएम नायर और राव बहादुर त्यागराज शेट्टी दक्षिण भारतीय राजनीति में गैर-ब्राह्मणवादी राजनीति का सबसे सशक्त चेहरा बनकर उभरे थे। मद्रास प्रांत की 95 प्रतिशत जनसंख्या के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले एक गैर-ब्राह्मण संगठन ‘दक्षिण भारतीय उदारवादी संघ’ (South Indian LIberal Federation) की नींव रखी गई जो लोगों में ‘जस्टिस पार्टी’ के नाम से जानी जाने लगी।  नायर पार्टी के अध्यक्ष बनें और शेट्टी उपाध्यक्ष। पार्टी के प्रतिनिधित्व में ‘तमिल वल्लाल’, ‘मुदलियाल’ और ‘चेट्टियार’ के साथ साथ ‘तेलुगु रेड्डी’, ‘कम्मा’, ‘बलीचा’ ‘नायडू’ और ‘मलयाली नायर’ भी शामिल थे। इनका प्रारंभिक उद्देश्य कई प्रतिष्ठित और प्रशासनिक पदों पर डेरा जमाए ब्राह्मणों जिनकी संख्या प्रांत में 3 प्रतिशत के आस पास थी, उनका वर्चस्व कम करना तथा इन गैर-ब्राह्मण जातियों को उन पदों पर प्रतिनिधित्व दिलाना था।


पार्टी के सीएन मुदलियार, सर टीपी चेट्टी जैसे अनेक कार्यकर्ताओं ने बड़ी मेहनत की और जस्टिस पार्टी को एक राजनैतिक पार्टी के तौर पर स्थापित किया। पार्टी ने 1921 में पहली बार स्थानीय चुनाव लड़ा और जीत भी हासिल की। 1920 से लेकर 1937 तक सत्ता में रहने के बाद पार्टी ‘जस्टिस पार्टी’  से ‘द्रविड़ कड़गम’ हो गई। 1938 में पार्टी के अधिवेशन में द्रविड़ों के लिए एक अलग देश की मांग का मुद्दा उठा। सिर्फ इतना ही नहीं यह मांगपत्र उसी साल लंदन में बैठे ब्रिटिश साम्राज्य के प्रधान अधिकारियों तक पहुंचा दिया गया और कहा गया कि दक्षिण भारतीयों की पहचान उत्तर भारतीयों से काफी अलग है इसलिए उनके लिए व्यवस्थाएं अलग से की जाएं तो बेहतर होगा। 1940 में पेरियार ने ‘तमिल’, ‘तेलुगु’, ‘कन्नड़’ और ‘मलयालम’ यानी कि द्रविड़भाषी परिवारों के लिए अलग देश का नक्शा प्रस्तुत किया और द्रविड़ों के लिए अलग देश द्रविड़नाडु की मांग की। 40 से 60 के दशक में इस मांग ने खूब जोर पकड़ा था, लेकिन 1963 में नेहरु सरकार ने संविधान के 16वें संशोधन से इस मांग पर पूर्ण विराम लगा दिया। दरअसल इस संशोधन में यह प्रावधान था कि देश में संवैधानिक पदों पर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति या फिर संगठन को अखण्ड भारत की संप्रभुता की शपथ लेनी होगी। इस संशोधन ने देश में राजनीतिक दलों के लिए अलग देश की मांग को प्रतिबंधित कर दिया। फलस्वरुप जस्टिस पार्टी जैसे संगठनों को अपने संविधान में सुधार करना पड़ा और द्रविड़नाडु की मांग ठंडे बस्ते में चली गई।

सोशल मीडिया पर ही सही द्रविड़नाडु का जिन्न एक बार फिर से बोतल से बाहर आने को बेताब है। द्रविड़नाडु के समर्थक फिलहाल मोदी सरकार के रवैय्ये से दुखी हैं। हाल की कुछ घटनाओं ने उन्हे अपने ही देश में असुरक्षित महसूस कराया है। दक्षिण भारत में बीफ खाना सामान्य है। 2015 में अखलाक को और उसके बाद पहलू खां नाम के व्यक्ति को गोरक्षकों ने पीट पीटकर मार दिया। अभी कुछ दिनों पहले भुवनेश्वर में एक शख्स पर गोरक्षकों के हमलों की खबर मीडियो की सुर्खियों में थी। इन सारी घटनाओं ने दक्षिण भारतीय लोगों के मन में भय और निराशा का माहौल तैयार कर दिया है। इसके अलावा जस्टिस कर्णन के अपमान को भी द्रविड़ समुदाय ने उत्तर भारतीय जजों द्वारा एक दक्षिण भारतीय जज को अपमानित करने के तौर पर लिया है। हाल ही में जंतर-मंतर पर हुए तमिल किसानों के आंदोलन को जिस तरह से अनसुना किया गया था, इसको लेकर भी उन लोगों में काफी निराशा और नाराजगी है। उन्हे इन सारी घटनाओं से उत्तर भारतीय समुदाय द्वारा दक्षिण भारतीयों के साथ भेदभाव करने की गंध आती है। जाहिर है इसने मौजूदा सरकार की नाकामियों में एक नया अध्याय जोड़ा है। तथाकथित राष्ट्रवाद के मुद्दे को चुनावी हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने वाली सरकार का राष्ट्रवाद अब इस राष्ट्र की अखण्डता पर खतरा बनता जा रहा है।

तीन साल की मोदी सरकार में भ्रष्टाचार हुआ हो या न हुआ हो, अच्छे दिन आए हों या न आए हों लेकिन पिछले कई दशकों का सूखा हुआ अलगाववाद का यह वृक्ष फिर से हरा होने को तैयार है। देश भर में एक विशेष संस्कृति थोपने के अभियान ने देश की अखण्डता की मजबूती में दरारें लानी शुरु कर दी है। मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से देश के आम नागरिकों के दिमाग में उन्माद और नफरत का जो कूड़ा भरा जा रहा था उसने अपना असर दिखाना शायद शुरु कर दिया है। कश्मीर मुद्दा अभी सुलझा नहीं, पूर्वोत्तर की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है। ऐसे में भारत के भौगोलिक संरचना के लिए बड़ी चुनौती के रुप में एक नई समस्या के प्रादुर्भाव को गंभीरता से लेना हमारे लिए बहुत जरुरी है। सामाजिक और धार्मिक तनाव किसी भी देश की अखंडता की तबियत बिगाड़ सकते हैं। बहुसांस्कृतिक राष्ट्र के तौर पर भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा है। अनेक धर्मों और संस्कृतियों के लोगों से मिलकर इस देश का निर्माण होता है। ऐसे में सामाजिक तारतम्य बनाए रखने के लिए जहां विखण्डनकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाना बेहद जरुरी है वहीं समाज में प्रेम, सौहार्द और भाइचारे की भावना को बढ़ावा दिए जाने की भी जरुरत है। लोगों में ‘हम’ और ‘हमारा’ की चेतना विकसित करने की आवश्यकता है न कि ‘मैं’ और ‘मेरा’ की। हालांकि सोशल मीडिया पर उठ रही अलग देश की मांग वाली इस आवाज की शक्ति अभी बहुत कमजोर है, लेकिन वर्तमान माहौल अगर इसी तरह का बना रहा तो जिस तरह से यह इस प्रकार की विखण्डनकारी मानसिकता को विचारों में ही सही जन्म दे सकती है उसी तरह यह उसे खतरनाक स्तर तक शक्तिशाली भी बना सकती है, इसमें कोई दो राय नहीं है।

बोलता हिंदुस्तान में प्रकाशित

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...