Sunday 19 March 2017

कविताः मन के खाली अम्बर में!













ना जाने कब सूर्य उगेगा मन के खाली अम्बर में।

कोना कोना यूं उदास है,ठहरा-ठहरा जीवन है।
सो गयी हवाओं की हलचल बस सन्नाटों का क्रंदन है।
अपनी ही हूक उलटकर आती लौट हमारे कानों में।
अब जाकर जाना है कितनी पीर है नील वितानों में।

रण त्याग निकल जाने का कोई मार्ग नहीं इस सङ्गर में।
ना जाने कब सूर्य उगेगा,मन के खाली अम्बर में।

जब सेज ज़मीं पर होती थी,आकाश हमारा सपना था,
इक चाँद हुआ करता था ख़्वाबों के हर इक किस्से में।
पर सहरा-कांटे-बंजर-ख़ंजर-पतझड़-अंध अमावस ही,
सरकार! दिया तूने क्या! और क्या आया अपने हिस्से में।

कुछ भी होगा तो मिट जाएगा भेद,'तुम्हारे'-'कंकर' में।
ना जाने कब सूर्य उगेगा,मन के खाली अम्बर में।

अपनी पहचान भी क्या होती है,जाना नहीं है आजीवन।
शीश झुका न उठा,मिलाता हाँ में हाँ,असमंजित मन।
अनुसरना है राह,सरल,पर लीक नयी गढ़ना दुष्कर।
तोड़ शिलाएं राह बनाने वाले ही छाते नभ पर।

समझा नहीं मन्त्र यह,फंसकर दुनिया के आडम्बर में।
ना जाने कब सूर्य उगेगा मन के खाली अम्बर में।

दृश्य न जाने कब बदलेगा,रंग न जाने कब चटकेंगे।
आशाओं के दिए हमारे कब तक आंधी को खटकेंगे।
कब तक दिल की टीस विजय के गीतों का संहार करेगी।
पग-पग भँवरों में उलझी कब नैया नदिया पार करेगी।

किस्मत यूं लाचार है ज्यों प्रतियोगी सीय-स्वयंवर में।
ना जाने कब सूर्य उगेगा मन के खाली अम्बर में।

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--राघवेंद्र शुक्ल

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