Saturday 19 October 2019

दुःख का 'दुख'

किसी ने कहा दुखी मत रहो। दुखी रहने से कुछ नहीं मिलने वाला है। जब मन दुखी हो तब मुस्कुराने की कोशिश करो। हंसने की कोशिश करो। सब ठीक हो जाएगा। सब सही हो जाएगा। मुझे इसी बात पर अटक जाना पड़ा। ठीक हो जाना क्या होता होगा! सही हो जाना क्या होता होगा! सुखी होने से क्या मिल जाना है जो दुखी होने पर नहीं मिलता! या दुखी होकर क्या घट जाना है जो सुखी होने पर बढ़ जाता! जीवन में समय की मात्रा तो उतनी ही होती है। सुख में भी। दुःख में भी।

यह भी यकीन मानिए, सुख-दुःख में आपके अस्तित्व से जुड़ा पर्यावरण भी रत्ती भर कम-ज्यादा नहीं होता। सब उतना ही होता है, जितना दुःख में। फिर अंतर क्या है दोनों में? दोनों के प्रति यह विभेद किसलिए है? दोनों के प्रति विपरीत बर्ताव क्यों किया जाता है? दोनों का स्वाद विपरीत प्रकृति का क्यों बताया जाता है? यह सवाल तो उठता है। हमारे न चाहने पर भी यह सवाल बना तो रहता है। एक के साथ सद्व्यवहार। दुसरे के साथ दुर्व्यवहार। क्यों?

मैं व्यक्तिगत रूप से मद्धमत्व का अनुगामी हूँ। बीच का रास्ता। न तो बहुत तेज और न बहुत धीरे। संतुलित स्थिति। सुख-दुःख का देखें तो गति की अनुभूति को प्रभावित करने में इनकी भूमिका लगती है। हालांकि, यह सिर्फ अनुभूति है। वास्तविक नहीं। यथार्थ में सब कुछ अपनी मात्रा में निश्चित है लेकिन सुख में अक्सर यह आभास होता है कि वक़्त जल्दी बीत गया। दुःख में लगता है कि समय बीतता क्यों नहीं? जबकि, समय न तो रुकता है और न ही तेज होता है। वह अपनी गति में हैं। हमारे देखने-महसूस करने की सापेक्ष स्थिति में उसकी चाल बदलती रहती है।

ऐसे देखें तो दुःख की जीवन में बेहतरी सिद्ध हो जाएगी। हम सभी चाहते हैं कि वक़्त थोड़ा धीरे चले। बीत न जाए एक झटके में। आराम-आराम से चले ताकि जीवन भी लंबा हो। लंबे जीवन की कामना। अच्छा! जीवन भी क्या लंबा होता होगा! अनुभूति ही है जो कुछ है। दुःख में अगर वक़्त बीतता ही नहीं है तो जाहिर है कि अनुभूति के धरातल पर उसकी गति धीमी हो गई है। गति धीमी होने का मतलब है कि जीवन-अनुभूति भी थोड़ी लंबी हो गई। ऐसे में दुःख तो बेहतर हुआ न! लोक मान्यता में फिर तो दुःख का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन हम करते हैं दुःख से घृणा। न जाने क्यों!

किसी ने कहा कि दुःख पर हंसी का आरोप कर दीजिए। दुखी होने पर मुस्कुराइए। दुःख दूर होता जाएगा। मैं सोचता हूँ क्यों? दुःख के साथ यह सौतेला व्यवहार क्यों! दुःख से यह दुर्व्यवहार क्यों? दुःख से क्या दुश्मनी है। उदासी से क्या शत्रुता है कि इसे किसी भी तरह से दूर रखना है! क्या सिर्फ इतना कि इससे चेहरा विकृत हो जाता है। आप सुन्दर नहीं दिखते। यह तो कोई समस्या नहीं हुई। अगर यह आपको समस्या लगती है तो यह नस्लभेद का मामला है। सुंदर-असुंदर होना चेहरे पर कतई निर्भर नहीं करता। त्वचा पर निर्भर नहीं करता। वह व्यवहार, आचरण, समझदारी और ऐसे तमाम सद्गुणों का सम्मेल है, जिससे सुंदरता बनती है।

दूसरा तर्क है कि दुःख में आपका बर्ताव तीखा हो जाता है। आप लोगों से दुर्व्यवहार करने लगते हैं। मेरा मानना है कि यह दुर्व्यवहार आप तब करने लगते हैं जब दुःख के साथ आप दुर्व्यवहार करते हैं। दुर्व्यवहार से दुर्व्यवहार ही जन्म लेता है। वहां से सद्व्यवहार कैसे उगाएंगे? दुःख को बरतना आना चाहिए। वह जीवन-तत्त्वों की अनुभूतिक शाखाओं में से एक है। उस पर किसी का भी आरोप क्यों करना! उसे क्यों नहीं जीना। जबकि दुःख में आप अपने अन्तस् में उतरते हैं। गहरे होते हैं। सुख में उथले रहते हैं। दुःख में वैचारिक रूप से गहरे होते जाते हैं।

दुःख की अपनी स्वतंत्र सत्ता है। हम सुख में ऐसा नहीं कहते कि थोड़ा-सा रो लो तो सुख दूर हो जाएगा, तो दुःख में क्यों कहें कि हंसो तो दुःख दूर हो जाएगा। दो सहज मानवीय गुणों में यह विपरीत और अनुचित व्यवहार क्यों? यह आत्मिक असमानता और भेदभाव का मामला है। जब आत्मा में साम्यवाद आएगा तब दुःख भी अपने अधिकार मांगेंगे और कहेंगे कि हमें समूल मिटाने का यह षड्यंत्र क्यों है? यह होगा अगर हम साम्यवाद चाहते हों लेकिन हमारे अंतर तक में भेदभाव के बीज घुसे हुए हैं। हम समानता के सबसे बड़े विरोधी हैं और जब तक हम यह विरोध रखेंगे तब तक हम दुःख से सही बर्ताव नहीं करेंगे और इससे परेशानी महसूस करते रहेंगे।

किसी हिंदी फिल्म में गीत है- 'हंसते-हंसते रोना सीखो, रोते-रोते हंसना।' कितना वैज्ञानिक है यह गीत और मानवीय भी। इसमें संकेत है कि यह दोनों ही गुण मानवीय हैं। किसी से भी बैर क्यों। अगर हंसना जानते हो तो रोना भी सीख लो। रोते हो तो हंसना भी आना चाहिए। यह संतुलन के लिए जरुरी है। हम यह क्यों भूलें कि भाषाओं और शब्दों की दुनिया में हमारा पहला वाक्य ही रुदन था। तो जो पहला है वह तो हमारे लिए विशेष है न! जीवन में हर प्रथम हमारे लिए विशेष होता है। फिर रुदन के प्रति हम दूसरे किस्म का बर्ताव क्यों करें?

दुःख भी सुख की तरह अनिवार्य और जरूरी हैं। उनकी उपेक्षा करेंगे तो वह आपके प्रतिकूल होते जाएंगे। दुःख का, उदासी का भी उत्सव हो सकता है। उन्हें सहज रूप से अपने जीवन में शामिल किया जा सकता है। वह हमारे सबसे सख्त और शिक्षित गुरु होते हैं। दुःख में हमें जो ज्ञान मिलता है, जो सीख मिलती है, वह सुख में नहीं मिल सकता। दुःख में जो हमारी दृष्टि हो सकती है वह सुख में नहीं हो सकती। दुःख में जो हम होते हैं वह सुख में नहीं होते। एक बात और, मैं सुख की महत्ता को कम करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। मैं दुःख की पीड़ा के पक्ष में खड़ा हूँ जिसे हमेशा दुत्कार मिलती है। मैं उसके महत्व को रेखांकित करना चाहता हूँ कि वह सुख का ही सहोदर है। उनके साथ भेदभाव न हो। उसे भी सहज अपनाया जाए। वह आपको बुरा प्रभावित नहीं करेगा।

हां, अतिरेक किसी भी चीज का सही परिणाम नहीं देता। अत्यधिक दुखी होने पर हंसना ही चाहिए। साथ ही, अत्यधिक सुखी होने पर थोड़ा रो लेना चाहिए। प्रकृति समानता से प्यार करती है। अति तो सहन कर ही नहीं सकती। चाहे वह सुख की हो, चाहे दुःख की। नहीं क्या!!

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