Tuesday 13 June 2017

इस डायरी में समूचा 'मैं' लिपिबद्ध हूँ…

पॉजिटिविटी की अजीब सी लहर उठ रही है मन में आज। लग रहा है जैसे कोई बिछड़ा मौसम लौट आया हो। बहुत दिनों बाद आज डायरी खोली अपनी। दिल्ली आने के बाद जैसे नाता ही टूट गया था इससे, नहीं तो जब भी कोई नई कविता पूरी होती, तुरन्त वह डायरी में लिखी जाती थी। ऐसा करने के बाद मन में जो विजय, संतुष्टि और आनंद का भाव आता था न, कि बस अब क्या ही कहें।

आज फिर कई दिनों बाद मेरे पास  रेड,ब्लू,ग्रीन और ब्लैक पेन एक साथ दिखाई दिए। इन्हीं से मैं अपनी डायरी पर शब्द उकेरता हूँ। हर पैराग्राफ नई कलम से। रंगीन अक्षरों से सजी डायरी देखने में अच्छी लगती है। आज फिर मैंने कोशिश की कि जो कविताएं इधर लिखी गयी हैं, उन्हें डायरी पर अंकित कर ही दूं। मगर हाथ और कलम शायद एक दुसरे से रूठे हुए हैं। कई दिन भी तो हो गए हाथों में कलम थामें।

इन एक सालों के दरमियान अगर दो बार परीक्षाएं न देनी होतीं तो शायद साल भर इनसे कोई वास्ता न रहता। अब तो लिखने के सारे काम या तो मोबाइल के कीपैड से होता है या फिर लैपटॉप के। वक़्त के साथ पत्रकारिता के केवल संसाधन ही नहीं बदले हैं, बल्कि अब तो उनके नाम और उनकी परिभाषाओं तक के बदलने की नौबत आ गयी है। कई दिनों से टंकण पत्रकारिता की चर्चा इसी परिवर्तन की आहट है।

खैर, पत्रकारिता विमर्श लिखने का आज बिलकुल मूड नहीं है। आज तो मैं बस सूंघ रहा हूँ अपनी डायरी पर लिखे उन शब्दों को, जिनमें उस कविता के हर एहसास और उसके जन्म के वातावरण की खुशबू छिपी हुई है। आज तो बस देख रहा हूँ लाल , काले नीले अक्षर जिनमें उस दौर की स्मृतियाँ कैद हैं, और उस अक्षर के आस पास की सारी घटनाएं बयां कर रही हैं। आज तो बस मैं सुन रहा हूँ अपनी बीते दिनों की पीड़ा, ख़ुशी, आनंद, दुविधा, समाधान के स्वर उन शब्दों में, जिनको एक दिन तरतीब से एक छंद में ढालकर मैंने अपने इतिहास के निर्माण के लिए ईंटे तैयार की थीं।

इस डायरी को देखकर मुझे अजीब सी ख़ुशी मिलती है, क्योंकि इस डायरी में समूचा 'मैं' लिपिबद्ध हूँ। एक स्वच्छन्द 'मैं' लिपि'बद्ध' हूँ।

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