Tuesday 28 March 2017

क्या हो सही-ग़लत का सही मानक!


राघवेंद्र शुक्ल

अच्छे-बुरे का मानक क्या है!क्या बेहतर भविष्य की संकल्पनाओं के आधार पर लिए गए फैसले ज्यादा सही हैं,या अपनी क्षमता-रुचि-योग्यता-आदर्श-उसूल आदि के आधार पर लिए गए फैसले?
कुछ तो अवसर ऐसे भी आते हैं ज़िन्दगी में जब ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं जिन पर अच्छे या बुरे होने का ठप्पा हम तभी लगा पाएंगे जब उनके परिणाम हमें प्राप्त हो जाएं,जिनमें ज्यादातर किस्मत-आधारित भी होते हैं।
अपने आदर्शों,उसूलों और अपनी पसंद के आधार पर लिए गए निर्णयों में एक उत्तरदायित्व का उत्तरदायित्व होता है,आप अपने रिस्क पर ऐसे निर्णय लेते हैं।
नैतिक बुद्धिजीवियों का मानना है कि ऐसा निर्णय ज्यादा सही होता है,जिसमें कोई मजबूरी की गंध न हो।लेकिन बिना मजबूरी के तो शायद कोई निर्णय लिए ही नहीं जा सकते।अब चाहे वो मजबूरी ज़रूरत की हो,लालच की हो,आदर्शों की हो,उसूलों की हो,जिम्मेदारियों की हो या कोई भी।हर निर्णय मजबूरियों के ही ईंधन से जीवित है।अब इनमें से कौन सी मजबूरी सही है और कौन गलत,ये भी तो मानसिक कुरुक्षेत्र में अपनी-अपनी सेनाओं के साथ आमने-सामने है।कभी-कभी तो मन का अर्जुन गांडीव उठाने से ही इंकार कर देता है।लेकिन फिर भी युद्ध तो अटल है।तब तो बस वही "हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं,जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्" वाली स्थिति होती है।इसलिए लड़ते हैं।
लेकिन स्पष्ट भी तो होना चाहिए कि क्या गलत है और क्या सही!समाज में साम्प्रदायिकता के ज़हर बोकर भी लोग सत्ताधिपति हो जाते हैं,और उसी समाज के लिए आदर्श भी,जबकि यह महाघृणित है।मानवाधिकारों के लिए 16 वर्षों तक लम्बे और आत्मघाती आंदोलन करने वाले को महज 90 वोट मिलते हैं और इस तरह एक वैकल्पिक और आशाजनक राजनीति का वध हो जाता है,जबकि आदर्शों की कसौटी पर यह अपेक्षाकृत शुद्ध और खरा कृत्य है।ये उदाहरण तो कम से कम यह सिद्ध करते हैं कि बेहतर परिणाम कभी काम के अच्छे या बुरे होने का मानक नहीं हो सकते।
तो क्या हो मानक?किससे माना जाय कि जो हम कर रहे हैं वह सही है!और इसके परिणाम भी सही होंगे।हमें इसका कोई दार्शनिक या फिर शब्दों की कड़ियों से जुड़ा कोई आध्यात्मिक तर्क नहीं चाहिए,बैठे-बैठे दो चार ठीक-ठाक कोटेशन बोकर उपजे हुए सिद्धांत और ज्ञान की भी ज़रूरत नहीं है।इसका कोई व्यवहारिक उदाहरण हो किसी के पास,जिससे ये सही-गलत का मसला हल हो सके तो उसका स्वागत है।नहीं तो 'ज़िन्दगी' का शिक्षक तो तैयार है ही इसे बेहतर समझाने के लिए।हाँ,थोड़ा टाइम ज़रूर लगेगा,या शायद एक उम्र भी।राघवेंद्र

Thursday 23 March 2017

कविताः लौ न हो मद्धिम










कर्मों के चौबारे पे जलती ही रहे दीपक सदृश,
औ' हो न लौ मद्धिम तनिक भी हौसलों के प्राण की।
मत हो निराशा टूटने पर भी कभी,यह जान लो!
है टूटना भी तो ज़रूरत,नव्य के निर्माण की।

जो खेलते हैं खेल वो हैं जानते भी हारना।
लिखते पराजय की परत पर जीत की अवधारणा।
इक हार को ही वह समापन खेल का कहते नहीं।
जब तक नसों में है रवानी,चैन से रहते नहीं।

जब टूटता है,पूजता उसको तभी संसार है,
आखिर बिना खण्डित हुए क्या हैसियत पाषाण की।
मत हो निराशा टूटने पर भी कभी,यह जान लो!
है टूटना भी तो ज़रूरत,नव्य के निर्माण की।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
--राघवेंद्र😊

Tuesday 21 March 2017

बाजार नहीं अधिकार हमारी निष्ठा का प्रथम केंद्र है..

फोटो साभार:पार्थ सारथि निगम

मुझे नहीं पता था ये बाजार कैसे लगता था!यहां खरीददारी कैसे होती थी!लगने वाली कीमत का आधार क्या होता था!सब बिक जाएगा,ये तब से सुन रहे थे,जब इस बाजार का बस नामै सुने थे।सच सुना था भई, बिल्कुल वही हो रहा है।
"का हो!कहाँ लगे?"
"ज़िन्दगी नरक होइ गयी है,#@%&!"
"हो जाएगा,दोस्त!डोंट वरी"
"सबका हो जाएगा!"
क्रान्ति-परिवर्तन-बदलाव-सत्य-न्याय-आवाज़-जीवंतता-संघर्ष-शान्ति-समानता-अडिगता-आदर्श-प्रतिष्ठा-समाज-देश-गाँव-गरीब-किसान-पीड़ित-दलित-शोषित-दमन-अमन-चमन-शमन-हिम्मत-ताकत-हौसला-फैसला आदि आदि आदि आदि आदि
ये शब्द...महत्वकांक्षाओं-आकाँक्षाओं-ज़रूरतों और मजबूरियों की चपेट में कैसे दम तोड़ देते हैं,ये शब्द स्थापित सामाजिक मापदंडों की मांग पर किस तरह से सिर्फ किताबी हो जाते हैं,ये शब्द एक छद्म उद्देश्य की आखिरी लाइन से किस तरह से उस पार फेंक दिए जाते हैं,ये सब हमारे लिए आज तक समझना मुश्किल था(हाँ!मानना आसान था)और अब इसके प्रत्यक्ष दृष्टांतों की आंतों और दांतों तक से परिचित हो रहे हैं।बुरा तो लगता ही है।लेकिन उत्तरदायित्व की विवशता भी तो है,जनाब!सफलता का प्रमाण भी तो समाज में रखना है।गाँव के सिरीनाथ चाचा,स्कूल के शर्मा सर,पड़ोस के लेखपाल साहब,भोपाल वाली मौसी,बिहार वाले फूफा,फलाने, ढेकाने सबको निरुत्तर करने का टास्क भी तो पूरा करना है।बहुत से कारण हैं।एक बार शुरुआत तो कर लें,आत्मनिर्भर हो लें,फिर आगे तो पूरी ज़िन्दगी पड़ी है!देख लेंगे सब कुछ बाद में।
बड़ा अंतर्द्वंद है साहब!क्या सही है?क्या गलत?कौन जानता है,कौन समझाए!हर दिन चेहरे मुंह पर झूलते जा रहे हैं।भौंहें चढ़ती जा रही हैं।मुस्काने मरती जा रही हैं।निराशाएं पनपती जा रही हैं।हर कोई कंधे ढूंढ रहा है।हर कोई आंसू छिपा रहा है।ढांढसों और बधाइयों का दौर दौड़ रहा है।मंजर ऐसा है जैसे जीवन का 'असंशोधनेबल' संविधान लिखा जा रहा हो।जैसे इस बाजार के खत्म होने के बाद मिट्टी आलू उगाना बन्द कर देगी,पालक उगाना बन्द कर देगी,गेहूं-धान-बाजरा-जौ उगाना बन्द कर देगी।
सब सबको पता है!यह न तो संभावनाओं का अंत है और न ही जीवन का।अवसर और भाग्य की भी मजबूरी है कि उन्हें समय-समय पर हमारे पास आना ही है।निराश होना भी ज़रूरी है,पर कुछ देर के लिए।दुखी होना भी ज़रूरी है,पर कुछ देर के लिए।उसे अपने दिलो-दिमाग में स्थायी आवास दे देना शायद हमारी असली हार है।
ज्ञान तो बंट ही रहे हैं आजकल!हम भी बहुत कुछ सीख रहे हैं।हमारी कहानी भी औरों से बहुत ज्यादा अलग नहीं है।हमारी मजबूरी थोड़ी सी अलग थी।रेस में हम भी हैं।और उपर्युक्त तमाम टिप्पड़ियों के हम भी हकदार हैं।एक झोंका आया था,सारे वृक्ष लहरा उठे थे।लेकिन अब तनकर खड़े रहने का मन है।टूटने का मन है।और अपने ही खण्डहर पर नवीन 'हम' का निर्माण करने का मन है।इसलिए अब हम कोशिश करेंगे,कि आगे बनी बनायी सफलता की सामाजिक मान्यताओं से आगे निकलने की कोशिश करें,एक सोच,जिससे कभी हमने अपना चरित्र सजाया था,अपना चित्र संवारा था,उसे प्रायोगिक पटल पर अंकित करने का प्रयास करें,अपने फैसलों का स्विच किसी प्रलोभन की सर्किट से न जोड़ें जो रेगुलेटर के घूमने के साथ-साथ बदलता रहे और सबसे ज़रूरी कि 'कुछ' लोगों के प्रति उत्तरदायी होने के उत्तरदायित्व से खुद को अलग करें,नहीं तो खुद के ही सामने एक ऐसा प्रश्न खड़ा हो जाएगा  कि उसका उत्तर देना मुश्किल हो जाएगा,और हमें लगता है कि ये उत्तर न दे पाना एक ऐसी हार होगी जिस पर कोई दिलासा,कोई ढांढस काम नहीं करेगा।क्योंकि इस हार के बाद जीत नहीं,सिर्फ पतन मिलने की संभावना है।अंत में सिर्फ यही बात कहना है कि बाजार नहीं अधिकार हमारी निष्ठा का प्रथम केंद्र है।
नोट:-
1.सफल लोगों की भावनाओं पर कोई भी प्रहार करने का कोई इरादा नहीं है,न था,न होगा।उनकी काबिलियत प्रमाणित है।शुभकामनाएं।
2.असफल होने वालों के लिए मेरी तरफ से दी गयी कोई दलील नहीं है,मेरा अपना वैचारिक द्वंद है।दुआएं।
3.सभी नाम काल्पनिक हैं,बयान काल्पनिक हैं।किसी के भी सत्य होने की संभावना को मात्र एक संयोग कहा जाएगा।



कविताः #कवितादिवस

आज जब मैं लौटा
घर,
तो जैसे लगा,छूट गया हूँ कहीं।
कपड़े बदलते वक्त,
हाथ-पैर धोते वक़्त
बिस्तर पर लेटे हुए मोबाइल पर 
मेसेजेज चेक करते वक़्त।
मैं था ही नहीं कहीं,
मैं तो छूट गया था कहीं
किसी ईटों की दीवारों से घिरे उस कारखाने में
जहां हमारी ज़िंदगी का स्टैंड
गढा जा रहा था,
हमारी हैसियत की लाठी 
गढ़ी जा रही थी,
जिसके शिखर पर 
आज से कुछ वर्षों बाद
हमारे व्यक्तित्व का परचम लहरना है।
 मैंने बड़ी कोशिश की
खुद को वहां से वापस लाने की,
मैं था कि लौटने को तैयार नहीं,
साथी-संघाती थक गये,
सारे मंजर एक जैसा बने रहते -रहते थक गए,
मैं नहीं लौटा,
यूं जम गया था वहां
जैसे टूट गए हों पाँव,
बुझ गयी हों आँखें,
टूट तो गया था मैं!
मेरे हौसले-मेरे सपने-मेरी आशा
सब कुछ,
बिखरे पड़े थे,
मैंने सब जुटाया,इकट्ठा किया,
कॉलेज की कैंटीन में गिरी आशाएं
विवेकानन्द शिला पर अटके हौसले
और ब्रह्मपुत्र हॉस्टल के लॉन में बिखरे सपने,
सबको समेटकर
जोड़कर
सजाकर
तरतीब से 
पुस्तकालय में
बना ली एक कविता।
अब शायद मैं
घर लौट आया हूँ,
समूचा मैं,
अपनी एक नई कविता के साथ।
और कविता,
जो अब मुझमें है या मैं उसमें,
नहीं कह सकता,
अगर मुझ बिखरे हुए को जोड़ सकती है,
तो ये मेरे अंदर निराशा की हर धारणा
तोड़ भी सकती है,
हताशा के अँधेरे में आशा की
जो सविता है,
वही तो कविता है,
शायद।
--राघवेंद्र


Sunday 19 March 2017

कविताः मन के खाली अम्बर में!













ना जाने कब सूर्य उगेगा मन के खाली अम्बर में।

कोना कोना यूं उदास है,ठहरा-ठहरा जीवन है।
सो गयी हवाओं की हलचल बस सन्नाटों का क्रंदन है।
अपनी ही हूक उलटकर आती लौट हमारे कानों में।
अब जाकर जाना है कितनी पीर है नील वितानों में।

रण त्याग निकल जाने का कोई मार्ग नहीं इस सङ्गर में।
ना जाने कब सूर्य उगेगा,मन के खाली अम्बर में।

जब सेज ज़मीं पर होती थी,आकाश हमारा सपना था,
इक चाँद हुआ करता था ख़्वाबों के हर इक किस्से में।
पर सहरा-कांटे-बंजर-ख़ंजर-पतझड़-अंध अमावस ही,
सरकार! दिया तूने क्या! और क्या आया अपने हिस्से में।

कुछ भी होगा तो मिट जाएगा भेद,'तुम्हारे'-'कंकर' में।
ना जाने कब सूर्य उगेगा,मन के खाली अम्बर में।

अपनी पहचान भी क्या होती है,जाना नहीं है आजीवन।
शीश झुका न उठा,मिलाता हाँ में हाँ,असमंजित मन।
अनुसरना है राह,सरल,पर लीक नयी गढ़ना दुष्कर।
तोड़ शिलाएं राह बनाने वाले ही छाते नभ पर।

समझा नहीं मन्त्र यह,फंसकर दुनिया के आडम्बर में।
ना जाने कब सूर्य उगेगा मन के खाली अम्बर में।

दृश्य न जाने कब बदलेगा,रंग न जाने कब चटकेंगे।
आशाओं के दिए हमारे कब तक आंधी को खटकेंगे।
कब तक दिल की टीस विजय के गीतों का संहार करेगी।
पग-पग भँवरों में उलझी कब नैया नदिया पार करेगी।

किस्मत यूं लाचार है ज्यों प्रतियोगी सीय-स्वयंवर में।
ना जाने कब सूर्य उगेगा मन के खाली अम्बर में।

➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
--राघवेंद्र शुक्ल

Wednesday 15 March 2017

कितनी नैतिक है गोवा सरकार ?

राघवेंद्र शुक्ल,हिंदी पत्रकारिता,रोल नं.40

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की यात्रा मतदान,परिणाम से होते हुए अब सरकार बनाने के दौर तक आ पहुंची है।उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जहां भारतीय जनता पार्टी तो वहीं पंजाब में कांग्रेस को सरकार बनाने का स्पष्ट जनादेश जनता ने दे तो दिया है,लेकिन मणिपुर और गोवा में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने से वहां की राजनीतिक स्थिति अब अनिश्चित बनी हुयी थी।मणिपुर और गोवा में कांग्रेस के बड़ी पार्टी होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाकर एक नए राजनैतिक बहस को जन्म दे दिया है।
गोवा के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर
दरअसल 11 मार्च को आए चुनाव परिणामों में गोवा की किसी भी पार्टी को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला,हालांकि गोवा की 40 विधानसभा सीटों में से 17 पर जीत दर्ज कर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रुप में उभरी थी,लेकिन सरकार बनाने के लिए राज्यपाल के आमंत्रण का इंतजार करने का खामियाजा उसे कुछ यूं भुगतना पड़ा कि भारतीय जनता पार्टी ने गोवा फारवर्ड पार्टी,महाराष्ट्र गोमंतक पार्टी और निर्दलीय विधायकों के गठजोड़ से न सिर्फ सरकार बनाने का दावा कांग्रेस से पहले प्रस्तुत किया बल्कि राज्यपाल की स्वीकृति के बाद मनोहर पर्रिकर के नेतृत्व में गोवा में नयी सरकार बना ली।इसके बाद भाजपा के इस अप्रत्याशित दांव-पेंच से झल्लाई कांग्रेस ने राज्यपाल के पास न जाकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया लेकिन उसे वहां से भी कोई मदद नहीं मिल पायी।सुप्रीम कोर्ट ने मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए भारतीय जनता पार्टी को शीघ्रातिशीघ्र सदन में बहुमत साबित करने का आदेश दे दिया।चुनावों में सबसे ज्यादा 17 सीटें जीतने वाली कांग्रेस पार्टी के पास इस समय सिवाय 16 मार्च का इंतजार करने के और कोई चारा नहीं है,जिस दिन गोवा के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर सदन में अपना बहुमत साबित करेंगे।
राज्य के 40 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भारतीय जनता पार्टी के महज 13 उम्मीदवारों को इस बार जीत नसीब हुयी है।जनता के सत्ताविरोधी रुख का आलम इस कदर था कि राज्य के निवर्तमान मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पर्सेकर भी अपनी सीट नहीं बचा पाए।चुनाव प्रचार के दौरान भारतीय जनता पार्टी के गोवा की जनता के सामने मनोहर पर्रिकर को पुनः मुख्यमंत्री बनाने के दावे करने के बावजूद उसे राज्य की जनता ने सीधे नकार दिया।बावजूद इसके जोड़-तोड़ की राजनीति का सहारा लेकर भाजपा वहां सरकार बनाने में कामयाब रही।भारतीय राजनीति में जोड़-तोड़ और खरीद-फरोख़्त की राजनीति के विरोधी और स्वच्छ निर्वाचन के पक्षधर लोग सरकार बनाने के इस तरीके को पचा नहीं पा रहे हैं।राजनीतिक बहस में हमेशा मुखर होकर अपनी बात रखने वाले भारतीय जनसंचार संस्थान के छात्र समर राज बताते हैं कि संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में राज्यपाल सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए इसलिए आमंत्रित करता है क्योंकि सरकार बनाने के लिए आवश्यक विधायकों की संख्या दूसरे नंबर की पार्टी के मुकाबले सबसे बड़ी पार्टी के लिए कम होती है,जिससे विधायकों की खरीद-फरोख़्त पर लगभग नियंत्रण होता है।लेकिन गोवा में ऐसा नहीं हुआ।इसलिए वहां की नवनिर्वाचित सरकार की पवित्रता पर प्रश्नचिन्ह लगना कोई बड़ी बात नहीं होगी।इसी संस्थान के दूसरे छात्र आशुतोष राय इस विषय पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कहते हैं कि चुनाव परिणाम आने के बाद राज्यपाल की दृष्टि में जो दल अपने आप को बहुमत की स्थिति में होने को लेकर आश्वस्त कर लेता है,राज्यपाल उसे ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते हैं।गोवा में कांग्रेस से पहले भाजपा ने छोटे दलों और निर्दलीय विधायकों को लेकर अपना पक्ष मजबूत कर लिया था,इसलिए राज्यपाल के भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रण देने पर किसी भी प्रकार के पक्षपात आदि का प्रश्न नहीं उठाना चाहिए
कांग्रेस इस पूरे मसले पर अपने आप को छला हुआ महसूस कर रही है।पार्टी के एक नेता का कहना है कि अब कोई दो दिन के लिए मुख्यमंत्री बनना चाहता है तो कोई क्या करे।उनका इशारा 16 मार्च को सदन में बहुमत साबित करने की ओर था,जिसको लेकर वो आश्वस्त हैं कि सदन में मनोहर पर्रिकर बहुमत साबित नहीं कर पाएंगे,जिसकी संभावना कम ही दिखायी पड़ती है।
राजनैतिक गुणा-भाग जो कुछ भी कहे,भले ही भाजपा सरकार बनाने के लिए आवश्यक आंकड़ों का इंतजाम कर ले,लेकिन नैतिक दृष्टि से यह सरकार कसौटी पर खरी नहीं उतरती।संवैधानिक कायदा कहता है कि दो तिहाई सीटों पर जीत किसी भी दल को सरकार बनाने का अधिकार प्रदान करती हैं,लेकिन जिस दल ने गोवा में सरकार बनायी है,जनता ने उस दल को दो तिहाई सीटों पर नकार दिया है।पिछले पांच वर्षों के भाजपा शासन के कामों पर प्रतिक्रिया देते हुए गोवा के मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी की बजाय कांग्रेस को गोवा सरकार के लिए ज्यादा उपयुक्त माना था,लेकिन सत्ता पर काबिज होने की लालसा सारे आदर्श,सारे सिद्धांत और सारी नैतिकता को दरकिनार कर देती है।गोवा फारवर्ड पार्टी,महाराष्ट्र गोमंतक पार्टी और निर्दलीय विधायकों को शर्तों की बुनियाद पर जोड़कर भाजपा ने गोवा में सरकार तो बना ली लेकिन सच तो यही है कि गोवा की जनता ने भाजपा को एक सरकार के तौर पर खारिज कर दिया था।फिर भी भाजपा का वहां सरकार बना लेना बहुमत आधारित लोकतांत्रिक निर्वाचन व्यवस्था पर एक प्रश्न खड़ा करता है जो इस व्यवस्था में कुछ सुधारात्मक परिवर्तन की दिशा में सोचने को विवश भी करता है।भाजपा का वहां सरकार बना लेना कतई गलत नहीं हो सकता,लेकिन यह कहना भी गलत नहीं है कि यह सरकार उस दो तिहाई जनादेश की अवज्ञा है जिसने भाजपा को इस बार सरकार बनाने के लायक नहीं समझा था।


Monday 13 March 2017

कविताः जोगीरा 2017


मनरंजन में कमी रहेगी,नहीं कभी श्रीमान।
ये भारत की राजनीति है,नौटँकी परधान।
जोगीरा सा रा रा रा रा

जब जब शांति बढ़ेगी,होगा,ड्रामा का अवसान।
तब तब कोई ज्ञानी नेता,देगा एक बयान।
जोगीरा सा रा रा रा रा

सायकिल-पंजा छिन्न-भिन्न हैं,हाथी है अवशेष।
और गधों से प्रेरित होकर,भगवा हुआ प्रदेश।
जोगीरा सा रा रा रा रा

यूपी मेहरबान हुआ तो,गदहा पहलवान।
अब देखो पहले क्या बनता,मन्दिर या शमशान।
जोगीरा सा रा रा रा रा

राम नाम है सत्य,न शिव है,ओम शांती ओम।
नब्बे फूल चढ़े 'आशा' पर,हार गयीं इरोम।
जोगीरा सा रा रा रा रा

ऐ बे!सुन न!फ्लोटिंग वोटर और न जाने क्या!
सुना सुनाकर कान पकाया,हुआ मगर उल्टा।

परसेंट चालिस-तीस-बीस सब,गलत हो गया योग!
आँख तरेरे आज समर को,खोज रहे थे लोग।
जोगीरा सा रा रा रा रा

नीला लड्डू किसका फूटा,कौन हुआ मायूस।
कवन आजकल खुद को करता,मंत्री सा महसूस।
जोगीरा सा रा रा रा रा

अमण का नीला लड्डू फूटा,समर हुआ मायूस।
सैनी जी कर रहे आज हैं,मंत्री सा महसूस।
जोगीरा सा रा रा रा रा

कौन हुआ हॉस्टल से बरामद,किसको चढ़ गयी भंग।
किसकी लुट गयी इज़्ज़त बोलो,कौन रह गया दंग।

अनुराग बरामद हुए,चढ़ गयी,आशुतोष को भंग।
सोनीजी की लुट गयी इज़्ज़त,सभी रह गए दंग।
जोगीरा सा रा रा रा रा

दिव्य हार के बाद पढ़ गयीं,परचा ताबड़तोड़।
देवीजी ने दिया ठीकरा,ईवीएम पर फोड़।
जोगीरा सा रा रा रा रा

हाथ पकड़ पप्पू के भागे,धरम मिला न धाम।
टायर भी हो गया बर्स्ट और,रहा बोलता काम।
जोगीरा सा रा रा रा रा

कर लो,ज्वाइन आईएसआई,या माल्या सा चीट।
पर न बोलते भारत की जय,देंगे तुमको पीट।
जोगीरा सा रा रा रा रा

इक तो करी न साहब की,वो एक्स्ट्रा क्लास अटेंड।
क्या ही अजूबा है जो हो गए,लिखने पर सस्पेंड।
जोगीरा सा रा रा रा रा

कभी नहीं तुम प्रश्न उठाना,सत्ता कृत्यों पर।
नहीं तो तुमसे पहले पहुंचे,नोटिस तेरे घर।
जोगीरा सा रा रा रा रा

प्यार-मोहब्बत,यारी,मीठी बोली ज़िंदाबाद।
टोपी-चंदन-पगड़ी की रंगोली ज़िंदाबाद।

मेरी-तेरी-उनकी हंसी-ठिठोली ज़िंदाबाद।
रंग-भंग-हुड़दंग मचाती टोली ज़िंदाबाद।

प्रथम प्रणय में रंगे 'भोला-भोली' ज़िंदाबाद।
पीली सरसो-हरी बालियां-रोली ज़िंदाबाद।

ख़ुशी जहां में जिसने-जिसने घोली ज़िंदाबाद।
तेरी-मेरी-उनकी-सबकी होली ज़िंदाबाद।
जोगीरा सा रा रा रा रा

बाप छोड़िये आप न खुद को ही पाये पहचान।
तभी सफल है रंग खेलने का अद्भुत अभियान।

मज़े-मज़े में,ख़ुशी-ख़ुशी में,होने स्वयं हलाल।
हम आएंगे होली तू भी आना अगले साल।
जोगीरा सा रा रा रा रा
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
राघवेंद्र शुक्ल

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...