Sunday 27 October 2019

अंधेरे के खिलाफ युद्ध नहीं दीपावली

तमसो मा ज्योतिर्गमय!

उन्नति की प्रक्रिया में तम से ज्योति की ओर बढ़ना होता है। इसमें हर एक पड़ाव अपने आगे वाले के लिए तिमिर है और हर पड़ाव अपने पीछे वाले के लिए ज्योति। तम या अंधकार कोई एक निश्चित बिंदु या अवस्था नहीं है। हम हर दिन, हर पल तम से ज्योति की ओर आगे बढ़ने के अभियान में हों, यही दीवाली का संदेश है।

जीवन को एक युद्ध की तरह लेने वाले लोगों ने अंधकार को शत्रुपक्ष के एक सैनिक की भांति प्रोजेक्ट किया है। हालांकि, अंधेरा इतना बुरा नहीं है। सबसे पहले तो तम या तिमिर या तीरगी या अंधकार हमारा दुश्मन नहीं है। इसलिए उसके खिलाफ युद्ध छेड़ने या उस पर विजय प्राप्त करने की घोषणाएं दुनिया की सबसे भ्रमित योजना का हिस्सा हैं।
अमावस का अंधकार एक शान्ति लेकर आता है। ऐसी अद्भुत शान्ति आपको कहीं देखने-महसूसने को नहीं मिलेगी। आप ज़रा बारीकी से महसूस करेंगे तो पाएंगे कि प्रकाश में एक तरह का शोर है। अमावस में इस शोर की शांति है। कार्तिक की अमावस्या विशेष है। इस शांति में हमने हल्के प्रकाश का साहचर्य चुना है। यह साल में अकेला ऐसा अवसर होता है जब अंधेरे को प्रकाश का सही मायने में साथ मिलता है। यह दोनों के प्रेम और संगम की बेला होती है। अंधेरे और प्रकाश के प्रणय का अवसर। बाकी तो, प्रकाश के हमारे सारे जतन अँधेरे के खिलाफ युद्ध छेड़ते ही दीखते हैं। इतना भी बुरा नहीं होता अंधेरा भाई।

दीपावली को हमने प्रकाश पर्व बना लिया। यह पड़ता तो अमावस को है। श्वेत प्रकाश का पूजन और कृष्ण अन्धकार का तिरस्कार हमारी नस्लीय सोच के सिलसिले में भी आता हुआ माना जा सकता है। जहां श्वेत सुन्दर है। कृष्ण कुरूप। भयानक। दीपावली में प्रकाश ही प्रधान है लेकिन प्रकाश का अस्तित्व ही अंधेरे से है। अंधेरा इतना विनम्र और सुलभ है कि वह वहां भी होता है जहाँ वातावरण नहीं पाया जाता। आप उदाहरण के तौर पर अंतरिक्ष के निर्वात पर सोच सकते हैं।

खैर, दीपावली पर अंधेरे का पक्ष रखना खतरे से खाली नहीं है लेकिन यह उसका अधिकार है कि उस पर बात हो। मौजूदा बौद्धिक चेतनाओं में यह उत्सुकता काफी देखी जाती है कि यह प्रयास हो कि अंधेरे को ख़त्म कर दिया जाए। इस क्रम में अँधेरे पर प्रकाश के विस्फोट का चलन बढ़ा है। हम बीसियों बल्ब जला लेंगे। उच्च विभवान्तर के। अंधेरे का निशान न रह जाए। सर्वत्र उजाला हो। सर्वदा उजाला हो। दिन-रात, 24 घंटे प्रकाश हो। अंधेरे को शत्रुपक्ष का बेड़ा समझकर हर कोई सर्जिकल स्ट्राइक करने पर तुला है।

यह प्राकृतिक तो नहीं है। लेकिन यह आधुनिकता का दौर है। विकास का मौसम है। सभ्यता के उत्कर्ष का आयोजन है। अप्राकृतिक होते जाना अब मानव सभ्यता का नया शौक बन गया है। प्राकृतिक तो यह है कि हम अंधेरे को बरतें। उसे बहिष्कृत न करें। पास्तान की एक कविता के अनुवाद में रीनू तलवाड़ की लिखी यह पंक्ति है कि

"जब ईश्वर ने कहा
उजाला हो
तब अंधेरे को बहिष्कृत तो नहीं किया।"

उपर्युक्त वेद श्लोक में भी ऐसा नहीं लिखा कि अंधेरे को समाप्त कर दिया जाए। वहां भी कहा गया कि तम से ज्योति की ओर चलें। वैसे ही, मृत्यु से अमरता की ओर चलें। मृत्यु तो प्राकृतिक है। वह होना ही है। वह अपरिहार्य है। अमरता उपलब्धि है। प्रकाश प्राप्य है। सत्य उद्देश्यणीय है। इसलिए, दीपावली प्रकाश को प्राप्त करने की चेष्टा है। अंधकार को मारने का उपक्रम नहीं।

Saturday 19 October 2019

दुःख का 'दुख'

किसी ने कहा दुखी मत रहो। दुखी रहने से कुछ नहीं मिलने वाला है। जब मन दुखी हो तब मुस्कुराने की कोशिश करो। हंसने की कोशिश करो। सब ठीक हो जाएगा। सब सही हो जाएगा। मुझे इसी बात पर अटक जाना पड़ा। ठीक हो जाना क्या होता होगा! सही हो जाना क्या होता होगा! सुखी होने से क्या मिल जाना है जो दुखी होने पर नहीं मिलता! या दुखी होकर क्या घट जाना है जो सुखी होने पर बढ़ जाता! जीवन में समय की मात्रा तो उतनी ही होती है। सुख में भी। दुःख में भी।

यह भी यकीन मानिए, सुख-दुःख में आपके अस्तित्व से जुड़ा पर्यावरण भी रत्ती भर कम-ज्यादा नहीं होता। सब उतना ही होता है, जितना दुःख में। फिर अंतर क्या है दोनों में? दोनों के प्रति यह विभेद किसलिए है? दोनों के प्रति विपरीत बर्ताव क्यों किया जाता है? दोनों का स्वाद विपरीत प्रकृति का क्यों बताया जाता है? यह सवाल तो उठता है। हमारे न चाहने पर भी यह सवाल बना तो रहता है। एक के साथ सद्व्यवहार। दुसरे के साथ दुर्व्यवहार। क्यों?

मैं व्यक्तिगत रूप से मद्धमत्व का अनुगामी हूँ। बीच का रास्ता। न तो बहुत तेज और न बहुत धीरे। संतुलित स्थिति। सुख-दुःख का देखें तो गति की अनुभूति को प्रभावित करने में इनकी भूमिका लगती है। हालांकि, यह सिर्फ अनुभूति है। वास्तविक नहीं। यथार्थ में सब कुछ अपनी मात्रा में निश्चित है लेकिन सुख में अक्सर यह आभास होता है कि वक़्त जल्दी बीत गया। दुःख में लगता है कि समय बीतता क्यों नहीं? जबकि, समय न तो रुकता है और न ही तेज होता है। वह अपनी गति में हैं। हमारे देखने-महसूस करने की सापेक्ष स्थिति में उसकी चाल बदलती रहती है।

ऐसे देखें तो दुःख की जीवन में बेहतरी सिद्ध हो जाएगी। हम सभी चाहते हैं कि वक़्त थोड़ा धीरे चले। बीत न जाए एक झटके में। आराम-आराम से चले ताकि जीवन भी लंबा हो। लंबे जीवन की कामना। अच्छा! जीवन भी क्या लंबा होता होगा! अनुभूति ही है जो कुछ है। दुःख में अगर वक़्त बीतता ही नहीं है तो जाहिर है कि अनुभूति के धरातल पर उसकी गति धीमी हो गई है। गति धीमी होने का मतलब है कि जीवन-अनुभूति भी थोड़ी लंबी हो गई। ऐसे में दुःख तो बेहतर हुआ न! लोक मान्यता में फिर तो दुःख का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन हम करते हैं दुःख से घृणा। न जाने क्यों!

किसी ने कहा कि दुःख पर हंसी का आरोप कर दीजिए। दुखी होने पर मुस्कुराइए। दुःख दूर होता जाएगा। मैं सोचता हूँ क्यों? दुःख के साथ यह सौतेला व्यवहार क्यों! दुःख से यह दुर्व्यवहार क्यों? दुःख से क्या दुश्मनी है। उदासी से क्या शत्रुता है कि इसे किसी भी तरह से दूर रखना है! क्या सिर्फ इतना कि इससे चेहरा विकृत हो जाता है। आप सुन्दर नहीं दिखते। यह तो कोई समस्या नहीं हुई। अगर यह आपको समस्या लगती है तो यह नस्लभेद का मामला है। सुंदर-असुंदर होना चेहरे पर कतई निर्भर नहीं करता। त्वचा पर निर्भर नहीं करता। वह व्यवहार, आचरण, समझदारी और ऐसे तमाम सद्गुणों का सम्मेल है, जिससे सुंदरता बनती है।

दूसरा तर्क है कि दुःख में आपका बर्ताव तीखा हो जाता है। आप लोगों से दुर्व्यवहार करने लगते हैं। मेरा मानना है कि यह दुर्व्यवहार आप तब करने लगते हैं जब दुःख के साथ आप दुर्व्यवहार करते हैं। दुर्व्यवहार से दुर्व्यवहार ही जन्म लेता है। वहां से सद्व्यवहार कैसे उगाएंगे? दुःख को बरतना आना चाहिए। वह जीवन-तत्त्वों की अनुभूतिक शाखाओं में से एक है। उस पर किसी का भी आरोप क्यों करना! उसे क्यों नहीं जीना। जबकि दुःख में आप अपने अन्तस् में उतरते हैं। गहरे होते हैं। सुख में उथले रहते हैं। दुःख में वैचारिक रूप से गहरे होते जाते हैं।

दुःख की अपनी स्वतंत्र सत्ता है। हम सुख में ऐसा नहीं कहते कि थोड़ा-सा रो लो तो सुख दूर हो जाएगा, तो दुःख में क्यों कहें कि हंसो तो दुःख दूर हो जाएगा। दो सहज मानवीय गुणों में यह विपरीत और अनुचित व्यवहार क्यों? यह आत्मिक असमानता और भेदभाव का मामला है। जब आत्मा में साम्यवाद आएगा तब दुःख भी अपने अधिकार मांगेंगे और कहेंगे कि हमें समूल मिटाने का यह षड्यंत्र क्यों है? यह होगा अगर हम साम्यवाद चाहते हों लेकिन हमारे अंतर तक में भेदभाव के बीज घुसे हुए हैं। हम समानता के सबसे बड़े विरोधी हैं और जब तक हम यह विरोध रखेंगे तब तक हम दुःख से सही बर्ताव नहीं करेंगे और इससे परेशानी महसूस करते रहेंगे।

किसी हिंदी फिल्म में गीत है- 'हंसते-हंसते रोना सीखो, रोते-रोते हंसना।' कितना वैज्ञानिक है यह गीत और मानवीय भी। इसमें संकेत है कि यह दोनों ही गुण मानवीय हैं। किसी से भी बैर क्यों। अगर हंसना जानते हो तो रोना भी सीख लो। रोते हो तो हंसना भी आना चाहिए। यह संतुलन के लिए जरुरी है। हम यह क्यों भूलें कि भाषाओं और शब्दों की दुनिया में हमारा पहला वाक्य ही रुदन था। तो जो पहला है वह तो हमारे लिए विशेष है न! जीवन में हर प्रथम हमारे लिए विशेष होता है। फिर रुदन के प्रति हम दूसरे किस्म का बर्ताव क्यों करें?

दुःख भी सुख की तरह अनिवार्य और जरूरी हैं। उनकी उपेक्षा करेंगे तो वह आपके प्रतिकूल होते जाएंगे। दुःख का, उदासी का भी उत्सव हो सकता है। उन्हें सहज रूप से अपने जीवन में शामिल किया जा सकता है। वह हमारे सबसे सख्त और शिक्षित गुरु होते हैं। दुःख में हमें जो ज्ञान मिलता है, जो सीख मिलती है, वह सुख में नहीं मिल सकता। दुःख में जो हमारी दृष्टि हो सकती है वह सुख में नहीं हो सकती। दुःख में जो हम होते हैं वह सुख में नहीं होते। एक बात और, मैं सुख की महत्ता को कम करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। मैं दुःख की पीड़ा के पक्ष में खड़ा हूँ जिसे हमेशा दुत्कार मिलती है। मैं उसके महत्व को रेखांकित करना चाहता हूँ कि वह सुख का ही सहोदर है। उनके साथ भेदभाव न हो। उसे भी सहज अपनाया जाए। वह आपको बुरा प्रभावित नहीं करेगा।

हां, अतिरेक किसी भी चीज का सही परिणाम नहीं देता। अत्यधिक दुखी होने पर हंसना ही चाहिए। साथ ही, अत्यधिक सुखी होने पर थोड़ा रो लेना चाहिए। प्रकृति समानता से प्यार करती है। अति तो सहन कर ही नहीं सकती। चाहे वह सुख की हो, चाहे दुःख की। नहीं क्या!!

Sunday 13 October 2019

शरद का एकाकी शशांक

लखनऊ में नक्षत्रपति अकेले हैं। गांव में होते तो अपने सभासदों और मंत्रियों के साथ दिखते। सप्तर्षि गुरुओं की उपस्थिति से राज्यसभा गंभीर दिखाई पड़ती। नीरव निशीथ के वातावरण की कालिमा और अपनी शुभ्र ज्योत्सना के विरोधाभासी सम्मेल में पूर्णेन्दु अद्भुत चमक रहे होते। अद्भुत आभा होती लेकिन यहाँ आकाश में अकेले हैं। धरती पर रहने वाले लोगों की अँधेरे से लड़ाई ऐसी क्रूरतम और अहंकारी स्थिति में है कि उन्होंने कृत्रिम उजालों से अपने उजले सेनापति की आभा का भी हरण कर लिया है।

गर्दन ऊपर उठाइये तो दिख जाते हैं। पहले उनकी ज्योति का गुरुत्व अपने आकर्षण से हमारी दृष्टि को खींच लेता था। अब वह अकेले पड़ गए हैं। उनकी नक्षत्र रानियां भी आज उनके साथ नहीं। नितांत अकेले। शरद की पुण्य पूर्णिमा पर एकाकी शशांक। क्या दुखी होंगे? निराश? उदास? लगता तो नहीं। या हो भी सकते हैं। याद कर रहे हों अपने संगियों को। थोड़े से मलिन हो गए हैं अपनी कांति में।

शरद के शशि अश्विनीकुमारों के क्वार माह को विदा करते हैं। क्वार के कुमार देव वैद्य हैं। बताया जाता है शरद पूर्णिमा को चंद्रमा से अमृत बरसता है। देव वैद्य सौंपकर जाते होंगे यह जिम्मेदारी। चाँद को ही क्यों? चांद को इसलिए कि उन्हें भरोसा है। विश्वास है कि चन्द्रमा के यहाँ निष्पक्षता है। उनके यहाँ पक्षपात नहीं है इसलिए सुधापात होगा तो सबके यहाँ बराबर होगा।

नक्षत्राधीश की नजर में कोई भेद नहीं। सब बराबर। पूर्ण साम्यवाद है। वह चांदनी के रथ पर सवार धरती पर उतरते हैं तो सबकी चौखट पर जाते हैं। बिना वर्गभेद के। बिना जातिभेद के। बिना धर्मभेद के। अश्विनीकुमारों को इसलिए ही चंद्रमा पर भरोसा हुआ। सुधा वितरण की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई। शरत् चंद्र को।

श्वेतिमा का अकेलेपन से गहरा नाता है। सभी रंगों से अलग रहने की प्रवृत्ति। हम भी तो बचाते हैं श्वेत वस्त्रों को। श्वेत आचरण को। श्वेत पृष्ठों को कि कहीं किसी ग़लत रंग की संगत न मिल जाए। भद्दा हो जाएगा। बहुत चुनकर-सोच समझकर कोई ऐसा रंग चुनते हैं कि श्वेत खिल उठे। इस चयन की प्रक्रिया में सफलता आसान नहीं होती। दीर्घ अवधि अकेलेपन की होती है। एकांत की होती है। श्वेत का समुच्चय भी बहुत विरल है। शरद इसी श्वेत का तो उत्सव है। वर्षा के बाद कृष्ण मेघ के धवल होने का मौसम। नारंगी डंठल वाली शेफाली के खिलने की ऋतु। श्रीकृष्ण के महारास का पर्व।

शरद पूर्णिमा जीवन की पूर्णिमा का प्रतीक प्रतिनिधि है। भारत में छः ऋतुएं होती हैं। वसंत को ऋतुराज कहा गया और वर्षा को रानी। शरद के हिस्से माँ की भूमिका आई। दुलार की, स्नेह की, मखमली ममता की जिम्मेदारी। माँ के स्नेह में, आशीष में अमृत है। अमरता की आशा है। अमरता का वरदान है, जो माँ के हृदय में अपने संतानों के लिए स्वतः प्रस्फुटित होती है। इसलिए शरद माँ है। ऋतु माँ।

वैसे, सिर्फ पूर्णिमा नहीं, समूचा शरद ही एक शुभाकांक्षा है। हमारी प्राचीन संस्कृति का लोकप्रिय, महत्वपूर्ण और विशिष्ट शुभाशीष भी तो है-

!! जीवेम शरदः शतम् !!

【13/10/2019, विराम खंड, लखनऊ】

Tuesday 8 October 2019

मानवता की अंतिम उपलब्धि


विजयादशमी: विजय मानवता की अंतिम उपलब्धि नहीं!

विजय ही जीवन का ध्येय है। विजय ही श्रेष्ठ प्राप्य है। विजय ही सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है। विजय चाहिए, केवल विजय। पराजय कमजोरी और अयोग्यता का प्रतीक है। इसीलिए इतिहास गाथाएं केवल विजेताओं के गौरवगान से भरी पड़ी हैं। पराजित का जीवन कितना भी आदर्शमय क्यों न हो, वह दर्ज नहीं होगा। होगा भी तो विजेता न होने की वजह से आदर्श नहीं होगा। आदर्श केवल राम होंगे। युधिष्ठिर होंगे। अशोक होंगे।

तो क्या विजय को मानवीय सफलता का अंतिम प्रमाणपत्र मान लिया जाए? अगर हां, तो अपने समकालीन तमाम विजय घटनाओं को देखिए और महसूस करिए कि क्या सच में यह जीत मानवीय है? या जीत को ही मानवीयता की प्रशस्ति दी जा सकती है?

समकालीन इतिहास से जांचें
अपने समकालीन इसलिए देखिए क्योंकि प्रमाणिकता और आत्मविवेक के प्रकाश में आप समकालीनता को ही देख सकते हैं। इतिहास की तथ्यात्मक सत्ता को मान लेना आपकी मजबूरी है। वहां आपके पास चयन और परीक्षण का अधिकार नहीं है।

विजय अंतिम प्राप्य नहीं
विजेता होना बुरा नहीं है। विजेता होने के मार्गों पर आपकी आदर्शिता टिकी है। विजेताओं के गौरवगाथाओं में उनका गुणगान ही अपेक्षित है। राम जीते तो उनका हुआ। रावण जीतता तो उसका होता। विजय अंतिम प्राप्य नहीं है। वैसे ही जैसे समुद्र पा लेना नदी की अंतिम उपलब्धि नहीं है।

नदी की उपलब्धि नहीं होती। उसकी उपलब्धियां होती हैं। वह सागर से मिलने नहीं जाती। वह धरती के छोटे-बड़े गड्ढों को, तालों को, तालाबों को तृप्त करने जाती है। फिर अगर सागर से मिल भी जाए तो कोई हर्ज नहीं। लेकिन उसकी विजय समुद्र में मिल जाना नहीं है। किसी का भी अस्तित्व विजय में विलीन होना उसकी अद्वितीयता के लिए ठीक बात तो नहीं।

विजय एक प्रक्रिया
विजय एक पूरी प्रक्रिया का नाम है, परिणाम का नहीं। एक प्रक्रिया जिसमें किसी का अहित करने का आरोप न हो। सामूहिकता को नुकसान पहुंचाने की वारदात न हो। एक स्वच्छ - मानवीय अभियान हो, जिसमें समावेश का विकल्प हो, विखंडन का नहीं। राम के यहां समावेश का विकल्प था। रावण के यहाँ विखण्डन का। रावण ने अपने भ्रातृत्व का महल विखंडित कर दिया। राम ने अपने मैत्री-कुटिया में शरणागत शत्रुपक्षी को भी दीवार बनाकर खड़ा कर लिया। यह समावेश हो विजय की प्रक्रिया में।

तृष्णाशून्य विजय
विजय हथियाने के भाव से मुक्त हो। तृष्णाशून्य। वही, जिसे कृष्ण 'मा कर्मफलहेतुर्भू' कहते हैं। राम को देखिए। रावण के शूर पुत्र का वध लक्ष्मण ने किया, वह श्रेय सुग्रीव के खाते में डालते रहे। राम की विजय में एक प्रक्रिया शामिल है। केवल रावण को मार डालना विजयादशमी का मूल नहीं है। मूल है वह प्रक्रिया जिससे वह विजयादशमी तक पहुंचते हैं। दिनकर कहते हैं,

"नर का भूषण विजय नहीं, केवल चरित्र उज्ज्वल है।
कहती हैं नीतियां, जिसे भी विजय समझ रहे हो,
नापो उसे प्रथम उन सारे प्रकट, गुप्त यत्नों से,
विजय-प्राप्ति-क्रम में उसने जिनका उपयोग किया है"

विजयादशमी केवल एक दिवस नहीं
इसलिए, विजयादशमी को एक दिवस नहीं मानना चाहिए। रावण फूंकने से पहले राम का संघर्ष जीना चाहिए। प्रतीकों के रथ से उतरना चाहिए। विरथ होकर ही लड़ें लेकिन चित्त और कर्म शुद्ध होना चाहिए। रावण भी साधारण नहीं था। फिर रावण को फूंकने का अधिकार साधारण को कैसे हो सकता है?

खैर, असत्य पर सत्य की विजय इस दौर का सबसे लुभावना जुमला है। 'सत्यमेव जयते' एक अचर वाक्यांश। मौजूदा माहौल में जो विजयी है, वही सत्यनिष्ठ होने का दावा कर देता है। इसलिए, सत्य का मानक विजय नहीं हो सकता। सत्य की ही जय नहीं होती। जिसकी जय होती है वही सत्य नहीं होता।

➧ नवभारत टाइम्स ऑनलाइन में

Wednesday 2 October 2019

गांधीत्व को नहीं मरने देना है.


गांधी परिवर्तनशील थे। स्थिर नहीं थे। प्रयोगधर्मी थे। अपने सिद्धांतों का, अपनी मान्यताओं की प्रथम प्रयोगशाला भी वही थे। परिवर्तन के सारे प्रयोग पहले उन्होंने अपने पर आजमाए। फिर लोगों का आह्वान किया। फिर लोगों से कहा कि मैंने तो इसे सफल पाया है, आप भी इसे आजमाकर देखें। वक़्त रहते स्थितियों को भांप लेना, अपने सिद्धांतों से समझौता न करना और किसी भी कीमत पर अपने निर्णयों में स्थगन सहन न करना। आसान नहीं था, गांधी होना। नेहरू काफी करीबी थे। पटेल अनुयायी थे। सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह वैचारिक मतान्तर के बावजूद गांधी के पीछे चलने वाले थे लेकिन इन सभी को झटका लगा जब 1922 में गांधी ने तब के सबसे सफल असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया।

गांधी को प्रिय मानने वाले इन सभी ने उनकी आलोचना की लेकिन गांधी को असर नहीं। उनके लिए यह बात बेहद प्राथमिक और तय थी कि हिंसा नहीं चाहिए। चौरी-चौरा नहीं चाहिए। अहिंसा का रास्ता चुना है तो शुद्ध होकर इस रास्ते से बढ़ेंगे। इसमें मिलावट नहीं चाहिए। ऐसी अडिगता हो तो गांधी बन पाएं। उनके लिए लक्ष्य से ज्यादा जरूरी रहा कि हम किन रास्तों से होकर लक्ष्य तक पहुंचते हैं। वह स्वतंत्रता के अपूर्व सारथी रहे। उनसे बेहतर सारथी नहीं हो सकता था। उस देश का जहाँ अहिंसा की सीख देने वाले दो महामानवों का जन्म हुआ। महावीर और बुद्ध।

गांधी केवल राजनितिक शख्सियत नहीं रहे। संस्कृति-परंपरा और कला के भी गहरे नातेदार थे। अद्भुत रचनात्मक। उनकी जीवनचर्या हमें एक आदर्श देती है कि जीवन इस खांचे में जिया जा सकता है। जीवन ऐसे हो सकता है। सत्यवादी बहुत कटु होता है लेकिन वह इनकी परवाह नहीं करता। वह जानता है कि यह कटुता हलाहल की कटुता नहीं है। यह औषधि की कटुता है। यह वैकल्पिक नहीं हो सकती। यह अनिवार्य है। सत्य तो किसी भी हाल में ज़रूरी है। उन्होंने अपने जीवन को भी सत्य का आईना बना दिया।

स्वतंत्रता संग्राम को जनांदोलन बनाने के लिए चरखा कातने की क्या ज़रूरत। न्यूनतम वस्त्र धारने की क्या आवश्यकता। खादी क्यों जरूरी। अहिंसा क्यों जरूरी। सत्य की क्या आवश्यकता। गांधी इन सभी सवालों के जवाब हैं। उनके इस तौर का इतिहास में कोई सानी नहीं। वह घोर आस्तिक होते हुए भी पुराणों से नक़ल नहीं करते। धर्मग्रंथों में समाधान नहीं ढूंढते। वह वर्तमान परिदृश्य देखते हैं। वह छुआछूत मिटाने के लिए सियासी छुट्टी ले लेते हैं और 'हरिजन' सेवा में लग जाते हैं। उन्हें यह आज़ादी से ज्यादा जरूरी लगता है। छुआछूत भी एक ग़ुलामी थी। इस ग़ुलामी से देश को आज़ाद कराए बिना एक दूसरी आज़ादी की लड़ाई के सिपाही कैसे तैयार किये जा सकते थे।

धार्मिक एकत्व के लिए वह ख़िलाफ़त आंदोलन को समर्थन देते हैं और हिन्दू मुस्लिम के बराबर कन्धों पर जनांदोलन का भार संतुलित करने का प्रयास करते हैं। यह अद्भुत सामाजिक अभिक्रिया थी। इसके परिणाम में आज़ादी लाना किसी एक वर्ग की जिम्मेदारी से आज़ाद हो गई। वह अब सभी धर्मों-जातियों की ज़िम्मेदारी बन गई। वह अब दिल्ली-बम्बई के कुछ ख़ास अभिजन वकील लोगों का कोई अभियान नहीं रह गया। वह जनांदोलन बन गया। जिसमें मशहूर वकील मोतीलाल का बेटा भी उसी ओहदे का सिपाही रहा और मुगलसराय के किसान का बेटा लाल बहादुर भी सेनानीत्व के उसी पायदान पर था। यह गांधी ही कर सकते थे।

अंतिम व्यक्ति का प्रतिबिम्ब उन्होंने अपने जीवन में उतार लिया। कम वस्त्र पहनने शुरू कर दिए। खुद के वस्त्र खुद तैयार करने लगे। वह बताने लगे कि देखो, आज़ादी किनके लिए चाहिए। हम चाहें कि समानता आए तो उसकी पहल खुद करनी होगी। हम चाहते हैं कि देश स्वाभिमानी हो तो अपने स्वाभिमान का हिस्सा भी उसमें जोड़ना होगा। गांधी ने यह सब किया। उनके जीवन में बहुत कुछ ऐसा है जिस पर बात की जा सकती है। जिस पर खुश हुआ जा सकता है। जिस पर गर्व किया जा सकता है। उनकी मृत्यु पर बात करना व्यर्थ है। उसमें कुछ भी विशेष नहीं है। उससे हमें कुछ अच्छी शिक्षा नहीं मिलती। सिर्फ एक धिक्कार मिलता है। एक लानत मिलती है। इसका कोई फायदा नहीं।

गांधी होते तो वह भी यही कहते। वह कहते कि इसे अहिंसा की हार मत मान लेना कि उसका विराम हिंसा से हुआ क्योंकि यह विराम है ही नहीं। अहिंसा का कोई विराम नहीं है। गांधी को 30 जनवरी 1948 नहीं तो कभी तो जाना होता। सच यही है, गांधी का केवल शरीर गया। गांधी नहीं गए। हमें गांधी को ही बचाना है। पीढ़ी दर पीढ़ी। गांधी को ही आगे ले जाना है। गांधी मरे होंगे, गांधीत्व को नहीं मरने देना है।

बनारसः वहीं और उसी तरह

फोटोः शिवांक बनारस की चारों तरफ की सीमाएं गिनाकर अष्टभुजा शुक्ल अपनी एक कविता में कहते हैं कि चाहे जिस तरफ से आओ, लहरतारा, मडुआडीह, इलाहाबा...