Tuesday 8 October 2019

मानवता की अंतिम उपलब्धि


विजयादशमी: विजय मानवता की अंतिम उपलब्धि नहीं!

विजय ही जीवन का ध्येय है। विजय ही श्रेष्ठ प्राप्य है। विजय ही सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है। विजय चाहिए, केवल विजय। पराजय कमजोरी और अयोग्यता का प्रतीक है। इसीलिए इतिहास गाथाएं केवल विजेताओं के गौरवगान से भरी पड़ी हैं। पराजित का जीवन कितना भी आदर्शमय क्यों न हो, वह दर्ज नहीं होगा। होगा भी तो विजेता न होने की वजह से आदर्श नहीं होगा। आदर्श केवल राम होंगे। युधिष्ठिर होंगे। अशोक होंगे।

तो क्या विजय को मानवीय सफलता का अंतिम प्रमाणपत्र मान लिया जाए? अगर हां, तो अपने समकालीन तमाम विजय घटनाओं को देखिए और महसूस करिए कि क्या सच में यह जीत मानवीय है? या जीत को ही मानवीयता की प्रशस्ति दी जा सकती है?

समकालीन इतिहास से जांचें
अपने समकालीन इसलिए देखिए क्योंकि प्रमाणिकता और आत्मविवेक के प्रकाश में आप समकालीनता को ही देख सकते हैं। इतिहास की तथ्यात्मक सत्ता को मान लेना आपकी मजबूरी है। वहां आपके पास चयन और परीक्षण का अधिकार नहीं है।

विजय अंतिम प्राप्य नहीं
विजेता होना बुरा नहीं है। विजेता होने के मार्गों पर आपकी आदर्शिता टिकी है। विजेताओं के गौरवगाथाओं में उनका गुणगान ही अपेक्षित है। राम जीते तो उनका हुआ। रावण जीतता तो उसका होता। विजय अंतिम प्राप्य नहीं है। वैसे ही जैसे समुद्र पा लेना नदी की अंतिम उपलब्धि नहीं है।

नदी की उपलब्धि नहीं होती। उसकी उपलब्धियां होती हैं। वह सागर से मिलने नहीं जाती। वह धरती के छोटे-बड़े गड्ढों को, तालों को, तालाबों को तृप्त करने जाती है। फिर अगर सागर से मिल भी जाए तो कोई हर्ज नहीं। लेकिन उसकी विजय समुद्र में मिल जाना नहीं है। किसी का भी अस्तित्व विजय में विलीन होना उसकी अद्वितीयता के लिए ठीक बात तो नहीं।

विजय एक प्रक्रिया
विजय एक पूरी प्रक्रिया का नाम है, परिणाम का नहीं। एक प्रक्रिया जिसमें किसी का अहित करने का आरोप न हो। सामूहिकता को नुकसान पहुंचाने की वारदात न हो। एक स्वच्छ - मानवीय अभियान हो, जिसमें समावेश का विकल्प हो, विखंडन का नहीं। राम के यहां समावेश का विकल्प था। रावण के यहाँ विखण्डन का। रावण ने अपने भ्रातृत्व का महल विखंडित कर दिया। राम ने अपने मैत्री-कुटिया में शरणागत शत्रुपक्षी को भी दीवार बनाकर खड़ा कर लिया। यह समावेश हो विजय की प्रक्रिया में।

तृष्णाशून्य विजय
विजय हथियाने के भाव से मुक्त हो। तृष्णाशून्य। वही, जिसे कृष्ण 'मा कर्मफलहेतुर्भू' कहते हैं। राम को देखिए। रावण के शूर पुत्र का वध लक्ष्मण ने किया, वह श्रेय सुग्रीव के खाते में डालते रहे। राम की विजय में एक प्रक्रिया शामिल है। केवल रावण को मार डालना विजयादशमी का मूल नहीं है। मूल है वह प्रक्रिया जिससे वह विजयादशमी तक पहुंचते हैं। दिनकर कहते हैं,

"नर का भूषण विजय नहीं, केवल चरित्र उज्ज्वल है।
कहती हैं नीतियां, जिसे भी विजय समझ रहे हो,
नापो उसे प्रथम उन सारे प्रकट, गुप्त यत्नों से,
विजय-प्राप्ति-क्रम में उसने जिनका उपयोग किया है"

विजयादशमी केवल एक दिवस नहीं
इसलिए, विजयादशमी को एक दिवस नहीं मानना चाहिए। रावण फूंकने से पहले राम का संघर्ष जीना चाहिए। प्रतीकों के रथ से उतरना चाहिए। विरथ होकर ही लड़ें लेकिन चित्त और कर्म शुद्ध होना चाहिए। रावण भी साधारण नहीं था। फिर रावण को फूंकने का अधिकार साधारण को कैसे हो सकता है?

खैर, असत्य पर सत्य की विजय इस दौर का सबसे लुभावना जुमला है। 'सत्यमेव जयते' एक अचर वाक्यांश। मौजूदा माहौल में जो विजयी है, वही सत्यनिष्ठ होने का दावा कर देता है। इसलिए, सत्य का मानक विजय नहीं हो सकता। सत्य की ही जय नहीं होती। जिसकी जय होती है वही सत्य नहीं होता।

➧ नवभारत टाइम्स ऑनलाइन में

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