Wednesday 2 October 2019

गांधीत्व को नहीं मरने देना है.


गांधी परिवर्तनशील थे। स्थिर नहीं थे। प्रयोगधर्मी थे। अपने सिद्धांतों का, अपनी मान्यताओं की प्रथम प्रयोगशाला भी वही थे। परिवर्तन के सारे प्रयोग पहले उन्होंने अपने पर आजमाए। फिर लोगों का आह्वान किया। फिर लोगों से कहा कि मैंने तो इसे सफल पाया है, आप भी इसे आजमाकर देखें। वक़्त रहते स्थितियों को भांप लेना, अपने सिद्धांतों से समझौता न करना और किसी भी कीमत पर अपने निर्णयों में स्थगन सहन न करना। आसान नहीं था, गांधी होना। नेहरू काफी करीबी थे। पटेल अनुयायी थे। सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह वैचारिक मतान्तर के बावजूद गांधी के पीछे चलने वाले थे लेकिन इन सभी को झटका लगा जब 1922 में गांधी ने तब के सबसे सफल असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया।

गांधी को प्रिय मानने वाले इन सभी ने उनकी आलोचना की लेकिन गांधी को असर नहीं। उनके लिए यह बात बेहद प्राथमिक और तय थी कि हिंसा नहीं चाहिए। चौरी-चौरा नहीं चाहिए। अहिंसा का रास्ता चुना है तो शुद्ध होकर इस रास्ते से बढ़ेंगे। इसमें मिलावट नहीं चाहिए। ऐसी अडिगता हो तो गांधी बन पाएं। उनके लिए लक्ष्य से ज्यादा जरूरी रहा कि हम किन रास्तों से होकर लक्ष्य तक पहुंचते हैं। वह स्वतंत्रता के अपूर्व सारथी रहे। उनसे बेहतर सारथी नहीं हो सकता था। उस देश का जहाँ अहिंसा की सीख देने वाले दो महामानवों का जन्म हुआ। महावीर और बुद्ध।

गांधी केवल राजनितिक शख्सियत नहीं रहे। संस्कृति-परंपरा और कला के भी गहरे नातेदार थे। अद्भुत रचनात्मक। उनकी जीवनचर्या हमें एक आदर्श देती है कि जीवन इस खांचे में जिया जा सकता है। जीवन ऐसे हो सकता है। सत्यवादी बहुत कटु होता है लेकिन वह इनकी परवाह नहीं करता। वह जानता है कि यह कटुता हलाहल की कटुता नहीं है। यह औषधि की कटुता है। यह वैकल्पिक नहीं हो सकती। यह अनिवार्य है। सत्य तो किसी भी हाल में ज़रूरी है। उन्होंने अपने जीवन को भी सत्य का आईना बना दिया।

स्वतंत्रता संग्राम को जनांदोलन बनाने के लिए चरखा कातने की क्या ज़रूरत। न्यूनतम वस्त्र धारने की क्या आवश्यकता। खादी क्यों जरूरी। अहिंसा क्यों जरूरी। सत्य की क्या आवश्यकता। गांधी इन सभी सवालों के जवाब हैं। उनके इस तौर का इतिहास में कोई सानी नहीं। वह घोर आस्तिक होते हुए भी पुराणों से नक़ल नहीं करते। धर्मग्रंथों में समाधान नहीं ढूंढते। वह वर्तमान परिदृश्य देखते हैं। वह छुआछूत मिटाने के लिए सियासी छुट्टी ले लेते हैं और 'हरिजन' सेवा में लग जाते हैं। उन्हें यह आज़ादी से ज्यादा जरूरी लगता है। छुआछूत भी एक ग़ुलामी थी। इस ग़ुलामी से देश को आज़ाद कराए बिना एक दूसरी आज़ादी की लड़ाई के सिपाही कैसे तैयार किये जा सकते थे।

धार्मिक एकत्व के लिए वह ख़िलाफ़त आंदोलन को समर्थन देते हैं और हिन्दू मुस्लिम के बराबर कन्धों पर जनांदोलन का भार संतुलित करने का प्रयास करते हैं। यह अद्भुत सामाजिक अभिक्रिया थी। इसके परिणाम में आज़ादी लाना किसी एक वर्ग की जिम्मेदारी से आज़ाद हो गई। वह अब सभी धर्मों-जातियों की ज़िम्मेदारी बन गई। वह अब दिल्ली-बम्बई के कुछ ख़ास अभिजन वकील लोगों का कोई अभियान नहीं रह गया। वह जनांदोलन बन गया। जिसमें मशहूर वकील मोतीलाल का बेटा भी उसी ओहदे का सिपाही रहा और मुगलसराय के किसान का बेटा लाल बहादुर भी सेनानीत्व के उसी पायदान पर था। यह गांधी ही कर सकते थे।

अंतिम व्यक्ति का प्रतिबिम्ब उन्होंने अपने जीवन में उतार लिया। कम वस्त्र पहनने शुरू कर दिए। खुद के वस्त्र खुद तैयार करने लगे। वह बताने लगे कि देखो, आज़ादी किनके लिए चाहिए। हम चाहें कि समानता आए तो उसकी पहल खुद करनी होगी। हम चाहते हैं कि देश स्वाभिमानी हो तो अपने स्वाभिमान का हिस्सा भी उसमें जोड़ना होगा। गांधी ने यह सब किया। उनके जीवन में बहुत कुछ ऐसा है जिस पर बात की जा सकती है। जिस पर खुश हुआ जा सकता है। जिस पर गर्व किया जा सकता है। उनकी मृत्यु पर बात करना व्यर्थ है। उसमें कुछ भी विशेष नहीं है। उससे हमें कुछ अच्छी शिक्षा नहीं मिलती। सिर्फ एक धिक्कार मिलता है। एक लानत मिलती है। इसका कोई फायदा नहीं।

गांधी होते तो वह भी यही कहते। वह कहते कि इसे अहिंसा की हार मत मान लेना कि उसका विराम हिंसा से हुआ क्योंकि यह विराम है ही नहीं। अहिंसा का कोई विराम नहीं है। गांधी को 30 जनवरी 1948 नहीं तो कभी तो जाना होता। सच यही है, गांधी का केवल शरीर गया। गांधी नहीं गए। हमें गांधी को ही बचाना है। पीढ़ी दर पीढ़ी। गांधी को ही आगे ले जाना है। गांधी मरे होंगे, गांधीत्व को नहीं मरने देना है।

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