Sunday 18 June 2017

खेल को खेल रहने दीजिए

खेल-कला-साहित्य-सिनेमा, आधुनिक विश्व की ये संस्कृतियां वैश्विक एकात्म्य की आखिरी उम्मीद हैं। खेल भावना पर सीमाजनित राष्ट्रवाद थोपकर इस आशा की हत्या का प्रयास सफल होने देना है या नहीं, यह हमें और आपको सोचना है।

भारत-पाकिस्तान से जब भी क्रिकेट मैच की बारी आती है, पूरा देश एक विचित्र प्रतिद्वंदिता में लग जाता है जिसमें नफरत की गंध साफ़ महसूस की जा सकती है। न्यूज़ स्टूडियोज़ जंग के मैदान बन जाते हैं। बुलेटिन के नाम डराने लगते हैं। एंकर की भाषा यूं होती है कि उसे इस त्रिभुजाकार देश की सीमाओं से बाहर ही नहीं जाने देना चाहिए। जनभावना अनावश्यक रूप से कुछ लोगों के बयान और उनकी भाषाओं को एक तीखापन दे जाती हैं। तनाव, आशंका और डर सारे देश को अपने पंजे में जकड़ लेता है, और फिर यहीं मर जाती है, खेल की मूल भावना, खेल का मुख्य उद्देश्य, खेल की मूल प्रकृति।

अपने देश से हर कोई मोहब्बत करता है। मोहब्बत कभी अलगाव का कारण नहीं बनती। अगर ऐसा होता है तो वो मोहब्बत नहीं, वो जबर्दस्ती का एक नाटक है, जो दिल से नहीं दिमाग से उपजता है। मैदान पर जब अलग अलग रंगों की जर्सी पहने अलग अलग देश की टीमें उतरती हैं तो वो दो देश नहीं होतीं, वो सिर्फ दो टीमें होती हैं। हर कोई अच्छी चीजों को पसंद करने का आदी होता है। जो भी टीम अच्छा खेले उसका समर्थन, उससे मोहब्बत करना, यही तो खेल-संस्कृति है। खेल कोई जंग नहीं है। यह उन कुछ उन्मादी लोगों की कुंठा की वजह से युद्धजन्य तनाव और भय के वातावरण में बदल जाती है जिन्हें इसे भुनाकर अपनी दुकान चलानी होती है।

इसलिए बचकर रहिएगा। खेल कोई भी हो, जीतेगा वही, जो अच्छा खेलेगा। कौन किसका बाप है, कौन किसका नाती, ये चीजें खेल का परिणाम निर्धारित नहीं करतीं। इंडियन क्रिकेट टीम के आधे से अधिक खिलाडियों की प्रदर्शन दर दुनिया भर के क्रिकेट खिलाड़ियों में सबसे बेहतर थीं, लेकिन आज पाकिस्तानी खिलाडियों के समर्पित और कसे हुए प्रदर्शन के आगे सभी बेकार साबित हुए। इसमें भारतीय टीम की कोई गलती नहीं कि वो गालियाँ सुनें। खेल है, बाज़ी कभी भी पलट सकती है। कोई भी अजेय तो नहीं है। जिसने अच्छा खेला, उसकी प्रसंशा के बीच अहंकार या नफरत तो नहीं ही आनी चाहिए।

बैट या फिर हॉकी पकड़ने वाले ख़िलाड़ी गर्दन नहीं काटते। वो बस खेलना जानते हैं। जो खिलाडी होते हैं उन्हें हार-जीत से खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि खेल-प्रशिक्षण की प्रक्रिया में हार को स्वीकार कर उससे सीखने का एक महत्वपूर्ण अध्याय होता है। इसलिए हार न तो प्रतिष्ठा पर प्रहार है और न ही जीत सदैव सम्राट रहने का चिर आश्वासन है। अनिश्चितताएं एक रोमांचक खेल की महत्वपूर्ण आवश्यकता हैं। मायने रखने वाली बात ये है कि किसी हार से आप कुछ सीखते हैं या फिर टूटते हैं।

ऐसे दौर में जब धार्मिकता का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो चुका हो, सामाजिकता का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो चुका हो तब खेल को राजनैतिक कुचक्र से बचकर रखना न सिर्फ खिलाडियों के लिए बल्कि खेलप्रेमियों के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। हर चीज़ अपने नियत स्थान पर ही अच्छी लगतीं हैं। खेल को खेल रहने दीजिए। उसमें राजनीति मिलाकर उसका स्वरुप मत बिगाड़िये। नफरत जितनी हो सके कम करना है, मोहब्बत जितना हो सके बढ़ाना है। मोहब्बत बढ़ाने का जतन करिए, नफरत के परिणाम तो हमने कई बार देखे और भुगते हैं ही।

No comments:

Post a Comment

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...