Wednesday 31 March 2021

बहस पर थोड़ी बहस


बहस-मुबाहिसा मानव समाज से बहुत गहरे जुड़े हैं। मानव संस्कृति और संचार में अटूट संबंध है। इंसान संचार करता है तो बहस भी करता है। अंग्रेजी के कम्युनिकेशन को हिंदी में साधारीकरण कहा गया। विद्वानों ने बताया कि यह शब्द ही अंग्रेजी के कॉमन, कम्युनिस, कम्युनिकेशन को तकरीबन-तकरीबन अभिव्यक्त कर पाता है। यह सही भी है। हमारे संचार का प्रमुख उद्देश्य एक कॉमन ग्राउंड ही खोजना तो है, जहां पर हम सहमत हों। जहां पर हम विभिन्न धरातलों से उतर-चढ़कर एक साथ खड़े हो सकते हैं। किसी भी विषयवस्तु का सही अर्थ निर्धारण कर सकते हैं। 

आज के समय में संचार का यह स्वरूप सिर्फ परिभाषाओं की बात हो गई है। यह सिर्फ सिद्धांत की बात है। व्यवहारिकता में इसका स्वरूप बहुत ज्यादा भिन्न है। व्यवहारिकता में मानव समाज का किसी पर प्रभुत्व स्थापित करने का आदिम चरित्र संचार को न सिर्फ प्रभावित करता है बल्कि साधारीकरण का विशिष्टीकरण कर एकतरफा, पक्षपातपूर्ण और अन्यायपूर्ण समाधान सामने रखता है।

क्यों जरूरी है वाद-विवाद?

यह ऐसा दौर है, जब विमर्श या बहस को लेकर लोगों के मन में कोई सकारात्मक या अच्छी भावना नहीं है। लोग इससे बचते नजर आते हैं। एक समय में मैं इसके खिलाफ था कि बहस-विमर्शों से भागना नहीं चाहिए। उनसे आमना-सामना करना चाहिए। इससे न सिर्फ ज्ञान की बढ़त होती है बल्कि विचारों के आदान-प्रदान से कोई न्यायपूर्ण और सर्वमान्य बात निकलकर सामने आती है। कोई भी किसी भी विषय पर संपूर्ण जानकारी नहीं रखता है। 

बहसों से यह संभावना होती है कि सूचनाओं, जानकारियों के आदान-प्रदान से ज्ञान की दिशा में प्रगति का मार्ग खुले। हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'अनामदास का पोथा' में रैक्व आख्यान के संदर्भ में इससे जुड़ी एक महत्वपूर्ण बात कही गई है। रैक्व के पास निजी साधना की बदौलत काफी ज्ञान है लेकिन उसका सामाजिक संपर्क शून्य है। संचार की अनुपस्थिति के कारण वह अपने ज्ञान को ही अंतिम सत्य मानने लगता है। फिर उसे शुभा मिलती है और उसे लगता है कि वह कुछ नहीं जानता बल्कि जो कुछ भी जानती है वह शुभा जानती है। 

विचारों का परिष्कार

रैक्व अपने गुरू से मिलते हैं। उनका यह कहना होता है कि रैक्व को ज्ञान तो पर्याप्त है लेकिन अन्य विद्वानों की संगत से, विचार-विमर्श करके, बहस करके, उन्होंने अपने ज्ञान का कसौटी पर परीक्षण नहीं किया है। उसे कसौटी पर नहीं कसा है। अगर वह ऐसा कर पाते, तो उनका ज्ञान किसी परिष्कृत रत्न की तरह होता, जो अभी एक अनगढ़ रत्न के रूप में है। कहने का अर्थ यह है कि सामाजिक या फिर व्यक्तिगत (या फिर आत्मिक ही) संवाद से ज्ञान का परिष्कार होता है। उसमें न सिर्फ शुद्धता आती है बल्कि वह ज्यादा प्रामाणिक  और साधारणीकरण की ओर बढ़ता जाता है। बहस-विमर्श इसलिए भी जरूरी होते हैं। 

बहसों में उग्रता

मौजूदा समय के विमर्शों को देखें तो अंतरवैयक्तिक संचार में भी (व्यक्ति-व्यक्ति के संचार में भी) एकतरफा यानी कि वन-वे कम्युनिकेशन के दृश्य दिखते हैं। द्विपक्षीय बहस में प्रभुता की यह भावना और उग्रता संचार की भाषा में 'नॉइज़' या फिर शोर ही है, जो किसी भी संदेश को न तो ठीक तरह से संप्रेषित कर पाती है और न ही बहस को किसी सर्वमान्य निष्कर्ष पर ही पहुंचने देती है। मेरे व्यक्तिगत अनुभव ने भी इस वक्त में बहसों से बचने की वकालत की है, जबकि मेरा पहले ऐसा मानना नहीं था। 

हो सकता है कि अपनी बात रखने का मेरा कौशल इतना बढ़िया न हो और इसलिए ही मैं बहस-विमर्श के खिलाफ ये बातें कह रहा हूं। लेकिन, इसके इतर भी किसी विषय पर बहस के दौरान जो मैंने महसूस किया है, वह मेरी धारणा को मजबूती देती है। (एक बात यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरा जो भी विरोध है, वह बहस की मौजूदा खास तरीके की शैली के खिलाफ है। मैं बहस-विमर्श और संवाद की सनातन प्रक्रिया का विरोध न तो कर रहा हूं और न ही करना चाहता हूं। बहस एक संवेदनापूर्ण ज्ञानी और स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज के लिए बेहद आवश्यक चीज होती है।)

मौजूदा बहस-विमर्श की नकारात्मक बातें

मौजूदा समय में बहसों के मंच के रूप में विभिन्न प्रकार की डिबेट प्रतियोगिताओं, टीवी चैनलों के कार्यक्रमों या संसद-विधानसभाओं की कार्यवाही को देखा जा सकता है। इनमें बहस का जो सबसे विद्रूप पर्यावरण दिखता है, वह टीवी चैनलों की डिबेटों में दिखता है। संसद की कार्यवाही के दौरान बहसों में अभी सभ्यता देखी जा सकती है और उसका कारण सदन की कार्यवाही के लिए पहले से स्थापित नियम-कायदे हैं। 

हालांकि, वहां पर बहस भी किसी मुद्दे पर फैसले को प्रभावित करने में हमेशा सफल नहीं होता। वहां बहसों से इतर बहुमत की राजनीति है, जो अंत में किसी प्रभुत्वशाली न्यायाधीश की तरह तय कर देती है कि क्या सही है और क्या गलत? इसके बाद बहस की सारी प्रक्रिया बेमानी हो जाती है। हाल ही में भारतीय संसद में कृषि कानूनों को पास कराने को लेकर राज्यसभा में जो स्थिति बनी, वह इस बात को काफी हद तक समझा देती है।

टीवी चैनलों के डिबेट

टीवी चैनलों के डिबेटों को लोगों ने अब खारिज करना शुरू कर दिया है। इसका कारण है कि वहां अलग-अलग 'पेंडुलमी' राजनीतिक विचारधाराओं के लोगों के बीच युद्ध जैसे माहौल के बावजूद कोई सार्थक निष्कर्ष निकलकर सामने नहीं आता। एक कारण यह भी है कि उस बहस का उद्देश्य शुद्ध रूप से व्यावसायिक है, जिसमें इस तरह के निष्कर्षों का महत्व भी स्वीकार नहीं किया जाता। लिहाजा, वहां ज्यादा से ज्यादा शोर को प्राथमिकता दी जाती है और संचार के विद्यार्थी जानते हैं कि किसी भी संवाद में शोर सिर्फ बाधा है, जिसका काम संदेशों को सही तरीके से रिसीवर तक नहीं पहुंचने देना होता है।


डिबेट प्रतियोगिताएं बहस की ठीक संस्कृति का पालन करती दिखती हैं लेकिन वह किसी निर्णायक भूमिका के रूप में एकदम से अप्रभावी होती हैं। उनका किसी भी परिवर्तन में कोई योगदान नहीं होता बल्कि वह एक अकादमिक कौशल विकसति करने का महज साधन भर हैं। इसमें लोगों को तार्किक अभिव्यक्ति और चिंतन-मंथन की प्रक्रिया को सीखने का अवसर दिया जा सकता है, इससे कोई क्रांति या कोई ठोस प्रभावी निष्कर्ष नहीं लाया जा सकता।

सोशल मीडिया का संवाद

बहस का जो तीसरा और आधुनिक मंच है, वह है सोशल मीडिया। सोशल मीडिया पर कई तरह के प्लैटफॉर्म हैं, जहां पर किसी भी विषय को लेकर वाद-विवाद किया जा सकता है। यहां फीडबैक देने की व्यवस्था है। टू-वे कम्युनिकेशन का भी विकल्प है लेकिन यहां भी प्रत्युत्तर या कहें कि प्रतिवाद के मौके बेहद नियंत्रित और सीमित हैं। फेसबुक-ट्विटर पर कोई भी किसी भी मुद्दे पर अपनी राय रख सकता है लेकिन अगर उस पर असहमति आती है तो कहने वाला इस असहमति का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं है। वह असहमति जताने वाले को 'ट्रोल' कर सकता है, ब्लॉक कर सकता है, या फिर कोई जवाब नहीं देने का भी फैसला कर सकता है। हालांकि, फिर भी यहां स्वस्थ बहस की काफी संभावना है।

यूट्यूब पर भी बहस का एक स्वस्थ वातावरण बनाया जा सकता है लेकिन यहां भी फीडबैक या प्रतिक्रिया के लिए स्वतंत्रता बहुत अधिक नहीं है। बढ़ती बेरोजगारी के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेडियो कार्यक्रम 'मन की बात' को कई यूजर्स ने डिसलाइक कर अपना विरोध जताने की कोशिश की थी। बाद में कार्यक्रम के आधिकारिक चैनल ने यह विकल्प ही बंद कर दिया। इस प्रकार से हम देखते हैं कि यहां भी एकतरफा संचार का ही बोलबाला है। 

संचार में रिसीवर का गायब होना

आधुनिक बहसों खासतौर पर समाज में पृथक-पृथक समूहों के बीच या व्यक्ति-व्यक्ति के बीच या टीवी चैनलों पर बहसों की सबसे बड़ी समस्या ये है कि यहां से 'रिसीवर' गायब है। आमतौर पर संचार की प्रक्रिया तीन बिंदुओं से संपन्न होती है। एक सोर्स, जिससे संदेश प्रेषित किया जाता है। एक मैसेज जो भेजा जाता है और एक रिसीवर, जो कि संदेशों को सुनता है। यह प्रक्रिया दोनों ओर से होती है। यानी कि प्रेषक प्रापक भी होता है और फिर प्रापक प्रेषक भी हो जाता है। यह टू-वे कम्युनिकेशन की व्यवस्था है, जो किसी विषय पर किसी निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए की जाती है। या कह लें कि साधारीकरण की ओर ले जाती है। लोकतंत्र की नींव में इस प्रकार के संवादों और विमर्शों का महत्व है। 

मौजूदा समय के ज्यादातर बहसों में रिसीवर अनुपस्थित है और हर कोई ही स्पीकर यानी कि सोर्स यानी कि प्रेषक बना हुआ है। सबसे पास बोलने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन सुनने के लिए बिल्कुल भी धैर्य नहीं है। सुनना भी ऐसा नहीं कि सिर्फ कान की स्वर-तंत्रिया फड़फड़ाकर रह जाएं और हमने सुने हुए को अपने चिंतन-मंथन की फैक्ट्री में डाला ही नहीं।

स्क्रिप्टेड वन-वे कम्युनिकेशन

आजकल के संवाद की यह सबसे बड़ी समस्या है, जो समाज में सबसे निचले स्तर से लेकर राजनीति के सबसे ऊंचे स्तर पर बैठे लोगों तक में आसानी से देखा-महसूस किया जा सकता है। संवाद के नाम पर स्क्रिप्टेड कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। एकतरफा संवाद के प्रोग्राम तय किए जाते हैं। लोग केवल बोलना चाहते हैं। श्रोता अगर कोई है तो सिर्फ इसलिए कि वह या तो कमजोर है या फिर मजबूर। राजनीतिक कारणों के अलावा अन्य विषयों पर भी सुने न जाने के कई अभिशाप हमारे समाज में आए दिन सामने भी आते रहते हैं। 

संचार के अलग-अलग माध्यमों (फेसबुक, ट्विटर इत्यादि) पर बहसों की हालत देखकर मैंने तय किया था कि बहसों में हिस्सा न लेने की कोशिश करना है। हालांकि, यह सोच मूल तौर पर लोकतांत्रिक नागरिक के अनुकूल नहीं माना जा सकता लेकिन निजी मानसिक स्वास्थ्य और शांति की आशा में यह फैसला लिया गया। लेकिन अगर आप समाज में रहते हैं तो आप इससे बचकर नहीं रह सकते। 

केवल सुनने का नुकसान

एक बार मैं किसी विषय पर 'बहस में फंस गया' था। चूंकि मैं संचार के सिद्धांतों को जानता हूं और मैं उस खास विषय पर किसी निष्कर्ष पर भी पहुंचना चाहता था, इसलिए मैंने सोचा कि सामने वाले को सुनना जरूरी है और फिर उसके आधार पर जवाब दिया जाएगा। काफी देर की बहस के बाद मुझे लगा कि यह फैसला गलत था। कारण कि इस तरह की बहसों में अब सुने जाने वाले लोगों की कोई जगह नहीं है। मैं सुन रहा था तो सामने वाले की बात ही खत्म नहीं होती थी। उसे लगा कि सामने वाला सुन रहा है तो इसका मतलब कि उसके पास कोई ठोस तर्क नहीं बचा।

बहसः जंग का मैदान

इस मानसिकता के कई कारण हैं। एक तो आजकल की बहसों को जीत-हार के सांचों में ढालकर देखा जाने लगा है। दूसरा, लोगों अपने वाद को जस्टिफाई करने और अपने फ्रेम ऑफ रिफरेंस को अंतिम सत्य मानकर उसका आवरण सामने वाले पर चढ़ाने की कोशिश के लिए बहस करते हैं। वह किसी एक मान्य निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहते। ज्ञान या जानकारी इन बहसों का उद्देश्य नहीं रहा बल्कि अपनी स्थापित धारणाओं, पूर्वाग्रहों और अपने समर्थन की विचारधाराओं का प्रभाव छोड़ देने का दुराग्रह इन संवादों का केंद्रीय उद्देश्य बन गया है। इसके अलावा अधकचरा जानकारियों को सत्यापित करने की कोशिश की जाती है। उसे इज्जत का सवाल बना लिया जाता है।

बहस के दौरान धैर्य और सहनशीलता की कमी भी एक प्रकार की बाधा की भूमिका निभाती है। अगर आप किसी को सुनने की शक्ति नहीं दिखाते या इसकी कोशिश भी नहीं करते तो यह एक प्रकार से आपकी अधिनायकवादी मानसिकता को उजागर करती है। बहस को लेकर मैं अपना अनुभव बता रहा था, जिसमें मैंने यह फैसला किया कि किसी भी राजनीतिक या किसी भी प्रकार के मुद्दे पर किसी से भी बहस करने लगने से बचना है। 

मैं जिससे बहस कर रहा था, मैं उसकी एक भी बात से सहमत नहीं था क्योंकि उनके विचारों का सोर्स बहुत अस्पष्ट और अनुमान पर आधारित था। फिर भी मुझे लगा कि इसे सुनना चाहिए। बहसों में आपको कई चीजें अनुमान के आधार पर कहनी पड़ती हैं। अकादमिक सिद्धांतों और सामाजिक बहसों में यही अंतर है। बहसों में आप भावनात्मक हो सकते हैं, अकादमिक जानकारियों या सिद्धांतों के शिल्प में इनकी कोई जगह नहीं होती।

हमने उस बहस में सामने वाले के विचारों को सुनने का फैसला किया। थोड़ी देर बाद यह समझ में आया कि मेरा विपक्षी इसे एक युद्ध की तरह ले रहा है और उसे लग रहा है कि मैं उसे सुन रहा हूं तो इसका मतलब है कि मेरे पास उसके तर्क(?) को काटने के लिए कुछ भी नहीं है और उसने मुझे लाजवाब कर दिया है। मुझे जब इसका भान हुआ तो मैंने अपनी बात कहनी शुरू की। इस पर उसकी आवाज बुलंद हो गई। जैसे वह मेरी आवाज को कुचल देना चाहता हो। 

इस तरह की बहस में अगर आप सुनने का फैसला करते हैं तो आपको असीम धैर्य रखना ही होगा। हो सकता है कि इन बहसों में आपको अपनी बात भी न रखनी पड़े। इससे फायदा इतना हो सकता है कि आप सिर्फ एक विचार बना सकते हैं कि उस विशेष विषय पर और क्या-क्या सोचा जा रहा है। आप अपने विरोधी को सुनने लगेंगे तो वह सिर्फ आपको सुनाता जाएगा। आपको बोलने ही नहीं देगा। आप इंतजार करते रह जाएंगे और फिर थोड़ी देर बाद ही सामने वाला अपनी जीत की घोषणा कर देगा और आप अपने तमाम तर्कों और विचारों के साथ उसके सामने सरेंडर को विवश हो जाएंगे।

मानसिक विभाजन का युग

यह एक प्रकार के बहस की बात है। इसी तरह के कई और भी डिबेट के विषय हैं, जिस पर संवाद की कोई गुंजाइश नहीं बचती। कट्टरपंथी विचारकों के साथ आपको अक्सर ऐसा अनुभव होगा। लोग अपनी धारणाओं से बाहर नहीं आना चाहते। अगर कोई लाना चाहता है तो उसका पुरजोर विरोध करते हैं। इसका नुकसान ये है कि इन सबमें सत्य और असत्य के बीच की रेखा मिटती जा रही है। दोनों एक-दूसरे में मिलकर खिचड़ी होते जा रहे हैं। हर किसी का पक्ष सत्य लगता है और हर किसी का पक्ष असत्य भी लगता है। 

ऐसा लगता है कि विश्व के भौगोलिक विभाजन के बाद आने वाली सदियों में मानसिक विभाजन के साथ एक ही देश में कई प्रकार के वैचारिक राष्ट्र बन जाएंगे। और राष्ट्रवाद में तो किसी भी प्रकार के तर्क-बहस आदि का सख्त निषेध होता ही है। मानव सभ्यता में कई स्तरों का यह विभाजन दुनिया की जाने कौन सी सूरत बनाएगा? 

Tuesday 23 March 2021

व्यंग्यः 'कड़ी निंदा' कितनी कड़ी होती है?


हम उस युग में हैं जिसमें निंदा एक मुख्य प्रतिभा है। हर किसी में यह प्रतिभा होनी वैसे ही ज़रूरी है, जैसे शरीर में मल का बनते रहना। किसी में भी अगर निंदा भाव नहीं है तो वह आदमी स्वस्थ तो नहीं ही माना जा सकता। निर्णय क्षमता के वैयक्तिक गुणों के अवसान के इस दौर में निंदा क्षमता बौद्धिकता और सार्थक परिवर्तनों के लिए ज्यादा आवश्यक है। यह ज़रूरी नहीं कि फैसला लेने में किसी प्रकार की बौद्धिकता या विवेक का सहारा लिया गया हो लेकिन यह बेहद ज़रूरी है कि व्यक्ति अपना समस्त विवेक, बुद्धि और ज्ञान निंदा करने में लगाए।

सरकार की किसी लोकप्रिय नीति की निंदा करने वाले एक सज्जन से मैंने पूछ लिया कि अगर आप सरकार होते तो इस नीति को कैसे लागू करते? वह बोले, 'मैंने कभी किसी नीति के निर्माण को लेकर सोचा ही नहीं है। मेरा अभ्यास ही नहीं है कि मैं कोई नया फैसला या नीति सृजित करूं। हां, यह ज़रूर है कि अगर कोई फैसला ले लिया गया है, या कोई नीति बनाई जा चुकी है तो मैं उसमें यह बता सकता हूँ कि कहां पर ऐसा नहीं होना चाहिए था और कहां पर ऐसा होना चाहिए था। हम स्वतन्त्र रूप से कोई फैसला जारी नहीं करते बल्कि फैसलों में तोड़-फोड़ कर उसे दुरुस्त करने का खूब हुनर रखते हैं।' ऐसे फैसला-मिस्त्री के 'पुनर्निर्माणक' विचार सुनने के बाद ही मुझे ख्याल आया कि आधुनिक युग कितना ज्यादा आधुनिक हो गया है।

यह ऐसा युग है कि समाज अब निंदा के लिए फैसले या नीतियों के बनने का इंतज़ार भी नहीं करना चाहता। कई बार तो निंदाएं पहले आती हैं और फैसले बाद में लिए जाते हैं। ऐसा भी हुआ कि निंदा से प्रेरित होकर फैसले ले लिए गए। एक ज़माना था जब कहा जाता था कि कोई भी फैसला सोच-विचार कर लेना चाहिए। अब कम से कम फैसलों के बारे में तो ऐसा नहीं कहा जाता है। जिस तरह से निंदा फैसलों के लिए प्रेरणा बनती जा रही है, वैसी हालत में आने वाले दिनों में समझदार लोग यह नसीहत देते पाए जाएंगे कि कोई भी निंदा सोच-समझकर करनी चाहिए। यह निंदात्मक क्रिया का स्वर्ण काल होगा और निर्णयात्मक क्रिया का कोयला काल।

त्वरित प्रतिक्रिया के इस दौर में निंदा साहित्य लिखे-लिखाए रखे गए हैं। 'यह संस्कृति के खिलाफ है', 'यह मानवता के खिलाफ है', 'यह राष्ट्र के खिलाफ है', 'यह लोकतंत्र के खिलाफ है', जैसे वाक्यांशों को लोगों ने अपनी बुद्धि के पत्थर पर खुदवा रक्खे हैं। दिलचस्प ये है कि 'लोकतंत्र के खिलाफ है' कहने के लिए यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं है कि आप लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विश्वास रखते हों। गांधी के पुतले को गोली मारने वाले लोग राजघाट पर फूल बेचते हुए शांति-अहिंसा को राष्ट्र के खिलाफ बता सकते हैं। कभी-कभी लगता है कि संविधान में वर्णित 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उतनी नहीं है जितनी की निंदा की स्वतंत्रता है। कोई भी, किसी की भी, कभी भी, किसी बात पर भी, किसी भाषा में भी, (किसी मुंह से भी) निंदा कर सकता है।

निंदा के तीर आलोचना के खोल में इधर से उधर, उधर से इधर खूब तैर रहे हैं। वे एक दूसरे को काटते नहीं हैं। टीवी में देखा होगा कि इधर से अर्जुन ने तीर चलाया। उधर से कर्ण ने। दोनों तीर एक-दूसरे से लड़कर खत्म हो गए। निंदा के तीर ऐसे नहीं चलते। वे कभी एक दूसरे के बगल से निकल जाते हैं। कभी ऊपर-नीचे से लेकिन कभी एक दूसरे को काटते नहीं हैं क्योंकि काटना इनका उद्देश्य होता भी नहीं है। इन तीरों की शक्ल कभी-कभी कुछ ऐसी समान होती है कि समझ ही नहीं  आता कि इसे अर्जुन ने छोड़ा है या कर्ण ने। 

निंदा के अश्वत्थामा

निंदा के तीरों का कुरुक्षेत्र बहुत विशाल है। कोई जयद्रथ की भाषा में निंदक है तो कोई शिखंडी बना हुआ है। फिर अश्वत्थामा जैसा दुख लिए भी लोग घूम रहे हैं कि योग्य तो सबसे ज्यादा मैं था। फिर भी सेनापति क्यों नहीं बना। ऐसे लोग अपने स्वामियों को प्रसन्न रखने के लिए अबोध बच्चों का शीश काटने से भी बिल्कुल गुरेज़ नहीं करते। बल्कि इनके दुर्योधन तक बाद में इनके जघन्य कर्मों पर पश्चात्ताप करते प्राण त्याग देते हैं। निंदा का ऐसा अश्वत्थामा अपने माथे से समालोचना की मणि निकालकर सदैव-सदैव के लिए जीवित रहने को अभिशप्त है।

निंदा का साहित्य

कभी कभी लगता है कि हिंदी लिटरेचर के हिंदी 'साहित्य' नामकरण के समय विद्वानों ने इसकी निंदा धनी प्रवृत्ति को विशेष ध्यान में रखा होगा। सबके सहित निंदा का यह विशेष गुण ही तो है जिससे इस छोटी सी विशाल दुनिया में हलचल बनी रहती है। कई लेखक अपनी लेखन प्रतिभा का 80 प्रतिशत इस्तेमाल निंदा साहित्य लिखने में करते हैं। कई इस निंदा की निंदा लिखने में करते हैं। कुछ हैं जो यह कहने में खर्च हो जाते हैं कि जिताना समय लेखक निंदा लिखने में खर्च कर रहा है, उतना समय किसी रचनात्मक काम को देता तो साहित्य को कुछ नया प्राप्त होता। 

यहीं से निंदा के सहोदर 'आलोचना' की उत्पत्ति हुई मानी जा सकती है। हर किसी का लोचन दूसरे पर है कि वह कोई कालजयी कृति लिखे। इससे दो बातें होनी है। या तो वह उस कालजयी कृति की निंदा कर गुट सापेक्षता की दुनिया में तहलका मचा सकता है या फिर वह इस कृति का गुणगान कर 'यह हिंदी साहित्य की अनुपम कृति है' जैसे कोटेशन का सृजन कर सकता है जिसे आने वाले समय में आलोचक अपने-अपने लेखों में दर्ज करेंगे।

निंदा का धर्मयुद्ध

निंदा के इस धर्मयुद्ध में आप विदुर या फिर बलराम बनकर निकल नहीं सकते। आप जंगल में चले जाएं और शांति से रचना कर्म करते रहें, निंदा के युद्ध में आप घसीट लाए जाएंगे। इस दुनिया में तो लोग यह भी कहते हैं कि जिस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा रही है, वह भी एक प्रकार से निंदित ही किया जा रहा है। 

एक सज्जन बड़े मुखर होकर श्री एबीसीडी की निंदा कर रहे थे। हमने पूछा कि आप उनकी किस नीति में तोड़-फोड़ करना चाह रहे हैं। वह बोले, नीति में नहीं, मैं तो उसके शरीर में तोड़ फोड़ करना चाहता हूँ। बताइये, यह भी भला क्या बात हुई कि आप ऐसे वस्त्र पहने, जो हमारे संस्कृति और संस्कारों की जीन्स फाड़ दे। हमारे मोहल्ले में कोई ऐसा कुसंस्कारी नहीं है। यह अलग किस्म की निंदा थी। वस्त्र पहनने के लिए कोई न तो फैसला लेता है और न ही नीति बनाता है लेकिन हमारा निन्दाजीवी मन पत्थरों में से भी घास की तरह उगने की प्रतिभा से सम्पन्न है। 

निंदा रूपी कड़क चाय

बहुत समय से एक बात अज्ञात रही। या फिर किसी की कल्पना वहां तक पहुंची ही नहीं कि निंदा की उपमा चाय से दे सके। अगर पहुंची भी होगी तो लोकतांत्रिक देश की तमाम 'ईमानदार' और 'अन्तरात्मायुक्त' संस्थाओं के भय से यह उपमा देने से वह बचता होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि निंदा की उपमा चाय से देने पर 'चायवाले' का अर्थ बदल जाता है। यह किसी मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर मार देने और अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने तथा 'आ बैल मुझे मार' जैसे प्राचीन मुहावरों के अलावा किसी और ज्यादा खतरनाक आत्मघाती कृत्य जैसा माना जाए तो ग़लत नहीं है। यह निंदा ऐसी है जैसे 'आ पुलिस गिरफ्तार कर' या 'अपने घर पर सीबीआई मारना' या 'ईडी के छत्ते में हाथ डालना' आदि।

चाय रूपी निंदा को कड़क भी बनाया जा सकता है, यह इसकी खासियत है। इसके लिए सिर्फ उंगलियों को खास तरह से फेरते हुए सिर्फ इतना कहना होगा कि 'मैं फलां की कड़े शब्दों  में निंदा करता हूँ।' हालांकि, ये 'कड़े शब्द' हिंदी के किस शब्दकोश में पाए जाते हैं इसका खुलासा आज तक नहीं हो पाया है। क्या ऐसे शब्द होते भी हैं? इस पर भी संदेह है। सरस्वती नदी की तरह विलुप्त 'ऐसे शब्द' कोई खोजने भी नहीं जाता और मान लेता है कि ज़रूर वो काफी कड़े होते होंगे, तभी तो उनको उस खास सेंटेंस में फिट नहीं होते। 

कड़ी निंदा का कड़ापन

फिर भी एक बड़ा सवाल तो है कि ये शब्द कितने कड़े होते होंगे। क्या इसकी प्रतियोगिता 'प्रचारमंत्री' के 56 इंच सीने के भीतर छोटे से हृदय से हो सकेगी। या यह उतनी कड़ी होगी, जितनी दिल्ली में दिसम्बर-जनवरी में ठंड पड़ती है। लेकिन अगर यह उतनी कड़ी नहीं है, जितनी कि दिसम्बर-जनवरी की ठंड में भी तंबू ताने ट्रैक्टर वाले लोगों के हौसले और इरादे हैं, तो यह किस काम की है।

निंदक नियरे देखिए

'निंदक नियरे राखिये' लिखने वाले कबीरदास को पता नहीं था कि उनके जमाने की तरह हमेशा और हर युग में निंदक दूर-दूर नहीं होंगे। निंदकों के जनसंख्या विस्फोट ने इस दोहे को लोगों की निजी फैसले से ज्यादा निजी मजबूरी बना दिया है। यह अपने आप ही अनायास चरितार्थ हो गया है। अब किसी को 'निंदक नियरे' राखने के बारे में सोचना ही नहीं है। इस ज़माने में वह सदैव ही आपके आसपास होते हैं। 'आंगन-कुटी छवाने' के बारे में क्या ही कहा जाए। 

अगर वर्गीकरण के संबंध में ऐसा कहा जाए कि भले लोगों के इस संसार में आदमी या तो निंदक है या निंदनीय तो मेरे ख्याल से इसे गलत नहीं कहा जा सकता। निंदा के लिए खास योग्यता की आवश्यकता न होना ही निंदकों की उर्वरता का सबसे बड़ा कारण है। अगर किसी को निंदा भी करनी नहीं आती, तो उसका ज़िंदा होना ही संदिग्ध है।

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...